शुक्रवार, 5 जून 2015

ग़ज़ल और सम-सामयिकता की समस्या

  
ग़ज़ल आज सबसे जनप्रिय विधा है। इसके पढ़ने-सुनने वाले बेशुमार हैं। इसके बारे में आमतौर पर सोशलमीडिया में बातें नहीं होतीं,लोग ग़ज़ल के अंश शेयर करते हैं. पूरी ग़ज़ल भी शेयर करते हैं, लेकिन उसकी समस्याओं पर भी कभी ठहरकर सोचना चाहिए। आमतौर पर ग़ज़ल सामयिक विषयों पर नहीं लिखी जाती। शायर का इस संदर्भ में विश्वास यह रहा है कि ग़ज़ल ऐसी हो जो सदाबहार हो,कालातीत हो। ग़ज़ल लेखक अपने सामने घटने वाली भयानक से भयानक घटनाओं को देखकर भी उन पर नहीं लिखते ,असल में शायर की कोशिश रहती है कि इस विधा को समसामयिकता से दूर रखा जाय और इसमें उन विषयों पर लिखा जाय जो चिरकाल तक इस विधा को बनाए रखें। कालातीत सार्वभौम प्रयोग की यह शानदार विधा है। इस विधा में रमने के लिए शायर के पास गम खाने,दुख सहने और व्यथा को काव्यात्मक रुपान्तरण की शक्ति अर्जित करनी पड़ती है।
     अमूमन दो तरह शायर मिलते हैं। एक हैं नज्म-गो शायर और दूसरे हैं ग़ज़ल-गो शायर। इन दोनों में अंतर है। नज्म –गो शायर आपदाओंको अतिरंजित भाव से देखता है, उससे प्रभावित होता है उसका अतिरंजित चित्रण करता है। जबकि ग़ज़ल-गो शायर आपदाओं को अपने अंदर ज़ज्ब कर लेता है,फिर जो जज़्बात उसके मुँहसे निकलते हैं वही ग़ज़ल कहलाते हैं। उर्दू में मीर,गालिब आदि ऐसे ही शायर हुए हैं। जिनके जीवनकाल में अनेक मूलगामी परिवर्तन आए,आपदाएं आईं,दिल्ली लुटी,इन्कलाब आए लेकिन वे अंदर ही अंदर घुटते रहे,मिटते रहे। मीर तो यह कहकर ही चुप हो गए-
                                   दीदनी है शिकस्तगी दिलकी।
                                    क्या इमारत ग़मोंने ढ़ाई है।।
गालिब ने लिखा – चिराग़े-मुर्दा हूँ मैं बे जबाँ गोरे-गरीबाँका-
ऐसा नहीं है कि ग़ज़ल-गो शायरों ने सामयिक घटनाओं पर नहीं लिखा.लेकिन संक्षिप्त और नपे-तुले शब्दों में लिखा है। 'मीर' के जीवनकाल में क़ादिर रहीलाने शाहआलम बादशाहकी आँखोंमें नीलकी सलाइयाँ फेरकर उन्हें ज्योतिहीन कर दिया था। इस दर्दनाक घटना को 'मीर' ने अपनी ग़ज़ल के एक शेरमें यूँ व्यक्त किया है-
          शहाँ कि कुहले-जवाहर थी खाके-पा जिनकी।
          उन्हींकी आँखोंमें फिरती सलाइयाँ देखी।।
इसी घटना को इकबाल ने नज्म में पेश किया है जिसमें काफी अशआर हैं। लेकिन आधुनिक जिंदगी के दवाबों के चलते इधर के वर्षों में ग़ज़ल पर समसामयिकता का दवाब बढ़ा है।
 मसलन् शायर यगाना के साम्प्रदायिकता पर लिखे चंद शेर पढ़ें -
'पढ़के दो कलमें अगर कोई मुसलमाँ हो जाय।
फिर तो हैवान भी दो रोज़में इन्साँ हो जाय!!  
सब तेरे सिवा खाफ़िर,आख़िर इसका मतलब क्या ?
सिर फिरा दे इन्साँ ऐसा खब्ते-मज़हब क्या ?
महराबोंमें सजदा वाजिब ,हुस्नके आगे सजदा हराम।
ऐसे गुनहगारोंपै खुदाकी मार नहीं तो कुछ भी नहीं।।
दुनियाके साथ दीनकी बेगार अलअमाँ ।
इन्सान आदमी न हुआ,जानवर हुआ।।
बस एक नुक़्त-ए-फ़र्जीका नाम है काबा।
किसीको मरकज़-तहकीक़का पता न चला।।
मज़हबसे दग़ा न कर,दग़ासे बाज़ आ।
किस कामका हज़! मकरो-रियासे बाज़ आ।।

ईमान तो कहता है कि इन्साँ बन जा।
बन्देकी मददको आ,खुदासे बाज़ आ।।

इसी तरह आनन्दनारायण मुल्ला ने लिखा- 
मैं फ़कत इन्सान हूँ ,हिन्दू-मुसलमाँ कुछ भी नहीं।
मेरे दिलके दर्दमें तफ़रीके-ईमाँ कुछ नहीं।।
असर लखनवी ने लिखा-
       मसजिदेवाजसे इक रिन्द यह कहते उट्ठा
       ''काफिर अच्छे हैं दिलाज़ार मुसलमानोंसे'' ।।

  

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