शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

हि‍न्‍दी के 'ई लेखकों' की चुनौति‍यां

             हि‍न्‍दी 'ई' लेखकों की बहुत बडी तादाद है। इतनी बडी संख्‍या में कभी हि‍न्‍दी में लेखक नहीं थे। तकरीबन 11 हजार से ज्‍यादा ब्‍लॉग लेखकों के कई लाख सुंदर लेख नेट पर देखे जा सकते हैं। ये जल्‍दी पढ़ते हैं और तुरंत प्रति‍क्रि‍या व्‍यक्‍त करते हैं। हि‍न्‍दी गद्य के वैवि‍ध्‍य का यह सुंदर नमूना है। मैंने अपने एक लेख में हि‍न्‍दी के ई लेखन की तरफ कुछ आलोचनात्‍मक बातें लि‍खीं तो अनेक 'ई' लेखक नाराज हो गए। मैं उनकी नाराजगी से सहमत हूँ। उनके पास अपनी बात के पक्ष में सुंदर तर्क हैं। उनके सुंदर तर्कों से असहमत होना असंभव है। लेकि‍न 'ई' लेखन की कमि‍यों को हम यदि‍ आलोचनात्‍मक ढ़ंग से नहीं देखेंगे तो कैसे आगे अपना वि‍कास करेंगे ? यह सच है लेखक प्रशंसा चाहता है। ब्‍लॉग लेखक भी प्रशंसा चाहते हैं। यह एक स्‍वाभावि‍क बात है। मुझे भी प्रशंसा अच्‍छी लगती है । प्रशंसा से मन को संतोष मि‍लता है। लेकि‍न इससे 'ई' लेखन की समस्‍याएं खत्‍म नहीं होतीं।
          हि‍न्‍दी के 'ई' लेखकों की सबसे बडी चुनौती है 'ई' लेखन। 'ई' लेखन आज ग्‍लोबल रूप में सहज ही उपलब्‍ध है। यह ग्‍लोबल कम्‍युनि‍केशन है। पहले लेखन स्‍थानीय था। अब ग्‍लोबल है। पहले  लेखक को स्‍थानीय लोग पढते थे। आज लि‍खते ही ग्‍लोबल पाठे पढ़ते हैं। पहले हम अपनी कमजोरि‍यां अपने घर तक सीमि‍त रखते थे, आत वे तुरंत ही वि‍श्‍वव्‍यापी हो जाती हैं। इस अर्थ में 'ई' लेखन ज्‍यादा चुनौतीपूर्ण है। ग्‍लोबल लेखन की प्रक्रि‍या में जाएंगे तो हमें ग्‍लोबल लेखन से नि‍रंतर संवाद,संपर्क रखना होगा।  हमें थोड़ा समय नि‍कालकर ग्‍लोबल 'ई' लेखन में भी झांक लेना चाहि‍ए। उसके साथ संपर्क करना चाहि‍ए। पढ़ना चाहि‍ए।  
    जि‍स तरह कवि‍ता ,नाटक या साहि‍त्‍य लि‍खने के लि‍ए अन्‍य का साहि‍त्‍य पढ़ना जरूरी है वैसे ही 'ई' लेखन के लि‍ए भी अन्‍य का 'ई' लेखन देखना जरूरी है। हम सि‍र्फ अपने जैसे 'ई' लेखन को ही पढ़ने में अपने को व्‍यस्‍त क्‍यों रखना चाहते हैं। हमें अन्‍य भाषा,खासकर अंग्रेजी में लि‍खे जा रहे 'ई' लेखन को भी सप्‍ताह में एक-दो बार देख लेना चाहि‍ए। इससे हि‍न्‍दी 'ई' लेखन का स्‍तर सुधरेगा।
     'ई' लेखन हि‍न्‍दी की सर्जनात्‍मक उपलब्‍धि‍ है। यह लेखन का मूल्‍यवान रूप है। इसमें थोड़ा सा इति‍हास,थोड़ी सी प्रकृति‍, थोड़ी सी वास्‍तवि‍कता,थोड़ा सा सामाजि‍क परि‍वेश खूब आ रहा है। यह हमारे 'ई'सर्जक की अभि‍व्‍यक्‍ति‍ का श्रेष्‍ठतम रूप है।  हमारे 'ई' लेखकों ने 'ई' पाठकों तक बहुत कुछ ऐसी जानकारि‍यां दी हैं जि‍से लोग पहले नहीं जानते थे। हि‍न्‍दी के अनेक ब्‍लॉगर हैं जो अपने क्षेत्र,शहर,गांव और प्रान्‍त का हाल चाल लि‍ख रहे हैं। सामयि‍क समस्‍याओं से लेकर प्राचीन और मध्‍यकालीन रचनाओं तक अपने 'ई' लेखन का वि‍स्‍तार कर रहे हैं। 'ई' लेखक सीधे 'ई' पाठक के ज्ञानजगत और अनुभव जगत के साथ संवाद कर रहे हैं। इनके पास जो पाठक हैं वे तुलनात्‍मक तौर पर ज्‍यादा शिक्षि‍त है।
         हि‍न्‍दी के 'ई' लेखक जि‍स सामाजि‍क यथार्थ को अपने लेखन के जरि‍ए सामने ला रहे हैं उसमें से अधि‍कांश ऐसा है जि‍सके बारे में कम से कम मैं नहीं जानता था। मैं सोचता हूँ, ऐसी दशा अन्‍य 'ई' पाठकों की भी होगी।  हि‍न्‍दी के 'ई' लेखक इस अर्थ में भि‍न्‍न हैं कि‍ वे व्‍यक्‍ति‍गत सुख-दुख का ब्‍यौरा नहीं देते। वे सामाजि‍क प्राणी की तरह देश दुनि‍या की खबर ले दे रहे हैं।  
    आज नेट रीडिंग वास्तविकता है।कल तक सपना था।आज हम सब कुछ कम्प्यूटर स्क्रीन पर लिख पढ़ रहे हैं। अब किताब पढ़ने और स्क्रीन पर पढ़ने में बहुत थोड़ा फर्क रह गया है। मिशेल जॉय और स्वेन बिर्किटत्ज ने लिखा कि इलैक्ट्रोनिक पुस्तक और कागज की पुस्तक में बहुत थोड़ा फर्क रह गया है।बल्कि सच्चाई यह है कि कागज की पुस्तक अपरिवर्तनीय होती है। इलैक्ट्रोनिक पुस्तक परिवर्तनीय होती है।इलैक्ट्रोनिक पेज को बदल सकते हैं,स्पर्श कर सकते हैं। '' नए माध्यम की विशेषता है नयी वस्तु ,प्रिंट स्थिर रहता है,इलैक्ट्रोनिक पाठ स्वयं को बदलता है।'' प्रिंट सुनिश्चित है।हम जानते हैं।इलैक्ट्रोनिक किताब की खूबी यह है कि यदि इसे सुनिश्चित रूप में देखना चाहते हैं तो इसकी कीमत अदा करनी पड़ेगी। असल में इलैक्ट्रेनिक लेखन हमारी व्यक्तिगत जरूरतों को आत्मसात करता है। जबकि प्रिंट जन-उत्पादन की जरूरतों को आत्मसात करता है। स्क्रीन पाठ यदि देखने में अच्छा नहीं लगता तो आप इसे इच्छानुसार बदल सकते हैं।कुछ लोग ऐसे  भी हैं जो यह मानते हैं कि स्क्रीन के परिवर्तन रूप ,परिवर्तन सॉफ्टवेयर , परिवर्तनीय मीडिया के कारण भावी पीढ़ी के पास साहित्य पहुँचने में बाधा पैदा हो रही है। पुस्तक के पास पाठक होता है। वह उसका संरक्षण करता है।अनुकरण करता है। किंतु इलैक्ट्रोनिक पाठ की मुश्किल यह नहीं है। यह सरल है। इसे अपडेट कर सकते हैं।नया साफ्टवेयर बना सकते हैं।नयी प्रति तैयार कर सकते हैं।नए मीडिया में देख सकते हैं। इसमें लेखक और पाठक संवाद कर सकते हैं।इसे जन-उत्पादन के कारखाने से तैयार होकर आने की जरूरत नहीं है।
  हाइपरटेक्स्ट  और हाइपरमीडिया ने अभिरूचियों का विस्फोट किया है। नए रूपों को जन्म दिया है। इन दिनों छोटे रूप और अल्प अवधि की चीजें ही स्मृति में रहती है। हाइपर टेक्स्ट में लघु कहानी पहला विधारूप है जो सबसे पहले आया। इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि हाइपर टेक्स्ट छोटा मीडियम है।इसका छोटा दिमाग है।क्षणिक उत्तेजना का माध्यम है।छोटा दिमाग पोगा पंडित का होता है वह स्क्रीन से डरता है। कुछ लोग यह तर्क देते रहे हैं कि हाइपर टेक्स्ट 'इनकोहरेंट' है।उसमें संरचना' का अभाव है।परंपरागतता का अभाव है।स्वेन बिर्किट्त्ज ने ''गुटेनवर्ग एलेगी '' में लिखा है  '' मानवतावादी ज्ञान ... अंतत: सुसंगत कहानी की परंपरा पैदा करता है।अर्थपूर्ण अंतर्वस्तु पेश करता है। उसको विस्तार देता है।नए क्षेत्र खोलता है।खतरा तब पैदा होता है जब इसमें उभार आता है ,इसकी कहानी की कोई सीमा नहीं है।'' जो लोग कम्प्यूटर नापसंद करते हैं,परंपरावादी हैं,इससे अपरिचित हैं, वे सोचते हैं कि यह उनकी सरस्वती को भ्रष्ट कर देगा। नष्ट कर देगा। इसका असर हाइपर टेक्स्ट पर भी पड़ रहा है वह अपने को हल्का बनाता रहता है। हाइपर टेक्स्ट पर विचार करते समय साहित्यिक अतीत से मुक्त होकर सोचना होगा। साहित्यिक अतीत की यादें और धारणाएं पग-पग पर बाधाएं खड़ी करती हैं। हाइपर टेक्स्ट को कृत्रिम बुध्दि मानकर कला रूप मानें तो ज्यादा बेहतर होगा। वेब और मल्टीमीडिया की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यह पूर्वनिर्धारित चरित्रों पर निर्भर है। जबकि हाइपर टेक्स्ट मानवीय क्षमता पर निर्भर है।व्यक्तिगत अभिरूचि, विजडम ,कौशल आदि पर निर्भर है। हाल के वर्षों में बिल विली और टीना लार्सेन ने हाइपर टेक्स्ट के खुले जगत की चर्चा की है। इसी को मिशेल जॉय ने 'कंस्ट्रक्टिव हाइपर टेक्स्ट' कहा है। यह ऐसा कार्य है जिसे देखकर अन्य रचनाकार नया विजन महसूस करते हैं। इसमें हिस्सेदारी निभाने वाला गंभीरता से भाग लेता है। इसे हम प्रदर्शन की जगह समझें। यह बातचीत का आरामदायक स्थान नहीं है।




                       

3 टिप्‍पणियां:

  1. bahut hi badhiya likha.......'E' lekhan ke anek pahluon koujagar kiya......aabhar.

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  2. samsya sahee hai ki E lekhak kee gunvatta par koee doosare kaa niyantran nahee Hai.kintu ham jab bhee likheN gambheertaa se likhen jo tikaoon ho to isse statr sudharega. aaj bahut se acchhe sahityakaar net par likh kar print meediya par kabzaa jamaae sahityakaaron ko lalkar rahen hain.

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  3. निसंदेह एक संतुलित लेख है ....मेरा मानना है की हिंदी साहित्य की समग्र सामग्री ज्यू ज्यू नेट पर जुटाई जायेगी ओर कंप्यूटर पर उपलध होगी तभी इ लेखन का स्तर ओर बढेगा ... एक अच्छा पाठक ही अपनी अभिव्यक्ति को एक चुस्त भाषा दे सकता है ...अपने हाथो में मौजूद प्रिंट का बटन किसी को भी उत्साहित तो कर सकता है पर सार्वजनिक होने पर कोई भी चीज़ गुणवत्ता की मांग करेगी ही....आपका उद्देश्य इ -लेखन का क्या है...ये भी दिमाग में क्लियर होना चाहिए ..

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