शनिवार, 14 नवंबर 2009

मुक्‍ति‍बोध जन्‍म दि‍न नेट सप्‍ताह पर वि‍शेष : सि‍द्धान्‍त और व्‍यवहार का मसीहा मुक्‍ति‍बोध

                                                                   चंचल चौहान
मुक्तिबोध की आलोचना पद्धति में सिद्धांत और व्यवहार साथ साथ चलते हैं । हिंदी के बहुत से आचार्य और आलोचक सिद्धांत बघार कर अपने दायित्व से मुक्त हो जाते हैं। जबकि सिद्धांत तो बहुत सारी किताबों में दिये ही हुए हैं । असली कसौटी तो व्यावहारिक समीक्षा ही होती है जिससे बहुत से आचार्यप्रवर बचते हैं। उनके लेखन को बारीकी से देखा जाये तो कुल ढाक के ढाई पात ही निकलेंगे । मुक्तिबोध का लेख 'साहित्य और समाज' उनके सिद्धांत और व्यवहार के सामंजस्य की अदभुत मिसाल है । वे समाज और उसके विभिन्न भौतिक और चेतनापरक घटकों को उनकी गतिशीलता में तथा वर्गीय परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। इसी नजरिये से वे मानवसंबंधों की भी व्याख्या करते हैं । वे 'आधार' और 'ऊपरी संरचना' के परस्परसंबंध में यांत्रिकता से भी हमें सावधान करते हैं जिस तरह एंगेल्स ने भी किया था । मुक्तिबोध लिखते हैं 'इसका यह अर्थ नहीं कि मानवसंबंधों के आमूल परिवर्तन के साथ ही चेतना स्वयं भी यांत्रिकतापूर्वक आमूल बदल जाती है । चेतना के विकास के अपने गति-नियम हैं, जो सापेक्ष्य रूप से स्वतंत्र हैं । किंतु उनकी स्वतंत्रता की सापेक्ष्यता का बिलकुल सीधा निर्णयकारी नियंत्रक संबंध वास्तविक मानवसंबंधों से है । सामाजिक उत्पादन प्रणाली, कार्यविभाजन के अनुसार, विविध वर्ग तथा उनके जीवन-यापन की विशेष प्रणालियां निर्धारित करती है । एक वर्ग के भीतरी सामाजिक संबंध सभी तथा विभिन्न वर्गों के परस्पर सामाजिक संबंध, मानव संबंध हैं।''
      मुक्तिबोध सामाजिक जीवन में घटित सारे क्रिया व्यापार को अपने सही तर्कसंगत वर्गीय नजरिये से ही देखते थे चाहे वह राजनीति हो या साहित्य लेखन । लेकिन इस तरह के विश्लेषण में वे यांत्रिकता से बचते थे । अपने समय की राजनीति के बारे में भी उनका यह खयाल सही था कि राजसत्ता कुछ वर्गों की होती है।  संसद में चाहे कोई भी पार्टी चुन कर आये । उन्होंने लिखा भी था 'हमारे यहां राजसत्ता का वैज्ञानिक अर्थ नहीं समझा जाता ।...सामंती समाज में सामंती वर्ग, पूंजीवादी समाज में उच्च-मध्यवर्गीय और धनी लोग राजसत्ता को चलाते हैं । बहुमत से पार्लामेंट में चुन कर चाहे जो आये, राजसत्ता के संचालन और आर्थिक संतुलन का कार्य इसी उच्च-मध्यवर्ग को करना पड़ता है ।''पृ.69) यहां मुक्तिबोध 'उच्च-मध्यवर्ग'  दर असल मार्क्सवादी शब्दावली में प्रयुक्त बहुचर्चित शब्द  ‘big bourgeoisie के लिए डिक्शनरी में अंकित हिंदी अनुवाद की वजह से लिख रहे थे, जिसका वास्तविक अर्थ अब 'बड़ा पूंजीपतिवर्ग' या "इजारेदार पूंजीवाद" होता है। सामंतवादी युग में उसे जरूर 'उच्च मध्यवर्ग' कहा जाता था। क्योंकि उस युग में वह शासकवर्ग नहीं था । मगर शब्दकोशों में अभी तक 'बूर्जुआ' के लिए 'मध्यवर्ग' ही दिया जा रहा है ।  जिस तरह निराला ने अपनी कविता 'राजे ने अपनी रखवाली की' में शासक और उसके हितसाधन के लिए बनायी गयी ऊपरी संरचना के बीच के रिश्ते को उजागर किया था, उसी तरह मुक्तिबोध ने उस अवधारणा को और अधिक वैज्ञानिक तौर पर अपने आलोचना कर्म में और रचना में भी प्रस्तुत किया । 'अंधेरे में' कविता की ये पंक्तियां हम सभी को इसी अवधारणा की याद दिलाती हैं:
      विचित्र प्रोसेशन
     
      बैंड के लोगों के चेहरे
      मिलते हैं मेरे देखे हुओं से
      लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार
          इसी नगर के !!
      बड़े-बड़े नाम अरे कैसे शामिल हो गये इस बैंड-दल में !!
      उनके पीछे चल रहा
      संगीन नोकों का चमकता जंगल
     
      कर्नल ब्रिगेडियर जनरल मार्शल
      कई और सेनापति सेनाध्यक्ष
      चेहरे वे मेरे जाने बूझे से लगते
      उनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे थे
      उनके लेख देखे थे
      यहां तक कि कविताएं पढ़ी थीं
      भई वाह !
      उनमें कई प्रकांड आलोचक- विचारक-जगमगाते कविगण
      मंत्री भी उद्योगपति और विद्वान
      यहां तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात
      डोमाजी उस्ताद        
                                  
मुक्तिबोध ने पूरे पूंजीवादी सुपरस्ट्रक्चर को इस अंश में चित्रित कर दिया है । इसी तरह भारतीय पूंजीवादी-सामंती शोषण व्यवस्था को उन्होंने अपनी कविता 'एक स्वप्नकथा' में 'काले सागर' के बिंब से चित्रित किया है, वहां उसके साम्राज्यवाद से सहयोग को भी कलात्मक तरीके से बिंबित किया:
     
              हो न हो
      इस काले सागर का
      सुदूर-स्थित पश्चिम किनारे से
      जरूर कुछ नाता है
              इसीलिए हमारे पास सुख नहीं आता है । 










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