सोमवार, 19 सितंबर 2016

कम्प्यूटर युग में हिन्दी

          

सरकार की आदत है वह कोई काम जलसे के बिना नहीं करती। सरकार की नजर प्रचार पर होती है वह जितना हिन्दीभाषा में काम करती है उससे ज्यादा ढोल पीटती है।
सवाल यह है दफ्तरी हिन्दी को प्रचार की जरूरत क्यों है ॽ जलसे की जरूरत क्यों है ॽ भाषा हमारे जीवन में रची-बसी होती है।अंग्रेजी पूरे शासनतंत्र में रची-बसी है,उसको कभी प्रचार की या हिन्दी दिवस की तरह अंग्रेजी दिवस मनाने की जरूरत महसूस नहीं हुई। भाषा को जब हम जलसे का अंग बनाते हैं तो राजनीतिक बनाते हैं।हिन्दी दिवस की सारी मुसीबत यहीं पर है।यही वह बिन्दु है जहां से भाषा और राजनीति का खेल शुरू होता है।भाषा में भाषा रहे,जन-जीवन रहे,लेकिन अब उलटा हो गया है। भाषा से जन-जीवन गायब होता जा रहा है।हम सबके जन-जीवन में हिन्दी भाषा धीरे धीरे गायब होती जा रही है,दैनंदिन लिखित आचरण से हिन्दी कम होती जा रही है।भाषा का लिखित आचरण से कम होना चिन्ता की बात है।हमारे लिखित आचरण में हिन्दी कैसे व्यापक स्थान घेरे यह हमने नहीं सोचा,उलटे हम यह सोच रहे हैं कि सरकारी कामकाज में हिन्दी कैसे जगह बनाए।यानी हम हिन्दी को दफ्तरी भाषा के रूप में देखना चाहते हैं !

हिन्दी सरकारी भाषा या दफ्तरी भाषा नहीं है। हिन्दी हमारी जीवनभाषा है,वैसे ही जैसे बंगला हमारी जीवनभाषा है।हम जिस संकट से गुजर रहे हैं ,बंगाली भी उसी संकट से गुजर रहे हैं।अंग्रेजी वाले भी संभवतः उसी संकट से गुजर रहे हैं।आज सभी भाषाएं संकटग्रस्त हैं।हमने विलक्षण खाँचे बनाए हुए हैं हम हिन्दी का दर्द तो महसूस करते हैं लेकिन बंगला का दर्द महसूस नहीं करते।भाषा और जीवन में अलगाव बढ़ा है।इसने समूचे समाज और व्यक्ति के जीवन में व्याप्त तनावों और टकरावों को और भी सघन बना दिया है।

इन दिनों हम सब अपनी -अपनी भाषा के दुखों में फंसे हुए हैं। यह सड़े हुए आदमी का दुख है।नकली दुख है।यह भाषाप्रेम नहीं ,भाषायी ढ़ोंग है।यह भाषायी पिछड़ापन है।इसके कारण हम समग्रता में भाषा के सामने उपस्थित संकट को देख ही नहीं पा रहे।हमारे लिए आज महत्वपूर्ण यह नहीं है कि भाषा और समाज का अलगाव कैसे दूर करें,हमारे लिए जरूरी हो गया है कि सरकारी भाषा की सूची में अपनी भाषा को कैसे बिठाएं।सरकारी भाषा का पद जीवन की भाषा के पद से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है और यही वह बुनियादी घटिया समझ है जिसने हमें अंधभाषा प्रेमी बना दिया है।हिन्दीवाला बना दिया है।यह भावबोध सबसे घटिया भावबोध है।यह भावबोध भाषा विशेष के श्रेष्ठत्व पर टिका है।हम जब हिन्दी को या किसी भी भाषा को सरकारी भाषा बनाने की बात करते हैं तो भाषाय़ी असमानता की हिमायत कर रहे होते हैं।हमारे लिए सभी भाषाएं और बोलियां समान हैं और सबके हक समान हैं।लेकिन हो उलटा रहा है।तेरी भाषा-मेरी भाषा के क्रम में हमने भाषायी विद्वेष को पाला-पोसा है।बेहतर यही होगा कि हम भाषायी विद्वेष से बाहर निकलें। जीवन में भाषाप्रेम पैदा करें।सभी भाषाओं और बोलियों को समान दर्जा दें।किसी भी भाषा की निंदा न करें,किसी भी भाषा के प्रति विद्वेष पैदा न करें।दुख की बात है हमने भाषा विद्वेष को अपनी संपदा बना लिया है,हम सारी जिन्दगी अंग्रेजी भाषा से विद्वेष करते हैं और अंग्रेजी का ही जीवन में आचरण करते हैं।हमने कभी सोचा नहीं कि विद्वेष के कारण भाषा समाज में आगे नहीं बढ़ी है। प्रतिस्पर्धा के आधार पर कोई भी भाषा अपना विकास नहीं कर सकती।

मेरे लिए हिन्दी जीवन की भाषा है।इसके बिना मैं जी नहीं सकता।मैं सब भाषाओं और बोलियों से वैसे ही प्यार करता हूँ जिस तरह हिन्दी से प्यार करता हूँ।हिन्दी मेरे लिए रोजी-रोटी की और विचारों की भाषा है।भाषा का संबंध आपके आचरण और लेखन से है।राजनीति से नहीं।भाषा में विचारधारा नहीं होती।भाषा किसी एक समुदाय,एक वर्ग,एक राष्ट्र की नहीं होती वह तो पूरे समाज की सृष्टि होती है।



जब बाजार में कम्प्यूटर आया तो मैंने सबसे पहले उसे खरीदा,संभवतःबहुत कम हिन्दी शिक्षक और हिन्दी अधिकारी थे जो उस समय कम्प्यूटर इस्तेमाल करते थे।मैंने कम्प्यूटर की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली।मैं कम्प्यूटर के तंत्र को नहीं जानता,लेकिन मैंने अभ्यास करके कम्प्यूटर पर लिखना सीखा ,अपनी लिखने की आदत बदली,कम्प्यूटर पर पढ़ने का अभ्यास डाला।कम्प्यूटर आने के बाद से मैंने कभी हाथ से नहीं लिखा,अधिकांश समय किताबें भी डिजिटल में ही पढ़ता हूँ।जब आरंभ में लिखना शुरू किया तो उस समय यूनीकोड फॉण्ट नहीं था,कृति फॉण्ट था,उसमें ही लिखता था।बाद में जब पहलीबार ब्लॉग बनाया तो पता चला कि इंटरनेट पर यूनीकोड फॉण्ट में ही लिख सकते हैं और फिर मंगल फॉण्ट लिया,फिर लिखने की आदत बदली,और आज मंगल ही मंगल है।कहने का आशय यह कि हिन्दी या किसी भी भाषा को विकसित होना है तो उसे लेखन के विकसित तंत्र का इस्तेमाल करना चाहिए। भाषा लेखन से बदलती है,समृद्ध होती है।भाषा बोलने मात्र से समृद्ध नहीं होती।

हमारे एक मित्र हैं ,प्रोफेसर हैं,जब भी कोई उनसे पूछता है भाईसाहब आपकी विचारधारा क्या है तुरंत कहते हैं हम तो मार्क्सवादी हैं! लेकिन ज्यों ही भाषा की समस्या पर सवाल दाग दो तो उनका मार्क्सवाद मुरझा जाता है! वे उस समय आरएसएस वालों की तरह हिन्दीवादी हो जाते हैं।मार्क्सवाद और संघी विचारधारा के इस खेल ने ही हिन्दी को कमजोर बनाया है।हिन्दी को कमजोर संवैधानिक भाषादृष्टि ने भी बनाया है।हम संविधान में अपनी भाषा के अलावा और किसी भाषा को देखना नहीं चाहते।हम भूल जाते हैं कि हिन्दी संविधान या राष्ट्रवाद या राष्ट्र की नहीं जनता की भाषा है।वह भाषायी मित्रता और समानता में जी रही है,संविधान में नहीं।





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