रविवार, 30 जुलाई 2017

क्रांतियाँ बेकार नहीं जातीं -


                 
    विश्व विख्यात इतिहासकारों में एरिक हॉब्सबाम अग्रणी हैं।उनके लेखन की विशेषता है इतिहासलेखन को विशेषज्ञों के अध्ययन-अध्यापन के दायरे से बाहर लाकर जनोपयोगी बनाना,साधारण पाठक के लिए बोधगम्य बनाना। साधारण पाठक और इतिहासकार इन दोनों के बीच इतिहास को किस तरह जनप्रिय बनाया जाए इसी बुनियादी लक्ष्य को सामने रखकर उन्होंने 4प्रमुख किताबें लिखीं,वे हैं,1.क्रांति का युग,2.पूंजी का युग,3. साम्राज्य का युग और 4.अतिरेकों का युग।इन चारों किताबों के अनुवाद संवाद प्रकाशन,मेरठ ने छापे हैं। हमारी समीक्षा के केन्द्र में ´पूंजी का युग´ नामक किताब है।अंग्रेजी में यह ´एज आफ कैपीटल´नाम से प्रकाशित है।
     एरिक हॉब्सबाम ने´´पूंजी का युग´´(इतिहास 1848-1875) में लिखा ´बुर्जुआ समाज की विजय जितनी विज्ञानके अनुकूल थी,उतनी कला के लिए नहीं रही।´ यह सच है बुर्जुआ समाज के जन्म के साथ विज्ञान के क्षेत्र में सबसे तेजगति से विकास होता है लेकिन उससे भी बड़ा सच यह है कि लेखकों-कलाकारों के अंदर व्यक्तिवादी मूल्यों के विकास के कारण साहित्य को नित नई ऊँचाईयों को स्पर्श करने का मौका मिला,इसके अलावा छापे की मशीन के आने के साथ ही साहित्य का लोकतांत्रिकीकरण हुआ। रचना के केन्द्र में मनुष्य आया और ईश्वर की विदाई हुई।कमोबेश यह प्रक्रिया हर देश में बुर्जुआ समाज के उदय के साथ घटित हुई।साहित्य और कला के मध्यकालीन मूल्यों की जगह नए आधुनिक कला मूल्यों का जन्म हुआ।
      एरिक हॉब्सबाम की कृति ´पूंजी का युग´कई मायनों में महत्वपूर्ण है।इस किताब में ´पूंजी´ को आधार बनाकर आधुनिककालीन राजनीतिक-आर्थिक और कलागत परिवर्तनों की व्याख्या पेश की गयी है।यह किताब आधुनिककाल का वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य बनाने में मददगार साबित हो सकती है। इस पुस्तक का अनुवाद वंदना राग ने किया है,अनुवाद बेहतरीन है और पढ़ते हुए लगता ही नहीं है कि यह पुस्तक अनुदित है।हिंदी पत्रिका जगत की मुश्किल यह है कि विश्व विख्यात लेखकों की वैचारिक किताबें हिंदी में खूब छप रही हैं लेकिन उन पर चर्चा या उनके मूल्यांकन या पुस्तक समीक्षा के काम को साहित्यिक पत्रिका के संपादक उपेक्षा की नजर से देखते हैं।जबकि इस तरह की वैचारिक किताबों के बारे में व्यापक  चर्चा होनी चाहिए। इससे हिंदी के विचार-जगत और पाठक जगत को विश्व के वैचारिक विमर्श के साथ जोड़ने और आलोचना में छाई अवधारणाहीन बहसों से बचने में मदद मिल सकती है।
     इस किताब का सबसे रोचक पहलू है ´कम्युनिस्ट घोषणापत्र´के प्रकाशन के साथ तत्कालीन क्रांतियों के संबंध की खोज।´कम्युनिस्ट घोषणापत्र´ अज्ञात जर्मन लेखकों के नाम से 24फरवरी 1848 जर्मन में प्रकाशित होता है।बाद में इसे अंग्रेजी,फ्रेंच,इटालियन आदि अनेक भाषाओं में अनुदित करके छापा गया। हॉब्सबाम ने लिखा ´यह कहना सही होगा कि इसके राजनैतिक आग्रहों का जर्मन क्रांतिकारियों के छोटे तबके से बाहर बहुत कम प्रभाव रहा.अलबत्ता1870 के बाद प्रभाव बढ़ा.कुछही हफ्तों में और मैनीफेस्टो के प्रकाशन के कुछ ही घंटों बाद,मसीहाओं की आशाएं,आशंकाएं सब साकार होने को आईं.फ्रांसीसी राजशाही को बग़ावत के बाद सत्ता से अपदस्थ कर दिया गया.गणतंत्र राज्य की घोषणा कर दी गई और यूरोपीय क्रांति का आग़ाज हो गया।´
  ´आधुनिक दुनिया के इतिहास में कई महत्वपूर्ण क्रांतियां हुई हैं.कई क्रांतियां इससे अधिक सफल रही हैं.मगर जंगली आग की तरह इस तीव्रता से चारों ओर फैलने वाली,सरहदों, राज्यों, देशों और महासागरों के पार जाने वाली क्रांतियां कम ही हुई हैं´ दिलचस्प बात यह है 24 फरवरी को ´कम्युनिस्ट घोषणापत्र´प्रकाशित होता है और उसी दिन फ्रांस ने गणतंत्र राज्य की घोषणा की। हॉब्सबाम ने लिखा है ´दो मार्च तक क्रांति दक्षिण-पश्चिमी जर्मनी,छह मार्च बवेरिया,ग्यारह मार्च बर्लिन,तेरह मार्च वियना और तत्काल ही हंगरी,अठारह मार्च मिलान और फिर इटली में फैल गई।´उल्लेखनीय है उन दिनों सबसे तेज संचार व्यवस्था  राथ्सचाइल्ड बैंक की थी ,वह भी पेरिस से वियना तक खबर पांच दिन से कम में नहीं पहुँचाती थी,लेकिन उससे भी तेज गति से क्रांति की आग चारों ओर फैल गयी।उन दिनों कुछ ही हफ्तों में यूरोप के दस से ज्यादा देशों में ´कम्युनिस्ट घोषणापत्र´के प्रकाशन के साथ ही क्रांति हो गई।उस क्रांति के असर से कोई भी सरकारी तंत्र अपना अस्तित्व नहीं बचा पाया।अन्य क्षेत्रों में भी इसके निश्चित प्रभाव दिखाई दिए।हॉब्सबाम कहते हैं कि गंभीर अर्थों में यह वैश्विक क्रांति थी।इस क्रांति ने 1848 में यूरोप के विकसित और पिछड़े दोनों ही किस्म के देशों को प्रभावित किया।हालांकि यह क्रांति सबसे व्यापक थी लेकिन यह सबसे कम सफल साबित हुई.इसके घटित होने के 6माह के बाद ही यह भविष्यवाणी की जा सकती थी कि इसकी विश्वव्यापी असफलता निश्चित है.लगभग 18 महीनों बाद सिर्फ़ एक को छोड़ सारी अपदस्थ सत्ताएं वापस,दोबारा सत्ता पर काबिज़ हो चुकीं थीं। हॉब्सबाम के अनुसार ´1848 की क्रांतियां विलक्षण ढ़ंग से इस किताब से अपना रिश्ता जोड़ती हैं।´ एक क्रांतिकारी किताब के रूप में ´कम्युनिस्ट घोषणापत्र´की सामाजिक-राजनीतिक ताकत का इससे एहसास होता है।हॉब्सबाम ने लिखा ´1848 की क्रांतियों के लिए व्यापक अध्ययन की आवश्यकता है और राज्य,जनता तथा भौगोलिक क्षेत्रों की अलग पड़ताल ज़रूरी है।यहां यह संभव नहीं।फिर भी उन सभी लोगों में कुछ बातें सामूहिक रूप से थीं.यह समझा जा सकता है.सिर्फ़ यह नहीं कि उनके घटित होने का समय एक था,बल्कि यह भी कि उनका एक साझा मिज़ाज था और एक साझा शैली थी.वह एक रहस्यमय-यूटोपियन माहौल था और उससे मिलता-जुलता आडंबरपूर्ण वक्तृत्व था´, ´शुरूआती दौर में स्वतंत्र होने का एहसास,जबर्दस्त आशा और आशावादी भ्रम.यह लोगों का वसंत था-और ठीक वसंत की तरह,स्थायी नहीं था इसलिए दीर्घायु नहीं हो पाया।´इन सभी क्रांतियों की प्रमुख साझा बात थी ´कि वे सब विजयी हुए फिर जल्द ही पराजित हुए´,´शुरूआती दिनों में ज़्यादातर क्रांति के क्षेत्रों की सरकारें या तो पूरी तरह ध्वस्त हुई हैं या असमर्थता की शिकार हुईं.सारी सरकारें बिना चुनौती के समर्पण कर गईं।अपेक्षाकृत बहुत ही कम समय में क्रांतियों ने अपनी पहलकदमी खो दी।´ अगस्त 1849 तक फ्रांस को छोड़कर सभी देशों में क्रांति मृतप्रायः हो गई। ´सारे पुराने सत्ताशाली अपनी सत्ताओं पर विराजमान हो चुके थे,कई जगहों पर पहले की अपेक्षा और शक्तिशाली अंदाजों में,क्रांतिकारी निर्वासित हो इधर-उधर बिखर गए थे.सारे संस्थागत बदलाव,सारे राजनैतिक और सामाजिक स्वप्न,जो1848 के वसंत में देखे गए थे,वे सारे के सारे नेस्तनाबूत हो चुके थे।´
      ´पूंजी के युग´ ने कला और साहित्य के क्षेत्र में जिन चीजों को जन्म दिया वे पहले के किसी भी युग में संभव नहीं थीं।यह सच है आधुनिककाल के पहले बहुत कुछ बेहतरीन साहित्य और दर्शन लिखा गया,उच्च कोटि के स्थापत्य और कला रूपों का निर्माण हुआ।लेकिन उन सबके बनाए मानकों और मूल्यों के दायरे और लेखकीय दायित्वों को आधुनिककाल में लेखक ने नए सिरे से परिभाषित किया। ´पूंजी के युग´ की केन्द्रीय विशेषता है हर चीज को बार-बार परिभाषित करना ।यहां तक कि तयशुदा चीजों,परिभाषाओं,संबंधों आदि को भी बार-बार परिभाषित करने की जरूरत पड़ती है,इसने साहित्य में ´समकालीनता´की धारणा को जन्म दिया।पहले साहित्य तो था लेकिन ´समकालीनता´ की धारणा नहीं थी।पहले लेखक नैसर्गिक भाव से लिखता था अब उसमें नया तत्व जुड़ा ´समकालीनता´।नए युग की रूचियां,स्वाद और मूल्य  ´समकालीनता´से प्रभावित थे।यह सच है कि कलाओं और साहित्य में गुणवत्ता के लिहाज से गिरावट आई,लेकिन ´उपन्यास´विधा के जन्म ने साहित्य के समूचे संसार को ही बदल दिया।
     ´पूंजी के युग´की महानतम साहित्यिक उपलब्धि है उपन्यास।हॉब्सबाम ने उपन्यास के बारे में लिखा ´साहित्य-उपन्यास के माध्यम से पोषित हुआ।यह एक ऐसा फार्म था जो बुर्जुआ समाज के उद्भव एवं अंतर्द्वद्वों से मुठभेड़ कर अपनी बात सक्षम ढ़ंग से रख रहा था।´ उल्लेखनीय है पुराने विधा रूपों नाटक,काव्य,महाकाव्य आदि में नए बुर्जुआ समाज को अभिव्यक्ति करने की साहित्यिक क्षमता ही नहीं थी,उपन्यास के जन्म के साथ पूर्व के सभी विधारूपों के चरित्र में उपन्यास की संगति में बदलाव आए।उल्लेखनीय है उपन्यास ,साहित्य की विभिन्न विधाओं में से एक विधा नहीं है।बल्कि यह विधाओं का राजा है।उसने अपने जन्म के साथ यह घोषणा की कि पहले से प्रचलित विधाएं अपने चरित्र को बदलें और उपन्यास की संगति में अपना विकास करें,जो विधा यह नहीं कर पाएगी वह अप्रासंगिक होने को अभिशप्त है।सन् 1848 के बाद शहरों और भवनों की संरचनाओं और स्थापत्य में बदलाब आया।भवन निर्माण कला को राजसी और आध्यात्मिक भवन कला के दायरे बाहर लाया गया।अब स्थापत्य कला के क्षेत्र में धर्मनिरपेक्ष और नागरिकबोध संपन्न इमारतों का जन्म हुआ। पहले वाले भवन पुराने किलों और राजसी वैभव के प्रतीक हुआ करते थे लेकिन नए भवन –स्थापत्य के केन्द्र में इसके लिए कोई जगह ही नहीं थी।
     हॉब्सबाम के अनुसार ´वियना शहर के पुराने किलों और दीवारों को 1850 के वर्षों में ढहा दिया गया और उससे उपजी ख़ाली जगहों में शानदार चक्करदार सड़कें बनाकर उनके पास बड़े भवनों को निर्मित कर दिया गया।वे कौन -से भवन थेॽ वे क्या थे ॽ एक स्टॉक एक्सचेंज(विनिमय-बाज़ार) का प्रतिनिधि था,दूसरा धर्म का (वोतिवखीशें),तीन उच्च शिक्षण संस्थान ,नागरिक सुविधा और सार्वजनिक मसलों से जुड़े प्रशासनिक भवन थे जैसे शहर की नगरपालिका,न्यायपालिका तथा संसद के महल, और लगभग आठ थिएटर संग्रहालय,शिक्षण-संस्थान आदि थे।´
     यह असल में बुर्जुआजी के विनीत भाव की अभिव्यक्ति का युग भी है।इस प्रक्रिया में बाजार भी बदला,नए किस्म के बाजार का जन्म हुआ।नए विस्तृत और वैभवशाली बाजार ने जन्म लिया।19वीं सदी में विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में अर्जित उपलब्धियों ने इन सभी क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तनों को जन्म दिया।जनोत्पादन और जनोपभोग को नई ऊँचाईयां मिलीं।हर स्तर पर ये दोनों प्रवृत्तियां नजर आने लगीं।जनोत्पादन के कारण हर चीज सस्ते और पुनरूत्पादित रूप में सामने आई।पुनरूत्पादन की तकनीक ने साहित्य,पत्रकारिता,शिक्षा आदि में क्रांतिकारी परिवर्तनों को जन्म दिया।इन क्षेत्रों का लोकतांत्रिकीकरण हुआ।साथ ही कलाओं और साहित्य में अवमूल्यन के तत्व का भी प्रवेश हुआ।पहले कला और साहित्य रूपों का अवमूल्यन नहीं होता था लेकिन नए युग में तेजी से कला और साहित्य रूपों का अवमूल्यन होने लगा।तकनीकी विकास ने साहित्य और कला के आभामंडल को छिन्न-भिन्न कर दिया।पहले लेखक राज्याश्रित था,उसके ही सहारे आजीविका के लिए जिंदा था लेकिन नए ´पूंजी के युग´में वह ´पूंजी´पर आश्रित था,´पूंजी´के नियमों से संचालित था।हॉब्सबाम ने लिखा है ´कला अपने स्वरूप में वैभवशाली और धन का उपार्जन करने वाली थी।सर्जनात्मक प्रतिभा जन-मानस को आकर्षित करती थी और स्तरहीन भी नहीं थी´, ´हम उन लोगों को खोज सकते हैं,जो बुर्जुआ समाज के प्रतिरोध में खड़े  या उन्हें हतप्रभ करने की योजना बना रहे थे।या उन लोगों को भी जो ग्राहक खोजने में असफल रहे। यह विशेषतया फ्रांस में हुआ।´
    ´पूंजी के युग´ में एक नए किस्म के कलाबोध,जीनियस और व्यक्तिगत-उद्यम को जन्म दिया।हॉब्सबाम के अनुसार ´इस दौर में स्त्री-पुरूष वस्तुओं से सुविधासंपन्न हो रहे थे और साथ ही सम्मान भी पा रहे थे।राजसत्ताओं,रजवाड़ों और कुलीन-वर्ग के समाज में कलाकार सज्जा प्रदान करनेवाला व्यक्ति ही नहीं था,बल्कि स्वयं सज्जा का पर्याय बन राजदरबार में उपस्थित रहता था अथवा महंगी विलासिता प्रदान करने वाली वस्तुओं का देयकर्ता होता था,जैसे केश-सज्जा करनेवाले,पोशाक बनानेवाले जिनकी आवश्यकता फ़ैशनेबल लोगों को बनाए रहती थी।बुर्जुआ समाज के लिए वह ´जीनियस´(विलक्षण) था,जो दरअसल व्यक्तिगत उद्यम का ग़ैर-वित्तीय संस्करण था।वह एक ऐसा ´आदर्श´था जो भौतिक सुख-सुविधा को ताज मुहैय्या कराता था और साथ ही आध्यात्मिक  मूल्यों को भी जिलाए रखता था।´
    ´पूंजी के युग´में कला की नई समझ पैदा हुई,जिसके तहत कहा गया कि कला को संपूर्ण मांगों का पूर्तिकर्ता होना चाहिए।पारंपरिक धर्म की जगह पढ़े-लिखे स्वतंत्र लोगों के बीच उसने अपने लिए जगह हासिल कर ली।इस वर्ग को हम मद्यमवर्ग के रूप में जानते हैं।यह इस युग का नया वर्ग था।इसके अलावा नए वर्ग के रूप में मजदूरवर्ग सबसे ताकतवर वर्ग के रूप में  जन्म लेता है।साहित्य में इन दोनों वर्गों की पक्षधरता,जीवनदृष्टि और चित्रण को लेकर सबसे ज्यादा लिखा गया।इस तरह के लेखन में बुर्जुआ और मजदूरवर्ग के आत्मविश्वास से भरपूर नजरिए का जमकर चित्रण हुआ। ´आत्मविश्वास´ इस दौर की सबसे बड़ी लेखकीय पूंजी है।
    ´पूंजी के युग´ में सृजन के हर क्षेत्र में एक ही प्रश्न छाया हुआ था ,वह था ´यह आखिर है क्या ´,यह इस युग का जायज सवाल है।इसके ही गर्भ से यथार्थवाद का जन्म हुआ। ´यथार्थ´ और ´जीवन´ को लेकर साहित्य और अन्य कला रूपों में सबसे ज्यादा वैचारिक-सर्जनात्मक बहसें हुईं। ´शाश्वत साहित्य´ की धारणा का अंत हुआ, ´साहित्य´की नई धारणा का उदय हुआ,साहित्य का मतलब ही है परिवर्तन,समाज और साहित्य की अंतर्क्रियाओं को समझने की ओर ध्यान गया और यह मान लिया गया कि जिस तरह समाज प्रतिक्षण बदलता है वैसे ही साहित्य भी बदलता है।इसी प्रकार पहले लेखक महत्वपूर्ण था लेकिन ´य़थार्थवाद´के युग में लेखक को हल्का बनाया गया और ´य़थार्थवाद´को प्रमुख और वजनी बनाया गया।पुराना साहित्य अतीत से जोड़ता था,नए युग का साहित्य भविष्य से जोड़ता है,यह बुनियादी अंतर हरेक कला रूप में अभिव्यंजित हुआ।
     सन् 1848 का कला और साहित्य पर राजनैतिक दृष्टि से असर यह हुआ कि राजनीतिक प्रतिबद्धता के बिना कला संभव ही नहीं थी।इस दौर में ´जो आंखें देखती हैं´,नारे के तहत साहित्य और फोटोग्राफी के बीच एक नए रिश्ते की शुरूआत हुई।वास्तविकता भी यही थी कि ’पूंजी के युग´की नायिका है फोटोग्राफी और नायक है उपन्यास।ये दोनों मिलकर समूचे समाज को वृहत्तर स्तर पर प्रभावित करते हैं।इस दौर के बारे में हॉब्सबाम ने लिखा ´बदलाव,तकनीकी ईजादों ,तथा विषयवस्तुओं को लेकर समकालीनता नए अर्थ गढ़ती है।´ इस प्रक्रिया में रचना में एक नए गुण का समावेश होता है वह है ´वर्तमान´।अब कला,साहित्य, राजनीति,दर्शन आदि को ´वर्तमान´की कसौटी पर रखकर परखा जाने लगा।साहित्य और जीवन, कला और जीवन, दर्शन और जीवन के बीच मौजूद महा-अंतराल का इसने अंत कर दिया।
पुस्तक का नाम- पूंजी का युग
लेखक-एरिक हॉब्सबाम
अनुवाद-वंदना राग
प्रकाशक-संवाद प्रकाशन,मुंबईःमेरठ।  
(इंद्रप्रस्थ भारती मेंप्रकाशित)

जेएनयू में भाजपा का आतंकराज


           जेएनयू में भाजपा-आरएसएस के आतंक और उत्पीड़न के नए युग की शुरूआत हो चुकी है। मोदी सरकार  आने के साथ यह तय कर लिया गया था कि जेएनयू और खासकर वहाँ के छात्रसंघ को हर हालत में ध्वस्त किया जाएगा,इसके लिए सबसे पहले वामपंथ के साथ जेएनयू को जोड़ा गया, जेएनयू को देशद्रोहियों और आतंकियों के साथ जोड़ा गया,इस लाइन पर सारे देश में आरएसएस ने मीडिया अभियान चलाया, दूसरे चरण के तौर पर फ़रवरी २०१६ की घटना को षड्यंत्र करके बडे इवेंट के रुप में सजाया गया और उसके सारे विस्तृत एक्शन प्लान को बनाकर केन्द्र सरकार,दिल्ली पुलिस ,संघ की साइबर वाहिनी और आरएसएस मुख्यालय के संयुक्त तत्वावधान में चलाया गया,इसके लिए लठैतों के रुप में वकीलों और पूर्व सैनिकों की मदद भी ली गयी।उस समय छात्रसंघ के अध्यक्ष सहित कई छात्रों पर राष्ट्रद्रोह के झूठे मुक़दमे भी लगाए गए।उसके समानान्तर  विश्वविद्यालय के अंदर छात्रों और शिक्षकों का एक समूह तैयार किया गया जिसका काम है जेएनयू के बारे में अफ़वाहें फैलाना, जेएनयू के अकादमिक चरित्र और कैंपस के परिवेश को प्रदूषित करना,छात्र-छात्राओं को बदनाम करना,जेएनयू की परंपराओं और प्रशासनिक कार्यप्रणाली को ध्वस्त करना और उपकुलपति जगदीश कुमार की तानाशाही का समर्थन करना।
         आरएसएस के जेएनयू मॉडल में निशाने पर पहले दिन से जेएनयू छात्रसंघ है।किसी न किसी बहाने से विश्वविद्यालय प्रशासन छात्रसंघ पर रोज हमले कर रहा है, बडी संख्या में आंदोलनकारी छात्रों पर शांतिपूर्ण जुलूस निकालने,धरना देने आदि के लिए बडी मात्रा में जुर्माने लगाए जा रहे हैं , छात्रों के रजिस्ट्रेशन खारिज किए जा रहे हैं,छात्रों को शांतिपूर्ण प्रतिवाद करने से रोका जा रहा है। 

     फ़रवरी २०१६ की घटना के समय कन्हैया कुमार और उनके साथियों को दण्डित करते समय यह कहा गया कि इन लोगों ने देशद्रोही नारे लगाए इसलिए इनके खिलाफ कार्रवाई की गयी, लेकिन आज तक देशद्रोही नारे लगाने से संबंधित प्रमाण जेएनयू प्रशासन ने पेश नहीं किए, दिल्ली पुलिस ने कन्हैया कुमार और दूसरे छात्रनेताओं पर देशद्रोह का झूठा मुक़दमा लगाया था उसके प्रमाण भी आजतक दिल्ली के अदालत में पेश नहीं किए,यहां तक कि आज तक चार्जशीट तक  दाखिल नहीं की ।इस तरह के आतंक के बाद भी पिछले जब छात्रसंघ के चुनाव हुए तो जेएनयू के छात्रों ने वाम संगठनों के नेतृत्व में आस्था व्यक्त की और आरएसएस के अखिल विद्यार्थी परिषद और उनके दुमछल्ले जाति छात्र संगठनों को बुरी तरह परास्त किया।इस पराजय को जेएनयू प्रशासन ने अपनी निजी पराजय समझा और तब से मौजूदा छात्रसंघ पर अकारण हमले तेज कर दिए गए, जेएनयू में एमफिल् पीएचडी के दाख़िले बंद कर दिए गए,यह काम किया गया यूजीसी के सर्कुलर के बहाने, जबकि जेएनयू में एमफिल् पीएचडी दाख़िले के स्वतंत्र नियम हैं जिनके आधार पर वहाँ दाख़िले होते हैं।जेएनयू के इतिहास में यह पहलीबार हुआ कि एमफिल् पीएचडी में अविवेकपूर्ण आधार पर प्रचलित दाख़िला नीति को बदल दिया गया।इससे जेएनयू के अकादमिक चरित्र को भारी नुकसान पहुँचा, सैंकडों प्रतिभाशाली छात्रों को जेएनयू में शोध करने से वंचित कर दिया गया।
             मौजूदा छात्रसंघ के नेताओं पर अकारण मोटा जुर्माना लगाया गया और जुर्माना अदा न करने की अवस्था में उनके नियमित रजिस्ट्रेशन को बाधित करके उनके नियमित छात्र के रुप में पढने के अधिकार को छीन लिया गया।ये वे नेता हैं जिन्होंने न तो वीसी को गाली दी, न कैंपस में हिंसा की और न देशद्रोहियों के पक्ष में नारे लगाए।इनका अपराध यह था कि इन्होंने कैंपस में वीसी ऑफ़िस पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया। यानी जेएनयू में अब शांतिपूर्ण प्रदर्शन करना भी अपराध है।यही वो परिप्रेक्ष्य है जिसके कारण जेएनयू में फिर से अशांति पैदा कर दी गयी है ,छात्रनेताओं के खिलाफ इस तरह की दण्डात्मक कार्रवाई के निशाने पर आने वाले छात्रसंघ चुनाव हैं, प्रशासन चाहता है कि जेएनयू के छात्र वामपंथियों को वोट न दें, आरएसएस का बुनियादी तर्क यही है कि जेएनयू की अशांति की जड़ में वामसंगठन हैं अत:उनको वोट मत दो । यदि वामसंगठनों के नेताओं को जिताओगे तो जेएनयू प्रशासन उनको काम नहीं करने देगा , दाख़िले से वंचित करेगा।ऐसी अवस्था में जेएनयू के छात्रों को तमाम राजनीतिक मतभेद भुलाकर जेएनयू प्रशासन और आरएसएस के खिलाफ एकजुट संघर्ष चलाना चाहिए। इस तरह के दमन और उत्पीड़न का एकमात्र प्रत्युत्तर है शांतिपूर्ण एकजुट संघर्ष।जेएनयूएसयू मार्च ऑन!

शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

जय श्री राम और खोखले हम


       जय श्री राम, जै माई जी की, राधे राधे, जय श्री कृष्ण , राजाधिराज की जय आदि सम्बोधन सूचक नारे हैं।ये खोखले नारे हैं।ये जिन प्रतीकों-मिथों से जुड़े हैं उनमें सामाजिक सक्रियता पैदा करने की क्षमता नहीं है।

आधुनिककाल और आधुनिक समाज में जब इन नारों के जरिए नमस्कार-प्रणाम करते हैं तो अवचेतन में बैठे धार्मिक मन को अभिव्यक्त करते हैं।इससे यह भी पता चलता है आप आधुनिक नहीं बने हैं।

आधुनिक बनने के लिए आधुनिक सम्बोधनों का इस्तेमाल करना चाहिए,उससे आधुनिक संवेदनशीलता और अनुभूति के निर्माण में मदद मिलती है।

मसलन्, जब हलो कहते हैं तो आधुनिक मन को व्यक्त करते हैं लेकिन ज्योंही फोन पर राधे राधे कहकर सम्बोधित करते हैं तो धार्मिक चेतना को व्यक्त करते हैं।

जय श्री राम का नारा कोई क्रांतिकारी नारा नहीं है, कोई ऐसा नारा नहीं है जिसके कारण देश प्रगति की दिशा में छलांग लगाकर चला गया हो,बमबटुकों को यहनारा पसंद है।

बुनियादी तौर पर यह अर्थहीन नारा है, खोखला नारा है।इसमें कुछ करने की क्षमता का अभाव है। यह परजीवी समाज का नारा है।इसका न तो लोकतंत्र से संबंध है और न विकास से संबंध है, और न इसका रामाश्रयी धार्मिक परंपरा से संबंध है।यह बाबरी मसजिद विध्वंस के दौर में चर्चित हुआ नारा है। इसका ऐतिहासिकता,धर्म,परंपरा और भाईचारे से तीन -तेरह का रिश्ता है।



यह नारा जितनी बार लगा है उसने नागरिक की अस्मिता को क्षतिग्स्त किया है और व्यक्ति की बजाय धर्म की पहचान को उभारा है।इस परिप्रेक्ष्य में यह प्रतिगामिता और कुंठा की अभिव्यक्ति है।

उठो और जागोःसंवैधानिक मान्यताएं खतरे में हैं

         बिहार के घटनाक्रम को मात्र भ्रष्टाचार का मामला न समझें।नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र सरकार कई स्तरों पर संवैधानिक मान्यताओं और परंपराओं को नष्ट करने का काम कर रही है।अफसोस की बात है आम लोगों को यह नजर ही नहीं आ रहा।हो सकता है लालू यादव के परिवार ने भ्रष्टाचार किया हो लेकिन उससे लड़ने और निबटने के लिए महागठबन्धन को तोड़ना तो गले नहीं उतरता।

महागठन्धन जब बना था तब भी बिहार और लालू के परिवार में भ्रष्टाचार था,लेकिन एक अंतर था,महागठबंधन का निर्माण साम्प्रदायिक ताकतों को सत्ता में आने से रोकने के लिए किया गया था।उसके उद्देश्यों में कहीं पर भ्रष्टाचार का जिक्र नहीं है।लेकिन बिहार में चीजें जिस तरह संचालित की गयी हैं, न्यायपालिका की देश में जिस तरह खुली अवहेलना हो रही है, संसदीय मर्यादाओं को ताक पर रखकर जिस तरह हंगामे किए जा रहे हैं,मीडिया को सत्य और विवेक की हत्या के लिए जिस तरह नग्नतम रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है वह अपने आपमें विरल घटना है।

बिहार में जदयू का महागठबंधन से निकलकर भाजपा के साथ सरकार बनाना ,कोई साधारण घटना नहीं है।यह घटना संकेत है कि संसदीय लोकतंत्र और जनादेश की हमारे नेताओं में कोई इज्जत नहीं है। उल्लेखनीय है इस तरह की घटनाएं पहले भी हुई हैं लेकिन बिहार हर मामले में अजूबा है,इसबार समूचे जनादेश को ही पलट दिया गया । बिना दल-बदल के समूचे जदयू का स्वैच्छिक भाव से राजनीतिक मन परिवर्तन करके रख दिया गया है। मात्र कुछ एफआईआर के बहाने, कुछ छापों के बहाने यह सब हुआ है।इसका अर्थ यह भी है कि मोदी से लेकर नीतीश कुमार तक किसी के मन में जनादेश को लेकर कोई वचनवद्धता नहीं है।

असल में मोदीजी ने समूची राजनीति में पैसे और सत्ता की भूमिका को महानतम बना दिया है।इस भूमिका को आमलोगों के जेहन में उतारने में मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका है। मोदी फिनोमिना की सबसे बड़ी विशेषता है कि अब भाजपा कहीं पर आंदोलन नहीं करती, सिर्फ मीडिया हमले करवाती है, संगठित प्रचार अभियान चलाती है और उसके बाद लक्ष्य को निशाना बनाकर गिरा देती है।भाजपा की समूची रणनीति यह है कि हर हालत में भाजपा और मोदी का वैचारिक-प्रशासनिक वर्चस्व मानो।इसके लिए साम-दाम-दंड-भेद और मीडिया के हठकंड़ों का खुलकर प्रयोग हो रहा है।

भाजपा-मोदी का वर्चस्व स्थापित करने के लिए एक बात आम लोगों के जेहन में उतारी जा रही है कि ´मोदी सही और बाकी गलत´,मोदी की मानो,चैन से रहो।मोदी की मनवाने के लिए पहले प्यार से घूस देकर फुसलाया जाता है, बाद में मीडिया के कोड़े लगवाए जाते हैं,अंत में प्रशासनिक हमले होते हैं।मसलन्,यदि आप विपक्ष में हैं तो पहले भाजपा कोशिश करती है कि आप उसके साथ चले जाएं,यदि साथ नहीं जाते तो दल-बदल कराया जाता है, दल-बदल से भी मामला न संभले तो मीडिया हमले कराकर बदनाम किया जाता है, तब भी न संभले तो सीबीआई-आईडी आदि के छापे और मीडिया से अहर्निश बदनामी करके हर एक्शन को देशहित, ईमानदारी की रक्षा में,जनता की सेवा में समर्पित कर दिया जाता है।इस समूची प्रक्रिया में सत्य क्या यह महत्वपूर्ण नहीं रह जाता ,सिर्फ मीडिया में जो बताया गया है वह महत्वपूर्ण रह जाता है।मीडिया के जरिए दिमागों की इस तरह की नाकेबंदी ने हमारे सोचने-समझने और स्वतंत्र रुप से फैसले लेने की क्षमता पूरी तरह खत्म कर दी है।अब हम मीडिया में जो कहा जा रहा है उसे सत्य, न्याय, जनहित आदि के पैमानों पर नहीं परखते अपितु हमारी आदत हो गयी है कि मीडिया में जो कहा जा रहा उसे आँखें बंद करके मानने लगे हैं।

मोदी की मीडिया रणनीति की धुरी है ´घृणा´,कल तक हम मुसलमानों से नफरत कर रहे थे, विभिन्न किस्म के प्रचार अभियानों के जरिए इसे जेहन में उतारा गया,बाद में लवजेहाद के जरिए,कांग्रेस हटाओ-देश बचाओ,घृणा के तत्व के आधार पर कांग्रेस विरोधी प्रचार संगठित किया गया, घृणा के आधार पर पाकविरोधी, आतंकविरोधी प्रचार चलाया गया और अब घृणा के आधार पर ही तेजस्वी यादव और उनके परिवारीजनों के खिलाफ प्रचार अभियान चलाया गया। घृणा के आधार पर मोदी विरोधियों पर हमले किए जा रहे हैं।´घृणा´के आवरण के रूप में भ्रष्टाचार विरोध का इस्तेमाल किया गया, लेकिन मूल चीज है ´घृणा´।कहने का आशय यह कि ´घृणा´के बिना मोदी से प्यार पैदा नहीं होता। मोदी के गुण क्या हैं, मोदी ने कौन सा अच्छा काम किया है, ये चीजें मोदी प्रेम का आधार नहीं हैं बल्कि ´घृणा´ही मोदी प्रेम का आधार है। इस ´घृणा´को हम हर मसले पर मीडिया प्रस्तुतियों में सक्रिय भूमिका अदा करते सहज ही देख सकते हैं। मसलन् , मीडिया वाले गऊ गुंडई से लेकर तेजस्वी प्रकरण तक इसे साफतौर पर देख सकते हैं।यानी ´घृणा´का इतने व्यापक मॉडल के रूप में भारत में प्रयोग विगत ढाई हजार सालों में कभी नहीं देखा गया।हमारे यहां ´घृणा´थी लेकिन नैतिक रूप में। एक वैचारिक अस्त्र के रूप में मोदी ने इसका आविष्कार करके देश को गहरे संकट में डाल दिया है।अब हम गलत में मजा लेने लगे हैं,गलत हमें अच्छा लगने लगा है।यह ´घृणा´के मॉडल की सबसे बड़ी उपलब्धि है।´घृणा´के मॉडल की विशेषता है सभी किस्म के तर्क और विवेक का अंत। मोदी के व्यक्तित्व के सामने आज हम इस कदर अभिभूत हैं कि किसी भी चीज को वास्तव रूप में देखना ही नहीं चाहते।वास्तव से नफरत करने लगे हैं।





मंगलवार, 25 जुलाई 2017

आरएसएस को जेएनयू पर गुस्सा क्यों आता है -



जेएनयू पर एकबार फिर से बमबटुकों के हमले शुरू हो गए हैं। फ़रवरी 2016 के बाद यह हमलों का दूसरा चरण है।जेएनयू वीसी ने आरएसएस के नेतृत्व के आदेश के बाद ही टैंक लगाने का प्रस्ताव रखा है।वीसी के बयान के बाद संघ के साइबर टट्टू सोशलमीडिया में अहर्निश दौड़ रहे हैं और जेएनयू को गरियाने में लगे हैं। हम कहना चाहते हैं कि जेएनयू सच में महान है वरना बार -बार संघ हमले न करता। जेएनयू महान वाम की वजह से नहीं है, बल्कि विवेकवादी उदार अकादमिक परंपरा के कारण महान है।
      संघ अपनी नई टैंक मुहिम के बहाने जेएनयू के बारे में  यह धारणा फैलाने की कोशिश कर रहा है कि जेएनयू को मानवताविरोधी और राष्ट्रविरोधी संस्थान के रूप में कलंकित किया जाय।पहले हम यह जान लें कि जेएनयू को ये लोग नापसंद क्यों करते हैं? देश में और भी विश्वविद्यालय हैं उनको बदनाम करने की कोई मुहिम नहीं चल रही, क्योंकि वे सब संघ और टैंक कल्चर के क़ब्ज़े में हैं ! 
    आरएसएस की जेएनयू के प्रति घृणा का प्रधान कारण है जेएनयू के शिक्षक-छात्र संबंध।जेएनयू में देश के अन्य विश्वविद्यालयों के जैसे शिक्षक -छात्र संबंध नहीं हैं। यहां अधिकांश शिक्षक अपने छात्रों को मित्रवर मानकर बातें करते हैं।ज़्यादातर शिक्षकों के अकादमिक आचरण में पितृसत्तात्मकता नजरिया नहीं है।यहां वे शिक्षक होते हैं गुरू नहीं।यह वह प्रस्थान बिंदु है जहाँ से जेएनयू अन्य विश्वविद्यालयों  से अलग है। 
   दूसरी बडी चीज है सवाल खड़े करने की कला , यह कला यहां के समूचे माहौल में है।यहां छात्र सवाल करते हैं साथ ही "खोज" के नजरिए को जीवन का लक्ष्य बनाते हैं।कक्षा से लेकर राजनीतिक मंचों तक कैंपस में सवाल करने की कला का साम्राज्य है , यह  दूसरा बडा कारण है जिसके कारण जेएनयू को आरएसएस नापसंद करता है।आरएसएस को ऐसे कैंपस चाहिए जहाँ छात्रों में सवाल उठाने की आदत न हो , खोज करने की मानसिकता न हो।उल्लेखनीय है जिन कैंपस में सवाल उठ रहे हैं वहीं पर संघ के बमबटुकों के साथ लोकतांत्रिक छात्रों और शिक्षकों  का संघर्ष हो रहा है। 
       आरएसएस ऐसे छात्र -शिक्षक पसंद करता है जो हमेशा "जी जी "करें और सवाल न करें !आरएसएस वाले अच्छी तरह जानते हैं कि जेएनयू के छात्र वामपंथी नहीं हैं। वे यह भी जानते हैं जेएनयू के अंदर संघ की शिक्षकों में एक ताकतवर लॉबी है।इसके बावजूद वे जेएनयू के बुनियादी लोकतांत्रिक चरित्र को बदल नहीं पा रहे हैं।यही वजह है  वे बार -बार हमले कर रहे हैं।इन हमलों के लिए नियोजित ढंग से मीडिया का दुरूपयोग कर रहे हैं।राष्ट्रवाद और हिंदुत्व तो बहाना है।असल में जेएनयू के लोकतांत्रिक ढाँचे और लोकतांत्रिक माहौल को नष्ट करना है। संघ को लोकतांत्रिक माहौल से नफरत है उसे कैंपस में अनुशासित माहौल चाहिए जिससे कैंपस को भोंपुओं और भोंदुओं का केन्द्र बनाया जा सके।
     जेएनयूछात्रसंघ और छात्रसंघ का संविधान तीसरी सबसे महत्वपूर्ण चीज है जिसे आरएसएस नष्ट करना चाहता है। जेएनयू अकेला विश्वविद्यालय है जहाँ छात्रसंघ पूरी तरह स्वायत्त है ,छात्रसंघ के चुनाव स्वयं छात्र संचालित करते हैं,छात्रसंघ के चुनाव में पैसे की ताकत की बजाय विचारों की ताकत का इस्तेमाल किया जाता है। छात्रों को अपने पदाधिकारियों को वापस बुलाने का अधिकार है।छात्रसंघ किसी नेता की मनमानी के आधार पर काम नहीं करता बल्कि सामूहिक फैसले लेकर काम करता है।छात्रसंघ की नियमित बैठकें होती हैं और उन बैठकों के फैसले पर्चे के माध्यम से छात्रों को सम्प्रेषित किए जाते हैं। छात्रसंघ के सभी फैसले सभी छात्र मानते हैं और उनका सम्मान करते हैं। विवादास्पद मसलों पर छात्रों की आमसभा में बहुमत के आधार पर बहस के बाद फैसले लिए जाते हैं।ये सारी चीजें छात्रों ने बडे संघर्ष के बाद हासिल की हैं इनके निर्माण में वाम छात्र संगठनों की अग्रणी भूमिका रही है।जाहिरातौर पर आरएसएस और बमबटुकों को इस तरह के जागृत छात्रसंघ से परेशानी है और यही वजह है बार बार छात्रसंघ पर हमले हो रहे हैं। इसके विपरीत आरएसएस संचालित छात्रसंघों को देखें और उनकी गतिविधियों को देखें तो अंतर साफ समझ में आ जाएगा।
        जेएनयू में टैंक कल्चर के प्रतिवाद की परंपरा रही है। टैंक कल्चर वस्तुत: युद्ध की संस्कृति को अभिव्यंजित करती है। जेएनयू के छात्रों का युद्धके प्रतिवाद का शानदार इतिहास रहा है।इस्रायल के हमलावर रूख के खिलाफ प्रतिवाद से लेकर वियतनाम युद्ध के प्रतिवाद तक, अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत सैन्य हस्तक्षेप के खिलाफ प्रतिवाद से लेकर तियेनमैन स्क्वेयर पर चीनी टैंक दमन के प्रतिवाद तक छात्रों के सामूहिक प्रतिवाद की जेएनयूछात्रसंघ की परंपरा रही है।जेएनयू के छात्रों को मानवतावादी नजरिए से सोचने-समझने और काम करने की प्रेरणा वहाँ के पाठ्यक्रम से मिलती रही है जिसे आरएसएस पसंद नहीं करता।

शुक्रवार, 21 जुलाई 2017

नए राष्ट्रपति का उदय और संघ की नई रणनीति-

         रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति बनने के साथ ही आरएसएस का देश के सर्वोच्च का शिखर पर पहुँचने का सपना पूरा हो गया।यह संघ का बाल स्वप्न था। इस सपने में अनेक अंतर्विरोधी चीजें शामिल हैं। इनको सिलसिलेबार ढ़ंग से समझें। पहली बात यह कि कोविंद का राष्ट्रपति बनना ,दलित वोटबैंक राजनीति में कोई मदद नहीं करेगा।क्योंकि इस पदपर दलित को बिठाकर कांग्रेस को कोई दलित वोट नहीं मिला।दूसरी बात यह कि कोविंद के राष्ट्रपति बनने के पहले से ही सुरक्षित सीटों पर भाजपा की बेहतर स्थिति रही है।इसलिए आरक्षित सीटों में 19-20 का अंतर ही आएगा।
एक अन्य भय पैदा किया जा रहा है कि भारत का संविधान अब सुरक्षित नहीं है। यह भय निराधार है। भारत में मौजूदा स्थिति में आरएसएस का लक्ष्य संविधान नहीं है बल्कि सत्ता है और सत्ता की विभिन्न संरचनाओं को वे अपने अनुसार चलाने की कोशिश करेंगे। संविधान परिवर्तन करना इनके बूते के बाहर है और यह फिलहाल लक्ष्य नहीं है।
आरएसएस की मौजूदा मुहिम को दक्षिणपंथी क्रांति कहना समीचीन होगा।यह ऐसी क्रांति है जिसके बनियान और अंडरबियर आरएसएस के हैं और ऊपरी सभी कपड़े कांग्रेसी हैं। मोदी सरकार पूरी निष्ठा के साथ नव्य आर्थिक नीतियों को लागू कर रही है।इससे यह भ्रम नहीं रखना चाहिए कि संघ के लोग देशी नीति को लागू करने में विश्वास करते हैं।आरएसएस ने अपने स्वदेशी जागरण मंच के जरिए जितनी भी घोषणाएं की थीं उन सबको मोदी सरकार के जरिए कब्रिस्तान पहुँचा दिया है।
कोविंद के सत्तारूढ़ होने से आरएसएस की धर्मनिरपेक्षताविरोधी इमेज को कुछ हद तक साफ करने में मदद जरूर मिलेगी। आरएसएस के लोग केन्द्र की सत्ता में लंबी पारी खेलने के मूड में हैं। लेकिन मोदीजी के निजी रूख और नजरिए ने आरएसएस की लंबी पारी खेलने की आशाओं पर वैसे ही पानी फेर दिया है जैसे मनमोहन सिंह ने गांधी परिवार के सत्तारूढ़ होने के सपनों पर पानी फेरा था।
कोविंद-नायडू-सुमित्रा महाजन ये तीनों उस इलाके से आते हैं जहां आरएसएस कमजोर है।मोदीजी ने चालाकी के साथ मजबूत इलाकों के नेताओं को संवैधानिक पदों पर नहीं आने दिया है।इससे आरएसएस की लंबी पारी खेलने की संभावनाएं धूमिल हो गयी हैं।
दूसरी एक बात और वह यह कि समाज और मीडिया में हिंदू राष्ट्रवाद के प्रधान एजेंडा बन जाने के बाद विकास का एजेंडा गायब हो गया है।जबकि 2014 का चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा गया था,लेकिन 2019 में विकास नहीं हिंदू राष्ट्रवाद प्रधान मसला होगा और वैसी स्थिति में 2019 में मोदीजी की वापसी संभव नहीं है। मोदी के बाद सिर्फ दो विकल्प होंगे ,पहला देश फिर से उदारतावाद की ओर लौटे या मोदी से ज्यादा कट्टरपंथी को शासनारूढ़ करे।


Top of Form



व्यापारीवर्ग बनाम नरेन्द्र मोदी के पंगे

नरेन्द्र मोदी को सत्ता पर बिठाने में देश के व्यापारियों और कारपोरेट घरानों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।यह वर्ग विगत तीन सालों में मोदी सरकार की नीतियों के कारण किसी न किसी रुप में परेशान है,असंतुष्ट है और धीरे धीरे विभिन्न समूहों के तौर पर सड़कों पर प्रतिवाद के लिए निकल रहा है।मसलन्, विगत बजट के समय स्वर्ण व्यापारियों ने दो महिने तक आंदोलन किया, इधर विभिन्न स्तरों पर मांस के व्यापारी विरोध करते रहे हैं,नोटबंदी के कारण छोटे उद्योगों के मालिकों में गहरा असंतोष पैदा हुआ है।सबसे दिलचस्प है जीएसटी के विरोध में व्यापारियों का एक दिन का राष्ट्रीय बंद और उसके बाद कपड़ा व्यापारियों का सघन होता आंदोलन।ये सारी चीजें इस बात की ओर संकेत कर रही हैं कि मोदीजी को जो वर्ग सत्ता में लेकर आया उसी वर्ग के साथ अंतर्विरोध खुलकर सामने आ गए हैं।

दिलचस्प बात यह है व्यापारियों के जन- आंदोलन हो रहे हैं, विशाल रैलियां हो रही हैं,इस तरह की रैलियां हाल-फिलहाल के वर्षों में नजर नहीं आईं। मसलन् सूरत इन दिनों अशांत है।सूरत की अशांति को सामान्य रुटिन अशांति के रूप में न देखें। बल्कि उसे व्यापक फलक पर रखकर देखें कि किस तरह व्यापारियों के विभिन्न समूहों में मोदी सरकार के खिलाफ प्रतिवाद जन्म ले रहा है।वहीं दूसरी ओर मजदूरों-किसानों के आंदोलन भी हो रहे हैं। इन सबके कारण एक नए किस्म का प्रतिवादी राजनीतिक माहौल जन्म ले रहा है।



अनेक राजनीतिक विशेषज्ञ हैं जो यह मानकर चल रहे हैं कि मोदीजी 2019 में लौटकर फिर से सत्ता में आ रहे हैं। ये विशेषज्ञ भूल रहे हैं कि 2014 में मोदी के खिलाफ कोई असंतोष नहीं था बल्कि आशाएं जुड़ी हुई थीं।लेकिन 2019 तक मोदी के खिलाफ समाज के हर स्तर पर व्यापक असंतोष पैदा होगा,यह अनिवार्य है।कम से कम व्यापारियों के विभिन्न रूपों में हो रहे प्रतिवादों को गंभीरता से लेने की जरूरत है।व्यापारी समुदाय यदि बार बार प्रतिवाद कर रहा है तो यह तय है समाज में अशांति बहुत गहरे जा घुसी है,इस अशांति को मीडिया प्रबंधन के जरिए संभालना संभव नहीं है।इंतजार करें जमीन पक रही है।

रविवार, 2 जुलाई 2017

मोदीजी कॉमनसेंस और भीड़ संस्कृति

        मोदीजी का व्यक्तित्व तो संघ में जैसा था वैसा ही आज भी है।वे पहले भी बुद्धिजीवी नहीं थे,बुद्धिजीवियों का सम्मान नहीं करते थे, औसत कार्यकर्ता के ढ़ंग से चीजें देखते थे,हिंदू राष्ट्रवाद में आस्था थी,विपक्ष को भुनगा समझते थे,हाशिए के लोगों के प्रति उनके मन में कभी सहानुभूति नहीं थी, सेठों-साहूकारों के प्रति सहानुभूति रखते थे,साथ ही उनके वैभव को देखकर ईर्ष्या भाव में जीते थे,ये सारी चीजें उनके व्यक्तित्व में आज भी हैं बल्कि पीएम बनने के बाद ये चीजें ज्यादा मुखर हुई हैं।लेकिन एक बड़ा परिवर्तन हुआ है,जब तक वे पीएम नहीं बने थे,मध्यवर्ग का बड़ा तबका उनसे दूर था, बुद्धिजीवी उनके विचारों के प्रभाव के बाहर थे,लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के प्रचार ने उनके व्यक्तित्व और नजरिए की उपरोक्त खूबियों के प्रभाव में उन तमाम लोगों को लाकर खड़ा कर दिया जो पीएम होने पहले तक उनसे अप्रभावित थे।
मसलन्, विश्वविद्यालयों -कॉलेजों के शिक्षक और बुद्धिजीवी उनसे कल तक अप्रभावित थे,लेकिन आज उनसे गहरे प्रभावित हैं।आप दिल्ली के दो बड़े विश्वविद्यालयों जेएनयू और डीयू में इस असर को साफतौर पर देख सकते हैं।यही दशा देश के अन्य विश्वविद्यालयों की है।
सवाल यह है एक औसत किस्म के बौद्धिकता विरोधी नेता से बुद्धिजीवी समुदाय क्यों प्रभावित हो गया , इनको बुद्धिजीवी की बजाय भक्तबुद्धिजीवी कहना समीचीन होगा। वे कौन से कारण हैं जिनके कारण पीएम मोदी का यह वर्ग अंधभक्त बन गया। यह अंधभक्ति ज्ञान-विवेक के आधार पर नहीं जन्मी है,क्योंकि इससे तो मोदीजी के व्यक्ति्व का तीन-तेरह का संबंध है



मोदीजी का तर्क है कि देखो जनता क्या कह रही है, मीडिया क्या कह रहा है और मैं क्या कह रहा हूँ, हम तीनों मिलकर जो कह रहे हैं,वही सत्य है।यह मानसिकता और विचारधारा मूलतःअंधविश्वास की है।अंधविश्वासी इसी तरह के तर्क देते रहे हैं।

जरा इतिहास उठाकर देखें,सत्य कहां होता है ,सत्य क्या भीड़ में,नेता में या मीडिया में होता है या इनके बाहर होता है ?

वास्तविकता यह है सत्य इन तीनों के बाहर होता है,सत्य वह नहीं है जो झुंड बोल रहा है,सत्य वह भी नहीं है तो नेता बोल रहा है या मीडिया बोल रहा है,सत्य वह है जो इन तीनों के बाहर हमारी आंखों से,हमारे विवेक से ओझल है।

जरा उपरोक्त तर्कों के आधार पर परंपरा में जाकर देखें,मसलन्,राजा राममोहन राय के सतीप्रथा के विरोध को देखें,जिस समय उन्होंने सतीप्रथा का विरोध किया,बंगाल में अधिकांश लोग सतीप्रथा समर्थक थे,अधिकांश मीडिया भी सती प्रथा समर्थकों के साथ था,अधिकांश शिक्षितलोग भी उनके ही साथ थे। लेकिन सत्य राजा राममोहन राय के पास था,उनकी नजरों से देखने पर अंग्रेजों को भी वह सत्य नजर आया वरना वे भी सती प्रथा को बंद करना नहीं चाहते थे।

कहने का आशय यह है सत्य वह नहीं होता जो भीड़ कह रही है।कल्पना करो आर्यभट्ट ने सबसे पहले जब यह कहा कि पृथ्वी घूमती है और सूर्य की परिक्रमा लगाती है तो उस समय लोग क्या मानते थे, उस समय सभी लोग यही मानते सूर्य परिक्रमा करता है,सभी ज्योतिषी यही मानते थे,उन दिनों राजज्योतिषी थे वराहमिहिर उन्होंने आर्यभट की इस धारणा से कुपित होकर आर्यभट को कहीं नौकरी ही नहीं मिलने दी, तरह-तरह से परेशान किया। लेकिन आर्यभट ने सत्य बोलना बंद नहीं किया, आज आर्यभट्ट सही हैं,सारी दुनिया इस बात को मानने को मजबूर है।जान लें आज भी जो ज्योतिष पढाई जाती है उसमें आर्यभट्ट हाशिए पर हैं, वे न्ययूनतम पढाए जाते हैं लेकिन सत्य उनके ही पास था।

कहने का आशय यह कि हमें भीड़,नेता के कथन और मीडिया की राय से बाहर निकलकर सत्य जानने की कोशिश करनी चाहिए।सत्य आमतौर पर हमारी आंखों से ओझल होता है उसे परिश्रमपूर्वक हासिल करना होता है,उसके लिए कष्ट भी उठाना पड़ता है।बिना कष्ट उठाए सत्य नहीं दिखता।सत्य को कॉमनसेंस के साथ गड्जडमड्ड नहीं करना चाहिए।

मोदीजी ,उनका भोंपू मीडिया और उनके भक्त हम सबके बीच में कॉमनसेंस की बातों का अहर्निश प्रचार कर रहे हैं।

कॉमनसेंस को सत्य मानने की भूल नहीं करनी चाहिए।सत्य तो हमेशा कॉमनसेंस के बाहर होता है।जीएसटी का सत्य वह नहीं है जो बताया जा रहा है सत्य वह है जो आने वाला है, अदृश्य है ।भीड़चेतना सत्य नहीं है।

मोदीजी की विशेषता यह नहीं है कि वे पीएम हैं, वे पूंजीपतिवर्ग से जुड़े हैं,उनकी विशेषता यह है कि उनके जैसा अनपढ़ और संस्कृतिविहीन व्यक्ति अब बुर्जुआजी की पहचान है।
बुर्जुआ संस्कृति-राजनीति के आईने के रूप में जिन नेताओं को जानते थे,जिनसे बुर्जुआ गौरवान्वित महसूस करता था वे थे गांधी,आम्बेडकर, नेहरू-पटेल-श्यामाप्रसाद मुखर्जी आदि।वे बुर्जुआजी के बेहतरीन आदर्श थे, उनकी तुलना में मोदीजी कहीं नहीं ठहरते।
मोदी की विशेषता है उसने बुर्जुआजी को सबसे गंदा,पतनशील संस्कृति का प्रतिनिधि दिया।आज का बुर्जुआ नेहरू को नहीं मोदी को अपना प्रतिनिधि मानने को अभिशप्त है।यही मोदी की सबसे बड़ी उपलब्धि है।बुर्जुआ राजनीति का सबसे निकृष्टतम अंश है जिसकी नुमाइंदगी मोदीजी करते हैं,आज बुर्जुआ मजबूर है निकृष्टतम को अपना मुखौटा मानने के लिए, अपना प्रतिनिधि मानने के लिए।इस अर्थ में मोदीजी ने बुर्जुआ के स्वस्थ मूल्यों की पक्षधरता की सारी कलई खोलकर रख दी है।
आज का बुर्जुआ ,मोदी के बिना अपने भविष्य की कल्पना नहीं कर सकता।मोदी मानी संस्कृतिहीन नेता।यही वह बिंदु है जहां से मोदी की सफलता बुर्जुआवर्ग के सिर पर चढ़कर बोल रही है।मोदी जी का नजरिया बुर्जुआजी के ह्रासशील चरित्र की अभिव्यंजना है।
एक अन्य पहलू है वह है मोदीजी का पूरी तरह जनविरोधी , मजदूरवर्ग और किसानवर्ग विरोधी चरित्र।उनके इस चरित्र के कारण नए भक्त बुद्धिजीवियों को मोदी बहुत ही अपील करते हैं। नया भक्त बुद्धिजीवी और नया मध्यवर्ग स्वभावतः मजदूर-किसान विरोधी है। नए भक्तबुद्धिजीवी का देश की अर्थव्यवस्था और वास्तव सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं से कोई लेना-देना नहीं है।यहां तक कि वे जिन वर्गों से आए हैं उन वर्गों के हितों की भी रक्षा नहीं करते।वे तो सिर्फ मोदी भक्ति में मगन हैं।यह मोदी की सबसे बड़ी उपलब्धि है।



शनिवार, 1 जुलाई 2017

ठंडे समाज की सिहरन


       तमाम ठंड़े दिमाग के लोग यही कह रहे हैं मोदीजी उपकार करेंगे!आरएसएस देश का मान-सम्मान ऊँचा करेगा।दुनिया में जहां पर भी आरएसएस जैसे संगठनों के लोग सत्ता में आए हैं सरकार ,समाज और देश का मस्तक गर्व से ऊँचा ही हुआ है ! इसलिए आरएसएस के प्रति शत्रुभाव रखने की जरूरत नहीं है ! दंगों में लोगों का मारे जाना, गऊ रक्षकों के हाथों निर्दोष लोगों की हत्या,कश्मीर में चल रहा उत्पीड़न असल में उत्पीड़न नहीं है बल्कि वह ऐतिहासिक काम है जिसे इस देश को हर हालत में और खुशी खुशी संपन्न करना चाहिए ! हमें ठंड़े रहकर चीजों को देखना चाहिए। ठंड़े रहकर ही समाधान खोजने चाहिए।हमें ठंड़े रहकर जीने की कला हिमालय से सीखनी चाहिए।कितना ठंड़ा है और कितना ऊँचा है ! कितना निर्जन है !ठंड़ा समाज,ठंड़ा दिमाग और निर्जन समाज और हिमालय जैसी शांति और ठंड़क ही है जो भारत को महान बनाती है ! उसके मान-सम्मान में इजाफा करती है।

ठंड़ा रहना,ठंड़ा सोचना और सिहरन में काँपते रहना यही है 21वीं सदी के भारत का सच।आप ठंड़े हैं तो सुरक्षित हैं ! ऐसे बनो कि कभी पिघलो मत।चाहे जितनी चिंताएं दिखाई दें,आदमी तकलीफों में डूब जाए लेकिन ठंड़े रहो! गुलफाम रहो!गुलाम रहो!

कल्पना करो बार-बार उन ऐतिहासिक क्षणों के बारे में मोदी सरकार क्यों याद दिला रही है ॽ उन नेताओं के नामों और कामों का स्मरण क्यों कर रही है जिनके जमाने में समाज गर्म था ॽउन क्षणों में मोदी सरकार क्यों मौजूद दिखना चाहती है जो समाज के गर्म क्षण थे।

सन् 1947 में जब देश आजाद हुआ तो समाज गर्म था,पटेल ने विभिन्न रियासतों का भारत में विलय कराया था तब भारत गर्म था।आम जनता के मन में आशा और उमंगों की हिलोरें उठ रही थीं ,समाज में गर्म हवाएं चल रही थी, हर आदमी बेचैन था।यानी आज के ठंड़े माहौल से पुराने वाले माहौल की विलोम के रूपमें ही तुलना संभव है।कांग्रेस सत्ता के शिखर पर थी संसद में छाई हुई थी,आरएसएस संसद के बाहर था, लेकिन कल कांग्रेस संसद के बाहर खड़ी थी, कल आरएसएस ने संसद को घेरा हुआ था,सन् 47 में वे मुखबिर थे,आज वे देश के संरक्षक हैं,पहले वे गांधी के परमशत्रु थे ,आज वे गांधी के परमभक्त हैं! सन् 47 में कम्युनिस्टों और क्रांतिकारियों की महत्वपूर्ण भूमिका थी लेकिन आज वे राजनीतिक प्रक्रिया के बाहर खड़े हैं। सन्47 के समाज में गर्म ऊर्जा थी,सन्2017 के समाज में सारी ऊर्जा ठंड़ी पड़ी है।गर्म समाज और ठंडे समाज में यही अंतर है।गर्म समाज ने सुई से लेकर परमाणु बम तक सब चीजों का निर्माण किया,ठंड़े समाज ने मात्र एप का निर्माण किया।विज्ञापनों का निर्माण किया।गर्म समाज के पास कुर्बानी का जज्बा था,ठंड़े समाज के पास आराम के साथ जीने,परजीवी की तरह रहने की आदत है।गर्म समाज सोचता था ,ठंड़ा समाज भोक्ता है।

ठंड़े समाज की स्प्रिट के साथ सन्47 की स्प्रिट की तुलना करना बेवकूफी है।आप चाहकर भी वह स्प्रिट पैदा नहीं कर सकते।सन्47 में सारा देश संसद में था,सारे मत-मतान्तर संसद में थे,लेकिन सन्17 में तो सिर्फ एक ही मत संसद में था,गैर-मोदी मत-मतान्तरों को खदेड़कर बाहर कर दिया गया।याद रखो ठंड़े समाज में हरकत नहीं होती।ठंडा शरीर हरकत नहीं करता।जो हरकत नहीं करता वह समाज का निर्माण नहीं करता।हिमालय से भारत नहीं, भारत बनता है हिमालय को तोड़कर ! हिमालय प्रगति का प्रतीक नहीं है बल्कि हिमालय को बदलना ही प्रगति है।अफसोस की बात है हम ठंड़े होते जा रहे हैं!हिमालय होते जा रहे हैं!हिमालय बनने या ठंड़े समाज बनने का अर्थ है सभ्यता को,समाज को,दिमाग को प्रकृति को गिरवी रखना,तय करो किस ओर हो हिमालय की ओर या मनुष्यता की ओर ! मनुष्यता की सारी उपलब्धियां वे हैं जो उसने हिमालय को तोड़कर हासिल की हैं,लेकिन ठंड़े समाज का अंग बनकर आप उपलब्धियां हासिल नहीं कर सकते लेकिन हिटलर हासिल कर सकते हैं !





विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...