सोमवार, 3 जून 2013

शीतयुद्ध ,सीआईए और साहित्य

   

ओम थानवी और अर्चना वर्मा ने साहित्य और सीआईए के अन्तस्संबंध की बहस को नितांत व्यक्तिगत और आत्मगत रूप से देखा है। साहित्य और सीआईए के अन्तस्संबंध को अशोक पाण्डेय या अन्य लेखक की राय मात्र के रूप में न देखकर,उसके मर्म में छिपे बड़े सवाल के रूप में वस्तुगततौर पर देखा जाता तो बेहतर होता। 
सीआईए के साथ साहित्य या कला के संबंध के सवाल को कमलेशजी ने ही पहले उठाया था तो उसकी जड़ों में जाने की जरूरत थी, न कि आत्मगत ढ़ंग से रिएक्ट करने की।
ओमथानवी,अर्चना वर्मा,अशोक पाण्डेय आदि की प्रतिक्रियाओं में निजी राय में जल्द ही मूल्य निर्णय करने का जो भाव है वह चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में समझने नहीं देता। 
मूल्य निर्णय से आलोचना यथासंभव बचे तो आलोचना में मजा आता है। ओमथानवी,अर्चना वर्मा,अशोक पाण्डेय आदि अपने मित्र हैं और लोकतांत्रिक लोग हैं। सवाल इन लोगों की पक्षधरता का भी नहीं है। 
सवाल है सीआईए और कला के अन्तस्संबंध का। इस सवाल पर क्या स्टैंड है ओम थानवी या अर्चना वर्मा का। इस प्रसंग में मैं यहां बहस का दायरा बड़ा करने की कोशिश कर रहा हूं जिससे हिन्दी की तू-तू-मैं-मैं से आलोचना को बचाया जाए। यह सर्वमान्य तथ्य है कि सीआईए ने आधुनिककलाओं को औजार की तरह इस्तेमाल किया था और इसके अकाट्य प्रमाण मौजूद हैं। वे इंटरनेट पर भी हैं।
हिन्दी में जाने-अनजाने सीआईए पर जब भी बहस होती रही है और यह आभास भी दिया गया है कि सीआईए का काम तो जासूसी करना है ,साहित्य ,कला, संस्कृति से उसे कोई लेना-देना नहीं है।सच इसके एकदम विपरीत है।
सीआईए ने कला,साहित्य,संस्कृति के क्षेत्र में महज पुस्तकों का प्रकाशन करके समाजवाद को नंगा करनेवाली सस्ती किताबें मुहैय्या कराने का काम ही नहीं किया बल्कि इससे आगे जाकर गंभीर काम किया है जिसकी हिन्दी के अधिकांश पत्रकार,लेखक और आलोचक उपेक्षा करते रहे हैं। सीआईए ने अमूर्त एक्सप्रेनिस्ट कला आंदोलन को पैसा दिया,संगठित किया और राजनीतिक समर्थन दिया। उसने Jackson Pollock, Sam Francis, Willem de Kooning, Barnett Newman, Robert Motherwell, Mark Rothko जैसे कलाकारों का सोवियत संघ के खिलाफ इस्तेमाल किया। Frances Stonor Saunders की लिखी किताब The Cultural Cold War – The CIA and the World of Arts and Letters.इस प्रसंग में उल्लेखनीय है। इस किताब में बताया गया है कि सीआईए ने किस तरह दुनिया के अनेक देशों में कलाकारों, साहित्यकारों आदि का अपनी सांस्कृतिक नीति के प्रचार-प्रसार के लिए इस्तेमाल किया।
हिन्दीलेखक सीआईए का सवाल आते ही लेखकों का एक वर्ग सीआईए के प्रति आत्मगत नजरिए का किसी न किसी रूप में शिकार होता रहा है। ऐसे ही आत्मगतता और अधूरी समझ हाल ही अर्चना वर्मा के कथादेश में प्रकाशित लेख और आज (2-6-13)के जनसत्ता में प्रकाशित ओम थानवी के लेख में नजर आती है। सीआईए को लेकर ये दोनों लेख तदर्थवादी नजरिए को व्यक्त करते हैं।
सीआईए जैसा विशाल नियोजित संगठन चलताऊ नजरिए से समझ में नहीं आएगा। हिन्दी में संभवतः सबसे पहले मुक्तिबोध ने शीतयुद्ध की अमेरिकी राजनीति को नईकविता के प्रसंग में रेखांकित किया था और उसी दौर में रामविलास शर्मा ने भी कई लेख लिखे थे।
इसी क्रम में सुधीश पचौरी ने अपनी पीएचडी में शीतयुद्धीय राजनीति की नई कविता के दौर में क्या भूमिका रही है उसका "नई कविता का वैचारिक आधार " किताब में जिक्र किया है। इसी सिलसिले में भारतभवन और अमेरिकी फंडिंग को लेकर जनवादियों और प्रगतिशीलों में बहस हुई है और उस बहस में भी कई महत्वपूर्ण लेख एक जमाने में सुधीश पचौरी ने उत्तरगाथा आदि में लिखे थे।
यह खुला सच है कि कॉग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम नामक संगठन का जन्म सीआईए के सहयोगी संगठन के रूप में हुआ था और उसके भारत में भी सदस्य थे जिसमें बाबू जयप्रकाशनारायण, अज्ञेय,रामवृक्ष बेनीपुरी आदि के नाम प्रमुख हैं।

कुछ समय पहले टीवी पर When the CIA Infiltrated Culture नामक डाकूमेंटरी देखी थी। इसे तीन साल की कड़ी मेहनत और रिसर्च के बाद इसे तैयार किया गया था। इसमें बताया गया कि किस तरह संस्कृति के क्षेत्र में मार्शलप्लान के तहत सीआईए ने कला को सब्सडाइज को किया और कलाओं के जरिए व्यक्तिगत चयन की आजादी के सवाल को प्रचारित किया गया। इस काम Farfield Foundation और the Congress for Cultural Freedom का जमकर इस्तेमाल किया गया। सन् 50 और 60 के दशक में यूरोप के पचासों संगठनों को करोड़ों डॉलर की सालाना मदद दी गयी। इसी क्रम में सीआईए ने विचारधाराहीनता की विचारधारा का प्रचार किया। वे लेखक -कलाकार जो विचारधारा का निषेध करते थे वे जाने-अनजाने इस खेमे का हिस्सा बनते चले गए। इसमें वे लेखक भी शामिल हैं जो सभी किस्म की विचारधारा का निषेध करते थे और वे भी जो मार्क्सवाद विरोधी थे,समाजवाद विरोधी थे,सोवियत संघ विरोधी थे।" नो आइडियोल़ॉजी "उनकी विचारधारा थी। हमारे ओमथानवी टाइप लोग उसी कोटि में आते हैं।

सीआईए के सांस्कृतिक मार्शल प्लान में लेखकों से यह मांग की गयी कि वे कला से राजनीति को धो-पोंछकर साफ कर दें।राजनीतिरहित कलाओं के सृजन पर जोर दिया गया>
सीआईए के अनुसार लेखक हर विषय पर लिख सकता था लेकिन सीआईए स्पांसर "फ्रीडम "के प्रति आलोचनात्मक नजरिया व्यक्त करने आजादी इन लेखकों को नहीं थी। लेखक सामुदायिकता की आलोचना करे,व्यक्तिनिष्ठता की आलोचना करे,सरकार की आलोचना करे,बाजार की शक्तियों के पक्ष में लिखे।
इसी तरह एक्सप्रेसनिज्म,अमेरिकी अवांगार्द ,संगीत समारोह,कला प्रदर्शनियों आदि पर जोर दिया गया। गुंटर ग्रास ने When the CIA Infiltrated Culture नामक वृत्तचित्र में कहा-“The ideology of the CIA was that the West had to be the most modern of the modern,”

क्या इस बयान से कमलेश जैसे लेखक कहीं प्रभावित तो नहीं हैं ?

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