शनिवार, 7 नवंबर 2009

प्रभाषजोशी का आधुनि‍क मंत्र :प्रेस का काम है छापना

              
        प्रेस में आजकल इनदि‍नों जि‍स तरह का माहौल है उसे तोड़ने और समझने में प्रभाषजी का नजरि‍या हमारे लि‍ए रोशनी प्रदान कर सकता है। आम तौर पर अखबार के संपादक और उपसंपादक अपने नजरि‍ए के अनुकूल सामग्री छापने की फि‍राक में रहते हैं। अपने वि‍चारों से सहमत लेखक तलाशते रहते हैं। इससे पत्रकारि‍ता में गरीबी बढ़ी है। दूसरी ओर अधि‍कांश संपादकों के लि‍ए पत्रकारि‍ता धन कमाने,वि‍ज्ञापन कमाने और राजनीति‍क लाभ कमाने का जरि‍या हो गयी है। प्रभाष जोशी का मानना था '' पत्रकारि‍ता लोगों को जानकारी देने,मन बनाने में मदद करने,सार्वजनि‍क मामलों में जनता की तरफ से नि‍गरानी करने,शासकों को लोगों के प्रति‍ उत्‍तरदायी बनाने,राज्‍य के तीनों स्‍तम्‍भों पर नजर रखने और 'पार्टीवि‍हीन तटस्‍थ भूमि‍का नि‍भाने के लि‍ए है।'
     इन दि‍नों जि‍स तरह की तथाकथि‍त खोजी पत्रकारि‍ता को हम स्‍टिंग ऑपरेशन के नाम से देख रहे हैं, उसकी तीखी आलोचना करते हुए प्रभाष जी ने लि‍खा '' भारत में प्रेस और टीवी तहलका कि‍स्‍म की खोजी पत्रकारि‍ता करे तो पत्रकारि‍ता बचेगी नहीं। तब अपना लोकतन्‍त्र भी शस्‍त्रों का बाजार हो जाएगा और उसमें कमीशनखोर और दलाल राज चलाएँगे । यह न पत्रकारि‍ता को मंजूर होगा ,न लोकतन्‍त्र को। मैं पहले ही बता चुका हूँ कि‍ पत्रकारि‍ता हथि‍यार बनाने -बेचने वालों के धन्‍धे की तरह नहीं हो सकती, न वह जासूसी एजेंसि‍यों की तरह चल सकती है। पत्रकारि‍ता एक खुला और जबावदेही वाला अनुष्‍ठान है- वह उस तरह खोजबीन नहीं करता जि‍स तरह राज्‍य या जासूसी या धन्‍धेबाज एजेन्‍सि‍यॉं करती हैं। सच उगलवाने और सबूत जुटाने के लि‍ए आखि‍र पुलि‍सवाले थर्ड डि‍ग्री तरीकों का इस्‍तेमाल करते हैं। वे भी दावा यही करते हैं कि‍ लोकहि‍त और न्‍याय के लि‍ए कर रहे हैं, लेकि‍न क्‍या कि‍सी अखबार, टीवी चैनल या पोर्टेल की टीम पुलि‍स की तरह काम कर सकती है ?''
    प्रभाषजी का मानना है नागरि‍क की मर्यादाऍं और मीडि‍या की मर्यादाऍं अलग -अलग नहीं हैं बल्‍कि‍ एक हैं। वे मीडि‍या को कि‍सी भी कि‍स्‍म के वि‍शेषाधि‍कार दि‍ए जाने के खि‍लाफ हैं। उन्‍होंने लि‍खा '' जो मीडि‍या अपने सारे अधि‍कार एक साधारण नागरि‍क के बुनि‍यादी अधि‍कार से प्राप्‍त करता है वह कि‍सी वि‍शेषाधि‍कार की आड़ नहीं ले सकता। इसलि‍ए भारत में मीडि‍या को वही मर्यादाऍं  और वही सदाचार अपनाने होंगे जो कि‍ एक आम नागरि‍क के हैं और समाज को मान्‍य हैं।'' उन्‍होंने यह भी लि‍खा '' पत्रकारि‍ता अगर सच्‍चाई का अनुष्‍ठान है तो उसे झूठ और धोखाधड़ी से साधा नहीं जा सकता। '' आगे लि‍खा '' भंडाफोड़ करना ही पत्रकारि‍ता का अगर एकमात्र उद्देश्‍य है तो उससे भी सदाचार तभी कायम होगा जब भंडाफोड़ सदाचार से कि‍या गया हो। '' उनका मानना था '' जो सदाचार नहीं है उसे पत्रकारि‍ता अपना नहीं सकती क्‍योंकि‍ पत्रकारि‍ता सदाचार के बि‍ना हो नहीं सकती।'' 
     प्रभाषजी का मानना था '' अखबार के लि‍ए लि‍खने और कि‍ताब के लि‍ए लि‍खने में अपन फ़र्क करते हैं। अखबार में दबाब बाहरी होता है और लि‍खना सम्‍पादन का अनि‍वार्य लेकि‍न एक अंश है। अखबार के लि‍खे की कि‍ताब छपती है है दुनि‍या -भर में और सबकी। अपनी भी छपी है,और भी छपेगी लेकि‍न कि‍ताब के लि‍ए लि‍खना उसी के लि‍ए लि‍खना है। ''
        प्रभाषजी की पत्रकारि‍ता की मूल चि‍न्‍ता लोक को लेकर थी। लोक ही उनके कर्म का नि‍र्धारक तत्‍व था। प्रेस के सम्‍पादकीय कार्यभारों का वि‍वेचन करते हुए प्रभाषजी ने लि‍खा '' 39 साल हो गए पत्रकारि‍ता करते लेकि‍न मेरा झुकाव अब भी छाप देने की तरफ है बजाय न छापने के। जि‍ससे आप असहमत हों और जो आपके खि‍लाफ हो उसे तो और भी तत्‍परता के साथ छापना चाहि‍ए क्‍योंकि‍ ऐसा करके आप लोकतन्‍त्र की पहली शर्त तो पूरी करते ही हैं,पाठकों से सबसे बहुमूल्‍य प्रमाणपत्र भी पाते हैं वि‍श्‍वसनीयता का। पर वि‍श्‍वसनीयता तो फि‍र भी आपके और पाठकों के बीच सम्‍बन्‍धों की एक बात है। मैं तो खुद ही अपनी नजरों में गि‍र जाऊँगा और अपने को डरपोक और छोटा मानूँगा अगर कोई चीज न छापूँ क्‍योंकि‍ मैं उससे सहमत नहीं हूँ। कोई बात अगर सरासर झूठ और सामान्‍य शि‍ष्‍टाचार के वि‍रूद्ध न हो तो सम्‍पादकों और अखबारों को छापने के लि‍ए ज्‍यादा तैयार रहना चाहि‍ए। हमारा धर्म और काम छापना है न छापना नहीं। '' प्रभाषजी मानते थे  '' न छापकर रोने से अच्‍छा है कि‍ छापकर रोया जाए।''
            आम तौर पर हि‍न्‍दी के सम्‍पादक कम से कम पढते हैं,कम से कम लि‍खते हैं। अखबार जब तैयार होता है तो अपने दफ्तर में नहीं कि‍सी और जगह होते हैं। प्रभाषजी इस तरह की संपादकीय मानसि‍कता के खि‍लाफ थे। लि‍खा '' अपन मानते हैं कि‍ शाम /  रात को, जब अखबार बन रहा होता है तब सम्‍पादक को दफ्तर के कमरे में होना चाहि‍ए। अखबार भले ही सहयोगी नि‍काल रहे हों। और सबेरे सम्‍पादक को अपना और दूसरे सभी अखबार पढ़ने चाहि‍ए। ऐसा आप करें तो कम से कम आठ घंटे सुबह  -शाम के गए। फि‍र दि‍न में अखबार का सीधा काम भी करना चाहि‍ए। बड़े और महान सम्‍पादक भले ही रि‍मोट से अखबार चलाते हों अपन गरीबदास के भाग में तो रोज कुँआ खोदना और रोज पानी पीना ही बदा है। ''       
















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