मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

ब्रज संस्कृति की चुनौतियाँ



ब्रज संस्कृति का विगत दो सौ सालों में निरंतर ह्रास हुआ है। यह संस्कृति मूलत: साहित्य, भाषा और जीवनशैली से जुड़ी रही है। विगत दो सौ सालों में ब्रज के अंदर साहित्य और संस्कृति का  ह्रास हुआ है । हिन्दी लेखकों द्वारा ब्रज भाषा को सबसे पहले साहित्य से सचेत रुप से खदेड़ा गया । ब्रज भाषा के आधुनिकीकरण के प्रयासों को किसी ने हाथ नहीं लगाया। आधुनिककाल के पहले ब्रज भाषा को कविता का भाषा के रुप में प्रतिष्ठा और स्वीकृति प्राप्त थी लेकिन आधुनिक काल आने के बाद ब्रज पर हमले बाहर से नहीं अंदर से हुए , दिलचस्प बात यह है कि ये हमले और किसी ने नहीं किए बल्कि साहित्य के नामी लेखकों ने किए, ख़ासकर खड़ी बोली हिन्दी को साहित्य में प्रतिष्ठित करने के लिए यह काम किया गया और इस क्रम में हिन्दीभाषी क्षेत्र की सभी भाषाएँ पिछड़ गयीं और उनको मुख्यधारा के साहित्य से अलग कर दिया गया । यह काम किया गया खड़ी बोली हिन्दी को जातीय भाषा के रुप में प्रतिष्ठित करने के बहाने, लेकिन हिन्दीभाषी क्षेत्र की भाषाओं और बोलियों के प्रति समान व्यवहार नहीं किया गया। इससे भाषा संहार की प्रक्रिया ने जन्म लिया। यह भाषा संहार उर्दू से लेकर ब्रज तक, अवधी से लेकर भोजपुरी तक फैला हुआ है। 
हमारे साहित्यकार और आलोचक भाषा के क्षेत्र में चल रहे इस भाषा संहार के प्रति सचेत होना तो दूर अपितु इस संहार का उपकरण बन गए। कहा गया कि ब्रज को कविता के पद से जब तक हटाया नहीं जाता तब तक खड़ी बोली हिन्दी की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती । हमने हिन्दीभाषी क्षेत्र की जनता के लिए एक ही भाषा को आधार के रुप में चुना और इसी खड़ी बोली हिन्दी को जनसंपर्क भाषा और राष्ट्रीय भाषा बनाने पर इस क़दर ज़ोर दिया कि ब्रज, अवधी आदि भाषाएँ पिछड़ गयीं। भाषाओं और बोलियों में समानता और भाईचारा पैदा करने की बजाय हमने भाषायी प्रतिस्पर्धा और भाषा संहार को किसी न किसी रुप में महिमामंडित किया, हिन्दी भाषी क्षेत्र की आम जनता को आधुनिकीकरण का जो मॉडल पेश किया वह  भाषायी संहार पर आधारित था।
      हिन्दी भाषी क्षेत्र में जो मध्यवर्ग बना वह अपनी बोली और भाषा के साहित्य से शून्य था , इस मध्यवर्ग ने जब एकबार अपनी भाषा को त्यागा तो फिर उसने खड़ी बोली हिन्दी को अपनाने की बजाय अंग्रेज़ी को अपनी पहचान और प्रतिष्ठा का अंग बना लिया। यह मजेदार फिनोमिना है कि खड़ी बोली हिन्दी के जिन लेखकों ने खड़ी बोली हिन्दी को अपनाने पर ज़ोर दिया वे लेखक कम से कम हिन्दीभाषी क्षेत्र के नागरिकों को खड़ी बोली हिन्दी के प्रति आकर्षित करने में असमर्थ रहे । 
               आज़ादी के बाद ख़ासतौर पर ब्रजभाषा , साहित्य और ब्रज संस्कृति का तेज़ी से ब्रज के मध्यवर्ग से अलगाव बढा है। ब्रज में आज भी मध्यवर्ग का एक तबक़ा ब्रजभाषा बोलता है लेकिन लिखता -पढ़ता नहीं है। उसके लिखने - पढ़ने की भाषा अंग्रेज़ी बनती चली गयी। इसके अलावा ब्रज क्षेत्र में सक्रिय शिक्षा संस्थानों में साहित्य और भाषा का अकादमिक स्तर आरंभ से ही बहुत ख़राब रहा है इसने ब्रज और खड़ी बोली हिन्दी के माहौल को  क्षतिग्रस्त किया । इस क्षेत्र में जो विश्वविद्यालय हैं वे ब्रज के प्रति कोई लगाव नहीं रखते । वरना इन  विश्वविद्यालयों में ब्रजभाषा और साहित्य के उन्नयन और शिक्षण का काम गंभीरता के साथ किया जाता। 
          कोई भी भाषा तब तक आत्मनिर्भर नहीं बनती जब तक उसके शिक्षण के काम को न किया जाय । हमने मान लिया कि ब्रज भाषा को पढाने की कोई ज़रुरत ही नहीं है। ब्रजभाषा के विगत दो सौ सालों में कितने शब्द मर गए हम नहीं जानते , हमने फ़ील्ड सर्वे करके ब्रजभाषा के विभिन्न जिलों में उतार -चढ़ाव का कोई हिसाब नहीं रखा । हम नहीं जानते कि ब्रज का  प्रत्येक जिले के शहर और गाँव में भाषायी नक़्शा किस तरह बदला है। 
                  दिलचस्प बात यह भी है राज्य सरकार  और नवोदित मध्यवर्ग और नव-धनाढ्यवर्ग ने भी ब्रजभाषा के अंदर मौजूद वैविध्य और अंतरों को जानने की कभी कोशिश ही नहीं की।  हममें से अधिकतर ब्रजभाषा के शब्दों के खो जाने का दर्द नहीं जानते । शब्द के खो जाने या नष्ट होने का अर्थ है ब्रज संस्कृति का क्षय । त्रासद पक्ष यह है कि परिवारीजन मरता है तो हम रोते हैं, शोक मनाते हैं लेकिन जब शब्द मरते हैं तो नोटिस तक नहीं लेते ! आखिरकार भाषा के प्रति हम इतने बेगाने क्यों हो गए हैं? ब्रजभाषा यहाँ के जीवन में रची- बसी है लेकिन इसके साथ घटित दुर्व्यवहार की हमने कभी ठंडे मन से समीक्षा नहीं की।  राज्य में सरकारें आई और गईं लेकिन भाषाओं के साथ हमने आंतरिक रिश्ता तोड़ दिया । स्थानीय भाषाओं और संस्कृति के साहित्य को हमने उत्सव, इनाम और इवेंट मात्र बना दिया। 
       ब्रज का मतलब मंदिर नहीं है, ब्रज का मतलब गऊ या गोवर्धन पर्वत या राधा-कृष्ण का मंदिर नहीं है। संस्कृति को साहित्य और लोकगीतों ने रचा है, पर्वतों और गऊ ने नहीं रचा है। आज हम गऊ, पर्वत या मंदिर के पुराने युग में नहीं लौट सकते। यह ब्रज- संस्कृति का प्रतिगामी नजरिया है।  ब्रज के साहित्यकारों ने साहित्य को रजवाड़ों और सामंती संस्कृति से मुक्ति दिलाने का काम किया। मध्यकालीन साहित्यकारों ने गऊ, गोवर्धन या भगवान पर कम से कम ध्यान दिया। लेकिन परंपरावादियों ने ब्रज संस्कृति को गाली,गऊ,भगवान और धार्मिकता में संकुचित कर दिया । 
   भगवान और भक्ति ब्रज संस्कृति के कम्युनिकेशन उपकरण हैं, इनको धार्मिकता नहीं समझना चाहिए । यह दुखद है कि ब्रज संस्कृति का आधार ब्रजभाषा का साहित्य था लेकिन हमने साहित्य को धार्मिकता के जरिए अपदस्थ कर दिया, क़ायदे से आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के दौरान साहित्य की प्रक्रियाओं को आधुनिक और सघन बनाया जाता लेकिन हमने उस ओर ध्यान ही नहीं दिया । इस क्रम में ब्रज के लोककला रुपों का सफ़ाया हुआ । 
       
                      हम क्या करें -
(१) भाषिक संरचनाओं और उनमें आ रहे परिवर्तनों का ज़मीनीस्तर पर डाटा एकत्रित किया जाय  । ब्रजभाषा का ज़मीनी स्तर फील्डवर्क करके शब्दकोश बनाया जाय। 
(२)  ब्रजभाषा के उत्थान और प्रचार के लिए यूपी में विभिन्न विश्वविद्यालयों में ब्रजभाषा और अन्य भाषाओं और बोलियों के अध्ययन की व्यापक अकादमिक व्यवस्था की जाय । स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में ब्रजभाषा के स्वतंत्र अध्ययन पर ख़ासतौर पर ज़ोर दिया जाय। 
(३) ब्रज के कला रुपों ख़ासकर प्रिफॉर्मिग आर्ट से संबंधित कला रुपों, रासलीला, स्वाँग, नौटंकी, भगतआदि के संरक्षण और विकास के बारे में महत्वाकांक्षी योजना बनाने के लिए पेशेवर लोगों का वर्किंग ग्रुप बनाकर योजना तैयार की जाय। 
(४) ब्रज संस्कृति अकादमी का राज्य सरकार गठन करे , इसके जरिए ब्रज कला रुपों के संरक्षण के विकास की महत्वाकांक्षी योजना बनायी जाय, यह गंभीर क़िस्म की अकादमी हो और सारी दुनिया के लोग इसमें आने के लिए तरसें। 
            

बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

"आप" की जीत का सच



   दिल्ली विधानसभा चुनाव हो गए, चौदह फ़रवरी 2015 को नए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल रामलीला मैदान में शपथ ग्रहण करेंगे । वे रोड शो करते हुए सभा स्थल तक जाएँगे। यह नए क़िस्म का शक्ति प्रदर्शन और मीडिया इवेंट है । यह असल में मोदी के जलसेबाज फिनोमिना का जलसेबाजी से खोजा जा रहा विकल्प है । यह दुनिया के सामने लोकतंत्र को मजमे में तब्दील करने का शो भी है। अन्ना हज़ारे के सुझाव को केजरीवाल ने मान लिया होता तो बेहतर होता।   यह लोकतंत्र के नायक की पहली चूक गिनी जाएगी। सादगी से शपथग्रहण समारोह करने से केजरीवाल का क़द छोटा नहीं होता , जलसेबाजी से क़द बड़ा भी नहीं होता ! केजरीवाल का जलसा प्रेम अंततः मोदी के छंद में बँधने की शुरुआत है । मोदी को बेनक़ाब करने के लिए मोदी का छंद चुनाव तक प्रासंगिक है , सत्तारुढ़ होने के बाद जलसेबाजी करना लोकतंत्र और नेता की ताक़त कम और कमज़ोरी ज्यादा दिखाता है। बेहतर होता शपथग्रहण की जलसेबाजी न होती ! 
         केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को दिल्ली में अभूतपूर्व विजय हासिल हुई है । यह जीत क्यों और कैसे मिली ? किन शक्तियों की इस जीत में भूमिका थी ? कारपोरेट घरानों की प्रतिस्पर्धा की क्या भूमिका थी ? संघ और कांग्रेस की क्या भूमिका थी ? देश की भावी राजनीति का स्वरुप क्या होगा ? इत्यादि सवालों पर आने वाले समय में विस्तार से सूचनाएँ और विश्लेषण आएँगे । लेकिन एक बात तय है कि यह जीत अभूतपूर्व है। 
         ' आप' की जीत के बारे में जनमत सर्वेक्षण दूसरी बार एकसिरे से ग़लत साबित हुए हैं , इससे जनमत सर्वेक्षण की वैज्ञानिकता के सभी दावों पर सवालिया निशान लगा है । जनमत सर्वेक्षण लगातार दो बार ग़लत साबित होना, यहाँ तक तक कि 'आप' का सर्वे भी ग़लत साबित होना दर्शाता है कि आम जनता अॉंकड़ा नहीं है। आम जनता की राय को मीडिया इच्छित दिशा में नहीं मोड़ सकता ! मीडिया प्रचार की सीमाएँ हैं , लेकिन ज़मीनी प्रचार की कोई सीमा नहीं है,वह आज भी सबसे ज्यादा प्रभावशाली है। 
       दूसरा संदेश यह निकलता है कि धर्मनिरपेक्ष संगठन के निकास के आम जनता में व्यापक आसार हैं । धर्मनिरपेक्ष राजनीति को किसी भी तरह हाशिए पर रखकर लोकतंत्र का अपहरण नहीं किया जा सकता।  ' आप' किस वर्ग के विचारों का दल है इसके बारे में वे भी नहीं छिपाते। लेकिन एक तथ्य निर्विवाद है कि ' आप' धर्मनिरपेक्ष - लोकतांत्रिक  दल है और उसके पास लोकतंत्र का वैकल्पिक नजरिया है और संविधान में वर्णित मूल्यों के प्रति उसकी गहरी आस्थाएँ हैं। यही चीज उसे अन्य बुर्जुआदलों ( कांग्रेस-भाजपा-सपा-बसपा आदि) से भिन्न बनाती है । 
                       भारत में स्वस्थ बुर्जुआ राजनीति के लिए पर्याप्त स्थान है और यही चीज " आप" की प्रासंगिकता के साथ बुर्जुआ राजनीति की प्रासंगिकता को भी पुष्ट करती है । 
           केजरीवाल की 2015 की दिल्ली जीत का प्रधान कारण है दैनंदिन जन समस्याओं का समाधान न कर पाने में केन्द्र सरकार की असफलता । केन्द्र सरकार ने यदि जन समस्याओं के समाधान का प्रयास किया होता तो भाजपा को इतनी बुरी हार का सामना न करना पड़ता। कहने को दिल्ली राजधानी है लेकिन अराजक और जनविरोधी विकास के कांग्रेसी मॉडल का आदर्श नमूना है। मोदी सरकार ने विगत आठ महिनों में इस मॉडल में कोई बदलाव नहीं किया। बिजली के बिल, बिजली की सप्लाई , पानी की सप्लाई और क़ानून और व्यवस्था , प्रदूषण आदि समस्याओं के साथ झुग्गी- झोंपड़ियों के अबाधित प्रसार और नागरिक सुविधाविहीन संसार ने आम जनता को भयानक क्रोध से भर दिया है ।
   " आप" ने आमजनता को उपरोक्त सवालों पर परंपरागत कम्युनिकेशन के आधार पर संगठित किया । जन समर्थन जुटाने के परंपरागत तरीक़ों के जरिए ताक़तवर संगठन का निर्माण किया ।साथ ही आम जनता को मतदान पेटियों तक पहुँचाया। इस प्रक्रिया में "आप" का जनाधार क्रमश: बढा और उसका प्रचार भी सबसे ज्यादा प्रभावशाली रहा। 
         यह कहना ग़लत है कि संघ की फूट का या कांग्रेस के मतों की "आप" की जीत में कोई निर्णायक भूमिका है। कांग्रेस और संघ ने यथाशक्ति संघर्ष किया लेकिन आम जनता के व्यापकतम तबक़ों को अपने साथ जोड़ने में ये दोनों ही दल असफल रहे हैं। जो दल चुनाव लड़ते हैं वे हारने के लिए नहीं लड़ते । संघ-भाजपा - कांग्रेस ने चुनाव ताक़त के साथ लड़ा अत: उनके वोट "आप" को नहीं मिले । 
    भाजपा को एक साल पहले विधानसभा चुनाव में जितने मत मिले थे तक़रीबन उतने ही वोट उसे इसबार भी मिले हैं। यह बात दीगर है कि लोकसभा चुनाव की तुलना में उसे कम वोट मिले हैं। लेकिन लोकसभा चुनावों के वोटों के साथ तुलना करना सही नहीं होगा। 
       केजरीवाल की जीत में "आप" की मीडिया और प्रौपेगैण्डा रणनीति बेहद आकर्षक और प्रभावशाली रही है। उसके सभी शीर्ष नेताओं का सोशल मीडिया से लेकर जनसभाओं और रोड शो तक सक्रिय रहना, टीवी से लेकर नुक्कड़ सभाओं तक बोलना बेहद प्रभावशाली रहा है। इस समूची प्रक्रिया में " आप" ने लोकतंत्र का राजनीतिक चरित्र निखारा है और राजनीति के प्रति आम लोगों की आस्था को पुख़्ता बनाया है। 
                  भाजपा आरंभ से मोदी और टीवी उन्माद पर केन्द्रित रही और ये दोनों ही पहलू ज़मीनीस्तर पर आम जनता को प्रभावित करने में असमर्थ रहे। आश्चर्यजनक बात यह रही कि विकास की बातें करने वाले मोदी ने निजी हमले किए, निम्नस्तरीय राजनीतिक जुमलेबाजी और नारेबाज़ी की भाषा का प्रचार में इस्तेमाल किया। वे एक भी सकारात्मक बात आम जनता के सामने नहीं रख पाए । किरनबेदी को भाजपा ने आख़िरी समय में केजरीवाल के दबाव में मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रुप में पेश किया । 
    असल में  किरनबेदी की टीवी इमेज से प्रभावित होकर ही मोदी ने उनको मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाया। सच यह है कि किरन बेदी की टीवी इमेज का संबंध अन्ना के आंदोलन से था , उस इमेज का भाजपा की राजनीति से कोई संबंध नहीं था । अत: भाजपा की राजनीति में किरनबेदी की इमेज एकदम मिसफ़िट लग रही थी और इसने भाजपा की समूची व्यूह रचना को पंगु बनाकर रख दिया । भाजपा की सबसे बड़ी असफलता यह रही कि उसके पास कोई भाजपाई इमेज मैदान में पेश करने लायक नहीं थी। वैसी स्थिति में भाजपा को कम से कम इमेज संकट का सामना नहीं करना पड़ता । लेकिन परिणाम में कोई गुणात्मक अंतर नहीं पड़ता । इमेज की प्रचार में भूमिका होती है, वोट लाने में संगठन की भूमिका होती है। दिल्ली में भाजपा का संगठन लोकसभा विजय के बाद सत्तादास होकर रह गया । 
      कांग्रेस की स्थिति यह है कि वह लोकसभा और दिल्ली विधानसभा की चुनावी हार से अभी तक बाहर नहीं निकल पायी है। यही वो अनुकूल परिवेश था जिसमें केजरीवाल के नेतृत्व में "आप" को 67 सीटों पर जीत मिली और तीन सीटों पर भाजपा विजयी रही।  
            
                

दिल्ली विश्व पुस्तकमेला के शिरकत विरोधी आयाम



विश्व पुस्तक मेला (१४ -२२फरवरी २०१५) पर लेखकों -पाठकों की निगाहें टिकी हैं ! कुछ के लिए यह इवेंट है !कुछ के लिए लोकार्पण उत्सव है!कुछ के लिए प्रकाशन का अवसर है !   विश्व पुस्तक मेला स्वभावत: शिरकत विरोधी है। यह प्रकाशकों , पाठकों और लेखकों की शिरकत सीमित करता है।  यह मान लिया गया है कि यह भी एक इवेंट है और उसी रुप में आयोजित कर दो ! लेखक संगठनों का विश्व पुस्तक मेला की समस्याओं की ओर कभी  ध्यान ही नहीं गया और लेखकों ने निजी तौर पर भी पहल करके कुछ भी लिखने की ज़रुरत महसूस नहीं । यहाँ तक कि हिन्दी के लोकार्पण नरेशों ( नामवर सिंह आदि) का भी ध्यान नहीं गया। 
        विश्व पुस्तक मेला का ढाँचा इस तरह का है जिसमें प्रकाशकों को शिरकत का मौक़ा कम मिलता है। इसमें शिरकत करने वाले प्रकाशकों को खर्च ज्यादा करना पड़ता है और मेला मात्र ७ दिन चलता है जिसके कारण इसमें जो लागत खर्च होती है वह भी छोटे दुकानदार झेल नहीं पाते। क़ायदे से मेले में स्टाल लगाने का ख़र्चा न्यूनतम रखा जाय और मेला दो सप्ताह चले।
     मसलन् कोलकाता पुस्तक मेला तुलनात्मक तौर पर कम खर्चीला पड़ता है और मेला १५ दिन तक चलता है।इसके अलावा  कोलकाता पुस्तक मेला में कोई प्रवेश शुल्क नहीं लिया जाता। इसके विपरीत विश्व पुस्तक मेला में प्रवेश शुल्क लिया जाता है। क़ायदे से स्टाल का शुल्क तुरंत कम किया जाय जिससे ज्यादा प्रकाशक पुस्तक मेला में शामिल कर सकें ,मेले की अवधि एक सप्ताह से बढ़ाकर दो सप्ताह की जाय और प्रवेश शुल्क ख़त्म किया जाय । इससे पुस्तक मेले मे पुस्तक प्रेमियों की शिरकत बढ़ाने में मदद मिलेगी।
      इसके अलावा भारत की विभिन्न भाषा की पत्रिकाओं के स्टॉल और लेखक- सांस्कृतिक संगठनों के स्टॉल लगाने के लिए विशेष रुप से प्रोत्साहन दिया जाय ।इनको मुफ़्त में स्थान मुहैय्या  कराया जाय।इससे लेखकों - संपादकों को साहित्यिक पत्रिकाओं को आम जनता में प्रचारित प्रसारित करने का मौक़ा मिलेगा। चूँकि प्रधानमंत्री सारे देश में पुस्तकालय अभियान चलाने का फ़ैसला कर चुके हैं अत: देश के विभिन्न बडे पुस्तकालयों के प्रदर्शनी स्टॉल लगाए जाएँ। 

सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

मोदी का सपनों का पुल

         नेता वही अपील करता है जो सपनों का पुल बनाए। सपनों के पुल पर सरपट दौड़े। इसबार नेता के सपनों में झोंपड़ी को जगह मिली है। जबसे झोंपड़ी को जगह मिली है, झोंपड़ीवालों को नींद नहीं आ रही। वे पक्केघर के सपने से बेचैन हैं ! डरे हैं! वे हजम नहीं कर पा रहे हैं कि उन्होंने ऐसा कौन सा पुण्यकार्य किया है जो झोंपड़ी को सभी नेता पक्के मकान में तब्दील करने में लगे हैं ! रामलाल कल कड़कड़दूमा से मोदीजी की मीटिंग से लौटा तो सारी रात सो नहीं पाया ! वह डरा हुआ था । उसे इस सपने से ही दहशत हो रही थी कि उसे घर बैठे पक्का घर मिल जाएगा! वह परेशान था कि कोई भी नेता उसकी पगार बढ़ाने की बात क्यों नहीं कर रहा ? महंगाई कम करने की बात क्यों नहीं कर रहा ? झोंपड़ी में रहनेवाले विगत दो महिने से बहुत परेशान हैं। वे सपनों के कारण सो नहीं पा रहे हैं ! 

दिल्ली के झोंपड़ीवालों ने इतने सपने पहले कभी नहीं देखे। वे पहले गुण्डों के सपने देखते थे,पुलिसवाले के सपने देखते थे, कभी –कभी फिल्मी सपने देखते थे।लेकिन घर का सपना कभी नहीं देखते थे। मजेदार बात यह है कि गुण्डे-पुलिस के सपने से उनको मुक्ति आज तक नहीं मिली । वे अपनी मजूरी के बढ़ने का सपना देखते थे लेकिन आजतक बढ़ी नहीं है,जितना कमाते हैं सब खर्च हो जाता है। वे सोच नहीं पा रहे हैं कि कमरतोड़ मेहनत करने बावजूद वे एक भी पैसा बचा क्यों नहीं पाते ? वे सोच रहे हैं कोई नेता उनको पैसे की बचत का सपना क्यों नहीं दिखाता ?

कल नरेन्द्र मोदी जब कडकडडूमा में बोल रहे थे तो सपनों का पुल बना रहे थे, सवाल यह है वे सपनों का पुल क्यों बना रहे थे ? वे तो 9 महिने से दिल्ली के प्रशासन को देख रहे हैं, वे तो बिना विधानसभा चुनाव जीते ही दिल्ली के लिए सब कुछ कर सकते हैं, उनके पास सारे अधिकार हैं,उनको किसने रोका सपनों को साकार करने से ? वे दिल्ली के ज्ञात-अज्ञात को जानते हैं वे अब दिल्ली की हर फाइल के मालिक हैं।

मोदी और उनके दल के नेता कहते रहे हैं शीला दीक्षित भ्रष्ट थीं ,सोनिया भ्रष्ट थीं लेकिन उन्होंने अभी तक कोई जांच आयोग क्यों नहीं बिठाया ? हमारे नेतागण दूसरे नेता को हेय दिखाने के लिए जमकर भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार का हंगामा करते हैं, लेकिन कभी कार्रवाई नहीं करते,स्थिति यह है कि किरन बेदी कल तक भाजपा को भ्रष्ट दल मानती थीं आज उसी दल का अंग हैं। कहने का अर्थ है दिल्ली में भ्रष्टाचार पहले की तुलना में और भी पुख्ता हुआ है। सपनों के पुल पर भ्रष्टाचार सवार होकर आएगा तो यही होगा !

सपने की खूबी है कि वह हर चीज को अपने रंग में रंग लेता है। ठोस को भी वायवीय बना देता है। उसकी अज्ञात सोपानों की अबाधित यात्रा में रुचि होती है। सपनों के रंग मनुष्य को हमेशा अपील करते हैं। दिल्ली में भी सपना जगा है कि अब दिल्ली में झोंपड़ी नहीं रहेंगी, उसकी जगह पक्के घर होंगे ! दिल्ली में झोपड़ी गायब हो जाएगी यह सोचकर मन खुश है। एक सवाल उठता है कि क्या गुजरात में झोंपड़ी वाले नहीं हैं ? क्या सभी झोंपड़ीवालों को मोदीजी ने अपने शासन में पक्के मकान दिए ? जी नहीं, मोदी जब गुजरात में अपार बहुमत देने के बावजूद झोंपडीवालों के लिए पक्के मकान नहीं बना पाए तो दिल्ली में तो वे एकदम नहीं बनाएंगे ।



मोदी का नसीब और अभागा लोकतंत्र

               
       नसीब का तर्कशास्त्र परजीवियों को भाता है। लोकतंत्र नसीब तंत्र नहीं है। लोकतंत्र में भाग्य को श्रेय देना जनता का अपमान करना है। जनता से किए गए वायदों से मुँह मोड़ना है।प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कल जब दिल्ली में एक आमसभा में बोल रहे थे तो अपने नसीब यानी भाग्य को श्रेय दे रहे थे। लोकतंत्र को भाग्यतंत्र कहना सही नहीं है। राजसत्ता यदि भाग्य का ही खेल होता,कुंडली के ग्रहों का ही खेल होता तो राजाओं का पराभव कभी नहीं होता। राजतंत्र की विदाई नहीं होती।

मोदी वोट की राजनीति में भाग्य का सिक्का उछालकर असल में आम जनता की पिछड़ीचेतना का दोहन करना चाहते हैं। वे यह भी चाहते हैं कि आम जनता अब भाग्य के भरोसे रहे !उनकी सरकार अब वायदे पूरे करने नहीं जा रही !

लोकतंत्र में भाग्य की हिमायत के कई आयाम हैं जिन पर गौर करने की जरुरत है। लोकतंत्र को भाग्य का खेल मानने का अर्थ है संविधान का अपमान करना। संविधान हमारे नागरिक और शासकों को अंधविश्वास फैलाने की अनुमति नहीं देता।नसीब तो अंधविश्वास का हिस्सा है। मोदी पीएम इसलिए नहीं बने कि उनका भाग्य अच्छा था बल्कि इसलिए बने कि जनता ने उनको वोट दिया। तेल के दाम इसलिए कम नहीं हुए कि मोदी का भाग्य अच्छा है बल्कि विश्व राजनीति के उतार-चढ़ाब के कारण कम हुए। विकसित पूंजीवादी मुल्कों और ओपेक के अंतर्विरोधों के कारण तेल के दाम सारी दुनिया में कम हुए हैं।

दुनिया में कोई भी घटना इसलिए नहीं घटती कि भगवान चाहता है या भाग्य या ग्रह चाहते हैं ,बल्कि हर घटना का अपना कार्य-कारण संबंघ होता है,प्रक्रिया होती है।नसीब की इसमें कोई भूमिका नहीं होती। मोदी के पीएम बनने में नसीब की कोई भूमिका नहीं है। आम जनता के वोट ,कारपोरेट लॉबी की मदद,आक्रामक मीडिया रणनीति और वायदों के अम्बार ने उनको प्रघानमंत्री बनाया है। मोदी यदि अपने वायदों को पूरा नहीं करेंगे तो आम जनता उनके खिलाफ जा सकती है।

लोकतंत्र यदि भाग्य का खेल होता तो मोदी ने इतने बड़े पैमाने पर मीडियाप्रचार क्यों किया ? अरबों रुपये खर्च करके प्रौपेगैण्डा क्यों किया ? नसीब ही महान होता तो वे किरनबेदी के लिए वोट मांगने क्यों निकले हैं ? क्यों उनके 200सांसद और 22केन्द्रीय मंत्री और वे स्वयं दिल्ली की जनता के घर -घर जाकर वोट मांग रहे हैं ? इससे पता चलता है कि लोकतंत्र भाग्यतंत्र नहीं है, ग्रहतंत्र नहीं है। ग्रहतंत्र होता तो फिर प्रचार की जरुरत ही न होती, ईश्वर या संतों के आशीर्वाद से ही लोकतंत्र में जीत मिल जाती तो राजनीतिक वायदे न करने पड़ते,प्रचार न करना पड़ता,महाभाग्यवान संत हारते नहीं ,रामराज्य पार्टी का तो चारों ओर जय-जयकार होता, क्योंकि करपात्रीजी महाराज जैसे संत उसके नेता थे।

लोकतंत्र में हुई हार-जीत का नसीब और बदनसीब के वर्गीकरण से कोई लेना-देना नहीं है। लोकतंत्र तो राजनीति है ,इसके राजनीतिक तर्क और प्रक्रियाएं है। लोकतंत्र में नसीब,भगवान,संत-महंत आदि की राजनीति अंततः परजीवीपन को बढ़ावा देगी। इससे मोदी के 'मेक इन इंडिया' के नारे का अंतर्विरोध है। इस नारे को या आम नागरिक को अपने जीवन में सफलता हासिल करनी है तो यह काम नसीब के भरोसे नहीं कर्म के आधार पर ही हो सकता है। नसीब पर जोर देने का अर्थ है कर्म का निषेध करना। कर्म का निषेध करके मोदी भारत के युवाओं में अंधविश्वास फैलाने की कोशिश कर रहे हैं।

लोकतंत्र में नसीब-बदनसीब की बातें करने का अर्थ है गरीबों और स्त्रियों का अपमान करना। बहुरंगी, बहुस्तरीय भेदभाव को अपरिवर्तनीय मानना। मोदी जी जब आप नसीब-बदनसीब के मुहावरे में बोल रहे थे तो सीधे कह रहे थे अमीर इसलिए अमीर है क्यों कि वह नसीब में लिखाकर लाया है, गरीब इसलिए गरीब है क्योंकि नसीब में लिखाकर लाया है। यानी अमीर हमेशा अमीर रहेंगे क्योंकि पूर्वजन्म में पुण्य करके आए हैं, गरीब हमेशा गरीब रहेंगे क्योंकि पूर्वजन्म में पाप करके आए हैं। इसका अर्थ यह भी है कि अमीर-गरीब की स्थिति को बदला नहीं जा सकता है, जो जैसा है वैसा ही रहेगा,क्योंकि यह तो नसीब में लिखा है!

नसीब –बदनसीब का समूचा तर्कशास्त्र स्वभावतः लोकतंत्र विरोधी और अविवेकवादी है। इसमें सामाजिक जिम्मेदारी से भागने की भावना निहित है।

मोदीजी आपने नसीब-बदनसीब की बहस को उठाकर अपने राजनीतिक लक्ष्य को साफ कर दिया है,इस अर्थ में आप ईमानदार भी हैं। आप ईमानदार हैं इसलिए मन की बात साफ शब्दों कह देते हैं। नसीब-बदनसीब की अवधारणा में आपने ईमानदारी के साथ कह दिया है कि आप अपना चुनाव घोषणापत्र या जनता से किए गए वायदे लागू करने नहीं जा रहे। मैं आपकी इसी साफगोई का कायल हूं!



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मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...