रविवार, 22 नवंबर 2009

कामसूत्र में कामुकता और शादी के सवाल

      हमारे यहां शादी का सवाल सामाजि‍क था,आज भी हैं । उन लोगों को इसके दायरे के बाहर रखा गया है जो सामाजिक नहीं थे। अथवा जो तथाकथित तौर पर समाज का हिस्सा नहीं थे। समाज के दायरे में वे ही लोग शामिल थे जो चारों वर्ण में से पहले तीन वर्ण में थे, इनमें भी वे लोग जो संस्कार ,नियम और सामाजिक मान्यताओं का पालन करते थे।
      इसका अर्थ है कि सामाजिक या नागरिक के रूप में जिन्हें शामिल किया गया है उनमें समाज का बहुत छोटा तबका आता था। कामसूत्र के '' नागरकवृत्तप्रकरणम्''में विस्तार से इस पक्ष पर रोशनी डाली गयी है। कामसूत्र में जिन चौंसठ कलाओं का जिक्र है उनमें दो-तिहाई कलाएँ बौध्दिक और साहित्यिक हैं। प्रात: से लेकर सोने तक,घर के स्वरूप से लेकर उसकी साज-सज्जा तक का सारा कारोबार आभिजात्य को केन्द्र में रखकर पेश किया गया है।कहने के लिए कामसूत्र में चारों वर्ण के लिए प्रावधान है, किन्तु इस प्रसंग में अन्य समकालीन और बाद के पाठ चतुर्थ वर्ण के प्रति उतने उत्साही नजर नहीं आते जितने वे पहले नजर आते हैं। शूद्रों के समान नागरिक के रूप में अधिकांश अधिकार छीने जा चुके थे। राक्षसों में आदिवासियों को शामिल करके समाज बहिष्कृत किया जा चुका था। ऐसे में समाज के दायरे में तीन वर्ण के लोग ही आते थे, उनका ही सभा,गोष्ठियों, उत्सवों आदि से लेकर राजमहलों तक अबाध प्रवेश था।
इसी प्रसंग में 'समाज उत्सव' का जिक्र करना समीचीन होगा।  इस उत्सव का समूचा चरित्र इस तथ्य को प्रकाशित करता है कि आखिरकार समाज में किसे शामिल किया जाता था। वात्स्यायन के जमाने में पंचमी तिथि को रात को सरस्वती के मंदिर में यह उत्सव मनाया जाता था। यह उस जमाने का प्रथम श्रेणी का उत्सव माना जाता था। इसमें तरह-तरह के कलाकार भाग लेते थे और उन्हें सम्मानित और पुरस्कृत भी किया जाता था। इस उत्सव की परंपरा वैदिक काल से लेकर ईसा की सातवीं शताब्दी तक अविच्छिन्न मिलती है। वैदिक काल में इसे 'समन' कहा जाता था। बाद में इसका नाम 'समाज' हो गया। यह एक तरह का मेला था। यह उत्सव सभ्य नागरकों ,साधारणजनों और राक्षसों में भी मनाया जाता था। इसके अलावा भी अनेक उत्सव,मेले आदि के विवरण इस अध्याय में दिए गए हैं।समाज के क्रम में ही हमें वैषम्यपूर्ण प्रावधानों को देखना हो तो समृध्द और असमृध्द नागरिकों के बीच में किए गए वर्गीकरण को गौर से पढ़ा जाना चाहिए।समृध्द कलाकार और असमृध्द कलाकार की दुनिया का जो विवरण दिया गया है,वह इस तथ्य का द्योतक है कि समाज में भेद था,कलाकारों में भी भेद था। कामसूत्र में एक तरफ नागरिक है जो समृध्द है ,कलासम्पन्न है।दूसरी ओर ऐश्वर्यहीन नागरक और एकाकी कलाकार है, उपनागरक है।
किन्तु जो लोग गन्धर्व आदि चार विवाह पध्दति अपनाना चाहते हैं उनके लिए अलग से आधार बताया गया है। यही वे विवाह की पध्दतियां हैं जहां पर लड़का या लड़की की व्यक्तिगत पहलकदमी को कामसूत्र में ज्यादा महत्व दिया गया है। 'बालोपक्रमणप्रकरणम्' में इसका व्यापक विवेचन मिलता है।इस प्रकरण और अधिकरण के विशेषज्ञ आचार्य घोटकमुख लड़की-लड़के का एक-दूसरे से मिलना बुरा नहीं मानते। एक-दूसरे के प्रति अनुरक्त होना अधर्म नहीं मानते। इस क्रम में वह न तो वर्ण की चर्चा करते हैं और न धर्म की चर्चा करते हैं।जबकि ब्राह्म आदि विवाह पध्दतियों में एक ही वर्ण के लोगों के बीच विवाह की बात कही गयी है।
     लड़का-लड़की के बीच तरूणावस्था में ही एक-दूसरे के प्रति यौन आकर्षण पैदा हो सकता है। इसकी ओर भी कामसूत्र में संकेत किया गया है। वात्स्यायन ने प्रेम करने योग्य बाला, तरूणी और प्रौढ़ा स्त्री का वर्णन किया है। इसी क्रम में विवाह पूर्व कामुक संबंध की शुरूआत होती है। कामसूत्रकार ने विवाह पूर्व शारीरिक संबंधों को बुरा नहीं माना है।शर्त यह है कि वे एक-दूसरे पर विश्वास करते हों। जिस तरह लडके को स्वयं विवाह और प्रेम का फैसला करने का हक है उसी प्रकार लड़की को भी स्वयं ही पहल करने और फैसला करने का हक है। ऐसा कामसूत्रकार का मानना है। ये सारी बातें 'एकपुरूषाभियोगप्रकरणम्' में विस्तार से बतायी हैं। इस प्रकरण की विशेषता यह है कि इसमें कामुक संबंधों के सवाल पर पुरूष की तुलना में स्त्री के परिप्रेक्ष्य में ज्यादा विस्तार से प्रकाश डाला है। स्त्री के प्रेम,इच्छा,आकांक्षा,सामाजिक सुरक्षा आदि के सवालों को वरीयता दी गई है। कामसूत्रकार के अनुसार गान्धर्व विवाह सुखद,अल्पप्रयत्न, अल्पक्लेशसाध्य, और विधि-विधानों के बखेड़ों से रहित प्रेमप्रधान और श्रेष्ठ माना जाता है।
लिखा है '' सुखत्वादबहुक्लेशादपि चावरणादिह। अनुरागात्मककत्वाच्च गान्धर्व: प्रवरो मत:॥''
    कामुकता विमर्श में वेश्याओं पर हमेशा चर्चा होती रही है। कामुकता विमर्श में पत्नी,प्रेमिका,परस्त्री और वेश्या इन चारों के बारे में कामसूत्र में विस्‍तार से चर्चा  की गई है। यह संभव नहीं है कि कामुकता का वेश्या के बगैर कोई विमर्श या शास्त्र बन जाए। ऐसा क्यों हुआ कि वेश्या को इस तरह अपरिहार्य अंग के रूप में देखा गया ? पहली बात यह कि वेश्या या गणिकाएं कामशास्त्र में पारंगत थीं। अनेक कलाओं में निष्णात थीं। यह भी लिखा कि सेक्सजनित बीमारियों या संक्रामक बीमारियों के शिकार व्यक्तियों के साथ वेश्या संभोग न करे। इस बात का संकेत देते हुए कामसूत्रकार यह संकेत देता है कि प्राचीनकाल में पुरूषों में अनेक ऐसी बीमारियां होती थीं जो संक्रामक थीं। वेश्याओं के पास ऐसे लोग जाते थे जो जाति में श्रेष्ठ हुआ करते थे, धनी हुआ करते थे,और कला विशेषज्ञ भी हुआ करते थे।इसके अलावा साधारण लोग भी वेश्याओं के यहां जाते थे। वेश्याओं से समागम के योग्य जो लोग नहीं थे,उनमें बीमारियों से ग्रस्त, पत्नीव्रत धारण करने वाले, कटुभाषी, निर्दयी,जादू-टोटका करने वाला आदि व्यक्तियों को शामिल किया गया है।
  ( लेखक-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी,सुधा सिंह )





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