रविवार, 8 नवंबर 2009

मीडि‍या में लोकतंत्र का वि‍भ्रम

                         
      मीडिया में इन दिनों व्यक्तिगत और निजी जिंदगी के अंदर झांकने ,उसकी जासूसी करने या बखिया उधेड़ने में लगा है।  उसे व्यक्तिगत स्कैंडलों में जितनी रूचि है उतनी गंभीर नीतिगत सवालों की जांच- पड़ताल में नहीं है। मीडिया की ज्यादातर प्रस्तुतियां हमें गलत के बारे में भयभीत करती हैं। छोटी-छोटी बातों को उन्माद की अवस्था तक उभारा जाता है। जबकि गंभीर समस्याओं और घटनाओं की मीडिया उपेक्षा करता है। वेवजह अतिरंजित ढ़ंग से पैदा किया गया भय  गैर-जरूरी कानूनी प्रावधानों और कानूनी सख्तियों को हमारे जीवन में ले आता है।
        मीडिया के द्वारा जनतंत्र का एक ही निष्कर्ष पेश किया जा रहा है कि ज्यादा चिन्ता की जरूरत नहीं है। वे ज्यादातर मामलों में जनतंत्र का सरलीकृत रूप पेश करते हैं और एक ही निष्कर्ष देते हैं कि '' चिन्ता मत करो।'' वे यह भी मंतव्य संप्रेषित करते हैं कि मुक्त बाजार केन्द्रित जनतंत्र में  मुक्त बाजार की ताकतों का प्रत्येक चीज पर नियंत्रण है और वे प्रत्येक चीज को नियंत्रित करने की स्थिति में हैं।
      अब जनता का आदर्श की बजाय ढोंग के रूप में चि‍त्रण किया जाता है। वह प्रगति के रास्ते में लटके हुए की बजाय नेता की शक्ति की अनुयायी नजर आती है। मीडिया अपने को संविधान का रक्षक अथवा संवैधानिक व्यवस्थाओं के संरक्षक के तौर पर पेश कर रहा है। वह संविधान के संरक्षक वाले रूप पर इस कदर जोर देता है कि हम भूल ही जाते हैं कि मीडिया ने जनतंत्र को पुनर्परिभाषित करना बंद कर दिया है। अब मीडिया की नजरों में जनतंत्र का अर्थ है व्यापार की स्वतंत्रता, जिसमें सरकार की तरफ से कम से कम बाधाएं होंगी। 
        भारत में समाचारों में 'अंतर्वस्तु' के क्षय की प्रक्रिया समाचार चैनलों के आने के पहले से ही शुरू हो गयी थी, खासकर आपात्काल की समाप्ति के बाद से मीडिया खासकर प्रेस की रूचि सामाजिक टकराव पैदा करने वाले मसलों में ज्यादा हो गयी, इसके प्रधान उदाहरण हैं- आरक्षण,बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद, पंजाब के आतंकवाद का कवरेज। इसी दौर में बोफोर्स घोटाले ने मीडिया में सबसे ज्यादा कवरेज हासिल किया था और बोफोर्स के कवरेज को समाचार जगत में बदलाव के प्रधान बिंदु के तौर पर देख सकते हैं। बोफोर्स के उद्धाटन का सीधा असर यह हुआ कि मीडिया में समाचार का अंत हो गया। बोफोर्स की खबर आखिरी खबर थी जिसने समाज और राजनीति दोनों को उद्वेलित किया था। अब कोई भी खबर उद्वेलित नहीं करती। अब प्रत्येक खबर मनोरंजन में तब्दील हो जाती है। अथवा सामाजिक टकराव या उन्माद का संदेश लेकर आती है। अब सभी किस्म की राजनीति के बीच समानता का बोध पैदा कर दिया गया है। आप समाचार देखकर अथवा घटना विशेष का कवरेज देखकर यही निष्कर्ष निकालते हैं कि सभी राजनीतिक दल एक जैसे हैं। सभी राजनीतिक दलों की तर्कप्रणाली भी एक जैसी लगती है। अब राजनेता तर्क कम आरोप अथवा अतिरंजित बातें ज्यादा करते हैं। उनके तर्कों में विवेकवाद की कम दावे की भावना ज्यादा होती है।
      मीडिया जब किसी स्कैण्डल का उद्धाटन करता है तो उसकी रूचि सिर्फ उद्धाटन में होती है। उद्धाटन के लिए वह तैयारशुदा सामग्री का इस्तेमाल करता है। मसलन् पुलिस फाइल, कानूनी दांवपेंच, वकील, अथवा स्टिंग आपरेशन। इन सबमें उसकी संबंधित मुद्दे को लेकर किसी भी किस्म की खोज सामने नहीं आती। वह सिर्फ वही पेश करता है जो बताया जा रहा है अथवा घट रहा है। घटना वही नहीं है जो घट रही है बल्कि घटना तो घट चुकी होती है और उसकी तहकीकात करते हुए गंभीर और जटिलतम चीजों को सामने लाना मीडिया का दायित्व है।
    बोफोर्स घोटाले के बाद से किसी भी मुद्दे पर एक भी खोजी रिपोर्ट, मौलिक और तथ्यपूर्ण खबर मीडिया पेश नहीं कर पाया है। वह उसी चीज को बता रहा है जो उसे बतायी जा रही है। मीडिया का काम यह नहीं है कि जो बताया जा रहा है उसे ही पेश कर दिया जाए। बल्कि जो नहीं बताया जा रहा, जो छिपा है और जिसकी वजह से ऊपरी तामझाम खड़ा किया जा रहा है उसका उद्धाटन किया जाए।
बोफोर्स के बाद मीडिया में ''सेल्फ सेंसरशिप'' पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा है। आपात्काल में सेंसरशिप के बुरे अनुभवों का ही यह सबसे बुरा परिणाम है ''सेल्फ सेंसरशिप'' अथवा '' आत्म-नियंत्रण।'' ''आत्म-नियंत्रण'' की कला का यह परिणाम है कि उसने खबर को ही सेंसर कर दिया है। अब खबर पेश ही नहीं की जाती है।
सन् 1980 के बाद से मीडिया में केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति में इजाफा हुआ है। मीडिया में विज्ञापन और विभिन्न माध्यमों के विकास ने इजारेदाराना प्रवृत्तियों और नियंत्रण को और भी पुख्ता बनाया है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के कारण इलैक्ट्रोनिक मीडिया में निजी क्षेत्र और बाद में विदेशी पूंजी निवेश ने केन्द्रीकरण को चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया है। अब अखबारों में पेज ज्यादा हैं खबरें कम हैं। समाचार चैनल अनेक हैं किंतु चैनलों में खबरों का अकाल पड़ा है। मुश्किल से आधा दर्जन सारवान खबरें भी चैनलों में नहीं होतीं। मीडिया ताकतवर बना है , पहले की तुलना में ज्यादा कारोबार कर रहा है, ज्यादा मुनाफा कमा रहा है, ज्यादा ऑडिएंस तक पहुँच रहा है, किंतु खबरों का अकाल पड़ा है। अभिजन की रूचियों,संस्कारों, आदतों और मूल्यों के लिए समूचा मीडिया समर्पित भाव से काम कर रहा है। गैर-अभिजन समुदायों की समस्याओं के बारे में समाचार देने, उनकी समस्याओं पर लिखने या उनकी खबरों को समाचार चैनलों में अभी तक एजेण्डा नहीं बनाया है।  चैनलों में साधारण आदमी की सारवान खबरें कम पुलिस फाइल की खबरें, व्यक्तिगत जीवन की खबरें अथवा नाच-गाने के कार्यक्रमों की प्रस्तुति ज्यादा हो रही है। आम आदमी से जुड़ी सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक खबरों का पूरी तरह लोप हो गया है।
खबरों में बड़ी खबर करोड़पति-अरबपति की होती है, सैलीबरेटी की होती है। कार्यकारी अधिकारी अथवा व्यापार अथवा विकासदर की खबर बड़ी खबर होती है। संपदा और उसके वैभव में चैनलों का संसार खोया हुआ है। यह संपदा के वैभव का भौंडा प्रदर्शनभर है। खबरों के नाम पर मीडिया कचरा खबरों का ढ़ेर लगा रहा है। कायदे से कहें तो समाज पर खबरें कम कचरा ज्यादा फेंका जा रहा है। खबर का अर्थ है सूचना देना। खबरों में अब सूचना नहीं होती बल्कि खबरें आरोपित होती हैं। ये वे खबरें हैं जो जबर्दस्ती बनायी गयी हैं। इन खबरों से सार्वजनिक बहस पैदा नहीं होतीं। जनतंत्र के लिए ऐसी खबरें सारवान मानी जाती हैं जो सार्वजनिक मुद्दों पर सार्वजनिक बहसों को जन्म दे।
         


1 टिप्पणी:

  1. सही बात तो यह है कि पहले नौकरशाह और राजनेता मिले, अब मीडिया भी इनसे मिल गया है। ये तीनों मिलकर देश को खा रहे हैं। इस देश में एक सशक्‍त क्रान्ति की आवश्‍यकता है लेकिन क्रांति भी कौन लाएगा, जब जनता ही भ्रष्‍ट हो। बेचारा गरीब आदमी अपनी रोटी की जुगाड़ करेगा या फिर बगावत?

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