शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

मुक्‍ति‍बोध जन्‍मदि‍न नेट सप्‍ताह पर वि‍शेष- मुक्‍ति‍बोध ने काव्‍य शि‍ल्‍प के नए मानक बनाए - मैनेजर पांडेय

              

मुक्तिबोध के लेखन और वैचारिक चुनौतियों के संदर्भ में प्रो मैनेजर पाण्डेय के साथ सुधा सिंह की बातचीत ..............
प्रश्न : मुक्तिबोध जब लिख रहे थे तो उनके लेखन में सबसे प्रमुख प्रश्न कौन सा था ?
उत्तर : मुक्तिबोध के सामने जो मुख्य समस्या या सवाल उठा , उन्हीं के शब्दों में कहें तो ज्यादा बेहतर होगा। मुक्तिबोध कविता में जो समस्या रख रहे हैं वह इस प्रकार है ...
    '' सभी प्रश्नोत्तरी की तुंग प्रतिमाएं¡
      गिराकर तोड़ देता हूँ¡ हथौड़े से
      कि वे सब प्रश्न कृत्रिम
      उत्तर और भी छलमय
      समस्या एक........
      मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
      सभी मानव
      सुखी सुंदर और शोषणमुक्त
      कब होंगे ?
   मुक्तिबोध के सामने कविता लिखते समय मुख्य समस्या यही थी।
प्रश्न: आज के समय में अगर मुक्तिबोध का पुनर्पाठ किया जाए तो कौन से प्रश्न महत्वपूर्ण होंगे ? क्या उस जमाने के और आज के जमाने के प्रश्नों में कोई अंतर है ?
उत्तर: किसी भी कविता का जब पुनर्पाठ किया जाता है तो तीन बातों का ध्यान रखना जरूरी है।
     पुनर्पाठ कब किया जा रहा है ? इतिहास में कब है वह काल ? कौन पुनर्पाठ कर रहा है ?
     किस उद्देश्य से पुनर्पाठ कर रहा है ?
     मुक्तिबोध के प्रसंग में इन तीनों बातों को ध्यान में रखें तो अलग-अलग लोगों के लिए मुक्तिबोध की कविता के अलग-अलग पाठ होंगे। केवल मुक्तिबोध ही नहीं किसी भी कवि को पढ़नेवाले कई तरह के लोग होंगे। उदाहरण के लिए तुलसी। कुछ उन्हें पढ़कर स्वर्ग जाना चाहते हैं, कुछ इसी लोक में कुछ पाना चाहते हैं, कुछ लोक और जीवन से जुड़ना चाहते हैं। यही स्थिति मुक्तिबोध की है। मुक्तिबोध की कविता को पढ़कर अलग-अलग अर्थ प्राप्त होंगे।
   आज मुक्तिबोध की कविता को पढ़ते समय जो सवाल है वह संदर्भ बदलने से अलग हो गया है। मुक्तिबोध जब लिख रहे थे और भारत के एक बड़े हिस्से की मुक्ति का स्वप्न देख रहे थे तो उनके समय दुनिया के एक बड़े हिस्से में समाजवाद मौजूद था। इसलिए वे शोषणमुक्त भारतीय समाज की समस्या को मुख्य समस्या मान रहे थे। आज संदर्भ बदल गया है। दुनिया में समाजवाद लगभग कहीं नहीं है। पर उससे अलग पूरी दुनिया में और विशेष रूप से भारत में पूँजीवाद के वर्त्तमान दौर में निजीकरण के व्यापक प्रभाव के कारण वैयक्तिकता इतनी बढ़ी है कि सामाजिक की मृत्यु की घोषणाएं हो रही हैं। ऐसे में मुक्तिबोध की कविता का आज महत्व यह है कि वह व्यक्ति को सामाजिक बनाने की प्रेरणा और चेतना देती है।
प्रश्न: मुक्तिबोध के बारे में यह प्रसिध्द है कि उन्हें जनतांत्रिक लोग भी अपना कवि मानते हैं और मॉडर्निस्ट भी। श्रीकान्त वर्मा और अज्ञेय के लिए भी मुक्तिबोध महत्वपूर्ण हैं और नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डेय के लिए भी। क्या दोनों के बीच कोई साझा आधार है ?
उत्तर: देखिए अज्ञेय ,श्रीकान्त वर्मा या अशोक वाजपेयी मुक्तिबोध को दो कारणों से महत्वपूर्ण मानते थे। एक तो वह दौर था जब हिन्दी कविता में पुरानी कविता से नई कविता का संघर्ष चल रहा था। अज्ञेय , श्रीकान्त वर्मा, अशोक वाजपेयी नए कवि थे और मुक्तिबोध को नई कविता के कवि के रूप में महत्वपूर्ण मानते थे। इसलिए उनलोगों के सामने मुक्तिबोध की कविता के संवेदनात्मक, सामाजिक और राजनीतिक उद्देश्यों का महत्व कम या नहीं था।
  हिन्दी के प्रगतिशील आलोचक नामवर सिंह , मैं आदि मुक्तिबोध की कविता के संवेदनात्मक और राजनीतिक उद्देश्यों को महत्वपूर्ण मानते हैं।
  इन दोनों के बीच किसी साझे आधार का जहा तक सवाल है तो मुक्तिबोध ने हिन्दी कविता में शि‍ल्‍प और भाषा के स्तर पर ऐसे नए प्रयोग और आविष्कार किए जो हिन्दी कविता के विकास में सहायक हैं। इसलिए जिन्हें हिन्दी कविता के विकास की चिन्ता है वे सभी लोग चाहे वे आधुनिकतावादी हों या प्रगतिशील मुक्तिबोध की कविता को महत्वपूर्ण मानेंगे और मानते हैं।
प्रश्न: मुक्तिबोध के जीवन या लेखन से संबंधित निजी या साहित्यिक संस्मरण बताइए।
उत्तर: इस प्रसंग में मेरा कहना यह है कि मुक्तिबोध से मेरी कोई व्यक्तिगत भेंट मुलाकात नहीं थी। इसलिए कोई व्यक्तिगत संस्मरण नहीं है पर उनके लिखे हर शब्द से परिचित हूँ। उस परिचय के कारण एक प्रसंग है जो मुझे बार-बार बेचैन करता है। मुक्तिबोध की किताब 'भारत इतिहास और संस्कृति' नाम की पुस्तक पर मध्यप्रदेश सरकार ने प्रतिबंध लगाया था। इस प्रतिबंध के पहले मध्यप्रदेश में मुक्तिबोध के खिलाफ उस समय के जनसंघ और आज के भाजपा के कार्यकर्त्ताओं ने एक बड़ा आंदोलन खड़ा किया था। इस सारे आंदोलन के कारण मुक्तिबोध बहुत आहत थे और प्रतिबंध के कारण गहरी बेचैनी में थे। मुक्तिबोध की उन दिनों की मानसिकता के संदर्भ में हरिशंकर परसाई का एक बड़ा मार्मिक संस्मरण है.........'' मध्यप्रदेश में लेखकों की स्वाधीनता खतरे में है। ''इसके प्रभाव में उन्होंने कई कविताए¡ लिखीं जो आतंक से भरपूर हैं। मैं उनकी उस दौर की लिखी कविता की चार पंक्तिया उध्दृत कर रहा हूँ...........''बिल्लियों के नाखून /और भी धारदार हो गए ,अजीब तरह से हुआ खून/ मूर्च्छित कर वश में किया गया।''
  उस प्रतिबंध से उपजे आतंक के कारण मुक्तिबोध की मानसिक दशा बिगड़ी । वे बीमार हुए और बाद में मौत के शिकार हुए। मुझे दुख इस बात का है कि मुक्तिबोध के साथ हुई इस ट्रैजेडी की चर्चा बाद में भी परसाईजी को छोड़कर किसी ने नहीं की। आज हम देश में सांप्रदायिक शक्तियों के कला और साहित्य पर आक्रमण को झेल रहे हैं, उसका पूर्वाभास था मुक्तिबोध के साथ हुई घटना में।
प्रश्न: संघ के लोग मुक्तिबोध से क्यों भड़कते हैं ?
उत्तर: संघ के लोग मुक्तिबोध की कविता से कम और उनके इतिहास और संस्कृति संबंधी विचारों से ज्यादा भड़कते हैं। मुक्तिबोध ने जो 'भारत इतिहास और संस्कृति' नाम की किताब लिखी थी उसमें उन्होंने कहा था कि जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं उसमें सदियों से समन्वय की प्रक्रिया चल रही है, विभिन्न जातियों की संस्कृति के तत्‍व उसमें मिलते गए हैं और वह बहुत विराट हो गई है। किताब पर पाबंदी के बाद मुक्तिबोध ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की उससे मैं एक उध्दरण दे रहा हू...''वे (जनसंघ-भाजपा½ इतिहास की ऐसी पुनर्रचना चाहते हैं जिसमें उनकी शुध्द रक्तवादी , आर्यवादी, जातिवादी, सांप्रदायिक, सांस्कृतिक दृष्टि को समर्थन मिल सके।'' इसके ठीक विपरीत है मुक्तिबोध की दृष्टि। इसलिए मुक्तिबोध की इतिहास और संस्कृति संबंधी दृष्टि से संघ और भाजपा के लोग भड़कते हैं।
 'भारत इतिहास और संस्कृति' नामक किताब के बारे में सितंबर 1962 में मध्यप्रदेश जनसंघ की कार्यकारिणी की बैठक में मुक्तिबोध के विरूध्द एक प्रस्ताव पारित किया गया था। उस प्रस्ताव में उसे पाठयक्रम से निकालने की मांग की गई थी। उसी अवसर पर भारतीय जनसंघ के उन दिनों के महामंत्री दीनदयाल उपाध्याय ने एक बयान जारी किया था जिसमें कहा गया था कि '' यह पुस्तक लेखक के विकृत मस्तिष्क की उपज है।'' इन सबसे यह जाहिर होता है कि संघ और भाजपा के लोग मुक्तिबोध से क्यों भड़कते हैं।
( मैनेजर पांडेय ,हि‍न्‍दी के प्रख्‍यात आलोचक और जवाहरलाल नेहरू वि‍श्‍ववि‍द्यालय के भ़ू.पू. प्रोफेसर। सुधा सिंह ,एसोसि‍एट प्रोफेसर,हि‍न्‍दी वि‍भाग दि‍ल्‍ली वि‍.वि‍.)







1 टिप्पणी:

  1. ''बिल्लियों के नाखून /और भी धारदार हो गए ,अजीब तरह से हुआ खून/ मूर्च्छित कर वश में किया गया।''

    यह है मुक्तिबोध की कविता की तड़प .

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