जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
रविवार, 29 नवंबर 2009
महेन्द्र 'नेह' के दो वर्चुअल काव्य पोस्टर
महेन्द्र 'नेह ' की उपरोक्त दोनों कविताएं और डिजायन रविकुमार ,रावतभाटा, के ब्लॉग ' सृजन और सरोकार' से साभार यहां दी जा रही हैं।कविता और पेंटिंग का उनके ब्लॉग पर सुंदर संगम दिखाई देता है।
अमेरिकी हवाई अड़डों पर भाव-भंगिमा पुलिस
अमेरिकी हवाई अड़डों पर इन दिनों एक विलक्षण किस्म की पुलिस पहरा दे रही है,यह ऐसी पुलिस है जो आने -जाने वाले लोगों पर नजर रखती है, यह नजरदारी भी विलक्षण है। ये पुलिस वाले यात्री के व्यवहार को देखकर ठीक करते हैं कि वह आदमी कैसा है, आतंकवादी है या नहीं। इस पुलिस का नाम है 'ट्रांसपोर्टेशन सिक्योरिटी एडमिनिस्ट्रेशन' । अभी ये अमेरिका में हैं कल यहां भी होंगे।
इस पुलिस दल में व्यवहार विशेषज्ञ शामिल किए गए हैं। ये लोग यात्री के व्यवहार को गंभीरता के साथ देखते हैं । उसके बाद पता करते हैं कि आप क्या हैं। मसलन् आपके चेहरे की भंगिमाएं क्या हैं, कैसे मुँह बनाते हैं, कैसे बातें करते हैं, कैसे आंखें चलती हैं, कैसे भ्रू चलती है। यानी शारीरिक भाव भंगिमा को देखकर ठीक करते हैं कि आखिरकार यह व्यक्ति कैसा है। यह सारा पुलिसिया खेल आतंकवाद विरोध मुहिम के रूप में चलाया जा रहा है। इसे ' यात्री व्यवहार जांच तकनीक ' का नाम दिया गया है। पूरे अमेरिका में ऐसे 3000 हजार व्यवहार विशेषज्ञ तैनात किए गए हैं। ये विशेषज्ञ 161 हावई अड्डों पर प्रत्येक यात्री के चाल-ढ़ाल,हाव-भाव आदि पर गहरी नजर रखते हैं और चैकिंग करते हैं। अमेरिका में यह प्रयोग यदि सफल होता है तो इसी तरह की चैकिंग पद्धति विश्वभर के हवाई अड्डों पर शुरू की जाएगी। अभी तक इस तरह की जांच प्रणाली के तहत समूचे अमेरिका में 98,805 लोगों से पूछताछ की गई है। इसमें से 9,854 से लंबी पूछताछ की गई और उसमें से 813 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। इस कार्यक्रम पर 3.1मिलियन डालर का खर्चा आया है। जो लोग पकड़े गए हैं उनमें कितनों को सजा मिली, कितने आतंकी थे, इन सबके बारे में कोई जानकारी अभी उपलब्ध नहीं है। इस तरह की जांच पड़ताल की मानवाधिकार संगठनों ने तीखी आलोचना की है।
मजेदार बात यह है कि भाव-भंगिमा के आधार पर यदि किसी व्यक्ति को पकड़ा जाएगा तो इसमें ज्यादातर मामलों में गलत परिणाम आने की संभावननाएं ज्यादा हैं। खतरनाक और कानूनभंजक लोग आसानी से अपनी भाव-भंगिमा पर नियंत्रण रखकर या छिपाकर आसानी से पुलिस की आंखों में धूल झोंकने में सफल हो सकते हैं और निर्दौष व्यक्ति पुलिस की बेवकूफियों के कारण सींखचों में अंदर जा सकता है। असल में यह कार्यक्रम इस्रायल की नकल पर तैयार किया गया है। वहां पर ऐसा कार्यक्रम व्यवहार में है। यह कार्यक्रम मूलत: नस्लवादी आधारों पर ही तैयार किया गया है। इस्रायल छोटा मुल्क है लेकिन इसे अमेरिका जैसे 30 करोड़ की आबादी के मुल्क और सारी दुनिया में लागू करने के कारण भयानक असुविधाएं के पैदा होने की संभावनाएं हैं।
कैथरीन विलियम्स की एक कविता
मीडिया में संस्कार ,औरत और देवत्वभाव
दृश्य मीडिया को समग्रता में देखें तो पाएंगे कि वहां पर स्त्री संबंधित या स्त्री विषयों का साम्राज्य है। खासकर टेलीविजन,फिल्म और विज्ञापनों में औरत छायी हुई है। औरत का मीडिया के केन्द्र में आ जाना अनहोनी बात नहीं है,हमारे साहित्य में औरत लंबे समय से छायी हुई रही है। औरत का कला,साहित्य और मीडिया में केन्द्र में बने रहना स्वयं में इस तथ्य का संकेत है कि रचनाकारों की चिन्ता समाज की किसी अन्य इकाई को लेकर उतनी नहीं हैं जितनी औरत को लेकर रही हैं।
औरत क्यों सृजन के केद्र में रही है ? इसका हम अपना-अपना अर्थ लगाते रहे हैं। फिर भी औरत को सृजन में घेरकर रखना इस तथ्य का संकेत है कि औरत से कहीं न कहीं पितृसत्ता लंबे समय से खतरा या चुनौती महसूस करती रही है। पितृसत्ता समस्त विचारधाराओं की माँ है ,या यों कहें सभी विचारधाराओं का गोमुख है।
सामन्तवाद के पहले और सामन्तवाद के युग में ,पूंजीवाद के युग में या पूंजीवाद के बाद समाजवाद के युग में पितृसत्ता ने हमारे समाज का कभी पीछा नहीं छोड़ा। कला रूपों,सम्प्रेषण कलाओं और माध्यम या जनमाध्यम पितृसत्तात्मक मूल्यों के प्रचार-प्रसार के प्रभावी उपकरण रहे हैं। यह भी कह सकते हैं कि पितृसत्ता के नवीकरण का कार्य माध्यम और जनमाध्यम करते रहे हैं।
हमने अपने वैचारिक विमर्श में शोषण को निशाना बनाया,वैषम्य,असमानता,ऊँच-नीच,छोटे-बड़े के भेद,यहां तक कि लिंगभेद पर भी लिखा,वर्गीय शोषण का खुलासा किया ,किन्तु पितृसत्ता को कभी जड़ से उखाड़कर नहीं फेंका। सामाजिक व्यवस्थाएं बदलती रहीं किन्तु पितृसत्ता बरकरार रही। प्रत्येक व्यवस्था के साथ पितृसत्ता का याराना रहा है। एक वाक्य में कहें तो आज मीडिया ने पितृसत्ता और पूंजीवाद की सेवा का व्रत ले लिया है।
यह वाकया सन् 1987-88 का है जब सेण्टर फॉर ट्वन्टीथ सेंचुरी स्टैडीज ने अपना पूरा एक साल टेलीविजन और टेलीविजन स्टैडीज को समर्पित कर दिया था,इसी साल इस संस्थान ने एक काँफ्रेंस '' टेलीविजन: रिप्रिजेंटेशन / एनालिसिस रु ऑडिएंस / इण्डस्ट्रीज'' विषय पर आयोजित की। इसमें स्टीफन हीथ ने 'विश्लेषण ' के सवाल पर खोज करते हुए रेखांकित किया कि टेलीविजन उद्योग ने रिप्रिजेंटेशन का अर्थ बदल दिया है, आज वहां इसकी राजनीतिक या पाठात्मक अवधारणा बदल गयी है। आज वह पूरी तरह मार्केट इण्डेक्स पर आधारित है। यह बात हीथ ने अमेरिकी टेलीविजन के संदर्भ में कही थी। हीथ के मुताबिक टेलीविजन दर्शक को एक स्थिर ,वैयक्तिक नागरिक के रूप में निर्मित नहीं कर रहा बल्कि उसे उपभोक्ता नेटवर्क की गृहणशील क्षमता के रूप में निर्मित कर रहा है।
हीथ ने लिखा यह जरूरी है और हम इसे संस्थान के रूप में समझें ,उसकी बुनियादी सार्वभौम भूमिका के रूप में देखें,जब टेलीविजन की सार्वभौम भूमिका की बात कही जा रही है तो इसका अर्थ कोहरेंट विषय के निर्माण की भूमिका के सन्दर्भ में यह बात नहीं कही जा रही बल्कि उसके ग्रहण (रिसेप्शन)की सार्वभौम भूमिका के संदर्भ में बात कही जा रही है।
सबसे पहली बात यह है कि टेलीविजन मौजूद है,सबके लिए उपलब्ध है,यहां प्रत्येक चीज सबके लिए है। हम सब ग्रहणकर्त्ता हैं। चूंकि टेलीविजन उपलब्ध है और उसकी यही उपलब्धता अंतहीन उपभोग और वस्तुकरण को संभव बनाती है,उसके लपेटे में लेती है और यही परवर्ती पूंजीवाद या लेट कैपीटलिज्म का तर्क है।
असल में टेलीविजन दर्शक को सिर्फ टीवी देखने के काम में व्यस्त नहीं रखता बल्कि उसे उत्पादक सेवा में लगाता है। हीथ के शब्दों में टेलीविजन हमें घेरे रहता है,घेरे रखना ही उसका काम है, वह हमारा समय खाता है,वह हमें जगह घेरे रखने के काम में लगाता है,साथ ही जो जगह आप घेरे हुए हैं उसे परिभाषित करने के काम में लगाता है। ऐसा वह इसलिए नहीं करता कि टेलीविजन की इमेज में कोई खराबी है।बल्कि इसलिए करता है कि अपने क्षेत्र या मोर्चों का विस्तार किया जा सके।
उपरोक्त परिप्रेक्ष्य में यदि टेलीविजन में स्त्रियों प्रस्तुतियों को देखा जाए तो पाएंगे कि स्त्री को सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में परिभाषित किया गया है। स्त्री के विषयों और स्त्री की संवेदना को उसने 'नेचुरल' या स्वाभाविक बनाया है। लिंगभेद का किन-किन रूपों और स्थानों पर इस्तेमाल होता रहा है,इसे पेश किया है।
टेलीविजन विमर्श में औरत कहां है?उसका स्थान कहां है,? टेलीविजन और स्त्री के बीच किस तरह का अन्तस्संबंध है,यह सवाल अभी तक पूरी तरह विवेचित नहीं हो पाया है। टेलीविजन और स्त्री के अन्तस्संबंध पर ही टेलीविजन की ग्रहण क्षमता निर्भर है। इसी संबंध के आधार पर वह माहौल या वातावरण के साथ मध्यस्थता करता है।
टेलीविजन के व्यापक नेटवर्क में आज भी स्त्री चरित्रों की सीमित क्षेत्रों में भूमिका नजर आती है। सबसे ज्यादा माँ की भूमिका अथवा दूसरी ओर पिता की भूमिका नजर आएगी। इसके बाद माँ की भूमिका नजर आएगी।
टेलीविजन में माँ का मेडीएट करना,मातृत्व का आना , स्त्रीत्व की ग्रहण क्षमता को उदघाटित करना है। टेलीविजन और स्त्री के अन्तस्सबंध के गर्भ से ही कालान्तर में मासकल्चर और स्त्री का अन्तस्संबंध समृद्ध हुआ। तकनीकी संभावनाओं ने इस अन्तस्संबंध को और भी ज्यादा मजबूती प्रदान की।
टेलीविजन अपनी प्रस्तुतियों के जरिए पाठक के मन में पहले से बनी हुई स्त्री की इमेजों को बनाए रखकर स्त्री के साथ संबंध बनाता है,अपने को ग्रहण योग्य बनाता है।टेलीविजन अपने पाठ के जरिए ही दर्शक की धारणाओं को बांधे रखता है,उनका प्रबंध करता है। यह भी कह सकते हैं कि टेलीविजन का स्त्रीकरण हुआ है।
टेलीविजन ने अपने विमर्श के अंदर विमर्श की जो स्थितियां तैयार की हैं उनमें विभिन्न विमर्शों के बीच में संपर्क ,संवाद और संबंध है ,कहीं कहीं संबंध विच्छेद की स्थिति भी है। अन्तर्विरोध भी हैं। टेलीविजन अपने पाठ के तहत अपनी ऑडिएंस की धारणा को समाहित किए रहता है। आज भी हम एकमत नहीं हो पाए हैं कि आखिरकार टेलीविजन क्या करता है ? आज सिर्फ एक बात पर सभी एकमत हैं कि टेलीविजन मनोरंजन का प्रभावशाली एपरेट्स है,यह हमारे तकनीकी से जुड़े सपनों को पूरा करता है। नॉस्टेलजीकली हमारे मासकल्चर के उत्पादों और मालों की रिसाईकिलिंग करता है।उन्हें पुनर्निमित करता है।
(लेखक-जगदीश्वर चतुर्वेदी,सुधासिंह )
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