मंगलवार, 8 मई 2012

आलोचना का पराभव और नामवर सिंह


हाल ही में राजकमल प्रकाशन के द्वारा नामवर सिंह के विचारों,आलोचना निबंधों ,व्याख्यानों और साक्षात्कारों पर केन्द्रित 4 किताबें आयी हैं। चार और आनी बाकी हैं। इन किताबों का ‘कुशल’ संपादन आशीष त्रिपाठी ने किया है।
   ये किताबें आधुनिक युग में विचारों की भिड़ंत के सैलीबरेटी रूप का आदर्श नमूना है।  सैलीबरेटी आलोचना चमकती है और प्रभावहीन होती है। ये किताबें ऐसे समय में आई हैं जब विचारों से हिन्दी की आलोचना भाग रही है। नामवर सिंह ने आलोचना लिखना बंद कर दिया हैं। उन्हें कम लिखने का आदर्श बना दिया गया है।
      यह मिथ है वे कम लिखते हैं और कम लिखने वाला महान होता है,विद्वान होता है। यह मिथ इन किताबों के आने से टूटा है। यह भी पता चलता है कि कई साल पहले आलोचना की विदाई हो चुकी है। नामवर सिंह के हाथों आलोचना का अंत अनिवार्य परिघटना है। मौटे तौर पर 1984-85 के बाद से आलोचना का नामवर सिंह के लेखन में समापन हो चुका है। यही वह दौर है जब कम्प्यूटर क्रांति का जन्म होता है और नामवर सिंह साहित्य से गैर-साहित्यिक विषयों की ओर प्रस्थान करते हैं। इसके पहले वे गैर-साहित्यिक विषयों पर कम लिखते थे।
        देश में जब सत्ता का फासिज्म आपात्काल में जनता पर हमले कर रहा था नामवर सिंह कुछ नहीं बोले,लेकिन रामजन्मभूमि आंदोलन के बाद संघ परिवार के फासीवाद पर ‘आलोचना’ पत्रिका का पूरा विशेषांक ही निकाल दिया। नामवर सिंह में चेतना के स्तर पर आए ये परिवर्तन संचार क्रांति और ‘पावरगेम’ की देन हैं।
      संचार क्रांति के बाद उन्होंने राजनीतिक और सांस्कृतिक विषयों पर खूब लिखा और बोला है। इस बदलाव को नामवर सिंह या उनके भक्तों को विश्लेषित करना चाहिए और बताना चाहिए कि नामवर सिंह जैसा महापंड़ित साहित्य से भागकर राजनीति में क्यों चला आया ? मार्क्सवाद से उत्तर आधुनिकता की गोद में कैसे चला आया ? पहले वे उत्तर आधुनिकता को लेकर जो सोचते थे वही समझ उन्होंने बड़ी चालाकी से क्यों छोड़ दी ? नामवर सिंह के उत्तर आधुनिक परिवर्तनों और ‘पावरगेम’ की वैचारिक कलाबाजियां इन किताबों के निबंधों में आसानी से देख सकते हैं।
      सवाल उठता है साहित्य की दुनिया से निकलकर फासीवाद,भूमंडलीकरण, साम्प्रदायिकता, बहुलतावाद,भारतीयता,अस्मिता, बीसवीं सदी का मूल्यांकन, दुनिया की बहुध्रुवीयता, उत्तर आधुनिकता और मार्क्सवाद आदि विषयों पर वे उत्तर आधुनिकता के आने के बाद ही मुठभेड़ क्यों करते हैं ? इन विषयों पर पहले क्यों नहीं लिखा ? कम्प्यूटर क्रांति के बाद ही उनकी नजर इन विषयों की ओर क्यों गयी ? इस क्रम में नामवर सिंह के विचारों में सबसे ज्यादा चंचलता, विचारहीनता और चलताऊढ़ंग नजर आता है। उनके विचारो में सबसे ज्यादा लोच इसी दौर में उभरकर आती है। यह सब नामवर सिंह के आलोचक की विदाई का पुख्ता सबूत है। नामवर सिंह से पहले रामविलास शर्मा साहित्य और मार्क्सवाद का मैदान छोड़ चुके थे।
      नामवर सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व में सबसे ज्यादा बदलाव 1980-81 के बाद ही आता है। उनके कृतित्व में उत्तर आधुनिक शब्दावली नहीं मिलेगी लेकिन उत्तर आधुनिक वैचारिक रपटन मिलेगी जिस पर वे बार-बार फिसलते हैं। वे व्यक्तिगत और सार्वजनिक तौर पर उत्तर आधुनिक शब्दावली का उपहास उड़ाते हैं लेकिन लेखन में सारे उत्तर आधुनिक पैंतरों और रणनीतियों का इस्तेमाल करते हैं। यह तो वैसे ही हुआ कि गुड़ खाएं गुलगुलों से बैर।
     नामवर सिंह की आलोचना शैली का सबसे खतरनाक पहलू वह है जिसे वे व्यक्तिगत बातचीत में इस्तेमाल करते हैं। किसी भी लेखक या व्यक्ति का भविष्य खराब करने में उनकी यह निजी बातचीत बर्बादी करती रही है। इस कला के आधार पर वे अनेक प्रतिभाओं को गुमनामी की गुफाओं में ले जा चुके हैं।
       नामवर सिंह की विश्वदृष्टि सभी किस्म की रूढ़िबद्धताओं और विचारधारा से भी मुक्त है, यह विश्वदृष्टि विश्वसनीय, गतिशील और अनिश्चित है। वे बार-बार भारतीय ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में विश्वदृष्टि के नए रूपों की तलाश में लौटते हैं। उनकी विश्वदृष्टि का आधार है भारतीय सत्ता के हित। वे इस चक्कर में वर्गीय,जातीय,जातिवादी और धार्मिक दायरे के परे जाकर देखते हैं। वे न तो मार्क्सवाद को विश्वदृष्टि का आधार बनाते हैं और ना ही किसी अन्य मार्क्सवाद विरोधी दृष्टिकोण को। बल्कि अमेरिकी उपयोगितावाद उनकी विश्वदृष्टि की धुरी है। हिन्दी में एक कहावत है जिसमें उनके उपयोगितावाद को बांध सकते हैं,गंगा गए गंगादास जमुना गए जमुनादास।
    वे दुनिया के साहित्य,दर्शन और समीक्षा को पढ़ते हैं,अपने को अपडेट रखते हैं, लेकिन उसमें बहते नहीं हैं। उपयोगितावादी कुशल तैराक की तरह उसमें तैरते रहते हैं लेकिन उनके विचारों को विश्राम हिन्दी साहित्य में मिलता है। इस अर्थ में वे ग्लोबल-लोकल एक साथ हैं।
     नामवर सिंह ने  अपनी उपयोगितावादी विश्वदृष्टि को सचेत रूप से विकसित किया हैं,सचेत रूप से ‘पावरगेम’ का उपकरण बनाया है,फलतः उनके पीछे सत्ताधारी वर्गों की समूची शक्ति काम करती रही है। इसके कारण वे कम्पलीट भारतीय बुद्धिजीवी नजर आते हैं। हिन्दी साहित्य में उनकी रमी हुई प्रतिभा के सब कायल हैं।
     एक जमाने में वे जनता के प्रगतिशील हितों से बंधे थे। साहित्यालोचना को उन्होंने प्रगतिशील शक्तियों के पक्ष में सृजनात्मक तौर पर विकसित किया था। उनके आपातकाल पूर्व के लेखन में यह नजरिया व्यक्त हुआ है। आपातकाल के पहले नामवर सिंह साहित्य के आलोचक थे। आपातकाल के बाद वे सत्ता के समर्थक और ‘पावरगेम’ का हिस्सा बन गए। इससे साहित्य ,समीक्षा और प्रगतिशील शक्तियों की व्यापक क्षति हुई है। आपातकाल के समय से नामवर सिंह ने लेखन में उन्हीं विषयों को उठाया है जो सत्ताविमर्श का हिस्सा हैं।
     नामवर सिंह के व्यक्तित्व के अनेक पहलू हैं जिनमें उनकी अस्मिता की दरारें साफ देखी जा सकती हैं। मसलन् उनके शिक्षक व्यक्तित्व, शिक्षा प्रशासक, पति, पिता, दोस्त,कॉमरेड, समीक्षक आदि रूपों पर आलोचनात्मक ढ़ंग से विचार किया जाना चाहिए और देखना चाहिए कि एक व्यक्ति के नाते नामवर सिंह किस तरह की सामाजिक भूमिका और व्यवहार का निर्वाह करते रहे हैं। इन सभी रूपों में नामवर सिंह एक जैसे नजर नहीं आते।
     नामवर सिंह के साहित्यिक जीवन की समीक्षा के साथ साथ सामाजिक-अकादमिक जीवन की भी समीक्षा की जानी चाहिए। हिन्दी में नामवर सिंह ने अभी तक अपनी अंशतः सामाजिक समीक्षा की है। जबकि मुक्तिबोध और रामविलास शर्मा यह काम कर चुके हैं। उनकी विभिन्न किस्म की इमेजों में गहरी दरारें हैं जहां पर उनके व्यक्तित्व के विघटन को साफतौर पर देखा जा सकता हैं। वे हमेशा ‘पावर’ और ‘साहित्य’ के बीच घूमते रहे हैं। उन्होंने अपने को ‘सत्ता के खेल’ और ‘पितृसत्ता’ का हिस्सा बनाया है।
        ‘पावरगेम’ के पैराडाइम में आलोचना और आलोचक का सामाजिक प्रभाव खत्म हो जाता है। यही वजह है कि नामवर सिंह हैं लेकिन सामाजिक प्रभाव के बिना। उनकी किताबें हैं लेकिन आलोचना पर कोई प्रभाव नहीं है। नामवर सिंह के पास सत्ता के खेल के सभी झुनझने हैं, लेकिन आलोचना नहीं हैं। सत्ता के खेल का अंग बनकर नामवर सिंह ने सब कुछ पाया लेकिन आलोचना उनके पास से चली गयी है। अब यह नामवर सिंह और उनकी भक्तमंडली तय करे कि सत्ता के खेल ने नामवर सिंह की आलोचना को महान बनाया या नपुंसक बनाया ?सत्ता के खेल ने  उनके आलोचक पद का अवमूल्यन किया है उन्हें आलोचक की बजाय सैलीबरेटी बनाया है। मीडिया प्रतीक बनाया है। आज नामवर सिंह जितने प्रभावहीन हैं उतने पहले कभी नहीं थे।       
    ये चारों किताबें नामवर सिंह के मार्क्सवादी मिथों को तोड़ती हैं। मिथ बनाना और तोड़ना यह उनकी सामान्य प्रकृति है। अपने कहे को सार्वजनिक तौर पर बदलना अथवा अस्वीकार करना, विचारों की रुढ़िबद्धता को तोड़ने का उनका उपयोगितावादी अस्त्र हैं। नामवर सिंह की इन किताबों की आलोचनादृष्टि की धुरी है तात्कालिक दबाब ,पितृसत्तात्मक नजरिया और सत्ता की जरूरतें।
       भूमिका में आशीष त्रिपाठी ने नामवर सिंह को उद्धृत करते हुए लिखा है , ‘‘एक बार मेरे पूछने पर उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि ‘चाहे निबन्ध हो या पुस्तक,मुझे उसका प्रकाशन तब ही जरूरी लगता रहा है,जबकि वह मौजूदा परिदृश्य में हस्तक्षेप करे ,उसके ठहराव को तोड़े और वाद-विवाद-संवाद की प्रक्रिया को आगे बढ़ाए। मेरी ज्यादातर पुस्तकें अपने समय की बहसों में भागीदार होकर लिखी गयी हैं। इसीलिए संग्रह के लिए संग्रह निकालना मेरी प्राथमिकता नहीं रहा है।’’
      सवाल उठता है फिर ये किताबें क्यों लायी गयी हैं ? क्या ये किताबें संग्रह के लिए संग्रह नहीं हैं ? नामवर सिंह जिसे ‘हस्तक्षेप’ कहते हैं वह शीतयुद्धीय राजनीति का महामंत्र है। मौजूदा दौर ‘हस्तक्षेप’ का नहीं ‘लेखन’ का है और उसी का परिणाम हैं ये चार किताबें। ‘हस्तक्षेप’ से ‘लेखन’ के पैराडाइम में आना नामवर सिंह का कायाकल्प है। यह एक मार्क्सवादी का ‘कछुआ धर्म’ में रूपान्तरण है। यह मार्क्स के पंथ से देरिदा के पंथ में दाखिल होना है। नामवर सिंह के इन निबंधों के प्रकाशित होने से उनका पैराडाइम शिफ्ट हुआ है। वे अचानक ‘आलोचना’ से ‘विमर्श’ में चले आए हैं।
     नामवर सिंह की इन किताबों में मूलतः दो मॉडल हैं पहला साहित्यिक मॉडल कृति-व्यक्ति केन्द्रित है, दूसरा, अस्मिता मॉडल है,इसमें अस्मिता के उप-पाठ भी शामिल हैं। ये दोनों ही मॉडल उनकी इन चार किताबों में हैं। ये दोनों सत्ता विमर्श के साहित्यिक मॉडल हैं।       

     ये किताबें नामवर सिंह की पहले आयी किताबों जैसे - ‘छायावाद’,‘इतिहास और आलोचना’,‘कविता के नए प्रतिमान’,‘दूसरी परंपरा की खोज’, ‘वाद-विवाद-संवाद’ से बुनियादी तौर पर अलग हैं। ये चारों किताबें नामवर सिंह के विचारों के वैविध्य को सामने लाती हैं। इन किताबों में नामवर सिंह की शीतयुद्धीय धारणाओं का विध्वंस भी देखा जा सकता है।
        सवाल उठता है क्या नामवर सिंह के ये चार संकलन किसी नई बहस को जन्म देते हैं ? क्या इनके माध्यम से आलोचना में कोई नयी जान फूंकी जा सकती है ? क्या इन निबंधों से आलोचना का कोई नया वातावरण बनेगा ? जी नहीं। इन किताबों से नामवर सिंह के विचारों के बारे में और भी भ्रम पैदा होंगे, आलोचकों और लेखकों में सत्ता की शरण में जाने की मुहिम तेज होगी। आलोचना और भी नपुंसक बनेगी। अराजनीतिक बनेगी।
       नामवर सिंह की जो चार किताबें आई हैं वे हैं ‘कविता की जमीन और जमीन की कविता’,‘प्रेमचन्द और भारतीय समाज’, ‘हिन्दी का गद्यपर्व’ और ‘जमाने से दो-दो हाथ’। ये चारों किताबें मूलतः आलोचना को पुनःप्रतिष्ठित करने का असफल प्रयास है। इनमें ‘प्रेमचंद और भारतीय समाज’ कथा समीक्षा की महत्वपूर्ण किताब है। जबकि ‘जमाने से दो-दो हाथ’ उत्तर आधुनिक विषयों पर नामवर सिंह की अधूरी किताब है। इसमें नामवर सिंह वैचारिक रूप से चंचल नजर आते हैं। यही स्थिति ‘हिन्दी का गद्यपर्व’ नामक किताब की भी है इसमें नामवर सिंह के शीतयुद्धीय साहित्यिक नजरिए को देखा जा सकता है।  हिन्दी साहित्येतिहास को लेकर नामवरसिंह की विवादास्पद और कमजोर धारणाएं इसमें व्यक्त हुई हैं।
      ‘हिन्दी का गद्य पर्व’ में चार मार्क्सवादियों -जार्ज लूकाच,लुसिएँ गोल्डमान,रेमण्ड विलियम्स और लेनिन -पर नामवर सिंह के लेख सबसे कमजोर लेख हैं । चीजों को सरल बनाकर पेश करने के चक्कर में मार्क्सवादियों के विचारों की अपूर्ण इमेज प्रस्तुत की गई है। ‘लेनिन और हम’ निबंध में लेनिन को एकबार याद करने के बाद नामवर सिंह ने लेनिन को कभी दोबारा याद नहीं किया। हिन्दी के मार्क्सवादियों में रामविलास शर्मा ,राहुल सांकृत्यायन और शिवदान सिंह चौहान के उठाए कुछ ही मुद्दों पर उन्होंने लिखा है। बाकी मार्क्सवादियों को इस लायक भी नहीं समझा।
      कहने का आशय यह कि हिन्दी के मार्क्सवादियों और मार्क्सवाद पर उन्होंने न्यूनतम लिखा है। विदेशी मार्क्सवादियों पर भी न्यूनतम लिखा है। भारत के बाकी मार्क्सवादियों पर कुछ भी नहीं लिखा है। मार्क्सवादी साहित्यालोचना संबंधी धारणाओं पर कुछ भी नहीं लिखा है। सवाल किया जाना चाहिए कि नामवर सिंह ने मार्क्सवादी सिद्धान्तों और भारत के मार्क्सवादियों पर क्यों नहीं लिखा ? जबकि रामविलास शर्मा ने अपने तरीके से यह काम किया है।
    मार्क्सवादी सिद्धांत चर्चा से विश्व का कोई भी मार्क्सवादी नहीं भागा सिर्फ नामवर सिंह को छोड़कर। उल्लेखनीय है भारत में मार्क्सवादी सिद्धान्त चर्चा समाजविज्ञान, दर्शन और विज्ञान के भारतीय मार्क्सवादियों में खूब हुई है लेकिन नामवर सिंह इससे भागते रहे हैं।
     नामवर सिंह का मार्क्सवाद की मूल सिद्धान्त चर्चा से पलायन और उनका सारी जिंदगी मार्क्सवाद की बुनियादी बातों पर न बोलना और न लिखना किस बात का संकेत है ?
      सच्चाई यह है नामवर सिंह ने मार्क्सवाद पर सबसे ज्यादा पढ़ा है। सबसे बड़ा मार्क्सवादी किताबों का जखीरा उनके पास है। लेकिन मार्क्सवाद पर उन्होंने न्यूनतम भी नहीं लिखा है।
    नामवर सिंह का मार्क्सवादी सिद्धांत चर्चा से पलायन का प्रधान कारण है उनकी सामंती मनोवृत्तियां और सत्ताभक्ति।  नामवर सिंह तमाम अच्छाईयों और महानता के बावजूद अपने दिमाग की सामंती और सत्तापंथी संरचनाओं को तोड़ने में असमर्थ रहे हैं। सत्ता और सामंत उनके मार्क्सवाद पर भारी पड़े हैं। 
        मार्क्सवाद की सिद्धांत चर्चा किसी भी बुद्धिजीवी को इरेशनल वैचारिक संरचनाओं से लड़ने, पोजीशन लेने के लिए मजबूर करती है। नामवर सिंह के साथ यह प्रक्रिया जीवन और साहित्य में कभी घटित ही नहीं हुई।
     नामवर सिंह मार्क्सवाद की जटिल सिद्धान्त चर्चा में हस्तक्षेप करने के लिए कभी अपने को जाग्रत नहीं कर पाए ? नामवर सिंह के लिए मार्क्सवाद सुविधा की चीज है। मार्क्सवाद की बुनियादी सिद्धांत चर्चा में लिखित और वाचिक दोनों ही रूप में उनकी अनुपस्थिति हिन्दी में सत्ता,मार्क्सवाद और सामंतवाद के निकृष्टतम गठजोड़ की चरम अभिव्यक्ति है। उल्लेखनीय है मार्क्सवाद की सिद्धांत चर्चा पर रामविलास शर्मा,अमृतराय, शिवकुमार मिश्र,मैनेजर पांडेय आदि ने लिखा है लेकिन नामवर सिंह ने कुछ भी नहीं लिखा है।     
  इन चार किताबों में वाचिक और लिखित दो तरह के नामवर सिंह हैं। लिखित नामवर सिंह में हिन्दी समीक्षा के गद्य सौंदर्य के दर्शन होते हैं। जबकि वाचिक नामवर सिंह में जगह-जगह वैचारिक विचलन नजर आता है। कायदे से वाचिक और लिखित दोनों किस्म के नामवर सिंह में भेद करके पढ़ा जाना चाहिए। यह भेद व्यक्ति का ही नहीं मीडियम का भी है। नामवर सिंह आलोचक कम और साहित्य के प्रौपेगैण्डिस्ट या प्रचारक ज्यादा नजर आते हैं।

हिन्दी साहित्य को जनप्रिय बनाने में उनके व्याख्यानों का बड़ा योगदान है, उन्होंने अपने व्याख्यानों से हिन्दी साहित्य के प्रति वैसे ही आकर्षण पैदा किया है जिस तरह 19वीं सदी में दयानंद सरस्वती के भाषणों ने हिन्दी भाषा के प्रति आकर्षण पैदा किया था।
    नामवर सिंह अपने व्याख्यानों में प्रौपेगैण्डा की तकनीक का बारीकी से इस्तेमाल करते हैं। इसमें सेंसरशिप भी शामिल है,जिसके तहत वे कुछ सूचनाएं छिपाते तो कुछ सूचनाएं बताते हैं। इस पद्धति के आधार पर ही वे साहित्य में लेखकों को उठाने-गिराने का काम करते रहे हैं।
      नामवर सिंह की व्याख्यान कला के चार तत्व हैं मोहित करना,छिपाना ,सरल बनाना और फुसलाना। इन तत्वों के आधार पर नामवर सिंह ऑडिएंस और लेखकों की समझ को बदलने और नियंत्रित करने का काम करते हैं। इस पद्धति का इस्तेमाल करते हुए वे लेखक,विचार और संस्थान विशेष की छद्म इमेज भी बनाते हैं।
     उनके लेखन में हिन्दी के समस्त दोषों का ठीकरा अन्य के सिर फोड़ा गया है। दोष के लिए अन्य दोषी और स्वयं दोषमुक्त। अभिव्यक्ति की यह पद्धति आलोचना की नहीं प्रौपेगैण्डा की पद्धति है। प्रौपेगैण्डा पद्धति में झूठ बोलना कला है और कम से कम सूचना देना भी कला है।
     नामवर सिंह कम से कम सूचनाएं देकर अभीप्सित प्रचार प्राप्त करते रहे हैं। उनके अधिकांश व्याख्यान प्रगतिशीलों और जनवादियों के बीच ही हुए हैं अतः उनकी राय को नियंत्रित करने में नामवर सिंह की बडी भूमिका रही है।  उल्लेखनीय है प्रौपेगैण्डा राय को नियंत्रित करता है। हिन्दी साहित्य में नामवर सिंह राय बनाने और नियंत्रित करने का काम करते रहे हैं। इस अर्थ में वे कम्प्लीट प्रचारक हैं। राय बनाना,राय नियंत्रित करना,सहमति तैयार करना यही उनका मूल लक्ष्य रहा है। यही काम बुद्धिजीवी से सत्ता कराना चाहती है। इसी को कहते हैं सत्ता का खेल।
    ये सारे काम आलोचना के कम प्रौपेगैण्डा के ज्यादा हैं। आलोचना का काम सहमति तैयार करना नहीं है,बल्कि असहमतियों का उदघाटन करना है। आलोचनात्मक वातावरण बनाना है। नामवर सिंह असहमति और आलोचनात्मक वातावरण तैयार करने का नहीं सहमति के निर्माण का काम करते रहे हैं। यह प्रौपेगैण्डा की पद्धति है आलोचना की नहीं।
   नामवर सिंह को हिन्दी में आलोचक कम और ‘ साहित्य के अधिकारी विद्वान’ के रूप में ज्यादा जनप्रियता हासिल है। यह ‘अधिकारी विद्वान’ का पद प्रचारक का पद है आलोचक का नहीं।
    वे जब बोलते हैं तो ऑडिएंस का ख्याल रखते हैं और उन्हीं बातों,विचारों आदि का प्रचार करते हैं जिसको ऑडिएंस की स्वीकृति मिले। उनके भाषणों में हिन्दी प्रेम,भारत प्रेम,भारतीय परिवार प्रेम, गांव,ग्राम्य दुर्दशा,स्वाधीनता का समर्थन और दर्शक की इच्छाओं का महिमामंडन खूब हुआ है।
    नामवर सिंह के अनेक व्याख्यान लेखकों के मनोबल को बढ़ाने के लिहाज से दिए गए हैं। हिन्दी में जिसे अपना मनोबल टूटता सा लगता है दौड़कर नामवर सिंह के पास जाता है और अनुरोध करता है चलो भाषण दो। यह काम मूलतः प्रौपेगैंडिस्ट का है। वह नैतिक मनोबल बढ़ाने का काम करता है। इस काम में नामवर सिंह अपनी साख और आदर्शों का जमकर इस्तेमाल करते रहे हैं।
    नामवर सिंह की साख सबसे ज्यादा है, जिसका वे व्यक्तियों,लेखकों और साहित्य पाठकों के नैतिक मनोबल बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। इस प्रक्रिया में साहित्य की ग्रहण क्षमता बढ़ाने पर उनका खास ध्यान रहा है।
    नामवर सिंह अपने भाषणों से हस्तक्षेप करते हैं, ऑडिएंस को एकजुट करते हैं फिर सुनने वालों में एकमत राय कायम करते हैं। वे अपने व्याख्यानों के जरिए संबंधित विषय पर मतभेदों को कम करते हैं। मतभेदों के दायरे को कम करने के चक्कर में सरलीकरण और विभ्रम भी पैदा करते हैं,लेकिन उनका मूल लक्ष्य विभ्रम पैदा करना नहीं है,वे मतभेद और गुटबाजियां कम करने के लिए व्याख्यान का इस्तेमाल करते हैं। व्याख्यान के अंत में उनकी भविष्य पर नजर होती है और आशा का संदेश देते हैं। भविष्य के प्रति ऑडिएंस में जो अज्ञान है उस पर से पर्दा हटाते हैं। यह काम बेहद सतर्क ढ़ंग से करते हैं।
    नामवर सिंह अपने विचारों में जिस क्षेत्र या विषय पर बातें करते हैं उस पर समाधान भी सुझाते हैं वे महज बातें नहीं करते। ऑडिएंस उनके समाधानों से सामने सहमत होती है। इसके लिए वे अभिभूत करने की कला का जमकर इस्तेमाल करते हैं। इसी अर्थ में वे साहित्य के महान् प्रचारक हैं।
   नामवर सिंह के व्याख्यान ऑडिएंस को फुसलाते ज्यादा हैं ज्ञान कम देते हैं। वे साहित्य के प्रति आस्था पैदा करते हैं साहित्य का ज्ञान कम देते हैं। यही वजह है नामवर सिंह के व्याख्यान पढ़ते हुए साहित्य के प्रति आस्था बनती है ज्ञान कम मिलता है।
    नामवर सिंह की व्याख्यान शैली आक्रामक होती है और इसके जरिए वे किसी न किसी व्यक्ति के विचारों पर हमला करने के बहाने ऑडिएंस के विचारों पर उच्च नैतिक धरातल से हमला बोलते हैं और फिर उसे अपनी राय मानने के लिए फुसलाते हैं।        
     हिन्दी में  आलोचना को प्रतिष्ठित करनें में नामवर सिंह की अग्रणी भूमिका रही है और उनके अथक वाचिक प्रयासों ने  आलोचना को जनप्रियता  दिलायी है। इसके बावजूद इन चार किताबों में नई बातें कम हैं पुरानी बातें ज्यादा हैं। इन किताबों का महत्व इस लिहाज से ज्यादा है कि इनके जरिए हिन्दी आलोचना के बारे में नामवर सिंह के विचारों को पहलीबार पेश किया गया है। ये किताबें आलोचना के स्टीरियोटाईप का खंडन-मंड़न हैं।
      आलोचना के प्रति नामवर सिंह का हमेशा से सर्जनात्मक रवैय्या रहा है। नामवर सिंह ने अपभ्रंश से लेकर जनवादी साहित्य तक जो कुछ भी लिखा है वह  आलोचना का हिस्सा है। इस प्रक्रिया में नामवर सिंह का मुख्य जोर वर्तमान को बेहतर बनाने और नवीन दिशा देने पर है।
     वर्तमान को बेहतर बनाने के लिए नामवर सिंह अतीत में नहीं जाते  बल्कि वर्तमान में रहकर ही बेहतरी के सत्तापंथी यूटोपिया का निर्माण करते हैं। इसके लिए उन तमाम स्रोतों की मदद लेते हैं जिनसे वर्तमान की सही समझ बने। वर्तमान को बेहतर बनाने के लिए उसकी बेहतर समझ का होना जरूरी है। युगीन अन्तर्विरोधों की सटीक समझ पर ही सही समझ निर्भर करती है। सही समझ के आधार पर ही सही दृष्टिकोण का निर्माण संभव है।
    आलोचना का लक्ष्य है सटीक अन्तर्विरोधों को रेखांकित करना। हिन्दी के अधिकांश समीक्षकों की मुश्किल यह है कि वे अपने युग के प्रधान और उप-प्रधान अंतर्विरोधों को नहीं जानते।   युगीन अन्तर्विरोधों की भ्रामक समझ आलोचना को नष्ट करती है। कहीं न कहीं अन्तर्विरोधों की भ्रामक समझ का हिन्दी आलोचना के ह्रास में बड़ा योगदान है।
     हिन्दी में खूब लिखा जा रहा है किन्तु अन्तर्विरोधों की सही समझ के अभाव, अतिरेक और भ्रष्ट धारणाओं में ज्यादा लिखा जा रहा है। अवधारणाओं का भ्रष्टीकरण जितना हिन्दी में हुआ है वैसा अन्यत्र नजर नहीं आता। यह परवर्ती पूंजीवाद की विशेषता है। अवधारणाओं के भ्रष्टीकरण में हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं और उनमें छपने वाले तथाकथित समीक्षकों की सक्रिय भूमिका रही है। नामवर सिंह की ये चारों किताबें साहित्य में अवधारणात्मक भ्रष्टीकरण में ईंधन का काम कर सकती हैं।             
     इन किताबों में दो बातें गायब हैं पहली बात जो गायब है वह है नामवर सिंह के द्वारा उपेक्षित विषय और लेखों का संदर्भ। संपादक को कम से उन विषयों पर नामवर सिंह से बात करनी चाहिए थी जिन पर उन्होंने नहीं लिखा और जो लिखा और बोला है उसके संदर्भ को नामवर सिंह से बातें करके लिखा जाना चाहिए। अथवा आलोचना के उन सवालों पर संपादक को स्वयं लिखना चाहिए जिन पर नामवर सिंह ने नहीं लिखा अथवा ऐसा लिखा है जिस पर संपादक की असहमति है अथवा विवादास्पद लिखा है।
       संपादक को महज संवाददाता नहीं होना चाहिए। इससे यह संदेश जाता है कि नामवर सिंह के निबंधों पर लिखने की संपादक की क्षमता नहीं है अथवा नामवर सिंह के साथ समझौते के तहत संकलन तैयार किया गया और हिदायत दी गयी कि नामवर सिंह पर कलम नहीं चलाओगे। इस प्रसंग में संपादक ने यदि नामवर सिंह के द्वारा संपादित संकलनों की भूमिकाओं से ही कुछ सबक हासिल किया होता अथवा मार्क्सवादी आलोचकों के द्वारा तैयार किए गए संकलनों की भूमिका से ही कोई सीख ली होती और ठीक से भूमिका लिखी होती तो निबंधों में व्याप्त विभ्रमों,धारणाओं और विवादों पर संपादक के नजरिए का भी अंदाजा लगता ?
    नामवर सिंह के निबंधों का संकलन व्यापक कालखंड़ में फैला है ,निबंधों में समय का अंतराल है ,इसके कारण निबंधों में असम्बद्धता भी है। इसमें चुप्पी  वाले साल और जिन विषयों को नामवर सिंह ने नहीं उठाया है उनका कारण जानने में मदद नहीं मिलती।
      नामवर सिंह मित्र शैली के आलोचक हैं। उनका पंसदीदा मित्र आलोचक-लेखकों के साथ इन निबंधों में संवाद दिखता है। दूसरा महत्वपूर्ण बात यह कि नामवर सिंह व्यक्ति के आलोचक हैं,व्यवस्था के नहीं। जबकि रामविलास शर्मा ने व्यक्ति और व्यवस्था केन्द्रित दोनों ही किस्म की आलोचना लिखी है।
     नामवर सिंह अकादमिक स्तर पर जितने गंभीर हैं और जिस ठंड़े मन के साथ समस्त जटिलताओं के साथ सोचते और लिखते हैं वैसी मनोदशा इन किताबों में एकसिरे से नदारद है। इन किताबों के आधार पर नामवर सिंह के बारे में कोई भी राय नहीं बनायी जा सकती और जो राय  बनेगी वह बेहद खराब होगी। ये किताबें उनके  द्वारा पहले लिखी किताबों का वस्तुतः निरस्तीकरण है।
      नामवरसिंह के लेखन की गंभीरता ,स्थिर होकर सोचने और लिखने की विद्वतापूर्ण शैली का उनके वाचिक निबंधों में अभाव दिखाई देता है।  वाचिक निबंध तात्कालिकता और पापुलिज्म की सोच से संचालित हैं। इन किताबों से यह भी पता चलता है कि नामवर सिंह जो कुछ भी बोलते रहे हैं वह सब तैयारी से नहीं बोलते थे। संपादकीय दबाब ,तात्कालिकता और मंचीय दबाब इन वाचिक लेखों में साफ नजर आते हैं। नामवर सिंह के निबंधों में तात्कालिकता और उत्सवधर्मिता के दबाबों को भी देखा जा सकता है। ये चीजें नामवर सिंह के धीर-गंभीर अकादमिक व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं हैं।

    नामवर सिंह के प्रति अनालोचनात्मकता से लड़ना पहली समस्या है। नामवर सिंह को आलोचना के भगवान का दर्जा देकर हिन्दीभक्तों ने उनका तो नुकसान किया ही साथ ही हिन्दी आलोचना का भी गंभीर नुकसान किया है। उन्हें ‘कल्ट व्यक्तित्व’ बनाया है।
        इन चार किताबों से यह पता नहीं चलता कि नामवर सिंह असल में क्या करते रहे हैं और इस तरह का लेखन और वाचन क्यों करते रहे हैं । नामवर सिंह का कहना है कि मैं लेखन के लिए लेखन में विश्वास नहीं करता। यदि यह सच है तो सवाल किया जाना चाहिए कि वे बोलने के लिए बोलने पर क्यों विश्वास करते हैं ? बोलने के लिए बोलना ज्यादा खतरनाक है । नामवर सिंह का अधिकांश संकट यहीं पर है।
     उनके विचारों में गंभीर विचलन वाचिक निबंधों में सामने आया है। लिखित निबंधों में विचलन कम है। अतः उनके लिखे और बोले को एक ही ढ़ंग और परिप्रेक्ष्य में नहीं पढ़ा जा सकता। विचारधारा और परिप्रेक्ष्य का संकट उनके वाचिक निबंधों में ज्यादा और लिखित निबंधों में कम है। लिखित निबंधों में नामवर सिंह ज्यादा सुसंगत ,बौद्धिक और व्यवस्थित नजर आते हैं। वाचिक निबंधों मैं भटके हुए नजर आते हैं। सवाल यह है कि वे बोलने के लिए बोलने की कला का इस्तेमाल क्यों करते रहे हैं ?
    बोलने के लिए बोलने की कला के कारण वे सामाजिक ज्यादती के भी शिकार हुए हैं या उन्हें शिकार बनाया गया है ? वे प्रतिदिन बोलते हैं, प्रतिदिन भाषण देना जोखिम का काम है। नामवर सिंह नए-नए विषयों पर बोलते हैं और कम के कम अथवा कभी कभी वगैर जाने भी बोलते हैं। वे बौद्धिक रिस्क लेते हैं।
     उनके विचारों की फिसलन का स्रोत है बोलने के लिए बोलना। बोलते समय नामवर सिंह ‘केजुअल आलोचक’ के रूप में सामने आते हैं। पेशेवर आलोचक का रूप लिखित निबंधों में दिखाई देता है। ‘केजुअल आलोचक’ के रूप में नामवर सिंह ने विषय विशेष पर बोलते हुए संदर्भ,अवधारणा,ऐतिहासिकता आदि चीजों को लेकर घल्लूघारा किया है। यह प्रवृत्ति उनके निबंधों में व्यापक रूप में फैली हुई है।
     इस समस्या का दूसरा पहलू ऑडिएंस से जुड़ा है। नामवर सिंह की वाह -वाह करने वाली ऑडिएंस है। यह क्रिटिकल ऑडिएंस नहीं है। अन-क्रिटिकल ऑडिएंस में अहर्निश भाषण देने के कारण उन्हें यह एहसास नहीं हुआ कि वे क्या सही और क्या गलत बोल रहे हैं। सचेत समीक्षकों की आलोचना पर नामवर सिंह के आलोचक मन ने कभी ध्यान नहीं दिया,सचेत ऑडिएंस उन्हें मिली नहीं। इसका प्रभाव इन किताबों में दिखता है। इन किताबों में अनेक भूलें सहज ही देखी जा सकती हैं।
    भक्त ऑडिएंस में बोलने के कारण नामवर सिंह को कभी अपनी कमजोरियों का एहसास तक नहीं हुआ और वे इस मुगालते में रहे हैं कि वे जो कुछ भी बोल रहे हैं सही बोल रहे हैं। उनके भाषणों जो चीजें नष्ट हुई हैं वह हैं विषय की शोधपरक गंभीरता, ऐतिहासिकता ,जटिलता एवं संश्लिष्टता। इसके कारण अनेक स्थानों पर वे सरलीकरण और कॉमनसेंस के तर्कों का इस्तेमाल करते हैं। यहां हम सिर्फ दो प्रसंगों का जिक्र करना चाहेंगे,ये हैं आपात्काल और स्त्री-पुरूष संबध।
आपात्काल - व्यक्ति-कृति केन्द्रित लेखन अंततःअधिनायकवादी राजनीति की ओर ले जाता है। स्त्री के प्रति पितृसत्तात्मक रवैय्या इसकी स्वाभाविक परिणति है। नामवर सिंह की व्याख्यान कला के सभी कायल हैं। लेकिन उनके लेखन में निहित अधिनायकवादी रणनीतियों की ओर कभी ध्यान नहीं दिया गया। अधिनायकवादी रणनीति में संदर्भ ,तथ्य और सत्य को सबसे पहले विकृत किया जाता है। उदाहरण के लिए यहां सिर्फ उनके लेख ‘साम्प्रदायिकता,राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता’ लेख को ही लें। यह समूचा लेख ऐतिहासिक भूलों ,सरलीकरण और अनैतिहासिकता से भरा हुआ है।
    नामवर सिंह ने लिखा है ‘‘ सन् 1975 में जब आपात्काल की घोषणा हुई थी ,तब 44वें संशोधन के द्वारा हमारे संविधान में ‘स्टेट’ को एक ‘सेकुलर स्टेट’ घोषित किया गया।’’ यह बात बुनियादी दौर पर गलत है। भारत के संविधान के निर्माण की सारी बहसों में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा केन्द्र में थी,संविधान का अन्तर्ग्रथित हिस्सा है धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा। ‘सेकुलर‘ पदबंध को आपात्काल में ‘प्रियंबल’ में जरूर शामिल किया गया था ,यह कांग्रेस पार्टीं के तानाशाही राजनीतिक चरित्र से ध्यान हटाने की बृहद योजना का हिस्सा था।
       यहां पर आपात्काल को अधिनायकवादी राजनीति की अभिव्यक्ति देखने की बजाय नामवर सिंह को सत्ता का साम्प्रदायिक चेहरा नजर आया।  वे आपात्काल को अधिनायकवादी राजनीति के रूप में देखते ही नहीं हैं। वे आपात्काल में तुर्कमानगेट के सफाई अभियान को सत्ता के साम्प्रदायिक अभियान के रूप में देखते हैं। जबकि यह अभियान संजय गांधी के पांच सूत्री कार्यक्रम के सौंदर्यीकरण अभियान का हिस्सा था। आपात्काल मूलतः लोकतंत्र पर हमला था,यह साम्प्रदायिक कार्रवाई नहीं है फासीवाद है। आपात्काल का राष्ट्रवाद से कोई लेना देना नहीं है।
    आपात्काल में सभी किस्म के लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिए गए थे। आपात्काल में नामवर सिंह चुप क्यों थे और आपातकाल का उन्होंने समर्थन क्यों किया इसका जबाब उन्हें कम से कम जरूर देना चाहिए। इस दौर के प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन और जेएनयू की कारगुजारियां अभी भी पुराने छात्र भूले नहीं हैं। नामवर सिंह के अजनतांत्रिक भाव को इन संग्रहों से समझने में असुविधा होगी। नामवर सिंह के बयानों की सबसे कमजोर कड़ी है उनकी राजनीतिक धारणाएं।      
     इसके अलावा नामवर सिंह के इन वाचिक निबंधों में पितृसत्तात्मक रूझानों को भी आसानी से देखा जा सकता है। यह वाचन की मार्क्सवादी पद्धति नहीं है बल्कि अधिनायकवादी पद्धति है। यह सेंसरशिप की पद्धति है।
      साहित्य में सेंसरशिप और आत्म सेंसरशिप के आदर्श हैं नामवर सिंह। वे साहित्य में सेंसरशिप अथवा दिमाग की खिड़कियों को एक ही दिशा में खोलने का काम करते रहे हैं। यह फासिस्ट प्रवृत्ति है। वे साहित्य, कृतियों और कृतिकारों के बारे में तय करके ,अघोषित प्रतिबंध लगाकर बातें करते रहे हैं, वे यह भी तय करते रहे हैं कि किस पर अब हिन्दी जगत बोले और क्या बोले । यह साहित्य में अधिनायकवाद है,प्रगतिवाद नहीं है।
     साहित्य में अधिनायकवादी नजरिया जीवन में कमजोर लोगों को निकट रखने,चाटुकारों को रखने की मनोदशा बनाता है। साथ ही साहित्य और शिक्षा संस्थानों के प्रति अजनतांत्रिक नजरिया पैदा करता है। अजनतांत्रिक नजरिया वस्तुतः दीमक की मनोदशा है। जिस तरह दीमक जहां रहती है उसे ही खाती है वैसे ही नामवर सिंह का अधिनायकवादी नजरिया साहित्य और शिक्षा संस्थानों से लेकर आलोचना तक को दीमक की तरह खाता रहा है। कभी-कभार घुड़ाक्षरन् न्याय के तहत कुछ अच्छा भी हुआ है। वैसे ही जैसे दीमक काठ खाते-खाते कभी अक्षर भी लिख देती है।        
        आपात्काल में नामवर सिंह की भूमिका में परिवर्तन आया। वे अधिनायकवादी राजनीति के साथ जा मिले और उन्होंने आपात्काल का समर्थन किया। अपने इस रूख की उन्होंने कभी आत्मालोचना नहीं की, आपात्काल की कोई भी आलोचना नहीं लिखी।
      हमें यह भी देखना चाहिए कि अन्य आलोचक जैसे रामविलास शर्मा,हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि आपातकाल में क्या कर रहे थे  ?  क्या आपात्काल ने हिन्दी आलोचना और रचना को बदला है ? यह बदलाव किस रूप में आया है ?
    आपात्काल सामान्य राजनीतिक फिनोमिना नहीं है। बल्कि असामान्य फासिस्ट फिनोमिना है। इस पर नामवर सिंह का लेखन और व्यवहार चिंता पैदा करता है।  यह पहलू उनके लेखन से गायब क्यों है ? उन्होंने कभी आपात्काल में उसके खिलाफ और बाद में विस्तार के साथ क्यों नहीं लिखा ? उन्होंने आपात्काल का समर्थन किया था जबकि अज्ञेय ने आपात्काल का विरोध किया था।
      जिस तरह भारतेन्दु युग महत्वपूर्ण परिवर्तन का प्रस्थान बिंदु है वैसे ही स्वातंत्र्योत्तर भारत में किसी भी लेखक के नजरिए को परखने के चार प्रस्थान बिंदु हैं पहला है भारत विभाजन,दूसरा ,आपातकाल , तीसरा है स्त्री, और चौथा है किसान। दुर्भाग्य से नामवर सिंह का आपात्काल और स्त्री के प्रति अलोकतांत्रिक और अवैज्ञानिक नजरिया है। जबकि किसान पर उन्होंने प्रेमचंद के बहाने व्यापक रूप में विचार किया है। इसमें उन्होंने किसान जीवन के जिस सत्य को सामने रखा है जिस सत्य के छिपाया है उस पर भी गंभीरता से सोचने की जरूरत है।भारत विभाजन पर कभी विचार ही नहीं किया.         
 
       आपात्काल के पहले के साहित्यिक सवाल और आपात्काल के बाद के साहित्यिक सवालों पर नामवरसिंह का रूख एक ही परिप्रेक्ष्य को सामने नहीं लाता। आपात्काल के बाद नामवरसिंह में अतीत में जाने ,मृत मुद्दों में रमण करने और एकायामी ढ़ंग से पापुलिज्म के दबाब में ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक विषयों पर लिखने और बोलने की प्रवृत्ति बढ़ी है।
    दुनिया में सभी मार्क्सवादी समीक्षकों ने अपने देश के पूजीवाद के चरित्र,स्वभाव और सांस्कृतिक-साहित्यिक प्रभावों के बारे में लिखा है,लेकिन नामवर सिंह संभवतः अकेले मार्क्सवादी हैं जो भारत के पूंजीवाद पर अपना कहीं पर भी समग्र मूल्यांकन व्यक्त नहीं करते वे सिर्फ प्रकारान्तर या किसी लेखक के बहाने से पूंजीवाद पर छोटी चलताऊ टिप्पणियां करके अपने वास्तविक सोच को छिपाए रखते हैं। उनका पूंजीवाद ,कल्याणकारी राज्य और परवर्ती पूंजीवाद के प्रति अनालोचनात्मक नजरिया गंभीर चिंता की चीज है,इसने एक खास किस्म की पूंजीवाद निरपेक्ष प्रगतिशील आलोचना को विकसित किया है जो इन दिनों खूब फलफूल रही है।
  स्त्री - नामवर सिंह के लेखन और व्याख्यानों में स्त्री तकरीबन गायब है और जो व्यक्त हुई है वह नकारात्मक और अवैज्ञानिक है। उनके इसी रूप को सामने लाने वाली एक टिप्पणी है ‘ मुक्त स्त्री की छद्म छबि’। यह टिप्पणी ‘जमाने से दो दो हाथ’ नामक संकलन में शामिल है। इस टिप्पणी का पहला वाक्य ही नामवर सिंह जैसे महापंडित के लिए अनुपयुक्त है। वैसे पूरी टिप्पणी उनके स्त्री संबंधी अवैज्ञानिक और पुंसवादी सोच का आदर्श नमूना है।
     नामवर सिंह ने लिखा है, ‘ स्त्री-पुरूष संबंधों पर हम तीन दायरों में विचार कर सकते हैं। कानून ,समाज और परिवार।’ वे भूल ही गए स्त्री-पुरूष संबंधों पर इन तीन के आधार पर नहीं ‘लिंग’ के आधार पर विचार विमर्श हुआ है। स्त्री-पुरूष का मूल्यांकन गैर-लिंगीय आधार पर करने से गलत निष्कर्ष निकलेंगे और गलत समझ बनेगी।
    कानून में स्त्री-पुरूष संबंधों को लेकर क्या लिखा है यह नामवर सिंह नहीं जानते अथवा जानबूझकर गलतबयानी कर रहे हैं,कानून में विवाह संबंधी प्रावधान हैं,लेकिन विवाह को कानून ने स्त्री-पुरूष संबंधों का मूलाधार नहीं बनाया है। भारतीय कानून लिंगीय समानता के आधार पर स्त्री-पुरूष संबंधों पर विचार करता है। न कि विवाह के आधार पर।
    भारतीय कानून लंबे समय तक स्त्री विरोधी प्रावधानों से भरा था लेकिन विगत 60 सालों में औरतों के संघर्ष ने उसमें स्त्री अधिकारों के प्रति जो असंतुलन था उसे कम किया है। उसके पुंसवादी रूझान को तोड़ा है।
      स्त्री-पुरूष संबंध का मतलब शादी का संबंध नहीं है। स्त्री-पुरूष संबंधों के बारे में नामवर सिंह की समझ बेहद सीमित है। वे इस टिप्पणी में स्त्री-पुरूष संबंधों को शादी के संबंध में रिड्यूज करके देखते हैं। शादी में भी बहुविवाह या अवैध विवाह में रिड्यूज करके स्त्री-पुरूष संबंध को कानूनी नजरिए से देखते हैं, वे बात शुरू करते हैं स्त्री-पुरूष संबंधों की और अचानक शिफ्ट कर जाते हैं विवाह,बहुविवाह,अवैध संबधों पर और उसमें भी निम्न-मध्यवर्गीय पुंसवादी नैतिकता के नजरिए को व्यक्त करते हैं ,विवाह के साथ ही औरतों के बारे में नामवर सिंह की टिप्पणियां पुंसवाद को अभिव्यक्त करती हैं।
    नामवर सिंह ने लिखा है ,‘यह तो मानना ही होगा कि समलैंगिकता एक अपवाद है, कोई प्रचलन नहीं। वह चाहे पुरूष पुरूष या स्त्री स्त्री के बीच हो,पर वह अप्राकृतिक है। साहित्य में इसे इसी रूप में आना चाहिए। कुछ अंग्रेजी लेखक पश्चिम के प्रभाव में इस अपवाद को ग्लोरिफाई करके सस्ती लोकप्रियता बटोरने की कोशिश कर रहे हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो मुझे स्त्रियों के अधिकारों को लेकर चल रहे आन्दोलनों का उद्देश्य समझ में नहीं आता। कहा जा रहा है कि स्त्रियाँ चूँकि अब कामकाजी हो गई हैं इसलिए वे उग्रता से अपने अधिकारों की मांग कर रही हैं। पर मुझे कोई यह तो बताए कि स्त्रियाँ कब कामकाजी नहीं थीं। यह अलग बात है कि पहले वे घरों में काम करती थीं ,अब दफ्तरों में करने लगी हैं। पर घरों का काम क्या दफ्तरों के काम से कम था। इससे भी बड़ी बात यह कि क्या घरों में काम करते हुए उनके अधिकार कम थे।’( जमाने से दो दो हाथ,पृ.123)
    नामवरसिंह जैसे प्रगतिशील विद्वान की उपरोक्त टिप्पणी स्वयं में इस बात का प्रमाण है कि उन्हें सेक्स ,परिवार और स्त्री के बारे में कितना कम और कितना गलत पता है। वरना कोई व्यक्ति इस तरह की टिप्पणी कैसे कर सकता है ‘क्या घरों में काम करते हुए उनके अधिकार क्या कम थे।’
    सच यह है कि आज भी घरों में औरतों के साथ दोयम दर्जे से भी बदतर व्यवहार किया जाता है। हमारे घरों में औरतें आज भी अधिकारहीन हैं। इस बात को नामवर सिंह जानते हैं। औरतों के पास आज की तुलना में पहले भी घरों में अधिकार शून्य के बराबर थे, यदि ऐसा न होता तो औरतों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष ही नहीं करना पड़ता। घर वस्तुतःऔरत का कैदखाना है।
    यदि नामवरसिंह के अनुसार औरतों के पास पहले अधिकार थे तो बताएं वह कौन सा जमाना था जब अधिकार थे ? औरत अधिकारहीन थी,असमानता की शिकार थी, और आज भी है। यही वजह है कि आधुनिककाल में औरत के अधिकारों ,महिला संगठनों और संघर्षों का जन्म हुआ।
   इसी तरह समलैंगिकता पर भी नामवर सिंह अवैज्ञानिक बातें कह रहे हैं। समलैंगिकता स्वाभाविक आनंद है,मित्रता है। यह वैज्ञानिक सच है कि समलैंगिकता अस्वाभाविक नहीं है। वरना इस्मत चुगताई ‘लिहाफ’ जैसी महान समलैंगिक कहानी न लिखतीं। हिन्दी में आशा सहाय ‘एकाकिनी’ जैसा महान समलैंगिक उपन्यास नहीं लिख पातीं।
      नामवर सिंह की महिला आंदोलन के बारे में भ्रांत धारणा है। उनका मानना है कि महिला आंदोलन का सामाजिक परिणाम है पति-पत्नी में तलाक। महिला आंदोलन पर चलताऊ ढ़ंग से नामवर सिंह ने लिखा है ‘ इन आंदोलनों की खास बात यह थी कि पुरूषों ने स्त्रियों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी। बाद में गांधी के असहयोग आन्दोलन और मार्क्सवाद से प्रेरित समाजवादी आन्दोलनों में स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यहाँ एक बात और कहना चाहूँगा कि पश्चिमी समाज में ऐसे आंदोलनों के अन्ततः क्या परिणाम निकले ? वहाँ हमारे समाज से अधिक तलाक होते हैं। और खासकर  सम्बंधों के मामले में वहाँ स्त्रियों का हमारे समाज से कहीं अधिक शोषण होता है। साहित्य में ये सब बातें प्रतिबिम्बित होती रही हैं। भारतीय साहित्य में स्त्री को हमेशा ही एक सम्मानित दर्जा दिया गया है। पति-पत्नी की मर्यादा का सभी लेखक निर्वाह करते आए हैं। निजी जीवन में कैसी भी स्थिति हो परन्तु साहित्य में उन्होंने पत्नी की गरिमा का ध्यान रखा है।’ (उपरोक्त,पृ.123-124)
    नामवर सिंह के अनुसार महिला आंदोलन की परिणति क्या है ? तलाक। साथ ही वे महिला आंदोलन की स्वतंत्र भूमिका और विकास को नहीं देखते बल्कि मर्दों के संघर्ष का हिस्सा मानते हैं। सच यह है कि महिला आंदोलन का परिप्रेक्ष्य  और मर्दों के द्वारा संचालित नवजागरण और समाजवादी आंदोलन के परिप्रेक्ष्य और सवालों में बुनियादी फर्क है।
     दूसरी महत्वपूर्ण भूल यह है कि स्त्री का भारतीय परिवार में पश्चिम की तुलना में कम शोषण होता है। यह बात तथ्य और सत्य दोनों ही दृष्टियों से गलत है। इस बयान में भारतीय साहित्य में स्त्री के प्रति  जिस रवैय्ये की बात कही गयी है वह गलत है। भारतीय साहित्य की मूलधारा पुंसवादी है,वहां स्त्री का पुंसवादी परिप्रेक्ष्य में व्यापक चित्रण हुआ है। साहित्य में स्त्री साहित्य की भयानक उपेक्षा हुई है। स्त्री के पुंसवादी चित्रण जैसे पति-पत्नी की मर्यादा के पुंसवादी चित्रण को नामवरसिंह आदर्श चित्रण मानते हैं।  स्त्री के प्रति पुंसवादी नजरिए और स्त्री नजरिए में वे अंतर नहीं करते।
       फिल्मों से लेकर साहित्य तक स्त्री का जो चित्रण है उसे नामवर सिंह मनमाने ढ़ंग से पेश करते हैं ,गलत तर्क देते हैं और गलत निष्कर्ष निकालते हैं। वे औरत के सामयिक तेवर से परेशान हैं और उसे संयमित होने का उपदेश देते हैं। सवाल यह है कि क्या नामवर सिंह नहींजानते कि औरतें सैंकडों सालों से पुरूषों के आक्रामक तेवर की शिकार रही हैं।
    स्वयं नामवर सिंह की इतनी घृणित और आक्रामक स्त्री विरोधी टिप्पणी की हिन्दी जगत में कायदे से भर्त्सना होनी चाहिए थी लेकिन हुआ उलटा उसे  चार-पांच प्रकाशित प्रगतिशील संकलनों में शामिल किया गया । इससे हिन्दी में प्रचलित प्रगतिशील साहित्यकारों के प्रकाशनों में छायी पितृसत्तात्मक विचारधारा की मजबूत पकड़ को देखा जा सकता है।
     प्रगतिशील लेखक संघ की पत्रिका ‘वसुधा’ ने भी इस टिप्पणी को छापा था, इससे यह भी पता चलता है कि मार्क्सवाद के नाम पर भारत में पितृसत्ता को बनाए रखने का वैचारिक और सांगठनिक तामझाम नग्नतम रूप में काम कर रहा है। यह टिप्पणी नामवर सिंह के पितृसत्तात्मक नजरिए का आदर्श उदाहरण है यह प्रगतिशील आलोचना के क्षय की भी सूचना है।
      अंत में, नामवर सिंह की आलोचना पद्धति पर उनके ही हवाले से कहना चाहता हूँ  कि नामवर सिंह ने आलोचना टुकड़ों में लिखी है। उन्होंने ‘छायावाद’ को छोड़कर किसी भी लेखक या आंदोलन पर समग्रता में नहीं लिखा है।
     उनका एक चर्चित व्याख्यान है ‘ ‘गोदान’ को फिर से पढ़ते हुए’ यह सन् 2009 में प्रकाशित हुआ है,यह उनके नजरिए का ताजा पैमाना है। इसमें नामवर सिंह ने प्रेमचंद के स्त्री और दलित समीक्षकों पर जो कहा है, वह उन पर भी लागू होता है,नामवर सिंह ने कहा है ‘‘ मैं पहली बात उनसे कहना चाहता हूँ कि जो लोग ‘गोदान’ में दलित विमर्श देखना चाहते हैं, और जो स्त्री विमर्श देखना चाहते हैं,ये देखना, ‘गोदान’ को टुकडे़ में देखना है और सम्पूर्ण की उपेक्षा करना है। ये मिथ्या चेतना और एक अर्थ में ऑडियोलॉजिकल दृष्टि है। प्रेमचंद में केवल दलित विमर्श ढूँढना और उसे गलत ठहराना या केवल स्त्री विमर्श ढूँढना ऐसा है जैसे अंधों का हाथी देखना। हाथी की पूँछ हाथ लगी तो कहा हाथी ऐसा ही होता है, यह ऑडियोलॉजिकल दृष्टि है। अर्द्धसत्य झूठ से भी ज्यादा खतरनाक होता है। उसी तरह उतना ही खतरनाक होगा-प्रेमचंद को किसी एक दृष्टि से देखना।’’ ( प्रेमचंद और भारतीय समाज,पृ.174)
    आश्चर्य की बात यह है नामवर सिंह को प्रेमचंद को समग्रता में देखने का ज्ञान 2009 में हुआ। क्या नामवर सिंह जबाब देंगे कि उन्होंने प्रेमचंद पर टुकड़ों में विचार करते हुए अपने विचारों को 24 निबंधों में अलग-अलग क्यों व्यक्त किया ? उन्होंने प्रेमचंद पर समग्रता में विचार करते हुए एक किताब क्यों नहीं लिखी ? समग्रता में विचार करते हुए कोई निबंध क्यों नहीं लिखा ?
    यदि किसी एक दृष्टि का सहारा लेकर लिखना विचारधारात्मक दृष्टि है तो उनकी इन चार किताबों में शामिल निबंधों में विभिन्न विषयों पर लिखे और बोले जिस अर्द्धसत्य को स्वयं नामवर सिंह ने व्यक्त किया है क्या उसे भी खतरनाक मानें ?
     वे जबाब दें कि उनके स्त्री के बारे में व्यक्त विचार झूठ से भी ज्यादा खतरनाक हैं या नहीं ? हम चाहेंगे नामवर सिंह स्त्री पर लिखे अपने सबसे घृणिततम लेख में व्यक्त विचारों को सार्वजनिक तौर पर अस्वीकार करें  
        नामवर सिंह टुकडों में बोल-लिखकर समग्रता में मलाई खाते रहे हैं। क्या उनके प्रेमचंद पर व्यक्त विचारों को समग्रता में व्यक्त विचार मान लें ? क्या वे कह सकते हैं कि उन्होंने जो लिख दिया वह सम्पूर्ण है,अब भविष्य में प्रेमचंद पर नया सोचा ही नहीं जा सकता  ? यदि ऐसा होगा तो हम आलोचना से लौटकर काव्यशास्त्र की दुनिया में पहुँच जाएंगे। फिर व्याख्या और पुनर्व्याख्या का क्या होगा ?
     क्या मार्क्स ने समग्रता में पूंजी को देख लिया था ? क्या संचार क्रांति युग के परवर्ती पूंजीवाद का रूप उनके यहां है ? क्या मार्क्स के विचारों के आगे जाकर पूंजी की भूमिका को देखने की जरूरत है या नहीं ?
    नामवर सिंह ,रामविलास शर्मा, विजयदेवनारायण साही आदि के नजरिए से भिन्न नजरिए से किसी एक दृष्टि से प्रेमचंद को देखना यदि विचारधारा है तो फिर इन आलोचकों में से किसने समग्रता में प्रेंमचंद पर विचार किया है ? यदि समग्रता में विचार हो ही गया है तो फिर नामवर सिंह के व्याख्यान की क्या प्रासंगिकता है ? एक सवाल यह भी उठता है नामवर सिंह को अपना सारा लिखा और बोला प्रासंगिक क्यों लगता है ? क्या वे कार्ल मार्क्स ,जार्ज लूकाच आदि की अपने लिखे को अस्वीकार करने की परंपरा से कुछ सीख ले सकते हैं ? एक अच्छे मार्क्सवादी में अपने गलत विचारों के अस्वीकार का साहस होना चाहिए। नामवर सिंह अपने गलत विचारों से अपने को अलग क्यों नहीं करते ? वे संस्कृत के काव्यशास्त्रियों की तरह अपने लिखे को परम सुंदर और सही क्यों मानते हैं ? उनकी इन किताबों में बहुत सारा हिस्सा ऐसा है जो अधूरा और विभ्रमों से भरा है,अवधारणात्मक तौर पर गलत समझ से भरा है।    
     असल में नामवर सिंह स्त्री विमर्श और दलित विमर्श को अप्रासंगिक मानते हैं। नामवर सिंह बताएं कि औरतें और दलित क्या करें ? क्या वे अपने नजरिए का निर्माण न करें ? क्या स्त्री और दलित के नजरिए से समाज,साहित्य ,संस्कृति,राजनीति,अर्थनीति को न देखा जाए ? यदि नामवर सिंह का आशय यह है कि स्त्री और दलित नजरिए से चीजों को न देखा जाए तो यह तो वर्णाश्रम व्यवस्थापंथी दृष्टिकोण की शरण में वापसी होगी । यह साहित्य की शव साधना है। प्रेमचंद पर नामवरसिंह का 2009 का व्याख्यान प्रेमचंद को सिर के बल खड़ा करने की बुद्धि का आदर्श प्रमाण है।              











































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