शनिवार, 28 नवंबर 2009

कामुकता और भारतीय दमि‍तबोध




                 सवाल उठता है सेक्स को लंबे समय से पाप क्यों कहा गया , जबकि हम यह जान गए थे कि उसका निर्माण किन तत्वों के जरिए हुआ था।  उसका  किनसे संबंध है। फूको कहता है कि सेक्स को जल्दबाजी और संक्षेप में निन्दा करते हुए पेश किया जाए।बल्कि हमें सवाल करना चाहिए कि सेक्स को पाप बनाने का बोझ हम क्यों उठाएं , हम किस रास्ते पर चलें जिससे अपने सेक्स का सम्मान करते हुए हमारी गलती पता चल जाए , हम सभ्यता के इस चरण में किस विचित्र ढ़ंग से दाखिल हुए कि इसमें पावर के दुरूपयोग का स्वत: ही पता चल जाए।
     यह कहा जा रहा है कि इस दमितबोध का अनेक लोग समर्थन कर रहे हैं और इसके कारण ऐतिहासिक तौर पर प्रत्यक्ष हैं। यदि वे बोल रहे हैं और लंबे समय से निरंतर बोल रहे हैं तो इसका कारण है दमितभाव की जड़ों का गहरा होना। उसकी ठोस जड़ों और तर्कों का होना।सेक्स के ऊपर इतना वजन रखा है कि उससे मुक्त होने के लिए ,एकाधिक बार अस्वीकार की घोषणा करनी होगी। यह कार्य दीर्घकालिक है।यह काफी लंबा काम है।क्योंकि पावर की प्रकृति ही ऐसी है।खासकर जैसी दमनात्मक पावर हमारे समाज में सक्रिय है वह इतनी चतुर है कि हमारी अनुपयोगी ऊर्जा ,आनंद की सघनता और अनियमित व्यवहार के रूपों का भी दमन कर देती है। हमें मुक्ति के मुकाबले दमनात्मक षक्ति का धीमी गति से प्रभाव देखकर आश्‍चर्यचकित नहीं होना चाहिए। सेक्स के बारे में मुक्त रूप में बोलना और उसके यथार्थ को स्वीकार करना ऐतिहासिक क्रम के कारण पराया लगता है। क्योंकि हजारों वर्षों से उसे कभी तोड़ा ही नहीं गया है।पावर के आन्तरिक मेकेनिज्म के कारण इस स्थिति का बहुत कम अतिक्रमण हुआ है। इस मिशन को सफल होने में अभी काफी समय लगेगा।
फूको ने सवाल उठाया है कि आधुनिक समाज में सेक्स पर व्यापक चर्चा क्यों हुई , क्या कहा गया ,जो कहा गया उसका पावर पर क्या असर हुआ ,जिन विमर्षों ने सेक्स विमर्श को प्रभावित किया उसका क्या प्रभाव पड़ा  इसका पावर पर क्या असर हुआ , आनंद पर क्या असर हुआ ,इन संबंधों के कारण किस तरह का ज्ञान निर्मित हुआ , संक्षेप में वस्तु को पावर,ज्ञान और आनंद के शासन की निरंतरता बनाए रखकर ही मानव कामुकता का विमर्श  परिभाषि‍त किया जा सकता है। यहां केन्द्रीय मुद्दा यह नहीं है कि सेक्स के बारे में हाँ या ना में उत्तर लिया जाए। कोई चाहे तो उसे पाबंदी या अनुमति,महत्ता या अस्वीकृतिया फिर सभ्य ब्दों में पे करे।
    प्रमुख सवाल यह है कि कौन बोल रहा है ,और किस नजरिए और स्थितियों के आधार पर बोल रहा है , संस्थान भी लोगों को बोलने के लिए उद्बुध्द करते हैं और बताते हैं कि अपने खजाने में क्या रखें और क्या बांटें ,मूल मुद्दा है 'विमर्शात्मक तथ्य'' ,सेक्स को विमर्श के रूप में किस तरह पेश किया जाता है। फूको कहता है कि मेरा मुख्य सरोकार पावर के रूपों की खोज करना है, वह किन चैनलों से आती है ,और  किस तरह व्यक्ति के व्यवहार में शामिल हो जाती है। उसका दृष्यमान रूप इच्छाएं हैं,इच्छाओं के रूप में ही वह अभिव्यक्ति पाती है।दैनन्दिन जीवन के आनंद को वह कैसे नियंत्रित करती है और उसमें प्रवेश करती है , इस सबका भयानक असर अस्वीकार,बाधा,अप्रामाणिकता के रूप में दिखाई देता है।साथ ही भड़काने और सघनीकरण में भी दिखाई देता है। इस समूचे विमर्ष का लक्ष्य सेक्स के सत्य का उद्धाटन करना नहीं है। बल्कि इसके बारे में ज्ञान पैदा करना है।
        फूको कहता है कि मेरे कहने से यह गलत निश्कर्श नहीं निकालें कि सेक्स पर कोई पाबंदी ,रोक या मुखौटा ही न हो। मैं यह भी नहीं चाहता कि सेक्स पर पाबंदी के नाम पर छल किया जाए। बल्कि इतिहास लिखते समय आधुनिक युग में सेक्स के प्रारंभ को सही दृष्‍टि‍कोण से देखा जाए। बुर्जुआ समाज व्यवस्था के आरंभ के समय सेक्स पर बातें की जा सकती थीं ,किन्तु कुछ अर्सा गुजर जाने के बाद सेक्स पर बातें करना मुश्‍कि‍ल होता चला गया। आरंभ में सेक्स को नाम से भी पुकार सकते थे किन्तु बाद में उस पर बात करना कठिन हो गया।
     सेक्स को सबसे पहले भाषा के स्तर पर कैद किया गया। उसका वक्तृता में अबाधित प्रसार रोका गया। जिन बातों में सेक्स की बातें कही गयी हैं उन्हें निकाल दिया गया। ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया जिससे वह दिखाई दे। इस तरह की पाबंदी के बावजूद उसका नाम लेना संभव नहीं था। उसके बारे में शब्द का उच्चारण किए बिना बात की जाने लगी। आधुनिक छद्म लज्जाशीलता ने सुनिश्‍चि‍त कर दिया कि सेक्स पर कोई बातें कर पाए। अब तो पाबंदियों का हवाला दिया जाता था। इसमें मुख्य जोर चुप रहने पर दिया जाता था। अब कोई बात नहीं कही जाती थी। चुप्पी और सेंसरषिप को थोप दिया गया
विगत तीन सौ वर्षों में इसका निरंतर रूपान्तरण हुआ है। सेक्स के सवाल पर विमर्श के क्षेत्र में विस्फोट हुआ है। कुछ लोगों ने इसका शुध्दीकरण किया गया है। जबकि व्यापक स्तर पर भ्रम और रूपक के समूचे रेहटोरिक का संहिताकरण किया गया है। नए नियमों की जरूरतों के प्रति सवाल खड़ा किए बगैर कुछ ब्द छांट दिए गए हैं।वक्तव्यों को परिष्‍कृत किया गया है। स्पष्‍टोच्चारण पर नियंत्रण स्थापित कर लेने के बाद इसके बारे में कब ,कहां,किन परिस्थितियों , किस तरह के सामाजिक संबंधों और किस तरह के वक्ता के जरिए बोलना है, इसे सख्ती के साथ परिभाषि‍त कर दिया गया है। वे क्षेत्र तय कर दिए गए हैं जहां चुप्पी नहीं रखनी है। यानी सेक्स के सवालों पर पूरा प्रतिबंधित क्षेत्र तय कर दिया गया। इस प्रतिबधित क्षेत्र को भाषा की राजनीति और वक्तृता में शामिल कर लिया गया। इसमें स्वर्त:स्फूत्ता और संकेन्द्रण के जरिए शास्त्रीय युग का नए सिरे से सामाजिक वितरण किया गया।
             धीरे-धीरे एक अवधि के बाद सेक्स विमर्श एकदम विपरीत दिशा से दाखिला हुआ। भिन्न किस्म के विमर्शों के बहाने सेक्स विमर्श सामने आया। विमर् के रूपों ने गति पकड़नी शुरू की खासकर 18वीं ताब्दी के बाद सभ्यता के नियमों को सख्ती के साथ लागू किया गया खासकर कामुकता और असभ्य वक्तृता के संबंध में बनाए नियमों का सख्ती से पालन किया गया। महत्वपूर्ण बात यह है कि पावर के क्षेत्र में सेक्स विमर् किसी न किसी रूप में जारी रहा,सत्ता के संस्थान उसके बारे में ज्यादा से ज्यादा सुनना चाहते थे, उसके अन्तहीन विवरण जानना चाहते थे।किन कारणों की वजह से बोला जा रहा है ,उसे जानना चाहते थे।
ईसाइयत में आत्म-स्वीकृति (कनफेन) की परंपरा के कारण सेक्स की सुसंस्कृत और परिष्‍कृत भाषा तैयार की गई। कैथेलिक समुदाय के देशों में तेजी से लोग चर्च में जाकर आत्म-स्वीकृति करके मुक्ति की तलाष करने लगे। कैथोलिक मत की नयी संहिता के अनुसार  सेक्स का लज्जाहीन भाव से नाम लेना संभव नहीं था। किन्तु उसके पहलू ,अन्तस्संबंध और प्रभाव को जारी रखा गया।उसे इच्छाओं और दिवा-स्वप्न  के जरिए व्यक्त किया जाने लगा।किन्तु इन दोनों को देखना बेहद मुश्‍कि‍ल था।प्रत्येक किस्म की इच्छाओं को विमर्श में रूपान्तरित कर दिया गया।यहां तक कि सेक्स को भी विमर् में बदल दिया। सेक्स के प्रत्येक रूप को विमर् में बदल दिया गया।सिर्फ कुछ ब्दों के प्रयोग पर पाबंदी थी।सभ्य ढ़ंग से अब आप अपनी बात कह सकते थे। अब सेक्स को नैतिक रूप में स्वीकृत और तकनीकी रूप में उपयोगी रूप में रखा जाने लगा।
( लेखक-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी, सुधासिंह )
          



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