अब संक्षेप में ‘सत्याग्रह’ के उदय को जान लें। ‘ सत्याग्रह’ माने सत्य का आग्रह ,साथ ही निष्क्रिय या अनाक्रामक प्रतिरोध की अवधारणा को गांधीजी ने प्रतिपादित किया।पैसिव रेज़िस्टेंस शब्द से सत्याग्रह तक गांधीजी कैसे पहुँचे,इसका इतिहास उन्होंने स्वयं लिखा है,‘दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास’ में जो घटनाक्रम विस्तार से बताया है वह एकबार फिर से पढ़ने की जरूरत है। गांधीजी ने लिखा है ‘‘ उस नाट्यशाला में सभा हुई।ट्रान्सवाल के भिन्न भिन्न शहरों से प्रतिनिधि भी बुलाये गये। पर मुझे स्वीकार करना चाहिए कि जो प्रस्ताव मैंने बनाये थे उनका पूरा अर्थ स्वयं मैं ही न समझ सका था। इसी प्रकार यह अंदाज भी न लगा सका था कि इनका दूरवर्ती परिणाम क्या होगा।सभा हुई।नाट्यशाला में कहीं भी जगह नहीं खाली बची।सबके चेहरे मानों यही कह रहे थे कि कोई नयी बात आज हमें करनी है।’’[iv]
गांधीजी ने लिखा ‘‘ हम में से कोई भी इस बात को नहीं जानते थे कि कौम के इस निश्चय अथवा आंदोलन को किसी नाम से पुकारा जाय। उस समय मैंने इस आन्दोलन का नाम ‘पैसिव रैजिस्टेन्स’ रक्खा था।मैं उस समय पैसिव रेजिस्टेन्स का महत्त्व भी न तो जानता था और नसमझता ही था। मैं तो केवल यही जानता था कि एक नवीन वस्तु का जन्म हुआ है। पर जैसे-जैसे आन्दोलन बढ़ता गया वैसे–वैसे ‘पैसिव रेज़िस्न्स’ के नाम से घोटाला होने लगा और इस महान् युद्ध को एक अंग्रेजी नाम से पुकारना भी मुझे लज्जाजनक मालूम हुआ। दूसरे कौम को यह शब्द जल्दी याद होने लायक भी न था। इसलिए इस युद्ध के लिए सर्वोत्कृष्ट नाम ढूँढ़नेवाले के लिए मैंने ‘‘इण्डियन औपीनियन’’ में एक छोटे से इनाम की घोषणा की। उत्तर में कितने ही नाम आये। उस समय युद्ध के रहस्य की चर्चा ‘‘इम्डियन ओपीनियन’’ में अच्छी तरह हो चुकी थी। इसलिए उम्मीदवारों के लिए उस शब्द को ढूँढ़ने के लिए प्रमाण की कोई कमी न थी। मगनलाल गांधी ने भी इस प्रतिस्पर्धा में भाग लिया था। उन्होंने ‘ सदाग्रह’ नाम भेजा ।इस शब्द को पसंद करने के लिए उन्होंने कारण बताते हुए लिखा था कि कौम का आन्दोलन एक भारी आग्रह है। और यह आग्रह ‘सद्’ अर्थात शुभ है। इसलिए उन्होंने इस नाम को इतना पसंद किया है। मैंने उनकी दलील का सार बहुत थोड़े में दिया है। मुझे यह नाम पसन्द तो आया तथापि मैं उसमें जिस वस्तु का समावेश करना चाहता था उसका समावेश उससे नहीं होता था।इसलिए मैंने उसके ‘द्’ को ‘त्’ बनाकर उसमें ‘य’ जोड़ दिया और ‘सत्याग्रह’ नाम तैयार कर लिया। सत्य के अन्दर शान्ति समाविष्ट मानकर किसी भी वस्तु के लिए आग्रह किया जाय तो उसमें से बल उत्पन्न होता है। इसलिए ‘‘आग्रह’’ के द्वारा उसमें ब का भी समावेश करके भारतीय आन्दोलन का नामाभिधान -‘सत्याग्रह’ अर्थात् सत्य और शान्ति से उत्पन्न होने वाला बल –करके उसका प्रयोग शुरू कर दिया। तब से इस युद्ध को ‘‘पैसिव रेज़िस्टेन्स’’ नाम से पुकारना बन्द कर दिया और यहाँ तक कि अँग्रेजी लेखों में भी कई बार पैसिव रेज़िस्टेन्स को छोड़कर सत्याग्रह अथवा उसी अर्थ के अन्य अँग्रेजी शब्द का प्रयोग शुरू कर दिया। ‘सत्याग्रह’ के नाम से पुकारे जानेवाली वस्तु का और सत्याग्रह का जन्म इस तरह हुआ।’’[v]
उल्लेखनीय है जिस सभा का जिक्र गांधीजी ने किया है,उस सभा की अध्यक्षता ट्रान्सवाल ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन के अध्यक्ष श्री अब्दुल गनी ने की थी।वे उस इलाके जनप्रिय नेता और व्यापारी थे। उसी सभा में अन्य लोगों के अलावा सेठ हाजी हबीब का भी भाषण हुआ।उनका भाषण बहुत ही जोशीला था और उसने उपस्थित लोगों को काफी प्रभावित किया, समूची सभा का कार्रवाई हिन्दी और गुजराती में चली, सभा तमिल और तेलुगूभाषी भारतीय भी मौजूद थे उनके लिए सभा के वक्तव्यों को उनकी भाषा में समझाकर पेश किया गया। महात्मा गांधी ने सेठ हाजी हबीब के भाषण के उत्तर में ही ‘सत्याग्रह’ की अवधारणा को पेश किया और कई महत्वपूर्ण बातें कहीं जिनके बारे में आमतौर पर चर्चा नहीं होती। हबीब सीहब ने अपने भाषण में कईबार कसम खाई और उपस्थित जनसमूह में जोश पैदा कर दिया,कई लोगों ने हबीब साहब के भाषण के समर्थन में अपने विचार पेश किये,यही वो प्रसंग है जिसमें गांधीजी ने ‘सत्याग्रह’ की धारणा पेश की। साथ ही कई महत्वपूर्ण बातें कहीं। चूंकि हबीब साहब ने कई बार ईश्वर की कसम खाकर प्रस्ताव के पक्ष में अपने मत का इजहार किया था, इस पर गांधीजी ने जो कहा वह महत्वपूर्ण है,‘‘ ऐसे प्रस्तावों के बीच कोई ईश्वर का नाम नहीं लेता था। सात्विक दृष्टि से देखा जाय तो निश्चय और ईश्वर का नाम लेकर प्रतिज्ञा करने में कोई भेद न होना चाहिए। बुद्धिमान मनुष्य जिस किसी बात का विचारपूर्वक निश्चय कर लेता है उससे विचलित नहीं होता। उसके लिए वह ईश्वर को साक्षी बनाकर की गयी प्रतिज्ञा के बराबर ही है। पर संसार सात्विक निर्णयों से नहीं चलता। ईश्व को साक्षी बनाकर की गयी प्रतिज्ञा और सामान्य निश्चय में वह जमीन-आसमान का भेद णानता है।सामान्य निश्चय को बदलते मनुष्य को लज्जा महसूस नहीं मालूम होती। पर प्रतिज्ञाबद्ध मनुष्य से अगर अपनी प्रतिज्ञा भंग हो जाता है तो वह स्वयं शरमाता है और समाज उसे फटकार देता है-पापी समझता है।यह बात इतनी गम्भीर है कि कानून में भी समाविष्ट हो गयी है। क्योंकि यदि किसी बात की कसम खाकर आदमी उसे भंग करे तो वह एक अपराध माना गया है और कानून में उसके लिए सख्त सजा रक्खी गयी है।
इन विचारों का रखनेवाला प्रतिज्ञाओं का अनुभवी,प्रतिज्ञाओं के मीठे फल चखनेवाला मैं भी उपर्युक्त प्रतिज्ञा की बात सुनकर स्तब्ध हो गया। एक क्षणभर के अंदर मैंने उसके तमाम परिणामों को देख लिया। उस घबराहट से शक्ति का जन्म हुआ। और यद्यपि मैं वहाँपर न तो स्वयं प्रतिज्ञा करने गया था और न लोगों से प्रतिज्ञा करवाने गया था तथापि सेठ हाजी हबीब की बात मुझे बहुत ही पसंद आयी।पर साथ ही मुझे यह भी उचित मालूम हुआ कि जनता को उसके परिणामों से परिचित करा देना चाहिए और इतने पर भी वह प्रतिज्ञा करे तो सहर्ष स्वागत करना चाहिए और अगर न करे तो मुझे समझ लेना चाहिए कि लोग अभी अन्तिम कसौटी पर चढ़ने के लिए तैयार नहीं हुए। इसलिए मैंने अध्यक्ष महाशय से इस बात की इजाजत माँगी कि वे मुझे हाजी हबीब के भाषण कारहस्य समझाने दें। मुझे आज्ञा मिल गयी। मैं उठा और उस समय मैंने जो कुछ कहा उसका सार मुझे जिस प्रकार याद है ,मैं नीचे दे रहा हूँ।
‘‘ मैं सभा को अभी यह बात समझा देना चाहता हूँ कि आजतक हमने जो प्रस्ताव जिस प्रकार स्वीकृत किये हैं उनमें,उनकी रीति में जमीन-आस्मान का फर्क है। यह प्रस्ताव बड़ा गंभीर है क्योंकि उस पर अमल करने पर ही दक्षिण अफ्रीका में हमारा अस्तित्व निर्भर है। इस प्रस्ताव को स्वीकार करने की जो नवीन रीति हमारे इन भाईने बतायी है वह जितनी नवीन है उतनी गम्भीर भी है। मैं स्वयं प्रस्ताव को इस प्रकार स्वीकार करने के विचार से नहीं आया था इसका पूरा श्रेय तो सेठ हबीब को ही है,और मैं इसकी जिम्मेदारी भी उन्हींके ऊपर है। उनको मैं धन्यवाद देता हूँ। उनकी सूचना मुझे बहुत अच्छी लगी। और अगर आप उनकी सूचना को स्वीकार कर लें तो आप भी उनकीगम्भीर जिम्मेदारी के हिस्सेदार हो सकते हैं। पर पहले आपको समझ लेना चाहिए कि वह जिम्मेदारी क्या है और कौम के सलाहकार और सेवक की हैसियत से मेरा यह धर्म है कि मैं आपको वह पूरी तरह समझा दूँ।
‘‘ हम सब एक ही सिरजनहार को मानते हैं। से मुसलमान भले ही खुदा कहकर पकारें,हिन्दू भले ही ईश्वर कहकर उसका भजन करें पर वह है एक ही स्वरूप। उसको साक्षी बनाकर उसे हमारा मध्यस्थ बनाकर हम प्रतिज्ञा लें या कसम खावें यह कोई ऐसी-वैसी बात नहीं। ऐसी कसम खाकर यदि हम उससे विचलित हो जायें तो कौम के, संसार के और परमात्मा के हम अपराधी होंगे। स्वयम मैं तो यह मानता हूँ कि यदि मनुष्य सावधानी से और निर्मल-बद्धिपूर्वक कोई प्रतिज्ञा करके बादमें उसे तोड़दे तो वह अपनी मनुष्यता खो बैठता है और जिस तरह यह मालूम होते ही कि पारा चढाया हुआ ताँबेका सिक्का रूपया नहीं है, उसे कोई नहीं पूछता,इतना ही नहीं बल्कि उस खोटे सिक्केको रखनेवाला दण्डनीय माना जाता है,ठीक सी तरह झूठी कसम खानेवाला आदमी भी कौड़ी कीमत का हो जाता है,बल्कि लोक-परलोक में दोनों जगह वह सजा का पात्र हो जाता है।’’[vi]
इस किताब में गांधीजी ने ‘सत्याग्रह’ और ‘ पेसिव रेज़िस्टेन्स’ के अंतर कोस्पष्टकरते हुए लिखा, ‘‘ मैं यह तो नहीं जानता कि पैसिव रेजिस्टेन्स इन दो शब्दों का अंग्रेजी में भाषा में पहले पहल प्रयोग किसने और कब किया। पर अंग्रेजी राष्ट्र में जब किसी छोटे समाज को कोई कानून पसंद न होता था तब वह उस कानून के खिलाफ बवा करने के बदले उसका स्वीकार ही नहीं करता और इस कार्य के लिए उसे जो-जो सजायें होतीं उन्हें सह लेता था। अंग्रेजी में इसी को पैसिव रेजिस्टेन्स अर्थात् ‘ सौम्य प्रतिकार’ कहा है। ’’[vii]
इसी में गांधी ने आगे लिखा ‘‘ सत्याग्रह केवल आत्मा का बल है।’’ [viii] उल्लेखनीय है कि पैसिव रेजिस्टेन्स का विचार गांधीजी को रूखी लेखक तोलस्तोय से लिया था। तोलस्तोय ने गांधीजी के ‘सत्याग्रह ’ के बारे में लिखा ‘‘वह न केवल भारतके लिए बल्कि समस्त मानव-जातिके लिए बड़े महत्वका है।’’[ix]
बेहतरीन
जवाब देंहटाएंबहुत खूब!
HindiPanda
Nice post thanks!
जवाब देंहटाएंlifestyle matters
technology solutions
Nice post.
जवाब देंहटाएंKya Whatsapp Web try kiya?