सोमवार, 23 नवंबर 2009

समापन कि‍श्‍त - कम्‍युनि‍स्‍ट पार्टियां और जनतंत्र (4)

पूंजीवाद की भारी विफलताओं और जनता के व्यापक असंतोष ने भारत में यत्र-तत्र वामपंथ को आगे बढ़ने के बड़े अवसर दिये हैं। विभिन्न स्तर के निकायों के चुनावों में उसे काफी जीतें हासिल हुई हैं। एकाधिक राज्यों में सरकार बनाने का अवसर भी मिला है। इन्हीं अनुभवों से सीपीआई(एम) के कार्यक्रम में ऐसी सरकारों की भूमिका को सुनिश्‍चि‍त करने वाली धाराएं (पूर्व कार्यक्रम की धारा 112 और सन् 2000 में त्रिवेंद्रम के विशेष सम्मेलन द्वारा पारित कार्यक्रम की धारा 7.17) जुड़ीं, वर्ना कम्युनिस्ट अन्तर्राष्‍ट्रीय के निदेशन और अनुभवों से बनाये गये कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यक्रम में चुनाव के बल पर किसी संघीय गणतंत्र के अंगराज्य में भी सरकार बनाने की संभावनाओं तक का अनुमान नहीं लगाया गया था, केंद्र सरकार में जाना तो दूर की बात। पार्लियामेंट और चुनावों की उपयोगिता के बारे में लेनिन के काल से ही सारे बहस-मुबाहिसे के बावजूद बोल्शेविक उसूलों की सामान्य समझ में चुनाव में बहुमत के जरिये सत्ता पर आना पूरी तरह से असंभव माना जाता था। यही वजह है कि 1996 में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के सवाल पर चली बहस के समय सीपीआई(एम) के कार्यक्रम में केंद्र में सरकार बनाने की इस प्रकार की किसी संभावना के बारे में दिशा-निर्देश होना भी चर्चा का एक विषय था और केंद्रीय कमेटी के उक्त फैसले के ठीक बाद हुई सीपीआई(एम) की पार्टी कांग्रेस में ही कार्यक्रम में संशोधन करके इस प्रकार की संभावना के लिये स्पष्‍ट व्यवस्था की गयी थी। यह तो जैसे अनायास ही पार्टी के संघर्षों ने अपने प्रभाव के राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में सत्ता के संतुलन को बदल कर ऐसा परिवर्तन कर दिया कि जिसे 'मौन क्रांति' कहा जा सकता है। गौर करने लायक महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत में संसदीय जनतंत्र के इतने समृध्द अनुभवों के बावजूद इन अनुभवों के आधार पर भारतीय क्रांति के अब तक के विकास पथ के एक सुसंगत इतिहास और उस पर आधारित आगे के जनतांत्रिक पथ के निर्माण की समस्या बनी हुई है। भारतीय जनतंत्र के विकास में वामपंथ के ऐतिहासिक योगदान का सही इतिहास लिखा जाना बाकी है।

कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन का बोल्शेविक स्वरूप स्वाभाविक तौर पर किसी भी क्रांतिकारी दल के लिये एक आकर्षक और आदर्श स्वरूप है क्योंकि उसी के जरिये दुनिया में पहली बार शासक वर्गों की ताकत के खिलाफ उत्पीड़ित जनों की क्रांति को संभव बनाया जा सका था। अंग्रेज इतिहासकार एरिक हाब्सवाम ने इस संगठन के बारे में सही लिखा था कि संगठन के उस स्वरूप ने ''छोटे से संगठनों को भी अपने अनुपात से कहीं अधिक प्रभावशाली बना दिया था, क्योंकि इसके जरिये पार्टी अपने सदस्यों से  असाधारण निष्‍ठा और त्याग-बलिदान हासिल कर सकती है जो किसी भी सेना के अनुशासन और तालमेल से ज्यादा होता है और किसी भी कीमत पर पार्टी के फैसलों पर अमल करने पर पूरी तरह से संकेंद्रित कर देता है।''

लेकिन गौर करने लायक बात यह है कि संगठन की जो तकनीक रूस में, जो एक पिछड़ा हुआ समाज था और जहां आततयी राजा का शासन था, जबर्दस्त रूप में सफल हुई, उसे भारत के एक भिन्न समाज और भिन्न प्रकार की राजनीतिक परिस्थितियों में हूबहू लागू नहीं किया जा सकता था। भारत के आधुनिक राजनीतिक इतिहास और खास तौर पर 1975 के आंतरिक आपातकाल के अनुभवों और जनतंत्र की रक्षा के संघर्ष की महत्ता को समझते हुए सीपीआई(एम) ने खुद को एक जन-क्रांतिकारी पार्टी के रूप में विकसित करने का जो निर्णय लिया था वह इसी सच को प्रतिबिम्बित करता है। जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का फैसला संगठन के उस कथित लेनिनवादी रूप से मेल नहीं खाता था जो रूस की परिस्थितियों में उत्पन्न सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का रहा है और चीन की खास परिस्थितियों में उत्पन्न चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का रहा है। यह भारत के विशेष आधुनिक राजनीतिक इतिहास की पृश्ठभूमि में लिया गया भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का फैसला था, जिसकी दूसरे किसी विकासशील दे में भी कोई नजीर नहीं मिलती है। यह एक क्रांतिकारी पार्टी को जनता के तमाम हिस्सों की प्रतिनिधित्वकारी पार्टी बनाने की जरूरत को समझते हुए लिया गया फैसला था।

दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों की इस बैठक में निश्‍चि‍त तौर पर किसी न किसी रूप में कम्युनिस्ट आंदोलन के अंदर के इस प्रकार के विय भी अनुभवों के आदान-प्रदान में सामने आये होंगे। ऐसी बैठकों से कोई एक दस्तावेज या प्रस्ताव पारित करने की परिपाटी नहीं है। अब तक इन्हें आपसी विचार-विमर्ष के अनौपचारिक मंच के रूप में ही लिया जा रहा है। यह बिल्कुल सही है। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के बाद के इन 8 कों में  विश्‍व कम्युनिस्ट आंदोलन का पूरा दृश्‍यपट ही बदल गया है। एक केंद्र से सब देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों को संचालित करने की आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। यही वजह है कि आज प्रत्येक कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर ही नहीं, विश्‍व कम्युनिस्ट आंदोलन में भी कम्युनिस्ट इंटरनेनल के दिनों के कमांड ढांचे को त्याग कर इस विविधताओं से भरी दुनिया के बहुरंगी अनुभवों को समेट कर चलने की बहुलतावादी संस्कृति के पनपने और पुष्‍ट होने की जनतांत्रिक संभावनाएं पहले के किसी भी समय की अपेक्षा कहीं ज्यादा हैं। ( समाप्‍त) 
( लेखक- अरूण माहेश्‍वरी,प्रसि‍द्ध मार्क्‍सवादी वि‍चारक )   

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