रविवार, 31 मई 2015

आरएसएस संगठन नहीं दुकान है

                      
        आरएसएस के नायक और देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अध्यक्षता में बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयन्ती को बड़े धूमधाम से मनाने का फैसला लिया गया है। मोटे तौर पर यह फैसला स्वागत योग्य है। हमारे स्वाधीनता सेनानियों के ऊपर सरकार कुछ भी करे हमें स्वागत तो कम से कम करना चाहिए। इस बहाने कुछ चर्चाएं होंगी, गोष्ठियां होंगी, प्रकाशन निकलेंगे,जलसे होंगे ,बाजार में सरकारी खजाने से पैसा निकलकर आएगा। कुछ बाबू,बुद्धिजीवी,राजनेता और स्वयंसेवी संस्थाएं खाएंगी-कमाएंगी,इस लिहाज से मुझे सरकारी जलसे हमेशा अच्छे लगते हैं। यह एक तरह का सरकार की ओर से सांस्कतिक पूंजी निवेश है।

समस्या जलसे की नहीं है, समस्या अम्बेडकर पर माला चढ़ाने और जलसे को लेकर नहीं है, यह तो कोई भी दल कर सकता है, सवाल यह है कि क्या अम्बेडकर के विचारों का आरएसएस और भाजपा पर कोई असर है ? क्या अम्बेडकर के विचारों से संघ के विचार से मेल खाते हैं या फिर अम्बेडकर पर जलसे करना एक खाना पूर्ति है, वोटबैंक राजनीति का अंग है ? हमें यही लगता है कि मोदी सरकार,संघ और भाजपा के लिए अम्बेडकर वोट बैंक राजनीति के प्रचार का अंग है। यह असल में दुकानदार की 'सेल-सेल' की मार्केटिंग रणनीति का अंग है।

उल्लेखनीय है आरएसएस अकेला ऐसा संगठन है जो कभी अपनी आत्मालोचना नहीं करता, अपने वैचारिक दृष्टिकोण को हमेशा सच और अपरिवर्तनीय मानता है। इन दिनों संघ के लोग सत्ता पर कब्जा जमाए बैठे हैं और हेकड़ी का आलम यह है कि टीवी टॉक शो तक में अन्य को बोलने में बाधाएं देते हैं, जानते हैं गलत बोल रहे हैं लेकिन अहंकार में डूबे हुए नेता की तरह प्रवक्ता बोलते रहते हैं। मनमोहन सिंह के अंतिम दो सालों में कांग्रेसी मंत्रियों में यही राजनीतिक अहंकार देखा गया था, आम जनता राजनीतिक अहंकार से नफरत करती है। लेकिन आरएसएस –भाजपा के लोग लगातार इस राजनीतिक अहंकार पर हिन्दुत्व की मालिश कर रहे हैं।

संघियों का मानना है देश में अब तक सबकुछ गलत हुआ है, शिक्षा से लेकर विज्ञान तक भारतीय परंपरा की उपेक्षा हुई है,अतःभारत की उपेक्षित परंपराओं और विश्वासों को नए सिरे से सत्ता के जरिए आम जनता पर थोपने की जरुरत है। वे यह भी मानकर चल रहे हैं कि धर्मनिरपेक्षता जहर है,जबकि अम्बेडकर ने धर्मनिरपेक्षता को भारत,भारतीय संविधान और भारतीय समाज की आत्मा के रुप में पेश किया।

संघ के संगठन लगातार धर्मनिरपेक्षता पर हमले करते रहे हैं। आम जनता में धर्मनिरपेक्षता का मतलब मुस्लिम तुष्टीकरण कहकर साम्प्रदायिक घृणा भरते रहे हैं।इस चक्कर में संघ के विचारक आए दिन यही बताते रहते हैं कि वे तो देश का सुधार करने के लिए सरकार में आए हैं। संस्कृति से लेकर राजनीति तक उनको सुधार की चिन्ता इस कदर सताए हुए है कि वे यह मानने को तैयार ही नहीं है उनके अंदर जो वैचारिक खोट है, उसको भी दूर करने की जरुरत है ।

यह विलक्षण सत्य है कि संघ के विचारों में स्थापना से लेकर आजतक कोई मूलगामी वैचारिक बदलाव नहीं हुआ है। यानी वे यह मानकर चल रहे हैं कि उनकी हिन्दुत्ववादी विचारधारा निष्कलंक और निर्दोष है। वे इन दिनों बल्लभभाई पटेल से लेकर अम्बेडकर तक सबका वैचारिक चीरहरण करने में लगे हैं। इस चक्कर में संघ और उसके नेतागण बार-बार वैचारिक गर्भपात के शिकार भी हुए हैं।

मोदी सरकार के आने के पहले से संघ कई दशकों से समाज में वैचारिक प्रदूषण फैलाने का काम करता रहा है। अम्बेडकर जयन्ती के आयोजन उसी कड़ी का अंग है। साथ ही वे पटेल-अम्बेडकर आदि के जरिए वोटबैंक की राजनीति कर रहे हैं और धर्मनिरपेक्ष विचारों की परंपरा को प्रदूषित करने की कोशिश कर रहे हैं। वे पटेल-अम्बेडकर के पास अपनी विचारधारा में परिवर्तन करने के लिए नहीं जा रहे ,बल्कि वे तो उनकी विचारधारा का विकृतभाष्य रचने के लिए जा रहे हैं। उनके अंदर धर्मनिरपेक्ष बनने की भावना अभी तक नहीं जगी है उलटे वे धर्मनिरपेक्ष नेताओं की विचारधारा को हिन्दुत्ववादी घोषित करने का प्रयास कर रहे हैं।

अम्बेडकर और आरएसएस में जमीन-आसमान का अंतर है। मसलन्, संघ के लोग कई दशकों से गऊ-हत्या बंद हो, का नारा लगा रहे हैं। उनके इस नारे का ही असर था कि भारत की धर्मनिरपेक्ष सरकार ने गऊहत्या पर उनके मत को मान लिया। अम्बेडकर आदि मनीषियों का इस मसले पर भिन्न नजरिया था। इसी तरह अस्पृश्यता के सवाल को अम्बेडकर जिस नजरिए से देखते हैं, संघ वैसे नहीं देखता। संघ के लिए जाति और वर्ण ईश्वरकृत हैं। अम्बेडकर यह नहीं मानते। वे अस्पृश्यता को गुलामी सभी बदतर मानते हैं।

अस्पृश्यता दूर करने के जितने तेज प्रयासों की समाज को ,खासकर हिन्दू समाज को जरुरत है ,उसे संघ महसूस नहीं करता। आज भी देश के बहुत बड़े हिस्से में समाज का एक वर्ग अस्पृश्यता का शिकार है। अस्पृश्य हमेशा अस्पृश्य रहता है। संविधान में तमाम हकों के बाद भी अस्पृश्यता के खिलाफ कोई संघर्ष संघ और उनके जैसे हिन्दू संगठनों ने नहीं चलाया। गऊ के लिए आंदोलन करने वालों को कभी अस्पृश्यता के खिलाफ एक वाक्य बोलते नहीं सुना।

सवाल उठता है कि संघ ने अस्पृश्यता के खिलाफ कोई आंदोलन क्यों नहीं किया ? समाज में जिसे अस्पृश्य घोषित कर दिया गया उसे हमेशा के लिए समाज,संस्थान और संस्कृति से बहिष्कृत कर दिया गया। अस्पृश्यता को तकदीर का खेल,पुनर्जन्म के पाप का परिणाम मानकर वैधता प्रदान की गयी, संयोग की बात है कि एकमात्र अम्बेडकर ने इस पहलु पर सबसे निर्मम ढ़ंग से रोशनी डाली। उन्होंने लिखा कि अस्पृश्यता तो गुलामी से भी बदतर व्यवस्था है। आज भी देश के विभिन्न इलाकों में अछूतों के मुहल्ले हैं और उनमें आना-जाना-रहना एकदम मुश्किल है। कोई भी सामान्य मनुष्य इन बस्तियों में रह नहीं सकता। इन बस्तियों में किसी भी किस्म की नागरिक सुविधाएं दूर-दूर तक नजर नहीं आतीं।

इन दिनों एक मुस्लिम लड़की को घर न मिलने पर मीडिया ने हंगामा खड़ा कर दिया लेकिन अस्पृश्य बस्तियों पर कभी कोई न्यूज आइटम तक नहीं आया। यही मीडिया कभी झांककर नहीं देखता कि सवर्णों की बस्तियों और हाउसिंग सोसायटी में दलितों को घर भाड़े पर मिलने में किस तरह की असुविधा का सामना करना पड़ता है। समाज में अस्पृश्य और पृश्य के रुप में घिनौना वर्गीकरण अभी भी जारी है। कहने का अर्थ है कि अस्पृश्यता को दूर करने के लिए भी यदि सामाजिक स्तर पर प्रयास किए जाएं तो देश में बहुत कुछ परिवर्तन हो सकता है। अस्पृश्यों के प्रति हिंसा, अलगाव,वर्जनाओं, और घृणा को हर स्तर पर चुनौती दी जाय। जो लोग चुनौती दे रहे हैं उनका साथ देने की मनोदशा तैयार करें। संघ की मुश्किल यह है कि वह अस्पृश्ता के उन्मूलन के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है वह तो हिन्दुत्व के लिए वचनवद्ध है। हिन्दुत्व के पैकेज में अस्पृश्यता निवारण के काम नहीं आते।

कुछ अर्सा पहले गुजरात के किसी शहर में ही अस्पृश्यों के लिए अलग श्मशान होने की बात सामने आई थी।यह स्थिति तब की है जब गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी थे। सवाल यह है यदि किसी महापुरुष की जयन्ती मना रहे हो तो कम से कम उसके विचारों को सामने रखकर अपने कर्म-दुष्कर्म और कुकर्म की मीमांसा तो कर लो ! संघ ,भाजपा और उनके लगुए-भगुए कभी महापुरुषों के विचारों कीरोशनी में अपनी आत्मालोचना नहीं करते , सवाल यह है कि वे क्यों नहीं करते ? कभी पलटकर बोलें तो सही कि आखिरकार अम्बेडकर के विचारों से वे इतने दूर क्यों हैं ? अम्बेडकर के कौन से विचार हैं जिनको वे अपने संगठन की विचारधारा में शामिल करना चाहते हैं ?

सवाल यह है कि संघ क्या धर्मनिरपेक्ष महापुरुषों की महिमा का गायन सिर्फ दिल बहलाने,जनता को दिग्भ्रमित करने के लिए करता है या वह सच में कुछ उनसे सीखना भी चाहता है ? अब तक रवैय्या यह है संघ के लिए भारत के धर्मनिरपेक्ष महापुरुष तो किसी दुकानदार की मौसमी 'सेल -सेल' से ज्यादा महत्व नहीं रखते। जिस तरह दुकानदार हर किस्म का माल बेचता है, लेकिन उसकी किसी माल विशेष से मुहब्बत नहीं होती। उससे जुड़े विचार से मुहब्बत नहीं होती। उसकी तो मुनाफे और बिक्री में दिलचस्पी होती है। यही हास संघ और मोदी सरकार का है।

अधिकतर दुकानदार पुराने विचारों,मूल्यों आदर्शों को अपने जेहन में बनाए रखते हैं। जबकि वे नए युग के अनुरुप आई नयी वस्तु की बिक्री करते हैं, उसका उपभोग भी करते हैं, लेकिन उस वस्तु से जुड़े नए विचारों और आदतों को आत्मसात नहीं करते। यही हाल आरएसएस और उसके शाखामृगों और शाखा नायक का है। वरना विवेकानंद से लेकर महात्मा गांधी तक ,भगतसिंह से लेकर अम्बेडकर तक सबकी संघ के यहां जयन्ती मनायी जाती हैं लेकिन ये सभी जयन्तियां दुकानदार के भाव से मनायी जाती हैं। उत्सवधर्मी भाव से मनायी जाती हैं। जितनी देऱ उत्सव उतनी देर बातें,उसके बाद बातें बंद, इसलिए हम तो कहते हैं संघ एक दुकान है और संघी दुकानदार हैं, ये बेचें कुछ भी ,लेकिन रहेंगे हिन्दुत्ववादी ही।


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