बुधवार, 18 नवंबर 2009

मुक्‍ति‍बोध जन्‍म सप्‍ताह : पंडि‍त नेहरू और मार्क्‍सवाद के हि‍मायती मुक्‍ति‍बोध -चंचल चौहान





मुक्तिबोध का पूरा लेखन विश्व की उन तमाम राजनीतिक शक्तियों जो सर्वहारावर्ग और उसकी विचारधारा ––मार्क्सवाद व लेनिनवाद–– के प्रति समर्पित हैं के पक्ष में खड़ा है और उन तमाम शक्तियों के खिलाफ है जो जनवादविरोधी हैं और साम्राज्यवाद और सामंतवाद की पिट्ठू हैं । देश के स्तर पर भी उनका लेखन तमाम शोषणकारी जनवादविरोधी फासिस्ट और सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ है जो भारत की प्रगति में बाधा उत्पन्न करती हैं जिन्हें प्रतिक्रियावादीकहा जाता है । ये शक्तियांभारतीयता’, ‘भारतीयतावादया राष्ट्रवादका जाप करती रहती हैं मगर साम्राज्यवाद तथा बड़े धन्नासेठों और रजवाड़ों का हित साधन करती हैं । यह भी उनके लेखों से स्पष्ट है कि काव्यांदोलन के रूप में प्रगतिवादका पक्षपोषण उन्होंने किया और उसकी विचारधारा को कला के सर्वोच्च बिंदु पर पहुंचाया । उनका समूचा लेखन मध्यवर्ग से यही कहता है कि तय करो किस ओर हो तुम। या पार्टनर, तुम्हारी पालिटिक्स क्या है ?’
      मुक्तिबोध को मार्क्सवादी विचारधारा ने यह सिखाया था कि समाज का विकास उत्पादन के साधनों यानी टेक्नालाजी के विकास से होता है , आदिम काल में औजार आदिम थे, दासयुग में उससे बेहतर हुए, फिर सामंतवाद में और अधिक विकसित हुए । पूंजीवाद के आगमन से तमाम तरह का वैज्ञानिक विकास हुआ और आज भी हो रहा है । पूंजीवाद के इस प्रगतिशील रोल को खुद मार्क्स और हर मार्क्सवादी चिंतक की तरह मुक्तिबोध भी जानते थे । इसके लिए फ्रांस की क्रांति पर उनकी जो टिप्पणियां हैं उन्हें देखा जा सकता है । पूंजीवादी दौर में निजी संपत्ति के अधिकार और लाभलोभ पर आधारित व्यवस्था से पैदा हुए दुगु‍र्णों का और मनुष्‍य द्वारा मनुष्य के शोषण का अंत समाजवाद की स्थापना से संभव होगा, ऐसा उनका विश्वास था । लेकिन मुक्तिबोध यह भी जानते थे कि भारत या चीन जैसे अविकसित देशों में अभी सीधे समाजवाद की मंजिल का नारा नहीं दिया जा सकता और निजी संपत्ति के अधिकार को खत्म करने की वस्तुगत स्थिति भी अभी नहीं है । इसलिए विकास की मंजिल का निर्धारण अलग अलग देशों में अलग अलग तरीके से होगा और कम्यूनिस्ट पार्टियां जहां सत्ता हासिल करेंगी वहां भी मुख्य दिशा सामाजिक आर्थिक विकास और उत्पादन प्रणाली को वैज्ञानिक तरीके से आगे बढ़ाने की रहेगी । उन्होंने लिखा था कि  ‘मार्क्सवाद के अनुसार समाजवाद की बुनियादी बातों में, खेती तथा उद्योगों का समाजीकरण, और राष्ट्र विकास के लिए बहुत आर्थिक आयोजन का काम शामिल है । एक बार इस बुनियादी लक्ष्य को स्वीकार करने के बाद, देशदेश की अपनीअपनी परिस्थितियों तथा विकासावस्थओं की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्थायीअस्थायी अनेक प्रकार की संस्थाएं और कार्यक्रम चलाये जा सकते हैं । यहां तक कि व्यक्तिगत उद्योग तथा व्यक्तिगत खेती तथा निजी संपत्ति तक को प्रश्रय दिया जा सकता है । चीन ने, एक ओर, सामाजिक सत्ता के अंतर्गत पूंजीवाद को न केवल प्रश्रय दिया, वरन् उसका इस ढंग से विकास किया कि जिससे वह सामाजिक सत्ता के बल को बढ़ा सके और उसकी उत्पादित वस्तुएं वही हों जिनकी आवश्यकता समाज को है ।
उनके तमाम लेख इस बात के गवाह हैं कि वे भारत के औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण के खिलाफ नहीं थे । मुक्तिबोध ने जवाहरलाल नेहरू की भूमिका की कई जगह पूरी तरह सराहना ही की है, नेहरू ही नहीं, हर स्वतंत्रता सेनानी की, यहां तक कि संघियों के पितामह वीर सावरकर के शुरू के दिनों की भी सराहना की, आलोचनात्मक दृष्टि के बावजूद मुक्तिबोध ने किसी भी स्वतंत्रता सेनानी की आजादी के बाद के दिनों में भी निंदा या छीछालेदर नहीं की जैसी कि बहुत से तत्वों ने की, निंदा ही नहीं, गांधी जी का तो ​​हिंदू सांप्रदायिक तत्वों ने कत्ल ही करवा दिया । कोई मार्क्सवादी या जनतंत्र में विश्वास रखने वाला जनता को कभी भूल गलती करने वाला नहीं मानता, मुक्तिबोध ने जगह जगह जनता को सम्मान के साथ चित्रित किया है, भूल गलती करने वाली अपढ़ या जाहिल शक्ति नहीं । हर ज्ञानवान कवि ने उसे निराला की तरह शक्ति माना है, समाज का बदलाव करने वालों को उसकी पूजा करनी होगी ।


           अंधेरे में कविता में भी निराला की तरह उन्होंने कहा कि
मिट्टी के लोंदे में किरगीले कण कण
गुण हैं जनता के गुणों से ही संभव भावी का उद्भव जनवाद विरोधी मानसिकता ही जनता को दोषी बताती रहती है । किसी भी जगह यदि कोई उनकी पसंद का नेता हार जायेगा तो वे जनता को भूलगलती करने वाला बतायेंगे । ब्रेख्त ने मजाक में ऐसे लोगों से यही कहा कि दूसरी जनता चुन लो
      जवाहरलाल नेहरू के तमाम वि‍देशनीति‍ गत फैसलों को  मुक्तिबोध सकारात्मक नजरि‍ए से देख रहे थे, हालांकि उनको इस गणतंत्र का वर्गचरित्र मालूम था, वे जानते थे कि यह जनतंत्र पूंजीवादीसामंती व्यवस्था का ही एक आधुनिक रूप है, फिर भी देश के विकास और हित में लिये गये ये फैसले सराहनीय थे और मुक्तिबोध ने इसके लिए भारतीय नेतृत्व की सराहना की। शिक्षकों की एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि  पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में, देश समाजवादी निर्माण की ओर चल पड़ा है । जो लोग यह सोचते है कि हम उस प्रवृत्ति को खत्म कर सकते हैं वे बड़े भारी भ्रम में हैं । देश ही नहीं, संपूर्ण जगत में जनता जाग्रत हो उठी है और अपनी चेतना के स्तर के अनुसार स्वयं अपने मुक्तिमार्ग पर चल पड़ी है ।
इसी तरह कई लेखों और टिप्पणियों में उन्होंने पं. नेहरू की नीतियों की सराहना की क्योंकि उनसे देश में औद्योगिक विकास और आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को बल मिल रहा था और पुराने दकियानूसी विचारों और मध्ययुगीन सड़े गले तौर तरीकों को झटका लग रहा था जिन्हें आज भी बहुत से पढ़े लिखे लोग भी भारतीयताया भारतीय संस्कृतिया सांस्कृतिक राष्ट्रवादसमझने की भूल गलती करते रहते हैं । मुक्तिबोध ने अपनी इतिहास वाली पुस्तक में भी गांधी, तिलक आदि सभी की सकारात्मक भूमिका का कविसुलभ संवेदना से वर्णन किया, सिर्फ‍ सांप्रदायिक तत्वों को ब्रिटिश हुकूमत के औजार के रूप में चित्रित किया, महात्मा गांधी की भूमिका का प्रशंसात्मक वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा कि इस बीच अंग्रेज सरकार, एक ओर, जनता का भयानक दमन करती, तो दूसरी ओर, संप्रदायवादियों के जरिये देश में फूट फैलाती उसी पुस्तक में भारत की स्वाधीनता का सूर्यशीर्षक अध्याय में उन्होंने पहले वाक्य से ले कर अंत तक जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व की सराहना की । शुरू का पैरा तो पूरी तरह नेहरू की ही तारीफ में लिखा :

प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारतीय जनतंत्र की प्रतिष्ठा हुई । भारत उत्तरोत्तर प्रगति करता गया । आज हमारा देश विश्व में सम्मानित होता है और उसकी आवाज को ध्यान से सुना जाता है । इसका मूल कारण पंडित नेहरू का महान व्यक्तित्व और नेतृत्व है । पंडित नेहरू की नीति विश्व में अधिकाधिक सदभावना तथा मैत्री के प्रसार के लिए है । यह आवश्यक है, भय से विश्व मुक्त हो । शांति के वातावरण में रह कर ही, विश्व और भारत उन्नति कर सकता है। पंडित नेहरू के पास देश का एक स्वप्न है । भारत शक्तिशालीआर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भरहो सम्पन्न हो, जनता शिक्षित और सुसंस्कृत बने ।

             मुक्तिबोध ने बिल्कुल वैज्ञानिक तरीके से उन घटनाओं को लिया जो उन दि‍नों सामने खड़ी थीं,और आशा जगायी कि ये समस्याएं भी सुलझ जायेंगी, उन्हीं के शब्दों में काश्मीर का एक भाग जो पाकिस्तान ने हथिया लिया, और काश्मीर का उत्तरी सीमांत का कुछ हिस्सा जो चीन ने ले लिया–– ये समस्याएं अभी बची हुई हैं । धैर्य और शांति, सदभावना और शक्ति, मैत्री और बल दोनों के प्रयोग से ये समस्याएं भी धीरे धीरे सुलझ जायेंगी ।इन समस्याओं के उल्लेख के तुरत बाद वे फिर भारत की प्रगति का बखान करते हुए कहते हैं कि आज भारत विश्व के अन्यतम देशों में है । उसकी आवाज सब देशों को सुननी पड़ती है । ...उस सबका श्रेय विश्व के अन्यतम राजनीतिज्ञ पंडित जवाहरलाल नेहरू को है ।
 हमारे यहां तमाम मुफ्तखोर साधू महात्मा दिन रात वैज्ञानिक प्रगति और भौतिकवाद को पश्चिमीबता कर कोसते रहते हैं मगर पश्चिम के हर नये आविष्कार का भरपूर फायदा उठाते हैं, मोबाइल फोन, एयरकंडीशन्ड गाडियां, राजमहल जैसे आश्रम और अधुनातम आफिस तंत्र (वेबसाइट, इंटरनेट, ईमेल आ​दि) सब कुछ उनके पास होता है । पूछा जाना चाहिए कि ये सब आधुनिक साधन कहां से मिलते यदि भारत में औद्योगीकरण नहीं होता और अन्य देशों से ज्ञानविज्ञान और मशीनें आदि नहीं लेते ? जो पश्चिमी औद्योगीकरण की इन देनों को नहीं चाहते वे जंगलों में जा कर रह लें, नेहरू या कम्युनिस्टों को कोसने की क्या जरूरत जो भारत देश के विकास के लिए औद्योगीकरण को जरूरी मानते हैं । मुक्तिबोध यह जानते थे कि जो देश टेक्नालाजी में कमजोर होगा, वह पिछड़ जायेगा, उनकी बात सच साबित हुई ।
सोवियत संघ का विघटन इसी वजह से हुआ कि वह युद्ध सामग्री में तो अधुनातम रहा मगर समाज की जरूरतों के अनुकूल उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में साम्राज्यवादी देशों से पिछड़ गया, हर क्षेत्र में उसे पूंजीवादी देशों से आगे जाना चाहिए था, उत्पादन के साधनों को विकसि‍त करना ही तो क्रांति का लक्ष्य होता है । किसी भी देश की जनता उन ताकतों को धकेल देती है जो उत्पादन की नयी प्रणालियों को विकसित होने में बाधा डालते हैं । नेपाल की जनता आज सामंती व्यवस्था को इसीलिए ध्वस्त करना चाहती है क्योंकि वहां उत्पादन की नयी टेक्नालाजी के विकास में सामंती व्यवस्था बाधा बन रही है । वहां पूंजीवाद का विकास वस्तुगत जरूरत है, और वह होगा ही । वहां के माओवादियों को भी यह समझना होगा कि वहां सीधे समाजवाद की छलांग नहीं लगायी जा सकती । आखिर नयी उत्पादन प्रणाली यानी टैक्नालाजी के नये विकास के लिए पूंजी कहां से आयेगी, जाहिर है वहां पूंजीवाद के विकास के दरवाजे खोलने होंगे । इसलिए वहां उसी के अनुरूप राजनीतिक ढांचा भी बनेगा । मुक्तिबोध की समझ इस मामले में कितनी वैज्ञानिक थी, कि जैसे वे भविष्य देख रहे हों जब उन्होंने यह कहा कि जरूरत के हिसाब से समाजवादी देशों में भी व्यक्तिगत उद्योग तथा व्यक्तिगत खेती तथा निजी संपत्ति तक को प्रश्रय दिया जा सकता है ।चीन में हाल के वर्षों में इसी दि‍शा में बदलाव हुए हैं,अन्‍य समाजवादी देश भी इस दि‍शा में गए हैं।


                             






1 टिप्पणी:

  1. अच्छा लेख। लगता है मुक्तिबोध भविष्यदृष्टा थे। अंधेरे में’ में उन्होंने आपातकाल का दृश्य खींच दिया था।

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