सोमवार, 23 नवंबर 2009

कामुकता का वि‍लायती तर्कशास्‍त्र


मिशेल फूको  ने 'दि हिस्ट्री ऑफ सेक्सुअलिटी' के तीसरे खण्ड 'दि केयर ऑफ दि सेल्फ' के पहले भाग में ''ड्रीमिंग ऑफ अन प्लेजर'' में आर्मिताज की रचना के संदर्भ में जो सवाल उठाते हैं,वे काफी हद तक कामसूत्र की धारणाओं से मेल खाते हैं। आर्मिताज की कृति 'दि इंटरप्रिटेशन ऑफ दि ड्रीम' का मूल्यांकन करते हुए जो बातें कही हैं उनमें से कई बातें कामसूत्र में भी सूत्र रूप में मौजूद हैं। फूको की किताब ''हिस्ट्री ऑफ सेक्सुअलिटी'' के प्रकाशन के पहले से ही फूको की कामुता संबंधी मान्यताएं चर्चा के केन्द्र में आ चुकी थीं। एक रेडियो परिचर्चा में मौरिस क्लावेल ने फिलिप सुलर के साथ बहस करते हुए घोषणा की थी कि फूको की आगामी किताब पश्चिमी देशों की कामुकता के ऊपर होगी। यह सही है कि उसके आने के बाद सब कुछ पलट जाएगा। फूको ने ''हिस्ट्री ऑफ सेक्सुअलिटी'' के प्राक्कथन में लिखा है कि एक ऐसा इतिहास लिखा जाए जिसमें कामुक टेबुओं का वर्णन हो।यह इतिहास ही हमें बताएगा कि हमारा समाज किस तरह निरंतर विभिन्न किस्म के दमनात्मक रूपों से गुजरता रहा है। इस इतिहास में हमें नैतिकता और दमन के क्रमवार विवरण को नहीं जानना है,अपितु यह जानना है कि  हमारी इच्छाओं का सुखद संसार कैसे पश्चिमी और नैतिक मूल्यों के उदय में बदल गया।
     सन् 1977 में मेडिलिन चैपल को दिए एक साक्षात्कार में फूको ने कहा कि उन्माद और कामुकता का नियोजित इतिहास ये मेरे  ''दो प्रकल्प'' हैं। उल्लेखनीय है कि ''हिस्ट्री ऑफ सेक्सुलिटी'' के फूको ने कई मसौदे लिखे थे।फूको ने दो तरह के कामुक साहित्य की चर्चा की है। पहली कोटि में कामुक कला साहित्य आता है। दूसरी कोटि में सेक्स के सच को उद्धाटित करने वाला साहित्य आता है। फूको का मानना था कि चीन,जापान,भारत और रोम में कामुक कला रूपों पर व्यापक साहित्य मिलता है जबकि सेक्स के सच को उद्धाटित करने वाला साहित्य नहीं मिलता। सच यह नहीं है भारत में सेक्स के सच को उद्धाटित करने वाला साहित्य बड़े पैमाने पर लिखा गया है। इसकी एक परंपरा कामसूत्र से शुरू होती है, दूसरी परंपरा सुश्रुत की 'चरकसंहिता' और तीसरी परंपरा ज्योतिष के सामुद्रि‍कशास्त्र में मिलती है।
     पश्चिम के संदर्भ में सेक्स के सच को उद्धाटित करने वाला साहित्य कम लिखा गया। किन्तु भारत में ऐसा नहीं था। पश्चिम की परंपरा से भिन्न भारत में सेक्स के सच का साहित्य सत्ता विमर्श के दायरे में ही नहीं लिखा गया।अपितु उसकी जड़ें सामान्यजन के विमर्श में भी रही हैं। कामसूत्र सामान्यजन के विमर्श के रूप में लिखा गया। बाद में सत्ता विमर्श ने इसे सामान्यजन के जीवन से अलगकर दिया। इसका प्रधान कारण था सेक्स के प्रति दमनात्मक नजरिए का समाज पर आरोप। दमनात्मक नजरिए को अनेक रूपों में थोपा गया। इसमें साहित्य की सबसे बड़ी भूमिका थी।
फूको ने सेक्स के दमनात्मक रूप के बारे में तीन संदेह व्यक्त किए हैं,सेक्स के प्रति दमनात्मक रवैयया रहा है,जरूरी नहीं है कि इसके ऐतिहासिक तथ्य मिलें, सत्ता की संरचनाएं दमन का उपकरण न हों,यह जरूरी नहीं है कि दमन के युग और दमन के विश्लेषण के बीच कोई अंतराल हो। किन्तु यह सच है कि विगत तीन सौ वर्ष दमन के रहे हैं।
          मध्यकाल में कामुक कला रूपों के इर्दगिर्द कामुकता का विकास किया गया। दरबारी सभ्यता के साथ श्रृंगार साहित्य का संबंध वस्तुत: कामुकता को सत्ता विमर्श का हिस्सा बनाता है। कामुकता जब सत्ता विमर्श बन गया तो उसके विरोध में जनसाहित्य और जनकला रूपों में प्रतिवाद शुरू हुआ। जनता नहीं चाहती थी कि कामुकता को सत्ता विमर्श से जोड़ा जाए। यही वजह है कि श्रृंगारी साहित्य का भक्ति साहित्य के साथ गहरा संबंध उभरकर सामने आया। एक जमाना था जब कामुकता के साथ आनंद का संबंध था, कामुकता विमर्श जब सत्ता विमर्श से जुड़ गया तो साधारण लोगों ने सृजन के माध्यम से कामुकता के साथ आनंद के संबंध को तोड़ दिया ,आनंद को एक स्वायत्त रूप दे दिया ,आनंद को कामुकता से मुक्त कर दिया। इस कार्य में भक्ति ने सबसे बड़े उपकरण का कार्य किया। इस संदर्भ में हमें दरबारी कामुकता और साधारण जनता की कामुकता में भेद करना होगा। दरबारी कामुकता सत्ता की गुलाम थी। साधारण जनता की कामुकता भक्ति की दास थी। भक्ति वैयक्तिक थी। फलत: प्रच्छन्न रूप से कामुकता को भी व्यक्तिगत बनाने की चेष्टा की गई। कामुकता को सत्ता के ज्ञान क्षेत्र से बाहर लाया गया। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो कामुकता के रूपों की मिथकीय चरित्रों के माध्यम से की गई अभिव्यक्तियां वस्तुत: आत्मस्वीकृतियां और आत्म इच्छाएं  हैं।
        फूको का मानना था कि सेक्स को दमनात्मकबोध से मुक्त होना चाहिए। दमनात्मकता अंतत: आनंद को खत्म कर देती है। जबकि कामुकता बुनियादी तौर पर क्रांतिकारी होती है।बशर्ते उस पर किसी भी किस्म की पाबंदी न लगायी जाए। कामुकता का उन्मुक्तकामी भाव विभिन्न किस्म के मुक्तिकामी तत्वों को आकर्षित करता है। हमें सेक्स की एजेंसी से अपने को मुक्त करना चाहिए,यदि हम कामुकता के विभिन्न रूपों के तानेबाने को उलटना चाहते हों।हमें पावर,शरीर,आनंद और ज्ञान के बहुस्तरीयता और प्रतिरोध की संभावनाओं के खिलाफ खड़ा होना होगा। हमें सेक्स की इच्छाओं का विरोध करने की बजाय शरीर और आनंद के खिलाफ हमला करना चाहिए।
     अपने एक साक्षात्कार में मेडलिन चेपल से फूको ने कहा कि ''मैं सभी किस्म के आनंद के विकेन्द्रीकरण और क्षेत्रीकरण के पक्ष में हूँ।'' एक अन्य साक्षात्कार में बर्नार्ड हेनरी लेवी से कहा नए उभरते हुए आंदोलन '' ज्यादा सेक्स'' या '' सच के बारे में और ज्यादा सत्य ''  की मांग नहीं कर रहे।  मुद्दा यह नहीं है कि उसे 'खोजा' जाए' बल्कि अन्य किस्म के आनंद,संबंध,बंधन,प्रेम और मंशाओं  को निर्मित किया जाए। फूको इस पक्ष में था कि इस संबंध में तरह-तरह की सामग्री तैयार करके दी जानी चाहिए। विचारकों का एक तबका ऐसा भी है जो 'कामेच्छा' और 'आनंद' को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करता रहा है। फूको ने इस तरह के विचारों से अपने को अलग किया। उसने लिखा ''मै इस पदबंध(आनंद) को विस्तार देना चाहता हूँ। क्योंकि मुझे लगता है कि इसमें चिकित्सकीय और प्रकृत भाव से पलायन का भाव अन्तर्निहित है। इस धारणा को एक उपकरण के रूप में, सामान्यभाव के अर्थ में लिया जाना चाहिए। 'तुम मुझे अपनी इच्छा बताओ मैं तुम्हें बताऊँगा कि तुम क्या हो' तुम स्वाभाविक हो या नहीं, और 'आनंद' तो पवित्र क्षेत्र है, अपने अर्थ से भटका हुआ, आनंद का अभी तक कोई सम्यक् विवेचन नहीं हो पाया है। 'असामान्य' आनंद जैसी कोई चीज नहीं होती।यह व्यक्ति के बाहर घटने वाली घटना है या  अथवा स्वयं ही विषय है। यह न शरीर है और आत्मा है। यह न बाहर है न भीतर है।यह ऐसी धारणा है जिसका वर्णन करना या बताना संभव नहीं है।समलैगिंक संस्कृति के संदर्भ में फूको के विचार वि-कामुकीकरण (डिसेक्सुलाइजेशन) के संदर्भ में व्यक्त किए गए हैं।  किन्तु इन विचारों को कामुक अर्थ में इस्तेमाल किया जाता रहा है,जो गलत है।
        समलैंगिकों की एक पत्रिका को दिए साक्षात्कार में फूको ने कहा 'कामुकता' को 'दो पुरूषों के प्रेम' के साथ जोड़ना समस्यामूलक और आपत्तिजनक है। ''अन्य को जब हम यह एक छूट देते हैं कि  समलैंगिता को शुध्दत:  तात्कालिक आनंद के रूप में पेश किया जाए, दो युवक गली में मिलते हैं, एक- दूसरे को आंखों से रिझाते हैं, एक-दूसरे के हाथ एक-दूसरे के गुप्तांग में कुछ मिनट के लिए दिए रहते हैं। इससे समलैंगिकता की साफ सुथरी छवि  नष्ट हो जाती है। यह चीज मुझे दो कारणों से परेशान करती है।  पहला, यह सौन्दर्य के नए मानक का आश्वासन देती है, यह आकर्षण,समर्पण,प्यार, बंधुत्व ,सहभागिता आदि तत्वों को नष्ट कर देती है और परेशान करती है। एक नियंत्रित समाज में इसके लिए कोई जगह नहीं है। इस तरह का संबंध भय पैदा करता है। इसमें से अबांछित शक्तियां पैदा होने लगती हैं। दूसरा ,मैं सोचता हूँ कि समलैंगिकता में अनिश्चितता है। समलैंगिक जीवन शैली या यों कहें कि उसकी काम -क्रिया में ही अनिश्चितता अस्थिरता है।ऐसी काम-क्रिया की कल्पना करो  जो कानून के खिलाफ हो या उसकी प्रकृति से लोग चिन्तित न हों । किन्तु जब व्यक्ति एक-दूसरे से प्यार करने लगते हैं तो समस्यामूलक हो जाता है।'' फूको ने '' हिस्ट्री ऑफ सेक्सुएलिटी'' के अंतिम खण्ड में मित्रता पर व्यापक विचार विमर्श किया है। जबकि मित्रता को समलैंगिक संस्कृति का मूल तत्व नहीं माना जा सकता। समलैंगिक संस्कृति के बारे में फूको के विचार काफी क्रांतिकारी थे। वह इसे भिन्न नजरिए से देखता था।
फूको ने  सन् 1982 में 'क्रिस्टोफर स्ट्रीट ' मैगजीन में प्रकाशित साक्षात्कार में कहा ''सच यह है कि एकलिंग के दो व्यक्तियों का प्रेम एक तरह से स्वाभाविक तौर पर अन्य किस्म के मूल्यों की पूरी श्रृंखला लेकर आता है। यहां सिर्फ प्यार करने तक ही चीजें सीमित नहीं रहतीं,बल्कि यह सांस्कृतिक रूपों के निर्माण का सवाल भी है। इन सांस्कृतिक रूपों में '' इस संबंध का अस्थायी अस्तित्व भी शामिल है।'' इस समस्या का सामान्यीकरण करते हुए फूको ने लिखा '' ऐसी संस्कृति जो व्यक्तियों के संबंध, अस्तित्व के रूप,विनिमय आदि के रूप में एकदम नयी या पहले जैसी नहीं है। और न  इसे मौजूदा सांस्कृतिक रूपों पर थोपा ही जा सकता है। यदि यह संभव हो तो समलैंगिक संस्कृति सिर्फ समलैंगिकों के लिए ही होगी। एक अवस्था के बाद यह संबंध हैट्रोसेक्सुअल में स्थान्तरित हो सकती है।''
   ( फोटो- मि‍शेल फूको, लेखक- जगदीश्‍वर चतुर्वेदी,सुधासिंह )
     


2 टिप्‍पणियां:

  1. पश्चिमी साहित्य ने कामुकता को उत्तरोत्तर कामुक बनया है ! अच्छा लिखा है !
    मगर खुद ही एकालाप की वृत्ति न पाले और जगहों पर देखें क्या लिखा पढ़ा जा रहा है
    और चर्चाओं में भाग लें !संवाद बनायें -ब्लागजगत को अपनी उपस्थति से जीवंत करें !
    केवल प[आराम्प्रिक बुद्धिजीवी की तरह एकांतवास न करें !

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  2. एक ऐसा इतिहास लिखा जाए जिसमें कामुक टेबुओं का वर्णन हो।यह इतिहास ही हमें बताएगा कि हमारा समाज किस तरह निरंतर विभिन्न किस्म के दमनात्मक रूपों से गुजरता रहा है।

    आशा है इस में दिल्ली की सडकों पर हो रहे खुलेआम बलात्कारों का भी ज़िक्र होगा॥

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