मंगलवार, 10 नवंबर 2009

फैशन पत्रि‍काओं के खेल और स्‍त्री

         फैशन पत्रिकाओं और स्त्री पत्रिकाओं की भाषा इस तरह की होती है कि स्त्री अपनी व्यक्तिगत छवि को निखरे रूप में पेश कर सके। सच यह है कि कॉस्मेटिक का स्टाइल हर दस साल बाद बदल जाता है।इसके कारण मेकअप में भी कुछ कुछ नये परिवर्तन जाते हैं।खासकर चेहरा सजाना बड़ी स्टाईलाइज गतिविधि है। इसमें सेल्फ एक्सप्रेशन की बहुत कम गुंजाइश है।
     चेहरे की पेण्टिंग की किसी पिक्चर की पेण्टिंग से तुलना करना सही नहीं होगा बल्कि इसे एक ही पिक्चर की छोटे मोटे फेरबदल के साथ बार-बार की गई पेण्टिंग कह सकते हैं।हम यह भी कह सकते हैं कि ऑफिस जाते समय जो मेकअप होगा वह शादी में शामिल होते समय किए गए मेकअप से थोड़ा हटकर होगा। जो औरत कॉस्मेटिक्स का एकदम ही इस्तेमाल नहीं करना चाहती उसकी सामाजिक और पेशेवर जगत में स्वीकृति बनना असंभव है।उसे खास तरह के प्रतिबंध का सामना करना पड़ता है।इसका अर्थ यह भी है कि यह उन औरतों के लिए चेतावनी है जो बगैर कॉस्मेटिक्स के रहना चाहती हैं। इन सब बातों को रखने का अर्थ सिर्फ यह बताना है कि स्त्री-पुरूष में सेक्सुअल डिफरेंस होता है। उसी के आधार पर शारीरिक अनुशासन के नियमों को लागू किया जाता है।त्वचा स्त्री के आदर्श शरीर का एक हिस्सा है।
      स्त्री के शरीर या वॉडी को कैसे रखा जाए इसमें भी विचारधारा सक्रिय है।स्त्री के शरीर के सन्दर्भ मे वे ऐसे शरीर की तरफ ध्यान खींचते हैं जो अभ्यास में है,उत्प्रेरक है।जिसे देखकर शरीर के इनफियर रूप की व्याख्या की जा सके। स्त्री का चेहरा सजा होना चाहिए।इसी तरह उसका शरीर भी सजा हो।स्त्री चाहे मोटी हो किन्तु उसके होंठ इस कदर सजे हों कि चूमने का मन करे।उसका रंग चमक मारे,उसकी आंखों में रहस्यात्मकता हो,सजाने की कला मूलत: रूप बदलने की कला है।इसका अर्थ यह है कि स्त्री का चेहरा,साज-सिंगारविहीन चेहरा, डिफेक्टिव या दोषयुक्त होता है।साबुन और पानी, शेव,और नियमित साफ सफाई ही उसके लिए पर्याप्त नहीं है। सौन्दर्य संबंधित विज्ञापनों की यह रणनीति है कि वे औरत को बार-बार यह बताते रहते हैं कि उसका शरीर दोषयुक्त है,अभाव से भरा है।इसी तरह मीडिया के द्वारा स्त्री के शरीर की जो परफेक्ट इमेज प्रसारित की जा रही है उसमें स्त्री के शरीर की कमियों,सुंदरता की कमियों की ओर ही ध्यान खींचा जाता है। इससे मुक्त होने का एक ही रास्ता सुझाया जाता है कि स्त्री के शरीर की कमियों को दूर करने के जो तकनीकी रूप और प्रसाधन वस्तुएं बाजार में हैं उनका इस्तेमाल करो। इस तरह स्त्री के ऊपर नए किस्म का अनुशासन थोपा जा रहा है जिसे स्त्री मानने के लिए मजबूर है।
स्त्रीत्व का अनुशासन प्रकल्प स्त्री की जरूरतें तय करता है जिससे उसके शरीर में परिवर्तन किए जा सकें। कमोबेश सभी औरतों को इसके आगे समर्पण करना होता है।ये एक तरह से अपमान के उपाय हैं। स्त्री के मन में यह बात बिठायी जाती है कि उसका शरीर आरंभ से ही कमियों या दोषों से भरा है अत: उसका स्वयं को बेहतर ढ़ंग से ख्याल रखना चाहिए। अनेक औरतें ऐसी भी हैं जो इन सब सलाहों पर ध्यान नहीं देतीं और बेहतर खुराक के जरिए अपना शरीर दुरूस्त रखती हैं। इसी संदर्भ में गरीब औरत के लिए एक और शर्मनाक पहलू सामने आता है वह गरीबी से शर्मसार रहती है। गरीब औरत के ऊपर सिर्फ मनोवैज्ञानिक दबाव ही नहीं होता बल्कि उसे तो शरीर के लिए न्यूनतम खुराक तक नसीब नहीं होती।
      स्त्रीत्व के बृहत्तर परिप्रेश्य में देखें तो स्त्री का शरीर नस्ल और वर्ग की सीमाओं से भी बड़ा है। खाते पीते घरों की औरतें,अमीर औरतें जिस तरह सजने और शरीर के सौन्दर्य पर ध्यान देती हैं,वैसे ही मजदूर औरतें भी ध्यान देती हैं सिर्फ मात्रा,उपकरण और सामग्री का फर्क है।
    संस्थानगत हैट्रोसैक्सुएलिटी के युग में स्त्री को अपने को पुरूष के लिए वस्तु के रूप में आकर्षक बनाना अनिवार्य है। समसामयिक पितृसत्ताक संस्कृति के युग में अधिकतर औरतों के अंदर यह बात रहती है कि मर्द किस रूप में देखना चाहता है , वे निरंतर पुरूष की आंखों और निर्णय से अपने शरीर को देखती रहती हैं ,स्त्री ऐसे माहौल में रहती है जहां अन्य उसके शरीर को देखते रहते हैं। यह अन्य और कोई नहीं पितृसत्ता ही है। हमसे बार-बार यह कहा जाता है कि 'औरत औरत के लिए सजती है' किन्तु इसमें एक अंश तक ही सच्चाई है। किन्तु औरत जानती है कि वह किसके लिए यह खेल खेल रही है।  स्त्री का शरीर के प्रति अति सचेत होना स्वाभाविक परिघटना नहीं है।
        स्त्री को यह समझना होगा कि उसके जीवन में उम्र के साथ कुछ बदलाव आते हैं।ये उम्रगत परिवर्तन अनेक बार औरतें समझ नहीं पातीं। जिसके कारण अनेक उलझनें पैदा होती हैं।साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि भारत जैसे समाज में जहां स्त्री अधिकारहीन और पराश्रित है,वे औरतें भी जो आत्मनिर्भर हैं, अनेक मामलों में पुरूष को रिझाने वाले मीडिया प्रक्षेपित उपायों का इस्तेमाल करती हैं।इससे उनके व्यक्तित्व के निर्माण में शायद ही कोई मदद मिलती हो। हां, उनकी जेब जरूर ढीली हो जाती है। मजेदार बात यह है कि स्त्री- पुरूष दोनों एक-दूसरे को लेकर विलक्षण खेल खेलते रहते हैं। औरत अपनी सारी शक्ति पुरूष को जीतने में लगा देती है और पुरूष अपनी सारी शक्ति उसे पाने में लगा देता है। ये दोनों ही मार्ग अंतत: व्यक्तित्वहीनता और पितृसत्तात्मक वर्चस्व की ओर ले जाते हैं।नीत्शे ने कहा है कि यध्दा हमेशा खेल और संकट को पसंद करता है। नारी उसे इसीलिए पसंद है।क्योंकि नारी सबसे खतरनाक खेल है।वह चाहता है कि उसका संघर्ष उसके लिए खिलवाड़ रहे,पर नारी के लिए भाग्य परीक्षा रहे।सीमोन द बोउवार ने लिखा है कि पुरूष उध्दारक के रूप में हो या विजेता के, वह अपनी सच्ची विजय तभी समझता है,जब स्त्री उसे अपना सौभाग्य मानकर स्वीकार करे।
सीमोन द बोउवार ने लिखा है , '' नारीत्व की निष्क्रियताजन्य मौलिक विशेषताएं उसके बचपन में ही विकसित हो जाती हैं। यह कहना गलत होगा कि उसकी निष्क्रियता केवल जैविक तथ्य होती है।सच तो यह है कि उसकी यह नियति उसके ऊपर उसके अभिभावक,शिक्षक और समाज द्वारा आरोपित होती है।लड़के को सबसे बड़ी सुविधा दूसरों के संदर्भ में अपनी वैयक्तिक स्वतंत्रता को स्थापित कर पाना है। उसका जीवन उसकी स्वतंत्र गतिशीलता में निहित है। ...  मौलिक रूप से उसकी वैयक्तिकता और ठोस वस्तुपरकता में कोई आधारभूत विरोध नहीं होता। कुछ करने के माध्यम से वह अपने अस्तित्व का सृजन करता है।''
'' इसके विपरीत औरत में शुरू से ही उसकी स्वायत्तता और वस्तुपरकता में एक अंत:संघर्ष तथा अंतर्विरोध बना रहता है। उसने बचपन से दूसरे को खुश करने के लिए अपने आपको एक वस्तु के रूप में प्रतिपादित करना सीखा है।इसके लिए उसे अपनी स्वायत्तता का त्याग करना पड़ता है।बचपन से ही वह स्वतंत्रता से वंचित रहती है और गुड़िया की तरह व्यवहृत। अत: उसकी जिन्दगी में दुष्चक्र जारी रहता है।स्थितियों और वस्तुओं पर अपनी कमजोर पकड़ और उपकरणों की कमी के कारण वह अपनी वैयक्तिकता को स्थापित करने से घबराती है।यदि एकबार उसको सही ढ़ंग से प्रोत्साहित किया जाए, तो वह भी लड़कों की तरह उत्सुकता,संघर्ष,प्राचुर्य और बाहुल्य प्राप्त कर सकेगी। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि ऐसी शिक्षा एक पिता ही अपनी पुत्री को दे सकता है और जो औरतें पुरूष की देखरेख में बड़ी होती हैं ,उनमें स्त्री के दोष कम पाए जाते हैं।किन्तु परंपरा लड़की को लड़के की तरह बर्ताव करने का विरोध करती है।''  जबकि '' माँ एक ही साथ अपनी लड़की के प्रति स्नेहशील और विरोधी दोनों ही होती है। वह अपनी बेटी को अपनी नियति के साथ बांध लेती है। उसमें वह अपना नारीत्व फिर स्थापित करना चाहती है। यह एक प्रकार का स्वयं से प्रतिशोध है।'' लड़की से अब मॉँ बनने की आशा की जाती है पिता बनने की नहीं।लड़की भी बचपन से माँ के सम्पर्क में रहने के कारण माँ की सत्ता को ही श्रेष्ठ मानती है। वह माँ की नकल करती है। किन्तु जिन्दगी की वास्तविता के अनुभव उसके इस भावबोध को विचलित करते हैं।वह ज्यों-ज्यों बड़ी होती जाती है लड़कों की जीवंतता और ताकत से उसे ईर्ष्या होने लगती है। अब वह सोचने लगती है कि काश वह लड़का होती !
      

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