शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

ति‍ब्‍बत और मीडि‍या


                                                  
                                                          
           नई कि‍ताब


वर्चुअल रियलिटी में संकेत का विभ्रम खत्म हो जाता है। सिर्फ उसका आपरेशन रह जाता है। सत्य और असत्य के बीच आनंदायी अभेद,यथार्थ और संकेत के बीच का अभेद पैदा हो जाता है। हम निरंतर अर्थ पैदा कर रहे हैं। प्रासंगिक चीजें पैदा कर रहे हैं, यह जानते हुए कर रहे हैं कि ये सब कुछ नहीं बचेगा। प्रासंगिक चीजें भी एक अवस्था के बाद अप्रासंगिक हो जाएंगी। विभ्रमों को अर्थवान मानना सबसे बड़ा विभ्रम है। यह जगत के विध्वंस का प्रधान कारण है।
     हमारा समग्र इतिहास तर्कों पर ही खड़ा है।  आज हम उसके किनारे पर आ लगे हैं। हमारी अर्थपूर्ण संस्कृति नष्ट हो गयी है। यथार्थ की संस्कृति खत्म हो गयी है। यथार्थ के अति रूपायन के कारण यथार्थ से पकड़ खत्म हो गयी है। अति सूचना के कारण सूचना की संस्कृति नष्ट हो रही है। समाजवाद के अति प्रयोगों के कारण समाजवाद भी नष्ट हो गया। उपयोगी बुध्दिमत्ता ही प्रासंगिक रह गयी है। क्रांतिकारी विभ्रम अब जीवन में नहीं विचारों में रहते हैं।
     समाजवाद के पतन का बुनियादी कारण है बिना शर्त्‍त समाजवाद की स्वीकारोक्ति। सभी किस्म के यथार्थ, घटनाओं,विचारों और कार्यकलापों को समाजवाद केन्द्रित बना देना। मसलन कहना कि कम्युनिस्ट जो करता है समाजवाद के लिए करता है। नागरिक जो भी कुछ करता है समाजवाद के लिए करता है। अथवा पार्टी के लिए करता है। समाजवाद अथवा पार्टी के लिए करने का स्वांग ही है जो समाजवाद के पतन का प्रधान कारण है। व्यक्ति का यह कहना कि उसके समस्त कार्यकलाप समाजवाद के लिए हैं और समाजवाद से ही प्रेरित हैं, यही वह बुनियादी चीज है जिसने समाजवाद को नष्ट कर दिया। समाजवाद का क्षय बाहर से नहीं अंदर से हुआ है। समाजवाद के शत्रु अंदर हैं।
       यह तरंगों और कोड का युग है। तरंगों से जुड़ते हैं कोड से खुलते हैं। समाचार ,संवाद,संपर्क, व्यापार,युध्द,संस्कृति आदि सब कुछ रेडियो तरंगों की देन हैं।  तरंगे हमारे जीवन का सेतु हैं। तरंगें न हों तो हम अधमरे हो जाएं। आज तरंगें ही सत्य है और सत्य ही तरंग है। तरंगें भ्रम पैदा करती हैं। स्थायित्व का भ्रम पैदा करती हैं। तरंगें संतुलन पैदा कर सकती हैं और तरंगें अतिवाद अथवा अतिरंजना में डूबो सकती है। तरंगों में सब कुछ चरम पर घटित होता है। तरंग का सार है अतिवाद,चरमोत्कर्ष,अतिरंजना। अंत है विलोम। 
          तरंगों के जमाने में समानता,मानवधिकार आदि वायवीय हैं। इन सवालों में दर्शकों की दिलचस्पी घट जाती है। ये सिर्फ नजारे अथवा तमाशे की चीज बन जाते हैं। वर्चुअल ने इन सबको नजारा बना दिया है। हम सबको तमाशबीन बना दिया है। नागरिक को तमाशबीन बना दिया है। तमाशबीन के कोई अधिकार नहीं होते। तमाशा देखा और खिसक लिया। तमाशबीन का किसी से लगाव नहीं होता। वह निर्वैयक्तिक होता है। आज तमाशा वर्चुअल है और वर्चुअल तमाशा है। सूचना बेजान और देखने वाला भी बेजान। निर्वैयक्तिकता का चरम वर्चुअल की धुरी है। अपनी ढपली अपना राग इसका मूल मंत्र है।
         तरंगों के कारण कथनी और करनी में आकाश पाताल का अंतर आता है। जिसने कभी कोई चित्र नहीं बनाया , चित्रकला नहीं सीखी वह कलाप्रेमी और कलामर्मज्ञ का स्वांग करता नजर आता है। जिसकी राजनीति में आस्था नहीं है वह सत्ताा और राजनीति का सबसे बड़ा भोक्ता है। जिसने दर्शन नहीं पढ़ा वह दार्शनिक मुद्रा में डूबा नजर आता है। जो कभी सच नहीं बोलता वह सत्य का पुजारी नजर आता है। अयथार्थ या यथार्थ का अंश विराट और यथार्थ छोटा नजर आता है। सच झूठ और झूठ सच नजर आता है। प्रत्येक चीज सिर के बल खड़ी नजर आती है। सीधी चीज उल्टी और उलटी चीज सीधी नजर आती है। प्रत्येक चीज विलोम दिखती है। यही वर्चुअल का विचारधारात्मक चरित्र है।
      अब प्रत्येक चीज में वर्चुअल मिल गया है। अच्छे -बुरे,पानी और शराब आदि सभी में वर्चुअल आ गया है। वर्चुअल के स्पर्श से सब कुछ कपूर होगया है। अब मौत भी सुंदर लगने लगी है। हत्या में आनंद मिलने लगा है। दुख में आनंद मिलने लगा है, दुख मनोरंजन देने लगा है। वर्चुअल ने सब चीजों को नकल और आनंद में बदल दिया है। चीजों की सतह की महत्ताा बढ़ गयी है। अब सत्य की आत्मा महत्वपूर्ण नहीं है। सत्य की सतह महत्वपूर्ण है। सतह को ही मर्म मान बैठे हैं।
   आज मनुष्य के पास समय का अभाव है। समय के अभाव के कारण मनुष्य हमेशा मानसिक तौर पर समयाभाव में रहता है। समय का अभाव कालान्तर में स्थान के अभाव में रूपान्तरित होता है। आप जहां से चले थे एक अर्सा बाद फिर वहीं पहुँच जाते हैं। अब स्थान समय में तब्दील हो जाता है। इसे बदला नहीं जा सकता।

मौजूदा दौर में हमारी सारी गतिविधियां वर्चुअल से संचालित हैं। वर्चुअल में मिलते हैं, वर्चुअल सपने देखते हैं। वर्चुअल में बातें करते हैं। वर्चुअल में प्यार करते हैं। वर्चुअल में दोस्त बनाते हैं,वर्चुअल समुदाय में भ्रमण करते हैं। वर्चुअल ने समूचे संसार को इस कदर घेरना शुरू किया है कि हम असली नकली का अंतर भूल गए हैं। तमाम किस्म के पशुओं की विलुप्त प्रजातियां हठात् पैदा हो गयी हैं। हम मानने लगे हैं कि संभवत: उन्हें किसी ने देखा होगा। डायनोसर इसका आदर्श उदाहरण हैं। किसी ने डायनोसर को नहीं देखा किंतु वर्चुअल ने उसका जो प्रचार किया है उसने भरोसा दिला दिया है कि जैसा देख रहे हैं डायनोसर वैसा ही रहा होगा।  यह भी संभव है मानव जाति कुछ समय के बाद विलुप्त प्रजाति बन जाए और उसके बारे में भी वैसे ही बताया जाए जैसे डायनोसर के बारे में बता रहे हैं। जिस तरह पशुओं की विलुप्त प्रजातियों को बचाने के लिए अभयारण्य बसाए जाते हैं। वैसे ही भविष्य में मनुष्यों के सुरक्षित जनक्षेत्र बनाए जाएंगे।

( पुस्‍तक अंश, प्रकाशक,अनामि‍का पब्लि‍शर्स, 4697 /3, 21 ए,अंसारी रोड़, दरि‍यागंज,नई दि‍ल्‍ली-10002)


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