रविवार, 27 दिसंबर 2015

माकपा के पार्टी प्लेनम के सामने प्रमुख चुनौतियां

         आज से कोलकाता में माकपा पार्टी प्लेनम आरंभ होरहा है। यह प्लेनम इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसके ज़रिए माकपा अपने विकास का मार्ग तलाश करने का प्रयास करेगी। खासकर पश्चिम बंगाल में पुन: सत्ता में वापसी हो यह चिंता भी है। माकपा को यदि पश्चिम बंगाल की जनता का विश्वास जीतना है तो उसे निम्न सवालों के दवाब खोजने होंगे-
१. पश्चिम बंगाल की समूची शिक्षा व्यवस्था को किन नीतियों और फ़ैसलों ने पतन के स्तर पर पहुँचाया? समूची शिक्षा का ढाँचा कैसे बर्बाद हुआ? कौन लोग उसके लिए ज़िम्मेदार हैं? शिक्षा का अपराधीकरण कैसे हुआ ?
२. पार्टी संगठन और जनसंगठनों के अपराधीकरण के लिए किस तरह की नीतियाँ और कौन से नेता ज़िम्मेदार हैं?
३.समूचे पश्चिम बंगाल में वामशासन के अंतिम १० साल आम जनता के लिए बेहद तकलीफ़देह रहे हैं,सामाजिकतौर पर माकपा के नेता और कार्यकर्ताओं ने आम जनता के जीवन में जिस तरह हस्तक्षेप किया उसके कारण राजनीति और समाज का अपराधीकरण हुआ। आम जनता को अकल्पनीय मानसिक- सामाजिक यातनाएँ सहन करनी पड़ी हैं, इस समूची प्रक्रिया के लिए जो लोग ज़िम्मेदार रहे हैं वे आजतक पार्टी में हैं जबकि उनको दल से निकालना चाहिए, इस तरह के व्यापक अपराधीकरण के मूल कारणों को रेखांकित किया जाना चाहिए,साथ ही अपराधी मनोदशा के पार्टी सदस्यों और नेताओं को पार्टी ने निकालना चाहिए।
४.पार्टी की सांगठनिक प्रणाली को लोकतांत्रिक बनाया जाय और सदस्यों को पहल करके काम करने देने की नीति बनायी जाय।
५. पार्टी यह तय करे कि वह अपराधी तत्वों से दूर रहेगी और आम जनता से अपने वामशासन में हुई गलतियों के लिए घर घर जाकर माफ़ी माँगेगी,आम जनता का विश्वास जीतने के लिए यह ज़रूरी है।
उपरोक्त पाँचों समस्याओं पर समग्रता में कार्रवाई की योजना लेकर पार्टी सामने आए तो आम जनता से जुड़ने में मदद मिल सकती है।
  उल्लेखनीय है माकपा के दस लाख से ज्यादा सदस्य हैं।90हजार से ज्यादा ब्रांच-प्राथमिक इकाईयां हैं।तकरीबन 10हजार से ज्यादा होलटाइमर हैं।इतने बड़े नेटवर्क के बावजूद यदि माकपा में ठहराव और संकट है तो उसकी जड़ें कहीं गहरी होंगी जिनको प्लेनम को खोजना चाहिए। सामयिक संकट का प्रधान कारण है पार्टी सदस्यों का सामंती मनोभाव,सामंती आदतेंऔर आत्मसंघर्ष करके बदल न पाने की स्थिति।इसके अलावा पूंजीवाद और पूंजीपतिवर्ग के प्रति अंधघृणा।सामंतीबोध और अंध- पूंजीवादी घृणा के आधार पर सांगठनिक विकास संभव नहीं है।
लोकतंत्र के अनुरूप जिस उदार मनोदशा को विकसित होना चाहिए वह मनोदशा पार्टी अपने सदस्यों में विकसित ही नहीं कर पायी है।उदारवादी मूल्यों,संस्कारों और क्रांतिकारी मूल्यों -संस्कारों में अंतर्क्रिया का एकसिरे से अभाव है।इसके विपरीत पार्टी में गुटबाजी का,खासकर पश्चिम बंगाल में बोलवाला है।जिन नेताओं की इमेज खराब है या फिर जो एकसिरे से अप्रासंगिक हो चुके हैं,उनसे पार्टी अपने को मुक्त नहीं कर पायी,उनके साथ पार्टी ने सामंती वफादारों जैसा संबंध बनाया हुआ है।सामंती वफादारी के आधार पर क्रांतिकारी पार्टी का विकास संभव ही नहीं है।यही सामंतीभावबोध है जिसके कारण उत्तरभारत में पार्टी अपना विकास नहीं करपायी है।पार्टी के अंदर सामंती भावबोध,सामंती वफादारी आदि के खिलाफ संघर्ष का माकपा अभी तक कोई ब्लूप्रिंट तैयार नहीं करपायी है।यही वजह है नेकनीयत के बावजूद पार्टी अपना विकास नहीं कर पा रही है।
आज के राजनीतिक हालात में भारत के राजनीतिक दलों में तुलनात्मक तौर पर माकपा सबसे बेहतरीन राजनीतिक दल है,इसके पास बेहतरीन ईमानदार केन्द्रीय नेतृत्व है।निचले स्तर पर बहुत बड़ी संख्या में समर्पित कार्यकर्ता हैं। नीतियों के मामले में यह बेजोड़ है। आज माकपा जिस राजनीतिक संकट और ठहराव में फंसी है उसमें से यह पार्टी देर-सबेर निकलेगी,इसका प्रधान कारण है भारत की परिस्थितियां।
भारत की मौजूदा परिस्थितियों में माकपा की भूमिका बढ़ गयी है,जरुरत इस बात की है कि नेता-कार्यकर्ता वैचारिक पहल करें,नए नजरिए को अपनाएं,पुराने संकीर्णतावादी रूझानो से संगठन को मुक्त करें और नए सामाजिक यथार्थ के अनुरुप पार्टी का सांगठनिक ढाँचा बनाएं।
पार्टी का मौजूदा सांगठनिक ढाँचा एकसिरे से अप्रासंगिक हो चुका है,यह आम जनता के सवालों पर त्वरित कार्रवाई करने में असमर्थ है।आज कम्युनिस्ट पार्टी सदस्यों को रीयल टाइम में फैसले लेने,राय व्यक्त करने और आम लोगों को सार्वजनिक संचार माध्यमों के मंचों पर लोकतांत्रिक आचरण करने,लोकतांत्रिक नजरिए से पार्टी की राय रखने या निजी तौर पर हस्तक्षेप करने की आदत डालनी होगी।
कम्युनिस्ट पार्टी को रीयल टाइम में रेस्पांस देने की शिक्षा अपने सदस्यों और नेताओं को देने की व्यवस्था करनी चाहिए।यह दौर राजनीतिक पहल और राजनीतिक संचार का दौर है।इस दौर में मार्क्सवाद के विकास की अनंत संभावनाएं हैं।खासकर युवाओं के बीच सक्रिय रहने की जरुरत है।
युवाओं को जोड़ने का सोशलमीडिया सबसे महत्वपूर्ण माध्यम है।इस माध्यम में पार्टीलाइन की नहीं लोकतांत्रिक संवाद और लोकतांत्रिक नजरिए,लोकतांत्रिक वेबसाइट या लोकतांत्रिक साइबर समूहों में गोलबंद करने की जरुरत है। साइबर संचार के जरिए लोकतांत्रिक और मार्क्सवादी विचार सामग्री के नए-नए साइबर मंचों के निर्माण की जरुरत है।इस दिशा में माकपा को व्यापक पहल करने की जरूरत है।
माकपा के सांगठनिक ढाँचे के सामने सबसे बड़ी चुनौती वैचारिक है,इस समय जो सदस्य हैं उनमें अधिकांश को मार्क्सवाद का क ख ग तक नहीं आता।यह स्थिति जितनी जल्द खत्म हो उतना ही अच्छा है। भारत में सामाजिक परिवर्तन के लिए अच्छे पढाकू और अच्छे लड़ाकू कॉमरेडों की जरुरत है। लट्ठ कॉमरेडों की नहीं।विगत दो दशकों में पश्चिम बंगाल में हमने कॉमरेडों के ज्ञान के स्तर में जो क्षय देखा है वह अकल्पनीय है। अधिकांश के लिए माकपा एक कैरियर संगठन रहा है।माकपा और उसके जनसंगठन कैरियर प्रमोशन स्कीम का अंग नहीं है। राजनीतिकचेतना की बजाय कैरियरचेतना पर कॉमरेडों ने काम किया है और उन सभी को पार्टी नेतृत्व ने पाला-पोसा है जो कैरियर के रुप में पार्टी में शामिल हुए,सरकारीतंत्र की मलाई खाई,ऐसे ही कॉमरेडों ने संगठन को सबसे ज्यादा क्षतिग्रस्त किया है। इसे लेनिन की भाषा में राजनीतिक अवसरवाद कहते हैं। राजनीतिक अवसरवाद किसी भी कम्युनिस्टपार्टी के लिए जहर है।
देश में जिस तरह का राजनीतिक संकट और नीतिहीनता का माहौल है उसमें वामपंथी ताकतों को नए नीतिगत परिप्रेक्ष्य और पद्धतियों के साथ आम जनता और लोकतांत्रिक राजनीतिक ताकतों को एकजुट करने के बारे में सोचना होगा।इसमें दो स्तरों पर कदम उठाने के बारे में पार्टी प्लेनम निर्णय ले,पहला, पूर्व माकपा सदस्यों और हमदर्दों को कैसे वापस साथ लिया जाए और उनके साथ निचले स्तर पर संपर्क-संबंध बनाने के लिए प्लेनम सीधे सभी इकाईयों को निर्देश दे,जो पार्टी जनपार्टी बनना चाहती है वह अपने बिछुड़े या त्यागे या भागे हुए सदस्यों हमदर्दों को उसे हर हालमें अपने साथ जोड़ना चाहिए।यह काम आत्मालोचना और विनम्रता के साथ किया जाना चाहिए। पार्टी में आए अहंकार को हर स्तर पर सीधे चुनौती दी जानी चाहिए। माकपा सदस्यों में अहंकार क्यों है और उससे कैसे मुक्ति पायी जाए,यह बड़ी चुनौती प्लेनम के सामने है। अहंकार तो कम्युनिस्ट को अमानुष बना देता है।

वामशासन के दौरान सरकार और पार्टीतंत्र का अंतर खत्म हो गया था।पार्टी मेम्बर समूचे राज्य तंत्र को उसके नियमों से चलाने की बजाय पार्टी नियमों और पार्टी आदेशों के जरिए चलाते रहे इसके कारण आम जनता के हितों को गंभीर नुकसान पहुँचा।इसने प्रत्येक स्तर पर पेशेवर कौशल और स्वायत्तता को क्षतिग्रस्त किया।इसके कारण विभिन्न स्तरों पर दलीय आधार पर भेदभाव हुआ।ये वे मसले हैं जिनका हल प्लेनम को खोजना चाहिए।

गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

शब्दों के कातिल

इन दिनों मीडिया वाले और भाजपावाले बहुत नाराज हैं कि केजरीवाल ने पीएम मोदी को "कॉवर्ड" और "साइकोपैथ" क्यों कहा,इसके लिए वह माफी मांगे,केजरीवाल माफी मांगे या न मांगे यह उनका निजी फैसला होगा,वे जो चाहें करें,लेकिन हमें इससे बड़े सवाल पर विचार करना चाहिए कि शब्दों के दुरूपयोग या भ्रष्टीकरण पर ये टीवीवाले या भाजपावाले पहले कभी इस कदर आक्रामक नजर क्यों नहीं आए ? क्या किसी शब्द का पहलीबार गलत इस्तेमाल हुआ है या पहलीबार किसी ने किसी को गाली दी है ?
जरा अपने सामने टीवी स्क्रीन को गौर से देखें तो पता चलेगा कि टीवीवाले और राजनेता शब्दों के सबसे बड़े कातिल हैं।ये बड़ी ही बेशर्मी के साथ रोज शब्दों को भ्रष्ट कर कर रहे हैं लेकिन हमें कभी गुस्सा नहीं आता,हम क्यों इतने अचेत हैं या नियंत्रित सचेत हैं कि अचानक कॉवर्ड और साइकोपैथ पर बिफरे घूम रहे हैं ? हमें क्या यहां लिस्ट बताने की जरुरत है कि राजनेताओं और मीडिया,खासकर विज्ञापनों ने किस तरह शब्दों की हत्या की है,किन -किन शब्दों की हत्या की है,उनका अर्थ नष्ट किया है,विकृत किया है । जब शब्द मर रहे हों या उनका भ्रष्टीकरण हो रहा हो तो हमें गुस्सा क्यों नहीं आता ? हमें मोदी या किसी नेता के द्वारा प्रयुक्त होने या गाली या असभ्यभाषिक प्रयोग पर ही गुस्सा क्यों आता है ? क्या नेता को हमने शब्दों का मालिक बना दिया है ?क्या नेता शब्दों के प्रयोग,भ्रष्टीकरण आदि को तय करेंगे ? यदि ऐसा है तो यह बेहद खतरनाक स्थिति है। किसी व्यक्ति की महानता इस बात से तय होती है कि उसने प्रचलित शब्दों को किस तरह सकारात्मक अर्थ दिए हैं,किस तरह नए सामाजिक समूहों से शब्दों और अवधारणाओं को जोड़ा है। कबीर-तुलसी से लेकर दादू तक, गांधी से लेकर आंबेडकर तक,राजा राममोहन राय से लेकर रवीन्द्रनाथ टैगोर तक,प्रेमचंद से लेकर भीष्म साहनी तक ,आरएसएस से लेकर मुस्लिम लीग तक,कांग्रेस से लेकर कम्युनिस्टों तक सभी की परीक्षा शब्दों को अर्थवान और अर्थहीन बनाने के परिप्रेक्ष्य में करें तो संभवतःहमें यह एहसास होगा कि शब्दों के अर्थ का भ्रष्टीकरण कितना बड़ा अपराध है,यह भ्रष्टीकरण हम रोज अपने आसपास देखते हैं,टीवी विज्ञापनों में देखते हैं,लेकिन हमें गुस्सा नहीं आता,उलटे हमें शब्दों के भ्रष्टीकरण में मजा आने लगा है। आरएसएस जैसे संगठन का सबसे बड़ा अपराध यह है कि उसने धर्मनिरपेक्षता शब्द को नष्ट कर दिया है।उसने बहुत बड़ी कुर्बानियों से निर्मित धर्मनिरपेक्षता के अर्थ को विकृत करके समूचे देश में धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ घृणा भर दी,इस शब्द को अछूत बना दिया। किसी शब्द के अर्थ के विध्वंस का इतना बड़ा हादसा हमारी आँखों के सामने रोज होता रहा और हम चुप रहे,हमारा मीडिया चुप रहा,उलटे आरएसएस वालों को बढ़-चढ़कर धर्मनिरपेक्षता पर हमले करने का उसने मौका दिया,व्यापक कवरेज दिया,धर्मनिरपेक्षता क्या है उसका अर्थ क्या है उसके बारे में मीडिया ने कभी आरएसएस को गलत अर्थ में इसका प्रचार करने से नहीं रोका,हमसे पूछें तो शब्दों के कातिलों के प्रति हमें बेरहम होना चाहिए।खासकर उन नेताओं और संगठनों के प्रति बेरहम होना चाहिए जो शब्द के साथ जुड़े अर्थ को भ्रष्ट करते हैं,गलत अर्थ में उसका प्रचार करते हैं।आरएसएस ने शब्दों के लठैत की भूमिका अख्तियार कर ली है,वे बोलने पर हमला करने लगते हैं,इस तरहकी असहिष्णुता तो पहले कभी नहीं देखी। आरएसएस वालों और भाजपाईयों को गालियों से यदि चिढ़ है तो उनको अपने साइबर लठैतों को सबसे पहले रोकना चाहिए जो आए-दिन असभ्यभाषा,गाली-गलौज की भाषा का फेसबुक पर इस्तेमाल करते हैं। यदि सर्वेे किया जाए तो पाएंगे कि साइबर जगत में गाली की गंगा के वे भगीरथ हैं । गालियां कोई भी दे,गलत है,राजनीति में सही नाम से प्रवृत्तियों और राजनीतिक केटेगरी में ही नेता या दल पर राय दी जानी चाहिए। लेकिन जिस समय भाषा का भ्रष्टीकरण हो रहा हो,लोकतंत्र पर हमले हो रहे हों,उस समय कईबार दुश्मन की नींदहराम करने के लिए गालियां निकलती हैं,असल में गालियां सोने नहीं देंतीं,वे गोली से भी ज्यादी पैनी होती हैं,सीधे हृदय तक मार करती हैं।बशर्ते सही समय पर दी जाय।हम भाजपा की मुश्किल समझ सकते हैं कि उनको जब कोई गाली देता है तो चुभती है,लेकिन वे जब किसी अन्य को गाली देते हैं तो परपीड़क आनंद लेते हैं। परपीड़क आनंद गाली का मूलभाव है ,जो भी दे ,वह आनंद की सृष्टि नहीं करती,पीड़ा देती है। गाली न दें तो बेहतर हो,लेकिन हमारे नेता अभी सभ्य नहीं बने हैं,वे असभ्य ही हैं अतःगाहे-बगाहे अपनी असभ्यता को वे गाली के जरिए व्यक्त करते हैं।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

औरत पर संदेह नहीं विश्वास करो


यूपी में कमाल हो गया,औरतों ने पंचायत चुनावों में झंड़े गाड़ दिए.ग्राम प्रधान की 44प्रतिशत सीटों पर औरतों ने जीत हासिल की है, जबकि उनके लिए आरक्षित सीटें थीं 33फीसदी ।11प्रतिशत सीटें अनारक्षित स्थानों से औरतों ने जीतकर सच में कमाल कर दिया। जब भी पंचायत के चुनाव परिणाम आए हैं, तो औरतों के परिणाम बेहतर ही आए हैं,लेकिन परिणाम आने के साथ ही संदेह वर्षा आरंभ हो जाती है। सवाल यह है पुरुष क्या स्वायत्त ढ़ंग से काम करता है ?हमलोग पुरुष की सैंकड़ों-हजारों सालों की असफलता के बावजूद उस पर संदेह नहीं करते,उसकी क्षमता पर संदेह नहीं करते, लेकिन औरत की क्षमता पर तुरंत संदेह करने लगते हैं।लोकतंत्र हो या जीवन हो,सामाजिक प्रक्रिया विश्वास के आधार पर चलती है,जिनको हम चुनते हैं उन पर विश्वास करें ,यदि वे खरे न उतरें तो उनको बदल दें ,उनकी जगह किसी और का चुनाव करें।लेकिन संदेह न करें।

यूपी में औरतें जीती हैं,देश में हजारों औरतें जनप्रितिनिधि के रुप में काम कर रही हैं,इससे लोकतंत्र में औरतों की शिरकत बढ़ी है।औरत की पहचान बदली है। औरतों पर जिन बातों को लेकर संदेह किया जा रहा है वे बातें पुरुषों पर भी लागू होती हैं। मसलन्, यह कहा जा रहा है कि वे अंगूठा छाप हैं,उनके पास निजी विवेक नहीं है,पति का मोहरा हैं।ये सारी बातें पुरुषों पर भी लागू होती हैं। हमारे पुरुष तुलनात्मक तौर पर ज्यादा ये ही सब काम कर रहे हैं।वे किसी न किसी के मोहरे हैं। विवेकहीनता में भी औरतों से आगे हैं।



कहने का तात्पर्य यह कि औरतें जब लोकतंत्र में फैसलेकुन कमेटियों में चुनी जाती हैं तो हमें संदेह का माहौल बनाने से बचना चाहिए। औरतें क्रमशःघर से बाहर आ रही हैं,राजनीति में दाखिल हो रही हैं,उनमें बदलाब हो रहा है।वे एकदम विपरीत परिस्थितियों में काम कर रही हैं,उनको हर हालत में तब तक मदद और समर्थन की जरुरत है जब तक उनकी स्थिति पूरी तरह बदल नहीं जाती।औरत का सबसे बड़ा शत्रु संदेह है। संदेह न करें,उस पर विश्वास करें,वह न तो माया है,न ठगिनी है,वह भी मनुष्य है,उसे भी सामान्य मनुष्य की तरह जीने और काम करने का मौका दें।

रविवार, 13 दिसंबर 2015

हिन्दुत्व और मुसलिम विद्वेष

भारत के बौद्धिकों में कमाल की क्षमता है दंगों को लेकर जब भी बातें होती हैं तो झट से भागलपुर का नाम पहले लेते हैं दिल्ली का नहीं।ऐसा क्यों? सवाल यह है कि दंगाग्रस्त क्षेत्र किसे कहें ? क्या दंगे में मारे जाने वाले लोगों की संख्या के आधार दंगाग्रस्त क्षेत्र का फैसला होगा? यदि ऐसा है तो यह सही नहीं होगा।

यह संभव है कि किसी क्षेत्र में दंगा न हो लेकिन आम जनता में बड़े पैमाने पर हिन्दुत्ववादी सामाजिक ध्रुवीकरण हो।यह भी संभव है दंगा हो,लेकिन लोग मारे न जाएं,आगजनी हो,लूटपाट हो,हिंसा हो,लोग घायल हों,लेकिन मारे न जाएं,इस नजरिए से देखें तो भागलपुर से ज्यादा खतरनाक है दिल्ली।यह तथ्य समाजविज्ञानी आशुतोष वार्ष्ष्णेय ने रेखांकित किया है।उनका मानना है दंगों के बार-बार होने और सघन भाव से साम्प्रदायिक माहौल बनने को मिलाकर देखना चाहिए।

भगवा ब्रिगेड सब समय दंगा नहीं करता लेकिन सब समय अविवेक का माहौल बनाए रखने का काम जरुर करता है,वे बार-बार ऐसे मसले उठाते हैं जिनसे अविवेकवाद के विकास में मदद मिले।अविवेकवाद की आंधी वे निरंतर चलाते रहते हैं। यही वह परिवेश है जिसके कारण आम जनता की चेतना को कभी साम्प्रदायिक लक्ष्य के लिए इस्तेमाल करने में उनको सफलता मिल जाती है।

भारत का किसान आज भी धर्मनिरपेक्षता की धुरी है, धर्मनिरपेक्षता को सबसे गंभीर चुनौती उनसे मिल रही है जो शहरों में रहते हैं और मध्यवर्ग-निम्न-मध्यवर्ग से आते हैं।समाजविज्ञानी आशुतोष वार्ष्णेय ने सन् 1950 -95 तक के साम्प्रदायिक दंगों के चरित्र और स्थान का विश्लेषण करके बताया है कि भारत में उल्लेखनीय तौर पर कम दंगे हुए हैं।जबकि गांवों में भारत की दो-तिहाई आबादी रहती है।
सन् 1950-95 के बीचमें साम्प्रदायिक दंगों में मारे गए लोगों की कुलसंख्या में मात्र चार फीसदी से भी कम ग्रामीण मारे गए,जबकि बाकी 96फीसदी शहरी मारे गए।शहरों में यह कुछ शहरों तक केन्द्रित फिनोमिना है। मसलन्,देश के सिर्फ आठ शहरों-अहमदाबाद,बंबई, अलीगढ़, हैदराबाद,मेरठ,बड़ोदरा,कलकत्ता और दिल्ली में अधिकांश लोग दंगों में मारे गए।इन शहरों में कुल 49फीसदी से ज्यादा लोग मारे गए।जबकि इन शहरों में देश की आबादी का मात्र 18फीसदी जनसंख्या रहती है।यानी 82फीसदी आबादी के लिए दंगा समस्या ही नहीं है।
यानी फेसबुक पर साम्प्रदायिकता का जो फ्लो है उसमें इन शहरों से आने वाले युवाओं की संख्या बहुत बड़ी है। फेसबुक पर जय हिन्दुत्व का सबसे बड़ा फ्लो भी यहीं से आ रहा है।यही वे लोग हैं जो मुसलमानों के खिलाफ आए दिन गंदी और घटिया टिप्पणियां करते रहते हैं।


मुस्लिम विद्वेष के कई रुप प्रचलन में हैं इनमें वाचिक साम्प्रदायिक विद्वेष बेहद खतरनाक है। इसके कारण अंततःसाम्प्रदायिक हिंसा का वातावरण बनता है। साम्प्रदायिक हिंसा यकायक पैदा नहीं होती,बल्कि वह निरंतर चल रहे मुसलमान विरोधी,इस्लाम विरोधी प्रचार अभियान की देन है।लंबे समय तक साम्प्रदायिक हिंसा,मुसलिम विद्वेष आदि शहरी फिनोमिना बना रहा लेकिन राममंदिर आंदोलन के उदय और विकास के बाद साम्प्रदायिकता का ग्रामीण जनता में भी तेजी से प्रसार हुआ। तब से साम्प्रदायिकता,मुसलिम विद्वेष और इस्लाम धर्म के खिलाफ विषवमन शहरों और गांवों में तेजी से फैला है,इसको तेजगति प्रदान करने में हिन्दुत्ववादी संगठनों के अलावा संचार तंत्र ने बहुत बड़ी भूमिका निभायी है।मुसलिम विद्वेष वहां तेजी से फैला है जहां पर हिन्दुत्ववादी संगठनों ने काम शुरु किया है। जहां पर ये संगठन कमजोर हैं वहां पर मुसलिम विद्वेष नजर ही नहीं आता। इसलिए मुसलिम विद्वेष से बचने का सबसे सही उपाय तो यही है हिन्दुत्ववादी संगठनों को जनाधार ही तैयार न करने दिया जाय। ये संगठन जब एकबार आधार तैयार कर लेते हैं तो फिर इनको उखाड़ना आसान नहीं होता,ये अपने विषाक्त प्रचार अभियान के जरिए अपना सांगठनिक विस्तार करते रहते हैं। उल्लेखनीय है हिन्दुत्ववादी संगठनों ने जहां पर भी अपना सांगठनिक विस्तार किया है वहां पर भ्रष्टाचार को नई बुलंदियों तक पहुंचाया है,वहीं दूसरी ओर साम्प्रदायिक सद्भाव को नष्ट किया है।Top of Form


Bottom of Form

देश में हिन्दू संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति के नाम पर बहुत सारा सांस्कृतिक कचरा फेंका जा रहा है।हिन्दीभाषी क्षेत्र में इस तरह के विभाजन को न मानने वाले कवियों -लेखकों की विशाल परंपरा है।दिलचस्प बात यह है कि जो मुगल शासक भारत में बाहर से आए वे इस्लाम,फारसीपन आदि के उतने दीवाने नहीं थे जितने वे भारत की परंपराओं और भाषाओं के दीवाने थे।संस्कृति में हिन्दू-मुसलिम संस्कृति की विभाजनरेखा अंग्रेज शासकों ने खींची,उनकी खींची रेखा का आज भी साम्प्रदायिक संगठन इस्तेमाल कर रहे हैं।
सच यह है कि अधिकांश शासक तुर्कभाषी थे न कि फारसीभाषी।स्वयं बाबर ने अपनी आत्मकथा तुर्की में लिखी थी।गाँवों में मुसलमानों के लिए तुरक शब्द का प्रचलन था।दिल्ली के राजसिंहासन पर पश्तोभाषी जरुर बैठे,लेकिन जिनकी मातृभाषा फारसी थी उनको यह सौभाग्य कभी प्राप्त नहीं हुआ। फारसी का भारतीय साहित्य और भाषाओं पर असर मुगल साम्राज्य के पतनकाल में पड़ना शुरु हुआ और बाद में अंग्रेजों ने इसका इस्तेमाल किया।यहू वह दौर था जिसमें संस्कृत को देववाणी कहकर प्रतिष्ठित करने की कोशिश हुई,जिसका तुलसीदास ने विरोध किया और लिखा ," का भाषा का संस्कृत,प्रेम चाहिए साँच।काम जो आवै कामरी,का लै करे कमाच।।" मुसलमानों के खिलाफ हिन्दुत्ववादियों के द्वारा जिस तरह का घृणा अभियान चलाया जा रहा है उसकी जितनी निंदा की जाय,कम है,वे मुसलमानों को सामाजिक जहर के रुप में प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं। हमारे अनेक युवाओं में इस जहरीले प्रचार का सीधे असर हो रहा है, युवाओं को भारत की सांस्कृतिक परंपराओं और मुसलमान लेखकों के योगदान के बारे में कोई जानकारी नहीं है,और इसी अज्ञान का हिन्दुत्ववादी लाभ उठा रहे हैं।
मुझे सिंधी भाषा के समर्थ कवि अब्दुल बहाव उर्फ़ सचल सरमस्त याद आरहे हैं,ये धार्मिक संकीर्णता के कट्टर शत्रु थे और इनको पूरी कुरान कंठस्थ थी। उन्होंने लिखा- "मज़हब नि मुल्क में माण हूं मूँझाया। शेख़ी बुजुर्गी बेहद भुलाया।।"
इसी तरह बंगला में संस्कृत के विद्वान् थे दौलत काज़ी।उनके काव्य में कालिदास की उपमाओं के अनेक प्रयोग मिलते हैं।जयदेव के असर में लिखी कविता में चंद पंक्तियां बानगी के रुप में देखें- "श्यामल अंबर श्यामल खेती।श्यामल दश दिशा दिवसक जोती।।"
मलिक मोहम्मद जायसी ने मुहर्रम के दिनों में ईरान की शहजादी,हजरत इमाम हुसेन की पत्नी बानो पर जो कविता लिखी उसकी चंद पंक्तियां देखें-
" मैं तो दूधन धार नहाय रही,मैं तो पूतन भाग सुहाय रही।
मैं तो लाख सिंगार बनाय रही,मेरा साईं सिंगार बिगार गयो।
मोरे साह के तन पर घाव लगो,मोरा अकबर रन मां जूझ गयो।
कोऊ साह नज़फ़ से जाए कहो,तुम्हरे पूत का बैरी मार गयो।। "

गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

21वीं सदी में माकपा की चुनौतियाँ

CPIM का प्लेनम 27-31दिसम्बर2015 को कोलकाता में होने जा रहा है। माकपा अपनी सांगठनिक समस्याओं पर इसमें विस्तार से चर्चा करेगी।माकपा की सबसे बड़ी चुनौती है संगठन संचालन की पद्धति और रुढबद्ध कार्यक्रम से मुक्त होने की।इसमें सर्जनात्मकता और नए के लिए कोई जगह नहीं है। इसमें सब कुछ तयशुदा तरीकों से काम करने पर बल है, काम करने की यह पद्धति पुरानी हो चुकी है। माकपा को यदि 21वीं सदी की पार्टी के रुप में काम करना है तो उसे नए सांगठनिक ढाँचे और नए कार्यक्रम के बारे में सोचना होगा,उसे यह सोचना होगा कि समाजवाद के अंत के बाद उभरे पूंजीवाद में कैसे काम करे और किस तरह के काम करे।पार्टी कॉमरेडों का नजरिया क्या हो ,नए संचारजगत में सदस्यों को स्वतंत्र रुप से रायजाहिर करने देने की आजादी रहेगी या नहीं ,या फिर यह कहें कि माकपा क्या अपने पार्टी कार्यक्रम को भारत के संविधान में उल्लिखित व्यक्ति के अधिकारों की संगति में अपने सदस्यों को अभिव्यक्ति के अधिकार देने के पक्ष में है या नहीं,फिलहाल माकपा में सदस्यों को उतने भी अधिकार प्राप्त नहीं हैं जितने भारत का संविधान देता है। कहने का आशय यह है कि नागरिक अधिकारों की संगति में माकपा अपने लक्ष्यों और भूमिकाओं को नए सिरे से तय करे,यदि लोकतांत्रिक प्रणाली और लोकतांत्रिक हकों को पार्टी के सांगठनिक ढाँचे और राजनीतिक कार्यक्रम में वरीयता दी जाए तो पार्टी में नई प्राणवायु का संचार हो सकता है। वरना पुराना ढ़ाँचा तो लगातार माकपा को हाशिए के बाहर खदेड़ रहा है और इससे बचने की जरुरत है।फिलहाल माकपा को क्रांतिकारी कार्यक्रम से भी ज्यादा जरुरत है लोकतांत्रिक कार्यक्रम, लोकतांत्रिक संगठन और लोकतांत्रिक संचार प्रणाली की।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

संसद में गुमशुदा साहित्यविवेक




       
संसद में “असहिष्णुता” पर बहस चल रही है। यह वह “असहिष्णुता” नहीं है जिसे कॉमनसेंस में हम लोग कहते –सुनते हैं। यह वह भी “असहिष्णुता” नहीं है जिसे राजनीतिक दल आंकड़े दे-देकर व्याख्यायित कर रहे हैं। “असहिष्णुता” के सवाल को राजनीतिकदलों या दल विशेष ने नहीं उठाया,बल्कि लेखकों-बुद्धिजीवियों और वैज्ञानिकों ने उठाया है।ये सब वे लोग हैं जो दलीय राजनीति और कॉमननसेंस के आधार पर “असहिष्णुता” को नहीं देख रहे हैं ,बल्कि अपने सर्जनात्मक कर्म के खिलाफ सामने खड़ी ठोस राजनीतिक-सामाजिक चुनौती के रुप में देख रहे हैं। अफसोस की बात है कि अधिकतर सांसदों ने एक-दूसरे के खिलाफ हिंसा-अपराध के आंकड़े और आख्यान पेश करके यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि “हम ठीक ,तुम गलत।”
    सभी राजनीतिक दलों का यह मानना “हम तो ठीक हैं तुम गलत हो”,यही समूची बहस का मूलाधार है। जबकि लेखकों ने “असहिष्णुता” के सवाल को “हम” और “तुम” की कोटि में रखकर नहीं उठाया,बल्कि वे तो भारतीय समाज में निरंतर बढ़ रही “असहिष्णुता” को एक प्रक्रिया के रुप में देख रहे हैं,उन्होंने उसके हाल के महिनों में तेज होने और ज्यादा आक्रामक हो जाने की ओर ध्यान खींचा है,लेखकों ने किसी दलविशेष को भी इसके लिए दोषी नहीं ठहराया है। वे तो सिर्फ इतनी मांग कर रहे हैं कि केन्द्र सरकार इस ओर ध्यान दे, अभिव्यक्ति की आजादी पर हो रहे हमलों को रोकने के लिए कदम उठाए।

मुश्किल यह है कि लेखक- बुद्धिजीवी-वैज्ञानिकों के लिए "असहिष्णुता" का जो अर्थ है वह राजनेता समझ नहीं सकते,यह बात आज संसद की कार्रवाई देखकर समझ में आ गयी, लेखक और राजनेता की असहिष्णुता की धारणा,अनुभूति और मंशाएं अलग हैं,संसद में बेहतर होता कि लेखकों के बयान पढे़ जाते ,लेखक बोलते और सत्ताधारी सुनते।लेकिन हुआ उलटा लेखक की भावनाओं को दरकिनार करके राजनेताओं की भावनाएं केन्द्र में आ गयीं,यह तो लेखकों के द्वारा उठाए विषय के साथ संसद का अन्याय है,

राजनाथजी ! कल संभवतः आप सांसदों की बहस का जवाब दें।आपको यह तो पता चल ही गया है कि लेखक और राजनेता या सामान्य नागरिक के दिल,अनुभूतियां और अभिव्यक्ति के धरातल अलग - अलग होते हैं, लेखक के पास राजनेता और नागरिक से ज़्यादा विकसित चेतना और अभिव्यक्ति योग्यता होती है,यही वजह है कि वह साहित्य सृजन कर पाता है।राजनेता-सत्ताधीश अल्पकाल में मर जाता, सत्ताधीश के बयान जन्म लेते ही मर जाते हैं, जबकि साहित्य नहीं मरता , साहित्यकार नहीं मरता। बल्कि उलटा होता है, साहित्यसृष्टि करके लेखक नया जन्म लेता है।जबकि नेता का अंत है बोलना।आजतक कोई राजनेता बोलकर अमर नहीं हुआ !

राजनीति और राजनेता अल्पजीवी और बांझ हैं।जबकि साहित्य-कला और विज्ञान दीर्घजीवी और सृजनशील हैं।समाज में विगत दो हजार सालों में कई राजसत्ता आई और गई, कई व्यवस्थाएं भी बदलीं,उनकी भूमिका बदली,लेकिन वे हमेशा अल्पकालिक और सीमित दायरे में ही असर छोड़ पाए,इसके विपरीत लेखकों-कलाकारों-वैज्ञानिकों के सृजन ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी समाज को प्रभावित किया है।

इनदिनों राजनेता अपने दल के हित देखता है,वोटबैंक देखता है।जबकि लेखक के लिए समाज के हित सर्वोपरि हैं। मानव सभ्यता का इतिहास गवाह है कि लेखक स्वभाव से समाज में प्रगतिशील भूमिका निभाते रहे हैं,वे ऐसे सवाल उठाते रहे हैं जो सत्ता को पसंद नहीं रहे,सत्ता की खुशामद करना,सत्तामोह में रहना साहित्य का धर्म नहीं है। साहित्य और साहित्यकार हमेशा से रचनाओं के जरिए सभी किस्म के मोह से मुक्त करके मोहमुक्त समाज की सृष्टि करते रहे हैं। सत्ता का मोह हो या निहित-स्वार्थों का मोह हो ये सब कला-साहित्य आदि के विकास में हमेशा से बाधक रहे हैं,लेखकों ने अपने सर्जनात्मक तरीकों के जरिए इन सबसे अपने को हमेशा मुक्त किया है।अपने आत्मसंघर्ष के जरिए बार-बार साहित्य और कलाओं को समाज की मुक्ति के मार्ग पर ठेला है,हमेशा उन समस्याओं का सामना किया है जो उनके सृजन में बाधक बनकर खड़ी हुई हैं।

आज संसद की बहस देखकर यह धारणा फिर से पुष्ट हुई कि इनदिनों अधिकतर राजनेता साहित्य-कलाबोध और साहित्यचेतना के अभाव के कारण लेखकीय अनुभूति से वंचित हैं।बेहतर तो यह होता कि बुद्धिजीवीसांसदों को असहिष्णुता की बहस में शामिल करके कलाकारों के मन को संसद महसूस करती।आज संसद में असहिष्णुता के सवाल पर जो बहस हुई वह प्रतिवादी साहित्यकारों की अनुभूतियों से कोसों दूर थी। इस बहस में लेखकों का मन और दिल कहीं पर भी नजर नहीं आया।जबकि लेखक भयाक्रांत है,तीन लेखकों की हत्या हो चुकी है,हत्यारों को केन्द्र सरकार में काबिज अनेक राजनेताओं और दल विशेष का समर्थन हासिल है यही वजह है केन्द्र सरकार से बार-बार लेखकों ने हस्तक्षेप की अपील की है।अफसोस की बात है कि केन्द्र सरकार और उसके मुखिया जरा-जरा सी बात पर ट्विट करते रहते हैं,बयान देते रहते हैं ,लेकिन लेखकों के बयान को उन्होंने कभी शिद्दत के साथ,सहानुभूति के साथ समझने की कोशिश नहीं की,उलटे मंत्रियों से लेकर सांसदों तक सभी ने लेखकों पर हमले किए हैं, “इनाम वापसी” को राजनीतिक खेल कहा है। यह सब करके केन्द्र सरकार ने अपनी कलाविरोधी इमेज को ही पेश किया है।

कलाकारों और लेखकों के प्रति केन्द्र सरकार की असहिष्णुता का कारण मेरी समझ से परे है। भाजपा को जब एक बार केन्द्र में सरकार बनाने का मौका मिल गया तो उसके बाद पीएम,मंत्रियों और सांसदों को सारे देश के प्रतिनिधि के रुप में,सरकार को सारे देश की सरकार के संरक्षक और संचालक के रुप में काम करना चाहिए। लेकिन ऐसा न करके लेखकों-बुद्धिजीवियों पर जिस तरह के वैचारिक हमले किए गए हैं, वह शर्मनाक है।सत्ताधारी दल भाजपा ने “असहिष्णुता” की भावना को दलीय पूर्वाग्रहों और हिंसा के अनंत आंकड़ों के बहाने दरकिनार करने की घृणित कोशिश की है,इसे शासकदल का घटिया आचरण ही कहा जाएगा। शासकदल के सांसद एक-दूसरे के खिलाफ तर्कवारिधि बनने के चक्कर में भूल ही गए कि “असहिष्णुता” का सवाल हिंसा के आंकड़ों से नहीं जुड़ा बल्कि अभिव्यक्ति की आजादी और उस पर हो रहे हमलों से जुड़ा है। ये हमले विभिन्नदलों के लोग करते रहे हैं,इसलिए इसे दलीय नजरिए से नहीं संवैधानिक नजरिए से,अभिव्यक्ति की आजादी के नजरिए से देखा जाना चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी पर हो रहे हमले मात्र कानून-व्यवस्था की खराब अवस्था की देन नहीं है,वह इस समस्या का एक पहलू है,लेकिन असल पहलू है राजनीतिक।

लेखकों पर राजनीति विशेष के लोग ही हमले ज्यादा कर रहे हैं। यह कौन सी राजनीति है जो लेखकों को निशाना बना रही है ? यह वह राजनीति है जिसे सर्वसत्तावाद से मोहब्बत है,जिसे लंपट पालने और लंपटसमाज बनाने में दिलचस्पी है।यह वह राजनीति है जिसमें अपनी आलोचना सुनने-देखने का धैर्य नहीं है।लोकतंत्र में अधीर राजनीति सबसे खराब राजनीति मानी जाती है,अधीर राजनेता हमेशा शार्टकट हथकंडे अपनाते हैं और लेखकों-बुद्धिजीवियों को निरंतर विभिन्न तरीकों के जरिए आतंकित करके रखते हैं।यदि विभिन्न राजनीतिकदल अपने इस राजनीतिक रवैय्ये को बदल लें तो बेहतर होगा।लेखक मात्र इतना ही चाहता है।

बार-बार यह सवाल उठा है कि पहले क्यों नहीं बोले ? लेखक पहले भी बोले हैं,लेकिन सूचना क्रांतिजनित औसतविवेक और सत्ताधारी दल के आक्रामक मीडिया प्रचार ने ऐसा आभास पैदा करने की कोशिश की है कि लेखक-बुद्धिजीवी पूर्वाग्रह से घिरे हैं,मोदी विरोधी हैं,इसलिए सरकार को घेरने के लिए यह सब कर रहे हैं।

असहिष्णुता के खिलाफ “इनाम वापसी” का सरकार को घेरने के साथ कोई संबंध नहीं है। इसका वोट की राजनीति से भी कोई संबंध नहीं है।यह सीधे समाज में बढ़ रही असहिष्णुता का मामला है जिसको लेकर लेखक-बुद्धिजीवी “इनाम वापसी” की मुहिम के जरिए ध्यान खींचना चाहते हैं,वे इस सोए हुए समाज को जगाना चाहते हैं जो लेखकों पर हो रहे हमलों को लेकर एकदम बेगाना बना हुआ है।“इनाम वापसी” के प्रतिवाद के बहाने लेखक न तो किसी का अपमान कर रहे हैं,न किसी के वोट काट रहे हैं और न किसी नेता विशेष या दल विशेष के खिलाफ बयान दे रहे हैं,बल्कि वे तो मात्र समाज से लेकर संसद तक यही संदेश दे रहे हैं कि देश में चारों ओर असहिष्णुता बढ गयी है और हम सबको मिलकर इसके खिलाफ एकजुट होना चाहिए।

केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार हो या राजनीतिक दल हों, यह सभी की जिम्मेदारी है कि वे लेखकों के सम्मान और संवैधानिक हकों की रक्षा के मामले में एक स्वर से लेखकों के साथ एकजुटता दिखाएं। यह समय लेखकों –बुद्धिजीवियों पर हमला करने का नहीं है,बल्कि उन लोगों पर हमला करने का है जिनलोगों या संगठनों ने लेखकों को निशाना बनाया हुआ है।

राजनीतिक दलों को लेखकों से मनवांछित लेखन की मांग छोड़ देनी चाहिए। लेखक को जो उचित लगे वह लिखें।लेखक-बुद्धिजीवी अपने लेखन के जरिए समाज और संस्कृति का चरित्र बदलते रहे हैं,वे यथास्थिति के पक्षधर कभी नहीं रहे,बल्कि वे यथास्थिति के खिलाफ लिखते रहे हैं,लेखक से मनवांछित लेखन की मांग करना अविवेकपूर्ण है।लेखक कभी यह कर ही नहीं सकता।लेखन में यथास्थिति निषेध अंतर्निहित है.इस नजरिए से लेखक से यह कहना कि वह यह लिखे और वह न लिखे,वस्तुतःलेखक के हकों पर हमला है।अफसोस की बात है कि अधिकांश राजनेताओं के भाषणों में इन दिनों यही व्यक्त हो रहा है।



विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...