गुरुवार, 29 जुलाई 2010

संस्कृत ,उर्दू और हिन्दी काव्य के तुलनात्मक अध्ययन की समस्याएं-3-

           कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के रिफ्रेशर कोर्स में हिस्सा ले रही संध्या सिंह ( सीनियर लेक्चरर,प्रेसीडेंसी कॉलेज,कोलकाता) ने मेरी एक पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए सही कहा है कि हिन्दी के कवि उर्दू कवियों से कम लोकप्रिय नहीं हैं, इस प्रसंग में मैं सिर्फ यही कहना चाहता हूँ कि मासमीडिया खासकर फिल्म माध्यम के जरिए उर्दू कवियों को जो लोकप्रियता मिली है वह अतुलनीय है। उर्दू कवियों का एक बड़ा हिस्सा फिल्म जैसे माध्यम की शक्ति का इस्तेमाल करने में सफल रहा है। जबकि हिन्दी के कवियों ने फिल्म जैसे माध्यम के प्रति उपेक्षाभाव व्यक्त किया है। अपनी कविता को आधुनिक माध्यमों के जरिए प्रचारित-प्रसारित करने की कोशिश ही नहीं की।
     हिन्दी कवि ने परंपरागत प्रेस, किताब, पत्रिका आदि के जरिए ही अभिव्यक्त किया। इससे उसकी अभिव्यक्ति की सीमा तय हो गयी। वह न तो मंच पर गया, न माइक्रोफोन पर गया, न सिनेमा में गया,न वीडियो में गया, न ऑडियो की ही महत्ता को उसने समझा। दूसरी बात यह कि नए संचार के तकनीकी माध्यमों का इस्तेमाल करने वालों के साथ भी उसका संवाद, संपर्क नहीं था। मसलन् फिल्म वालों से कैफी आजमी आदि मित्रता और संपर्क कर सकते हैं, नागार्जुन-केदारनाथ अग्रवाल नहीं, ऐसा क्यों हुआ ? क्योंकि उनके मन में कहीं इन माध्यमों के प्रति उपेक्षा भाव था।
      तुलनात्मक साहित्य के नजरिए से देखें तो संस्कृत,उर्दू और हिन्दी में कुछ चीजें साझा हैं। इन तीनों भाषाओं के साहित्य पर दरबारी संस्कृति और सभ्यता का गहरा असर है। इनमें संस्कृत और उर्दू पर दरबारी संस्कृति का ज्यादा असर है। हिन्दी पर कम असर है। हिन्दी में वीरगाथाकाल और रीतिकाल पर दरबारी संस्कृति का व्यापक असर देखा जा सकता है। इसके अलावा हिन्दी की मध्यकालीन कविता जन-जीवन से जुड़ी कविता है। इसमें राम-कृष्ण के आख्यान की आंधी चली है। राम-कृष्ण के बहाने दरबारी संस्कृति का विकल्प निर्मित किया गया। राजा के सामने सिर झुकाने से बेहतर भगवान के सामने सिर झुकाने का भाव प्रतिवादी भाव है।
    इसके विपरीत संस्कृत काव्य परंपरा में राजा को अपदस्थ नहीं किया जा सका। संस्कृत काव्य का बड़ा हिस्सा राजा केन्द्रित आख्यानों से भरा है। इसमें जनता के भावों और सुख-दुख के लिए कोई जगह नहीं है। इसमें पशु हैं,पक्षी हैं,उपदेश हैं.काव्यमानक हैं और सबसे बड़ी बात यह कि इसमें सामाजिक यथार्थ का प्रतिबिम्बन नहीं है।
    हजारीप्रसाद द्विवेदी ने रेखांकित किया है कि संस्कृत की कविता जीवन से कटी हुई है। जबकि हिन्दी कविता सामाजिक जीवन से जुड़ी है। संस्कृत कविता जन्म से नियमों से बंधी रही है। काव्य नियमों का यथोचित निर्वाह करना कवि का लक्ष्य रहा है। इसके विपरीत हिन्दी के जनकवियों ने कभी भी काव्य नियमों का पालन नहीं किया। काव्य निर्माण के उपकरणों को उन्होंने जन प्रचलित काव्य रूपों से ग्रहण किया।
      काव्य नियमों के प्रति हिन्दी के जनकवियों का उपेक्षाभाव वह प्रस्थान बिंदु है जहां से हमें प्रतिवादी काव्य के आरंभ को देखना चाहिए। नियमों की उपेक्षा से पैदा हुआ प्रतिवादी काव्यरूप अपने साथ राजतंत्र का विकल्प भी लेकर आया। रामाश्रयी-कृष्णाश्रयी, सगुण- निर्गुण काव्य परंपरा से उसने अंतर्वस्तु ली। इन कवियों ने क्या लिखा और किस नजरिए से लिखा इसका उनकी मंशा से गहरा संबंध है।  
     मूल सवाल है मध्यकालीन हिन्दी कवियों की मंशा का। कवि की मंशा का कविता के उपकरणों और काव्य क्षेत्र चयन के साथ गहरा संबंध है। मध्यकालीन जनकवियों ने राम-कृष्ण,सगुण-निर्गुण आदि व्यापक अभिव्यक्ति का क्षेत्र चुना। उसमें धारावाहिकता बनाए रखी।यह मूलतः उनके दरबारी संस्कृति के प्रति विरोधभाव की अभिव्यक्ति है। इस प्रतिवाद के केन्द्र में काव्य के रूप और अंतर्वस्तु दोनों हैं।
    कवि की मंशा लक्ष्यीभूत श्रोता की प्रकृति के साथ नाभिनालबद्ध होती है। संस्कृत के कवि का लक्ष्यीभूत श्रोता और हिन्दी के जनकवियों का लक्ष्यीभूत श्रोता भिन्न है। यह भिन्न ही नहीं बल्कि इनके हितों में गहरा अंतर्विरोध है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो संस्कृत-हिन्दी कवियों के काव्यजगत में गहरी विचारधारात्मक टकराहट नजर आएगी। संस्कृत -हिन्दी के कवियों के सामाजिक सरोकारों में गहरा अंतर नजर आएगा। यही वजह है कि हिन्दी के मध्यकालीन जनकवि संस्कृत काव्य परंपरा से अपने को पूरी तरह अलग करते हैं।
    संस्कृत कवि दरबार के लिए लिखता है। हिन्दी का जनकवि भक्त के लिए लिखता है, सबके लिए लिखता है। संस्कृत कवि अपनी निजता को सार्वजनिक नहीं करता इसके विपरीत हिन्दी कवि अपनी निजता को सार्वजनिक रूप से व्यक्त करता है। संस्कृत कवि अपने निजी जीवन के दुखों को छिपाता है,हिन्दी कवि उन्हें सार्वजनिक करता है। व्यक्तिगत को सामाजिक बनाता है और व्यक्तिगत और सार्वजनिक के सामंतीभेद को नष्ट करते हुए व्यक्तिगत को सार्वजनिक बनाता है। यहां से वह सचेत रूप से आधुनिकभावबोध के लक्षणों की नींव ड़ालता है।
      उल्लेखनीय है मध्यकालीन कवियों ने अपने सारे उपकरण व्यापारिक पूंजीवाद से लिए हैं। ये कवि नई उदीयमान सामाजिक शक्तियों कारीगर-दस्तकार और उदीयमान व्यापारीवर्ग के भावबोध से संसार को देखते हैं। उपेक्षित शूद्रों और स्त्रियों को समानता और अभिव्यक्ति का मंच देते हैं। उनके यहां सब कुछ पर्सनल है,व्यक्तिगत है। भक्ति का रूप भी व्यक्तिगत है। व्यक्तिगत सत्ता का ऐसा महाराग इसके पहले कभी नहीं सुना गया। व्यक्तिगत भावों की अभिव्यक्ति के बहाने राजतंत्र की समूची सत्ता और उसके सांस्कृतिकबोध और मूल्य संरचना को सर्जनात्मक चुनौती दी गयी।        

     

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