रविवार, 29 नवंबर 2009

भारतीय साहि‍त्‍य में कामुकता वि‍मर्श



                          
     साहित्य में एक दौर ऐसा भी आया था जब कहा गया कि  'प्रत्येक बात को कहने दो', इस नारे के तहत सेक्स के संदर्भ में जितने भी विवरण थे, सबको खुलकर बता दिया गया। यह कार्य लंबे समय से श्रृंगार-साहित्य और रीतिवादी साहित्य करता रहा है। सेक्स का वर्णन अब सभ्य,सुसंस्कृत विवरणों के रूप में रखने की बात कही जाने लगी। 


    आधुनिक काल आने के बाद विमर्श की भाषा एकदम बदल गयी।श्रृंगार साहित्य के लेखकों के लिए जीवन का कोई क्षेत्र खासकर कामुकता से जुड़ा कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं था।व्यक्ति के गुप्त जीवन के सेक्स संबंधी पहलुओं का उद्धाटन करना उनका लक्ष्य था।उसके उद्धाटन में वे शर्मिन्दगी महसूस नहीं करते थे।इस सारे साहित्य के बारे में आधुनिक काल में जबर्दस्त बहस चलायी गयी, इसके समस्त ब्यौरों को आधुनिक मनुष्‍य के सामने इसलिए पेश किया गया कि वह सेक्स के बारे में अब अपना मुँह बंद कर ले।यही वह महान् प्रक्रिया है जिसमें सेक्स का विमर्श में रूपान्तरण हुआ
         विगत तीन सौ वर्षों की यह उपलब्धि है कि आधुनिक मनुष्‍य सेक्स से संबंधित सारी बातें बताता रहा है।यह सारा कार्य श्रृंगार और रति साहित्य के उद्धाटन के बहाने हुआ है। इसका बहुस्तरीय प्रभाव पड़ा है। इच्छाओं का सघनीकरण,रूपान्तरण और संशोधन हुआ है। इससे सेक्स का दायरा बढ़ा है। सेक्स विमर्श ने संगठनों के जटिल स्वरूप पर अनेक स्तरों पर प्रभाव छोड़ा है। आज पाबंदी या सेंसरशि‍प किसी काम की नहीं रह गई है। सेक्स विमर्श पर पहले की तुलना में ज्यादा सामग्री उपलब्ध है। 
     
    फूको कहता है कि सेक्स कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका आप मूल्यांकन कर लें बल्कि सेक्स ऐसी चीज है जिसे निगमित करना होता है।उसकी सार्वजनिक क्षमता होती है।इसके लिए प्रबंधन प्रक्रिया की जरूरत होती है।इसकी जिम्मेदारी विश्‍लेषणात्मक विमर् को लेनी होगी। यही वजह है कि यूरोप में 18वीं ताब्दी में'सेक्स' पुलिस का विय हो गया। अब यह पूरी तरह दमित व्यवस्था की बजाय सामूहिक और व्यक्तिगत षक्ति की व्यवस्था हो गया। नियमों के जरिए अब हम तर्क को पुष्‍ट करने लगे।राज्य की आंतरिक क्ति को मजबूत बनाने लगे।अब पावर सिर्फ जनतंत्र के ही पास नहीं थी बल्कि सामान्य जन के पास भी थी। उन लोगों के पास भी थी जो इसमें रहते थे।सेक्स पर पुलिसिया पहरा उसे सख्ती से टेबू बनाता है और उपयोगी सेक्स विमर् के जरिए प्रचारित प्रसारित करता है। 
         पावर की तकनीक की व्याख्या करते हुए फूको ने लिखा कि 18वीं सदी में पावर की सबसे प्रभावी तकनीक के रूप में 'जनसंख्या' का आर्थिक और राजनीतिक समस्या के रूप में जन्म हुआ। कहा गया जनसंख्या संपदा है। जनसंख्या लोगों की क्ति है। श्रम क्षमता है। अब सरकार सोचने लगी कि वह जन को नहीं 'जनसंख्या' को सम्बोधित कर रही है,देख रही है।उसके विशि‍ष्‍ट फिनोमिना हैं,मानक हैं।
   
         जनसंख्या की बुनियाद में सेक्स था।यही वजह थी कि जन्मदर,शादी की उम्र, वैध और अवैध संतति, कामुक क्रिया की गति,कैसे बच्चा पैदा करते हैं , अविवाहित औरत पर असर, गर्भनिरोध के उपायों का असर इत्यादि सवालों को जानने की कोशि‍श की गई। इसके बावजूद सेक्स को 'अति-गोपनीय' कहा गया। लंबे समय तक यह तर्क दिया गया कि समृध्द होना है तो ज्यादा से ज्यादा जनसंख्या वृध्दि करो। पहलीबार ऐसा हुआ कि समाज का भविष्‍य नंबरों से जोड़ दिया गया, उसे नागरिक के उज्ज्वल भविष्‍य शादी के नियमों और परिवार के संगठन के साथ जोड़ दिया गया। अब देखना यह था कि प्रत्येक व्यक्ति कैसे सेक्स करता है।
          
       19 वीं शताब्दी आते- आते राज्य और नागरिक के बीच विवाद के मुद्दों में केन्द्रीय मुद्दा था सेक्स। राज्य अब जानना चाहता था कि नागरिक कैसे सेक्स कर रहे हैं। इसके लिए वे क्या कर रहे हैं। 19वीं शताब्दी में सेक्स का विमर्श अनेक रूपों में अभिव्यक्त होता है। इसके लिए विशेष ज्ञान, विश्‍लेषण और समाधान तलाशे जाने लगे। यही स्थिति बच्चों के सेक्स की भी थी।


      वयस्कों और बच्चों के बीच इस विषय पर बोलने की आजादी छीन ली गई। ऐसा नहीं है कि इस दौर में सेक्स पर कभी बातें नहीं हुईं। बल्कि भिन्न तरीके से हुई हैं। ये भिन्न लोग थे जो भिन्न नजरिए से बोल रहे थे। भिन्न किस्म के परिणाम हासिल करने की कोशि‍श कर रहे थे। चुप्पी स्वयं में या नाम न बोलने की आदत ने इस विमर्श की सीमाएं बांध दी। किसी ने क्या कहा और क्या नहीं कहा इसमें कोई वायनरी अपोजीषन नहीं है। बल्कि हमें यह देखना चाहिए कि किसी भी चीज को भिन्न तरीके से कैसे नहीं कहा गया। जो बोल सकते थे और जो नही बोल सकते थे ,उनमें कैसे वितरित किया गया।किस तरह के विमर्श को आधिकारिक माना गया, इसके लिए किस तरह के मनमाने नियम बनाए गए, यहां एक नहीं अनेक चुप्पियां हैं।ये चुप्पियां अन्तर्ग्रथित रणनीति और अनुमति प्राप्त विमर्श से  बंधी हुई हैं।
      अठारहवीं ताब्दी से सेक्स के बारे में बहुस्तरीय विमर्श नजर आते हैं। ये सभी विमर्श सेक्स को कैसे लागू किया जाए इसके विभिन बिन्दुओं को पे करते हैं।इन्हें योग्य वक्ताओं द्वारा संहिताबध्द रूप में पे किया गया। इनके माध्यम से ही पावर ने हमारे जीवन में हस्तक्षेप किया। 


     बच्चों और तरूणों का सेक्स 18 वीं ताब्दी से ही सबसे ज्यादा विवादास्पद विष्‍ाय रहा है।इसके लिए अनेक किस्म की संस्थानगत तकनीक और विमर्शात्मक रणनीतियां बनायी गयीं। बच्चों और वयस्कों को अनेक तरीकों से सेक्स के सवाल पर बोलने से वंचित किया गया। इसका तरीका यह रहा है सेक्स के बारे में प्रत्यक्ष या सीधे न बोला जाए,ठोस रूप में न बोला जाए,जोर-जबर्दस्ती के स्वर में न बोला जाए।उनके बीच में काम करने के लिए यह जरूरी है कि विमर् को ऐसे पे किया जाए कि वे इसे बड़ों के द्वारा कहे गए कथन के रूप में आत्मसात् करें और इसे पावर संबंधों के संदर्भ में अभिव्यक्त किया जाए।
        
      18वीं शताब्दी के बाद से सेक्स के नाम पर कोई उत्तेजनात्मक वैचारिक संघर्ष नहीं हुआ। सेक्स ने सत्ता के खिलाफ अपनी भूमिका अदा करनी बंद कर दी। इसके विपरीत पावर के गलियारों से सेक्स के बारे में जो कुछ बोला गया,दर्ज किया गया उसने सेक्स को प्रत्यक्ष बहस से बाहर कर दिया। सेक्स को छिपने के लिए मजबूर कर दिया।
     ब्रि‍टि‍श साम्राज्यवाद ने समूचे समाज को अपनी कामुकता की धारणा बदलने के लिए मजबूर किया और उसे निरंतर बहस का मुद्दा बनाए रखा।इसके लिए बहुरूपी मैकेनिज्म भी बनाया गया। अर्थव्यवस्था, उपदेश, चिकित्सा, न्याय, उत्तेजना, अपहरण, वितरण और सेक्स विमर्श को संस्थानगत रूप दिया गया।हमारी सभ्यता को क्या चाहिए ,इस आधार पर संगठित किया गया। इतने कम समय में किसी भी समाज ने इतने व्यापक पैमाने पर किसी भी विमर्श को कभी आत्मसात नहीं किया है। जितना जल्दी सेक्स विमर्श को किया है। यह सच है कि हम सेक्स के बारे में अन्य विषयों की तुलना में ज्यादा समय बातें करते हैं।हम अपने दिमाग में लक्ष्य तय करते हैं।हम अपने को संतुष्‍ट करते हैं कि हमने सेक्स पर ज्यादा बात नहीं की।यह कार्य हम इनर्सिया या समर्पणबोध के जरिए करते हैं जो विभिन्न चैनलों के जरिए सक्रिय रहता है।
        मध्यकाल में सेक्स विमर्श दरबारी संस्कृति के माध्यम से दाखिल होता था,यही उसका एक मात्र रूप था। इसके विपरीत आधुनिक काल में सेक्स विमर् अनेक रूपों में आता है। मध्यकाल की एकरूपता आधुनिककाल में खत्म हो जाती हैअब वह बिखरा हुआ,बहुस्तरीय है।वह अनेक किस्म के विमर्शों  के माध्यम से आता है।जैसे डेमोग्राफी, मेडीसिन,बायोलॉजी, मनोचिकित्सा,मनोविज्ञान, एथिक्स,राजनीतिक आलोचना आदि।इसके अलावा सामाजिक बंधन की नैतिकता उसे बांधे रखती है।
         आधुनिक काल में सेक्स विमर्श के अनेक केन्द्र जन्म ले लेते हैं। वे जटिल रूपों में अपना विकास करते हैं।  इनके एक जैसे सरोकार हैं,इनमें सबसे प्रमुख सरोकार है सेक्स को छिपाना। इस कार्य के लिए विगत तीन सौ सालों में अनेक किस्म के उपकरण इजाद किए गए हैं जिससे आप इसके बारे में बोलें,स्वयं बोले,सुनें,रिकॉर्ड करें, लिपिबध्द करें,और वितरित करें कि उसके बारे में क्या सोचते हैं। सारा नेटवर्क सेक्स के इर्दगिर्द ही घूम रहा है। किसी न किसी रूप में थोड़े बहुत फर्क के साथ समस्त किस्म के विमर्शों पर उसे थोप दिया गया है। जबकि मौखिक तौर पर हम इस युग में तर्क की वरीयता की बातें कर रहे हैं। इस सबको लेकर आपत्तियों का उठना स्वाभाविक है। क्योंकि सेक्स पर बात करने के लिए अनिवार्यत: इतने मैकेनिज्म ईजाद किए गए हैं। हमें इस पर लगी सभी पाबंदियां हटा देनी चाहिए और सेक्स को नए नजरिए से देखना चाहिए। किन्तु यह काम सीमित और सतर्क संहिताबध्द ढ़ंग से किया जाना चाहिए। आप जितना ज्यादा सेक्स के बारे में बातें करेंगे उसके उतने ही  स्वर्त:स्फूर्त्‍त उपकरण सामने आ जाएंगे। इसके विमर्श को सख्त परिस्थितियों  में करने का यह अर्थ नहीं है कि सेक्स को गुप्त बना दिया जाए। या सेक्स को गोपनीय बनाने के प्रयासों की इससे पुष्‍टि‍ नहीं होती। 
    
     फूको कहता है कि सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि इसे आज भी गोपनीय बनाने की कोशि‍श की जा रही है। किन्तु यह बात बार-बार कही गयी है कि सेक्स ,विमर्श के दायरे के बाहर होता है और इसके लिए एकमात्र रास्ता है उसकी बाधाओं को हटाना।सेक्स की गोपनीयता को भंग करना। इससे ही वह रास्ता साफ होगा जिसकी हमें परीक्षा करनी है। क्या नश्‍तर लगाने से सेक्स विमर्श में उत्तेजना आएगी ,इसका लक्ष्य सेक्स पर बोलने लिए लोगों को उत्तेजित करना नहीं है,वह तो आईना है।वह प्रत्येक वास्तव विमर्श की बाहरी सीमा है,असल में जो कुछ छिपाया जा रहा है उसका उद्धाटन करना है।चुप्पी को कम करना है।
( लेखक- जगदीश्‍वर चतुर्वेदी, सुधा सिंह ) 
        




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