शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

मई दिवसः हे मार्केट के शहीदों का खून बेकार नहीं जायेगा - अरुण माहेश्वरी



       कार्ल मार्क्‍स और फ्रेडरिख एंगेल्स ने कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्रका प्रारंभ इन पंक्तियों से किया था समूचे यूरोप को एक भूत सता रहा है कम्युनिज्म का भूत। 1848 में लिखे गये इन शब्दों के बाद आज 154 वर्ष बीत गये हैं और सचाई यह है कि आज भी दुनिया के हर कोने में शोषक वर्ग की रातों की नींद को यदि किसी चीज ने हराम कर रखा है तो वह है मजदूर वर्ग के सचेत संगठनों के क्रांतिकारी शक्ति में बदल जाने की आशंका ने, आम लोगों में अपनी आर्थि‍क बदहाली के बारे में बढती हुई चेतना ने।
सोवियत संघ में जब सबसे पहले राजसत्ता पर मजदूर वर्ग का अधिकार हुआ उसके पहले तक सारी दुनिया में पूंजीपतियों के भोंपू कम्युनिज्म को यूटोपिया (काल्पनिक खयाल) कह कर उसका मजाक उड़ाया करते थे या उसे आतंकवाद बता कर उसके प्रति खौफ पैदा किया करते थे। 1917 की रूस की समाजवादी क्रांति के बाद पूंजीवादी शासन के तमाम पैरोकार सोवियत व्यवस्था की नुक्ताचीनी करते हुए उसके छोटे से छोटे दोष को बढ़ाचढ़ा कर पेश करने लगे और यह घोषणा करने लगे कि यह व्यवस्था चल नहीं सकती है। अब सोवियत संघ के पतने के बाद वे फिर उसी पुरानी रट पर लौट आये हैं कि कम्युनिज्म एक बेकार के यूटोपिया के अलावा और कुछ नहीं है।
कम्युनिज्म की सचाई को नकारने की ये तमाम कोशिशें मजदूर वर्ग के प्रति उनके गहरे डर और आशंका की उपज भर है। रूस, चीन, कोरिया, वियतनाम, क्यूबा और दुनिया के अनेक स्थानों पर होने वाली क्रांतियां इस बात का सबूत हैं कि पूंजीवादी शासन सदासदा के लिये सुरक्षित नहीं है। सभी जगह मजदूर वर्ग विजयी हो सकता है। यही सच शोषक वर्गों और उनके तमाम भोंपुओं को हमेशा आतंकित किये रहता है। और, मई दिवस के दिन दुनिया के कोनेकोने में मजदूरों के, पूंजीवाद की कब्र खोदने के लिये तैयार हो रही शक्ति के, विशाल प्रदर्शनों और हड़तालों से हर वर्ष इसी सच की पुरजोर घोषणा की जाती है कि पूंजीवाद चल नहीं सकता। इस दिन शासक वर्गों को उनके शासन के अवश्यंभावी अंत की याद दिलाई जाती है, उन्हें बता दिया जाता है कि उनके लिये अब बहुत अधिक दिन नहीं बचे हैं।
कैसे मई दिवस सारी दुनिया में मजदूर वर्ग के एक सबसे बड़े उत्सव के रूप में स्वीकृत हुआ? क्‍यों इसे हर देश का मजदूर वर्ग अपना उत्सव मानता है और सारी दुनिया के मजदूर इस दिन अपनी एकजुटता का परिचय देते हैं? क्यों आज भी वित्त और उद्योग के नेतृत्वकारी लोग मई दिवस के पालन से आतंकित रहते हैं? इन सारे सवालों का जवाब और कही नहीं, मई दिवस के इतिहास की पर्तों के अंदर छिपा हुआ है।
मई दिवस का जन्म आठ घंटों के दिन की लड़ाई के अंदर से हुआ था। यही लड़ाई क्रमश: सारी दुनिया के मजदूर वर्ग के जीवन का एक अभिन्न अंग बन गयी।
इस धरती पर कृषि के जन्म के साथ ही पिछले दस हजार वर्षों से मेहनतकशों का अस्तित्व रहा है। गुलाम, रैयत, कारीगर आदि नाना रूपों में ऐसी मेहनतकश जमात रही है जो अपनी मेहनत की कमाई को शोषक वर्गों के हाथ में सौंपती रही है। लेकिन आज का आधुनिक मजदूर वर्ग, जिसका शोषण वेतन की प्रणाली की ओट में छिपा रहता है, इसका उदय कुछ सौ वर्ष पहले ही हुआ था। इस मजदूर के शोषण पर एक चादर होने के बावजूद यह शोषण किसी से भी कम बर्बर नहीं रहा है। किसी तरह मात्र जिंदा रहने के लिये पुरुषों, औरतों, और बच्चों तक को निहायत बुरी परिस्थितियों में दिन के सोलहसोलह, अठारहअठारह घंटे काम करना पड़ता था। इन परिस्थितियों के अंदर से काम के दिन की सीमा तय करने की मांग का जन्म हुआ। सन् 1867 में माक्र्स ने इस बात को नोट किया कि सामान्य (निश्चित) काम के दिन का जन्म पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग के बीच लगभग बिखरे हुए लंबे गृह युद्ध का परिणाम है।

काल्पनिक समाजवादी रौबर्ट ओवेन ने 1810 में ही इंगलैंड में 10 घंटे के काम के दिन की मांग उठायी थी और इसे अपने समाजवादी फर्म न्यू लानार्कमें लागू भी किया था। इंगलैंड के बाकी मजदूरों को यह अधिकार काफी बाद में मिला। 1847 में वहां महिलाओं और बच्चों के लिये 10 घंटे के काम के दिन को माना गया। फ्रांसीसी मजदूरों को 1848 की फरवरी क्रांति के बाद ही 12 घंटे का काम का दिन हासिल हो पाया।

जिस संयुक्त राज्य अमरीका में मई दिवस का जन्म हुआ वहां 1791 में ही फिलाडेलफिया के बढ़इयों 10 घंटे के दिन की मांग पर काम रोक दिया था। 1830 के बाद तो यह एक आम मांग बन गयी। 1835 में फिलाडेलफिया के मजदूरों ने कोयला खदानों के मजदूरों के नेतृत्व में इसी मांग पर आम हड़ताल की जिसके बैनर पर लिख हुआ था – 6 से 6 दस घंटे काम और दो घंटे भोजन के लिये।
इस 10 घंटे के आंदोलन ने मजदूरों की जिंदगी पर वास्तविक प्रभाव डाला। सन् 1830 से 1860 के बीच औसत काम के दिन 12 घंटे से कम होकर 11 घंटे हो गये।
इसी काल में 8 घंटे की मांग भी उठ गयी थी। 1836 में फिलाडेलफिया में 10 घंटे की जीत हासिल करने के बाद नेशनल लेबररने यह ऐलान किया कि  दस घंटे के दिन को जारी रखने की हमारी कोई इच्छा नहीं है, क्योंकि हम यह मानते हैं कि किसी भी आदमी के लिये दिन में आठ घंटे काम करना काफी होता है। मशीन निर्माताओं और लोहारों की यूनियन के 1863 के कन्वेंशन में 8 घंटे के दिन की मांग को सबसे पहली मांग के रूप में रखा गया।
जिस समय अमरीका में यह आंदोलन चल रहा था, उसी समय वहां दास प्रथा के खिलाफ गृह युद्ध भी चल रहा था। इस गृह युद्ध में दास प्रथा का अंत हुआ और स्वतंत्र श्रम पर टिके पूंजीवाद का सूत्रपात हुआ। गृह युद्ध के बाद के काल में हजारों पूर्व दासों की आकांक्षाओं को बढ़ा दिया। इसके साथ आठ घंटे का आंदोलन भी जुड़ गया। मार्क्‍स ने लिखा:  दास प्रथा की मौत के अंदर से तत्काल एक नयी जिंदगी पैदा हुई। गृह युद्ध का पहला वास्तविक फल आठ घंटे के आंदोलन के रूप में मिला। यह आंदोलन वामन के डगों की गति से अटलांटिक से लेकर पेसिफिक तक, नये इंगलैंड से लेकर कैलिफोर्निया तक फैल गया।
प्रमाण के तौर पर माक्र्स ने 1866 में बाल्टीमोर में हुई जैनरल कांग्रेस आफ लेबर की घोषणा से यह उद्धरण भी दिया था कि  इस देश को पूंजीवादी गुलामी से मुक्त करने के लिये आज की पहली और सबसे बड़ी जरूरत ऐसा कानून पारित करवाने की है जिससे अमरीकी संघ के सभी राज्यों में सामान्य कार्य दिवस आठ घंटों का हो जाये।
इसके छ: वर्षों बाद, 1872 में न्यूयार्क शहर में एक लाख मजदूरों ने हड़ताल की और निर्माण मजदूरों के लिये आठ घंटे के दिन की मांग को मनवा लिया। आठ घंटे के दिन को लेकर इसी प्रकार के जोरदार आंदोलन के गर्भ से मई दिवस का जन्म हुआ था। आठ घंटे के लिये संघर्ष को 1 मई के साथ 1884 में अमरीका और कनाडा के फेडरेशन आफ आरगेनाइज्ड ट्रेड्स एंड लेबर यूनियन (एफओटीएलयू) के एक कंवेशन में जोड़ा गया था। इसमें एक प्रस्ताव पारित किया गया था कि  यह संकल्प लिया जाता है कि 1 मई 1886 के बाद कानूनन श्रम का एक दिन आठ घंटों का होगा और इस जिले के सभी श्रम संगठनों से यह सिफारिश की जाती है कि वे इस उल्लेखित समय तक इस प्रस्ताव के अनुसार अपने कानून बनवा लें।
एफओटीएलयू के इस आान के बावजूद सचाई यह थी कि यह यूनियन अपने आप में इतनी बड़ी नहीं थी कि उसकी पुकार पर कोई राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू हो सके। इस काम को पूरा करने का बीड़ा उठाया स्थानीय स्तर की कमेटियों ने। तय हुआ कि देश भर में 1 मई को दिन व्यापक प्रदर्शन और हड़तालें की जायेगी। शासक वर्गों में इससे भारी आतंक फैल गया। अखबारों के जरिये यह व्यापक प्रचार किया गया कि इस आंदोलन में कम्युनिस्ट घुसपैठियें आ गये हैं। लेकिन कई मालिकों ने पहले से ही इस मांग को मानना शुरू कर दिया और अप्रैल 1886 तक लगभग 30 हजार मजदूरों को 8 घंटे काम का अधिकार मिल चुका था।
मालिकों की ओर से 1 मई के प्रदर्शनों में भारी हिंसा का आतंक पैदा किये जाने के बावजूद दुनिया के पहले मई दिवस पर जबर्दस्त प्रदर्शन हुए। सबसे बड़ा प्रदर्शन अमरीका के शिकागो शहर में हुआ जिसमें 90,000 लोगों ने हिस्सा लिया। इनमें से 40,000 ऐसे थे, जिन्होंने इस दिन हड़ताल का पालन किया था। न्यूयार्क में 10,000, डेट्रोयट में 11000 मजदूरों ने हिस्सा लिया। लुईसविले, बाल्टीमोर आदि अन्य स्थानों पर भी जोरदार प्रदर्शन हुए। लेकिन इतिहास में मई दिवस के स्थान को सुनिश्चित करने वाला प्रदर्शन शिकागो का ही था।
शिकागो में 8 घंटे की मांग पर पहले से ही एक शक्तिशाली आंदोलन के अस्तित्व के अलावा आईडब्लूपीए नामक संस्था की मजबूत उपस्थिति थी जो यह मानती थी कि यूनियनें किसी भी वर्गविहीन समाज के भ्रूण के समान होती हैं। इसके नेता अल्बर्त पार्सन्स और अगस्त स्पाइस की तरह के प्रभावशाल व्यक्तित्व थे। यह संस्था तीन भाषाओं में पांच अखबार निकालती थी और इसके सदस्यों की संख्या हजारों में थी। यहां 1 मई के प्रदर्शन के बाद भी हड़तालों का सिलसिला जारी रहा और 3 मई तक हड़ताली मजदूरों की संख्या 65,000 तक पंहुच गयी। इससे खौफ खाये उद्योग के प्रतिनिधियों ने मजदूरों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करने का फैसला किया। 3 मई की दोपहर से ही जंग शुरू हो गयी। स्पाईस आरा मिल के मजदूरों को संबोधित कर रहे थे और मालिकों के साथ आठ घंटे के लिये समझौते की तैयारियां करने में लगे हुए थे। उसी समय कुछ सौ मजदूर लगभग चौथाई मील दूर स्थित मैक्कौर्मिक हार्वेस्टर वर्क्‍स की ओर चल दिये जहां इस आरा मिल से निकाले गये मजदूर मौजूद थे। मिल कुछ गद्दार मजदूरों के जरिये चलायी जा रही थी।
पंद्रह मिनट के अंदर ही वहां पुलिस के सैकड़ों सिपाही पंहुच गये। गोलियों की आवाज सुन कर इधर सभा में उपस्थित स्पाईस और बाकी आरा मजदूर मैक्कौर्मिक की ओर बढ़े। पुलिस ने उन पर भी गोलियां चलायी और घटनास्थल पर ही चार मजदूरों की मौत हो गयी।
इसके ठीक बाद ही स्पाईस ने अंग्रेजी और जर्मन भाषा में दो पर्चे जारी किये। एक का शीर्षक था प्रतिशोध! मजदूरो, हथियार उठाओ। इस पर्चे में पुलिस के हमलों के लिये सीधे मालिकों को जिम्मेदार ठहराया गया था। दूसरे पर्चे में पुलिस के हमले के प्रतिवाद में हे मार्केट स्क्वायर पर एक जनसभा का आह्वान किया गया था।
चार मई को सभा के दिन पुलिस ने मजदूरों का दमन शुरू कर दिया, इसके बावजूद शाम की सभा के समय हे मार्केट स्क्वायर पर 3000 लोग इके हुए। शहर के मेयर भी आये थे, यह सुनिश्चित करने के लिये कि सभा शांतिपूर्ण रहे। सभा को सबसे पहले स्पाईस ने संबोधित किया। उन्होंने 3 मई के हमले की भत्र्सना की। इसके बाद पार्सन्स बोले और आठ घंटे की लड़ाई के महत्व पर प्रकाश डाला। जब ये दोनों नेता बोल कर चले गये तब बचे हुए लोगों को सैमुएल फील्डेन ने संबोधित करना शुरू किया। फील्डेन के शुरू करने के कुछ मिनट बाद ही मेयर भी चले गये।
मेयर के जाते ही लगभग 180 पुलिस वालों ने वक्ताओं को घेर लिया और सभा को भंग करने की मांग करने लगे। फील्डेन ने कहा कि यह सभा पूरी तरह से शांतिपूर्ण है, इसे क्यों भंग किया जाये। इसी समय भीड़ में से पुलिस वालों पर एक बम गिरा। इससे 66 पुलिसकर्मी घायल होगये जिनमें से सात बाद में मारे गये। इसके साथ ही पुलिस ने भीड़ पर अंधाधंुध गोलियां चलानी शुरू कर दी, जिसमे कई लोग मारे गये और 200 से ज्यादा जख्मी हुए।
इसके साथ ही अखबारों और मालिकों ने मजदूरों के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया, व्यापक धरपकड़ शुरू हो गयी। मजदूर नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया । स्पाईस, फील्डेन, माइकल स्वाब, अडोल्फ फिशर, जार्ज एंजेल, लुईस लिंग, और आस्कर नीबे पकड़ लिये गये। पार्सन्स को पुलिस गिरफ्तार नहीं कर पायी, वे खुद ही मुकदमे के दिन अदालत में हाजिर हो गये।
इन सब के खिलाफ अदालत में जिस प्रकार मुकदमा चलाया गया वह एक कोरे प्रहसन के अलावा और कुछ नहीं था। अभियुक्तों के खिलाफ किसी प्रकार के प्रमाण पेश नहीं किये गये। सरकार की ओर से सिफ‍र् यही कहा गया कि  आज कानून दाव पर है। अराजकता पर राय सुनानी है। न्यायमूर्तियों ने इन लोगों को चुना है और इन्हें अभियुक्त बनाया गया है क्योंकि ये नेता हैं। ये अपने हजारों समर्थकों से कहीं ज्यादा दोषी हैं। ... इन लोगों को दंडित करके एक उदाहरण पेश किया जाए, हमारी संस्थाओं, हमारे समाज को बचाने के लिये इन्हें फांसी दी जायें।
नीबे को छोड़ कर सबको फांसी की सजा सुनायी गयी। फील्डेन और स्वाब ने माफीनामा दिया तो उनकी सजा कम करके उन्हें उम्र कैद दी गयी। 21 वर्षीय लिंग फांसी देने वाले के मूंह में डाइनामाइट का विस्फोट करके उसे चकमा देकर भाग गया। बाकी को 11 नवंबर 1887 के दिन फांसी दे दी गयी।
मजे की बात यह है कि इसके छ: साल बाद इलिनोइस के गवर्नर जान ऐटजेल्ड ने नीबे,फील्डेन और स्वाब को दोषमुक्त कर दिया तथा जिन पांच लोगों को फांसी दी गयी थी, उन्हें मृत्युपरांत माफ कर दिया गया, क्योंकि मामले की जांच करने पर पाया गया कि उनके खिलाफ सबूतों में कोई दम नहीं था और वह मुकदमा एक दिखावा भर था।
गौर करने लायक बात यह भी है कि हे मार्केट की उस घटना के ठीक बाद सारी दुनिया में मजदूरों के खिलाफ व्यापक दमन का दौर शुरू हो गया था। जिन मजदूरों ने अमरीका में आठ घंटे काम का अधिकार हासिल कर लिया था, उनसे भी यह अधिकार छीन लिया गया। इंगलैंड, हालैंड, रूस, इटली, फ्रांस, स्पेन सब जगह मजदूरों की सभाओं पर पाबंदियां लगा दी गयी। लेकिन हे मार्केट की इस घटना ने अमरीका में चल रही आठ घंटे की लड़ाई को सारी दुनिया के मजदूर आंदोलन के केंद्र में स्थापित कर दिया। इसीलिये 1888 में जब अमेरिकन फेडरेशन आफ लेबर(एएफएल) ने यह ऐलान किया कि 1 मई 1990 का दिन आठ घंटे काम की मांग पर हड़तालों और प्रदर्शनों के जरिये मनाया जायेगा तो इस आान की तरफ सारी दुनिया का ध्यान गया था।
1889 में पैरिस में फ्रांसीसी क्रांति की शताब्दी पर मार्क्‍सि‍स्‍ट  इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस की सभा में जिसमें 400 प्रतिनिधि उपस्थित थे, वहां एएफएल की ओर से एक प्रतिनिधि एक मई के आंदोलन के कार्यक्रम का आहवान करने पंहुचा था। कांग्रेस में सारी दुनिया में इस दिन विशाल प्रदर्शन करने का प्रस्ताव पारित किया गया। दुनिया के कोनेकोने में 1 मई 1990 के दिन मजदूरों के शानदार प्रदर्शन हुए और यहीं से आठ घंटे की लड़ाई ने एक अन्तर‍रष्ट्रीय संघर्ष का रूप ले लिया।
फ्रेडरिख ऐंगेल्स इस दिन लंदन के हाईड पार्क में मजदूरों की 5 लाख की सभा में शामिल हुए थे। इसके बारे में 3 मई को उन्होंने लिखा: जब मैं इन पंक्तियों को लिख रहा हूं, यूरोप और अमरीका के मजदूर अपनी ताकत का जायजा ले रहे हैं; वे पहली बार एक फौज की तरह, एक झंडे के तले, एक फौरी लक्ष्य के लिये लड़ाई के खातिर, आठ घंटों के काम के दिन के लिये इके हुए हैं।
इसके बाद धीरेधीरे हर साल मई दिवस के आयोजन में दुनिया के एकएक देश के मजदूर शामिल होने लगे। 1891 में रूस, ब्राजील, और आयरलैंड के मजदूरों ने भी मई दिवस मनाया। 1920 में पहली बार रूस की समाजवादी क्रांति के बाद चीन के मजदूरों ने मई दिवस मनाया। भारत में 1927 में कलकत्ता, मद्रास और बंबई में व्यापक प्रदर्शनों के जरिये पहली बार मई दिवस का पालन किया गया। और, इस प्रकार मई दिवस सच्चे अर्थों में मजदूरों का एक अन्तर‍रष्ट्रीय दिवस बन गया।
हे मार्केट के शहीदों के स्मारक पर अगस्त स्पाईस के ये शब्द खुदे हुए हैं कि  वह दिन आयेगा जब हमारी खामोशी आज हमारी दबा दी गयी आवाज से कहीं ज्यादा शक्तिशाली होगी।
सारी दुनिया में आज जिस पैमाने पर मई दिवस का पालन होता है और इस अवसर पर लाल झंडा उठाये मजदूर दुनिया की परिस्थितियों का ठोस जायजा लेते हुए जिस प्रकार अपने आगे के आंदोलन की रूपरेखा तैयार करते हैं, इससे स्पाईस के शब्द आज बिल्कुल सच में बदलते हुए जान पड़ते हैं। आज भी यह सच है कि साम्राज्यवादियों और पूंजीपतियों की रूह मई दिवस के नाम से कांपती है। मई दिवस आज भी मजदूर वर्ग को उसकी निश्चित विजय की प्रेरणा देता है और शासक वर्गों की निश्चित हार का ऐलान करता है।   

इस्राइली यहूदी फंडामेंटलिज्म के सामने असहाय दुनिया

     फिलीस्तीन इलाकों में जहां इस्राइली सेनाओं ने अवैध कब्जा जमा लिया है वहां पर फिलीस्तीनी नागरिकों को बेदखल किया जा रहा है और अवैध बस्तियों का निर्माण किया जा रहा है। इस्राइल अधिकृत फिलीस्तीनी इलाकों में बर्बरता का कानून चल रहा है। स्थिति इतनी भयाभय है कि जो स्वयंसेवी संस्थाएं फिलीस्तीनियों के लिए मानवीय सहायता का काम कर रही हैं, उन्हें अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की अवहेलना करके प्रवेश परमिट नहीं दिया जा रहा है। इस्राइली प्रशासन काम करने नहीं दे रहा है।
     अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्थाओं को 16 दिसम्बर 2009 को अचानक ईमेल के जरिए इस्राइली प्रशासन ने सूचित किया कि स्वयंसेवी संस्थाओं को इस्राइल अधिकृत फिलीस्तीन इलाकों में काम करने का परमिट नहीं दिया जाएगा।
    पहली बात यह कि फिलीस्तीन इलाकों में परमिट देने का अधिकार फिलीस्तीन प्रशासन को है, यदि इस्राइल ऐसा करता है तो वह फिलीस्तीन प्रशासन को कागजी संगठन मात्र बना रहा है और यह फिलीस्तीन जनता का अपमान है।
    उल्लेखनीय है फिलीस्तीन प्रशासन में इन दिनों जो लोग बैठे हैं वे जनता के द्वारा चुने गए लोग हैं। फिलीस्तीन में आम चुनाव जितने पारदर्शी और लोकतांत्रिक ढ़ंग से होते हैं वैसे चुनाव इस्राइल में भी नहीं होते। फिलीस्तीन की संसद में ईमानदार और जनसेवा के लिए कुर्बानी देने वाले लोग ही संसद के लिए चुने जाते हैं।
    इसके विपरीत इस्राइल में समूचा राजनीतिक नेतृत्व भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ है। मध्य-पूर्व के सबसे ज्यादा भ्रष्ट और बर्बर फंड़ामेंटलिस्ट इस्राइल में सत्ता पर कब्जा जमाए बैठे हैं। इनमें यहूदी फंडामेंटलिस्टों का वर्चस्व है।
      फिलीस्तीन की सामयिक सच्चाई यह है कि अभी तक इस्राइल ने फिलीस्तीन की जमीन से अपने अवैध कब्जे नहीं हटाए है। अवैध रूप से बसायी गयी पुनर्वास बस्तियों को नहीं हटाया गया है । कुछ बस्तियों को कुछ समय पहले प्रतीकात्मक तौर पर खाली कराया गया था किंतु असल में सभी अवैध पुनर्वास बस्तियां ज्यों की त्यों बसी हुई हैं। संकेत मिल रहे हैं कि वेस्ट बैंक में बसायी गयी अवैध 149 बस्तियों को इजरायल नहीं हटाएगा। इसका अर्थ है कि फिलीस्तीनियों को स्थायी तौर पर विभाजन और घृणा में जीना पड़ेगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवीय कार्यकलाप संयोजन दफतर के मुताबिक अभी वेस्ट बैंक में इस समय 651 निगरानी चौकियां हैं। इन निगरानी चौकियों के जरिए फिलीस्तीनियों की चैकिंग होती है।  जबकि अवैध बस्तियों के इलाकों में मात्र आठ निगरानी चौकियां हैं।
     निगरानी चौकियों के बहाने फिलीस्तीनियों को दैनन्दिन जीवन में अकथनीय तकलीफों का सामना करना पड़ता है।  उनकी रोजमर्रा की जिंदगी से लेकर समूची अर्थव्यवस्था पूरी तरह तबाह हो गयी है। आश्चर्य की बात है  जो फिलीस्तीनी नागरिक अपने वतन आना चाहते हैं उन्हें इस्राइल आने नहीं देता और इसके बदले में फिलीस्तीनियों की जमीन पर अवैध ढ़ंग से यहूदियों को बाहर से लाकर बसाया जा रहा है। ऐसा करके स्थायी तौर पर वह फिलीस्तीन को पूरी तरह नष्ट करके उसका अंत ही कर देने पर आमादा है। 
फिलीस्तीनियों पर एक तरफ हमले हो रहे हैं दूसरी ओर उन्हें बेदखल करके उनकी जमीन हथियाकर अवैध ढंग से यहूदी बस्तियां बसायी जा रही हैं। अवैध यहूदी बस्तियां सिर्फ बस्तियां ही नहीं हैं बल्कि इन्हें फिलीस्तीनी बस्तियों से अलग काटकर बसाया जा रहा है। उनकी बस्तियों से अलग इन्हें दीवार बनाकर किले की तरह बसाया जा रहा है। यह एक तरह का स्थायी विभाजन है जिसे फिलीस्तीन की सरजमीं पर थोपा जा रहा है।
     कोई सभ्यता मानवीय है या नहीं यह इस तथ्य से तय होता है कि वह हमलावर है या नहीं। भारतीय सभ्यता का दर्जा इसी अर्थ में पश्चिमी सभ्यता से काफी ऊँचा है। भारतीय सभ्यता हमलावर नहीं है। इसमें मित्रता का भाव है,इसके विपरीत पश्चिमी पूंजीवादी सभ्यता हमलावर सभ्यता है। वह युध्द के बिना जिंदा नहीं रह सकती,बर्बर आक्रमण उसकी दैनन्दिन खुराक है।

बड़े पूंजीवादी राष्ट्र अन्य कमजोर देशों पर बर्बर हमले न करें तो पश्चिमी सभ्यता की सांसें बंद हो जाएं ,कारखाने बंद हो जाएं। पश्चिमी सभ्यता के भक्तों को इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि पश्चिम इतना बर्बर, निष्ठुर, निरंकुश ,असहिष्णु, और आक्रामक क्यों है ?

इस्राइल की बर्बरता और युध्दवादी मानसिकता के पीछे आज समूचा पश्चिमी सत्ता तंत्र खड़ा है। इस्राइल को पश्चिमी समाज आधुनिकता का आदर्श मॉडल बताकर पेश करता रहा है,जबकि  इस्राइल सबसे ज्यादा बर्बर और हिंसक देश है। इस्राइली आक्रामकता,हिंसाचार,यहूदीवादी विस्तारवाद की चैनलों से गाथाएं गायब हैं। मरने वालों के बारे में कोई विस्तृत रिपोर्ट नहीं आ रही है। यहां तक कि संयुक्तराष्ट्र संघ भी इस्राइल के सामने असहाय है।

मुसलमानों का प्रतिदिन किसी न किसी बहाने कत्ल या जनसंहार दिखाना आम रिवाज बन गया है, इससे मुसलमानों के बारे में खास किस्म की इमेज बन रही है। मुसलमानों को बर्बर, आतंकवादी,हिंसक आदि रूपों में पेश किया जा रहा है। इसके कारण मुसलमानों के प्रति सही और संतुलित ढ़ंग से आम जीवन में बातें करना भी मुश्किल हो गया है।

 मिथकशास्त्री एस.कीन ने मध्यपूर्व युध्द में निर्मित किए गए मिथों का खुलासा करते हुए लिखा है,''हथियारों से हत्या करने से पहले सबसे पहले हम मन में लोगों की हत्या करें।चाहे जिस तरह का युध्द हो।शत्रु हमेशा संहारक होता है और हम अच्छे लोगों की तरफ होते हैं।वे बर्बर होते हैं।हम सभ्य होते हैं।वे शैतान होते हैं।टेलीविजन से निरंतर आग के गोले दर्शक को एक ऐसे स्वप्नलोक में ले जाते हैं जहां उसके दिमाग में किसी भी किस्म के विचार नहीं आते। अब शत्रु को नम्बरों में बदल दिया गया था। "
समाचार चैनलों में मारे गए इस्राइली नागरिकों ,बच्चों के माता-पिता के बयान,फोटो, दुखी चेहरे दिखाई दे जाएंगे ,किन्तु किसी मुसलमान बच्चे के माता-पिता के दुखी चेहरे नजर नहीं आएंगे। गाजा में तो लंबे समय से सिर्फ बच्चों का ही इस्राइल द्वारा कत्ल किया जा रहा है किन्तु किसी भी चैनल ने पीडित माता-पिता के दृश्य नहीं दिखाए, गोया ! मुसलमान बच्चों के माता-पिता नहीं होते !
      चैनलों में लेबनान,सीरिया,इण्डोनेशिया, इरान, इराक, सोमालिया, सऊदी अरब, लीबिया, सूडान,अफगानिस्तान,पाकिस्तान आदि के मुसलमानों की कत्लेआम की खबरें आम हो गई हैं। आतंकवाद विरोधी मुहिम के तहत इन देशों के मुस्लिम बाशिंदों को खदेड़ा जा रहा है, हमले ए जा रहे हैं,बदनाम किया जा रहा है,सवाल किया जाना चाहिए कि यदि इन सभी देशों से मुसलमानों को निकाल देगें तो आखिरकार मुसलमान जाएंगे कहां ? क्या सारी दुनिया में मुसलमान सिर्फ शरणार्थी शिविरों में ही रहेंगे ? अथवा मुसलमानों को उनके देश में ही कैद करके रखा जाएगा ?जिससे उन्हें कभी भी कुत्तों की तरह गोलियों से भून दिया जाए,जैसा कि अभी मध्य-पूर्व के देशों में हो रहा है। पश्चिमी सभ्यता के रखवाले अमेरिका-इस्राइल ने मुसलमानों के सामने जनतांत्रिक प्रतिवाद का कोई अवसर ही नहीं छोड़ा है। मुसलमान को प्रतिवाद करना हो तो आतंकवादी बने अथवा अमेरिका के चरणों में पड़ा रहे।

मध्यपूर्व  अमेरिका की जो दादागिरी चल रही है उसका गहरा संबंध अमेरिका के सैन्य उद्योग समूह के साथ है।अमेरिका की विदेश नीति का यह उद्योग समूह मूलाधार है। अमेरिका की समूची अर्थव्यवस्था इस समय सैन्य उद्योग,संस्कृति उद्योग और सूचना उद्योग पर टिकी हुई है। ये तीनों उद्योग समूह एक-दूसरे पर निर्भर हैं।एक के बिना दूसरे का विकास संभव नहीं है। हथियार उत्पादन अमेरिकी नीतियों में सबसे प्रमुख क्षेत्र है।हथियार उत्पादन क्षेत्र यदि प्रमुख क्षेत्र होगा तो उसका दूसरा कदम हथियारों का निर्यात करना होगा।अमेरिकी कंपनियों को इसके लिए ग्लोबल रणनीति बनानी होती है।इसका अर्थ यह है कि युध्द का निरंतर बने रहना। युध्द नहीं होंगे तो हथियार नहीं बिकेंगे। हथियार नहीं बिकेंगे तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था चौपट हो जाएगी।इसका अर्थ यह हुआ कि निररंतर युध्द का बने रहना।

मजेदार बात यह है कि हमारे शांति आंदोलन की मांगों में युध्द बंद करने या अमेरिका की युध्दवादी नीतियों को नंगा करने वाली मांगें तो रहती हैं किंतु सैन्य उद्योग को शांति और विकास के कार्यों में रूपान्तरित करने की मांग शामिल नहीं रहती।यह स्थिति अमेरिका के शांति आंदोलन की भी है।

कायदे से शांति आन्दोलन को युध्द के साथ -साथ सैन्य उद्योग के शांति एवं विकास कार्यों में रूपान्तरण की मांगों को भी अपना एजेण्डा बनाना चाहिए। शांति आंदोलन की मुश्किल यह है कि युध्द के खत्म होते ही वे शांत हो जाते हैं। जबकि सैन्य उद्योग काम करता रहता है।

युध्द को खत्म करने के लिए जरूरी है कि हथियारों के उत्पादन पर रोक लगायी जाए।हम यह चेतना अभी तक पैदा नहीं कर पाए हैं कि जनसंहारक अस्त्रों के निर्माण कार्य में हमारे वैज्ञानिक,रक्षा विशेषज्ञ आदि भाग न लें। हथियारों को बनाने वाले हाथ नहीं होगे तो हथियार भी नहीं बनेंगे। जनसंहारक अस्त्रों के निर्माण की प्रक्रिया से लेकर युध्द के मैदान और युध्द के बाद की स्थितियों तक शांति आंदोलन का दायरा फैला हुआ है।

हमें इस लचर  तर्क से बचना चाहिए वैज्ञानिक अस्त्र नहीं बनाएंगे तो खाएंगे क्या ?सैन्य उद्योग समूह पर जो परिवार निर्भर हैं वे क्या खाएंगे ? अमेरिकी कंपनियां इस्राइल को नए अस्त्र-शस्त्र सप्लाई कर रही हैं। अमेरिकी सैन्य उद्योग में काम करने वाले ओवरटाइम काम कर रहे हैं। वे इस्राइल के आर्डर की सप्लाई लाइन चालू रखे हुए हैं।

सैन्य उद्योग में काम करने वाले कर्मचारी इस बात पर गर्वित हैं कि वे ज्यादा से ज्यादा उत्पादन कर रहे हैं। क्या हमारे मजदूर आंदोलन को सैन्य उद्योग में काम करने वाले कर्मचारियों के साथ शांति आंदोलन को जोड़ने के बारे में नहीं सोचना चाहिए ? हमें इस सवाल का भी जबाव खोजना होगा कि आखिरकार अमेरिका के शांति आंदोलन ने सैन्य कर्मचारियों को अपने प्रभाव में अभी तक क्यों नहीं लिया है ?

आज हथियारों की दौड़ धरती तक ही सीमित नहीं है बल्कि उसने पूरे अंतरिक्ष को भी अपनी जद में ले लिया है।पेंटागन का अब तक का सबसे बड़ा प्रकल्प है प्लेनेट अर्थ ।इसका लक्ष्य है अंतरिक्ष को हथियारों से भर देना। यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि आज अमेरिका अपने देश में शांति के काम में आने वाली कितनी चीजें पैदा कर रहा है ? बाजार में जाने पर बमुश्किल कोई ऐसी चीजें नजर आएं।हथियारों का निर्माण करके अमेरिका बड़े पैमाने जहां युध्द को बनाए रखना चाहता है,वहीं दूसरी ओर अमेरिका युध्द के बहाने गैस और तेल के भंडारों को अपने कब्जे में लेना चाहता है।यह सिलसिला जारी है।

              


          


गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

ओबामा का वायदा दो साल में फिलीस्तीन राष्ट्र

(फिलीस्तीन राष्ट्रपति महमूद अब्बास और अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा 
      अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने फिलीस्तीन के राष्ट्रपति  महमूद अब्बास से वायदा किया है कि दो साल में संप्रभु सार्वभौम फिलीस्तीन राष्ट्र का निर्माण कर दिया जाएगा। यह खबर मिस्र के सरकारी सूत्रों के हवाले से अरबी भाषा के अखबार अल हयात में छपी है।
      उल्लेखनीय है ओबामा प्रशासन का इस्राइल पर राजनीतिक दबाब अभी काम नहीं कर रहा है। क्योंकि अमेरिका की यहूदी लॉबी और शस्त्र उद्योग के मालिक इस्राइल के विस्तारवादी-सैन्यवादी बर्बर इरादों का खुला समर्थन कर रही है। इस लॉबी पर ओबामा निर्भर हैं। 
   आज अमेरिकी प्रशासन की किसी भी सलाह को इस्राइली शासक सुन नहीं रहे हैं। हाल ही में ओबामा के मध्य-पूर्व में विशेष राजदूत जार्ज मिशेल ने इस्राइल को फिलीस्तीन के इलाकों से इस्राइली सेनाओं को तुरंत हटाने के लिए कहा था जिसे इस्राइली प्रशासन ने तुरंत खारिज कर दिया। अमेरिकी दूत ने वैस्टबैंक के उन इलाकों से इस्राइली सेना हटाने के लिए कहा था जहां पर सन् 2000 के सैकिण्ड इंतिफादा के समय उसने अवैध कब्जा जमाया हुआ है। इसके बदले में इस्राइल ने कुछ नाका चौकियां हटाने और इस्राइली जेलों में बंद कुछ कैदियों को छोड़ने का प्रस्ताव किया था।
     उल्लेखनीय है कि विगत सप्ताह फतह पार्टी के सम्मेलन में फिलीस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने अमेरिकी राष्ट्रपति से यह अपील की थी कि फिलीस्तीन राष्ट्र के निर्माण के लिए मध्य-पूर्व पर समाधान थोपा जाए। श्री अब्बास ने फिलीस्तीन क्षेत्र के अंदर अस्थायी सीमारेखा बनाकर फिलीस्तीन राष्ट्र बनाने  के इस्राइली प्रस्ताव को एकसिरे से ठुकरा दिया है।                      







फिलीस्तीन की आर्थिक तबाही पर चुप क्यों हैं भारतीय बुद्धिजीवी


(फिलीस्तीनी फूलों की दुकान)
          एक जमाना था हिन्दी में साहित्यकारों और युवा राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं में युद्ध विरोधी भावनाएं चरमोत्कर्ष पर हुआ करती थीं, हिन्दीभाषी क्षेत्र के विभिन्न इलाकों में युध्द विरोधी गोष्ठियां,प्रदर्शन, काव्य पाठ आदि के आयोजन हुआ करते थे,किंतु अब यह सब परीकथा की तरह लगता है।
      हिन्दी के बुद्धिजीवियों में अंतर्राष्ट्रीय मानवीय सरोकारों को लेकर बेगानापन बढ़ा है। हिन्दी के बुध्दिजीवी खासकर प्रगतिशील बुद्धिजीवी स्थानीय सरोकारों और मुद्दों पर इस कदर व्यस्त हैं कि उन्हें स्थानीयता के अलावा अन्य कुछ भी नजर ही नहीं आता। यह हिन्दी के बुद्धिजीवी की बदली हुई मनोदशा का संकेत है।
       अब प्रगतिशील जितना साम्प्रदायिकता पर हल्ला करते हैं, अमेरिका-इस्राइल के मध्यपूर्व में चलाए जा रहे जनसंहार अभियान पर उतना हल्ला नहीं मचाते। यह अचानक नहीं है कि मध्यपूर्व में चल रहा जनसंहार हिन्दी के बुद्धिजीवियों के चिन्तन के केन्द्र से अचानक गायब हो गया है।
        भूमंडलीकरण के वैचारिक हथौड़े ने बुद्धिजीवियों को व्यापक जनहित के सरोकारों की बजाय स्थानीय सरोकारों में उलझा दिया है। जबकि सच यह है कि बुद्धिजीवी वही कहलाता है जो अपने समय के सबसे बड़े सरोकारों को व्यक्त करता है। फिलीस्तीन में हाल ही में जिस तरह का बर्बर ताण्डव चल रहा है। वह हम सबके लिए शर्म की बात है। हमें प्रत्येक स्तर पर अमेरिकी-इस्राइली बर्बरता के खिलाफ एकजुट होकर आवाज बुलंद करनी चाहिए। हमें सोचना होगा कि इराक में जब तक अमेरिका एवं उसके सहयोगियों की सेनाएं कब्जा जमाए हुए हैं,इराकी जनता पर मानव सभ्यता के सबसे बर्बर अत्याचार हो रहे हैं,फिलीस्तीन जब तक अपनी धरती से वंचित है।ऐसी अवस्था में दुनिया में किसी भी किस्म की शांति की कल्पना करना बेमानी है।
          मध्यपूर्व में अमेरिका-इस्राइल की सैन्य कार्रवाई ने हमारे घरों के चूल्हे,कल-कारखाने,मोटर, गाडियां, परिवहन, माल ढुलाई,विकास आदि के प्रकल्पों को मंहगा बना दिया है। मध्यपूर्व में अमेरिका-इस्राइल जितना आक्रामक होंगे हमारा घरेलू बजट उतना ही गडबड़ाएगा। यह संभव ही नहीं है कि युध्द मध्यपूर्व में हो और हम उसके प्रभाव से बच जाएं। भूमंडलीकरण के दौर में कोई भी घटना स्थानीय नहीं होती,युद्ध भी स्थानीय नहीं होते।इस दौर में जो लोकल है वह ग्लोबल होता है और जो ग्लोबल है वह लोकल है। सैन्य दृष्टि से युद्ध स्थानीय होता है,किंतु राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव की दृष्टि से युद्ध हमेशा ग्लोबल होता है।
      फिलीस्तीनी जनता के खिलाफ किए जा रहे हमलों की जड़ में दो प्रधान लक्ष्य हैं , पहला है ,फिलीस्तीनी अर्थव्यवस्था को तबाह करना और दूसरा फिलीस्तीन जाति को पूरी तरह नष्ट करना। फिलीस्तीन की आर्थिक नाकेबंदी का अर्थव्यवस्था पर सीधा बुरा असर हो रहा है। इस्राइली समर्थन में काम करने वाला बहुराष्ट्रीय मीडिया ,फिलीस्तीन की तबाही के लिए फिलीस्तीन की मुक्ति के संघर्ष में सक्रिय संगठनों की तथाकथित हमलावर कार्रवाईयों के लिए जिम्मेदार ठहराता रहा है। साथ ही इस्राइली हमलों का लक्ष्य आतंकी निशानों को बताता रहा है। वास्तविकता यह है कि इस्राइली सैनिकों के द्वारा आम जनता,रिहायशी बस्तियों ,और अर्थव्यवस्था पर हमले होते रहे हैं।
      हाल ही में अदालत में इस्राइल के वकील ने यह माना कि आतंकियों पर हमले के दौरान जनता की संपत्ति पर भी हमले हुए हैं। अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करते हुए बिजली काट दी गयी, पानी की सप्लाई बंद कर दी गयी। गैस लाइन बंद कर दी गयी। इस्राइल के इस तरह के कदम फिलीस्तीन जनता के खिलाफ की गयी सामूहिक दंडात्मक कार्रवाई हैं। बिजली ,पानी की सप्लाई काटना अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का खुला उल्लंघन है।
      फिलीस्तीनी बस्तियों की वास्तविकता यह है कि उनमें इस्राइल ने जगह -जगह बेरीकेट लगा दिए हैं। प्रत्येक बेरीकेट पर इस्राइली सैनिकों की चौकियां हैं , इनसे माल और लोगों का आना -जाना बेहद कठिन है। फिलीस्तीनी नागरिकों पर चौतरफा हमले हो रहे हैं। कभी इस्राइली सैनिक हमले कर देते हैं तो कभी फिलीस्तीनी इलाकों में रहने वाले अवैध इस्राइली हमले कर देते हैं। इस प्रक्रिया में फिलीस्तीन के सकल घरेलू उत्पाद में सन् 1999-2007 के बीच 40 फीसदी तक की गिरावट दर्ज की गयी। उद्योग के क्षेत्र में निवेश बंद हो गया है। फिलीस्तीनियों की 37 फीसदी जमीन पर अवैध बस्तियां बसा दी गयी हैं। अकेले वैस्ट बैंक में 100 से ज्यादा अवैध बस्तियां बसायी गयी हैं।
      वैस्ट बैंक और पूर्वी यरुसलम में इस्राइली पाबंदियों और अवैध बस्तियों के बसाने के कारण अवैध इस्राइलियों की तादाद में सालाना 3.44 प्रतिशत की दर से इजाफा हुआ है। अकेले इस इलाके में 461,000 अवैध इस्राइलियों की संख्या बढ़ी है। वेस्ट बैंक के 227 इलाके हैं जो ओसलो समझौते के अनुसार फिलीस्तीन प्रशासन के तहत आते हैं। इन इलाकों का संपूर्ण दायित्व फिलीस्तीनी प्रशासन का है।
      ओसलो समझौते के अनुसार वेस्टबैंक के ए.बी.और सी तीन क्षेत्र हैं. इनमें ए और बी क्षेत्र में आने वाले सघन शहरी क्षेत्र की जमीन के इस्तेमाल और नागरिक प्रशासन की जिम्मेदारी फिलीस्तीन स्वशासन की है , बी क्षेत्र में आने वाले ग्रामीण इलाकों की भी जिम्मेदारी फिलिस्तीनियों की है। लेकिन इस क्षेत्र के ग्रामीण क्षेत्र की सुरक्षा की इस्राइल और फिलीस्तीनियों की साझा जिम्मेदारी है।
        उल्लेखनीय है कि वेस्ट बैंक के ए और बी क्षेत्र साझा नहीं हैं। लेकिन सी केटेगरी में आने वाले क्षेत्र वस्तुत : ए और बी वाले क्षेत्रों की नाकाबंदी करते हैं, चारो ओर से ए और बी के क्षेत्र को घेरते हैं। सी क्षेत्र में ही वेस्ट बैंक के सभी मुख्य इन्फ्रास्ट्रक्चर हैं, इनमें मुख्य सड़कें भी शामिल हैं। सी क्षेत्र पूरी तरह इस्राइली सेना के कब्जे में है। सी क्षेत्र के 59 फीसदी इलाके में अवैध बस्तियां बसा दी गयी हैं। उल्लेखनीय है सी क्षेत्र में किसी किस्म का निर्माण कार्य करने का इस्राइल को अधिकार नहीं है। इसके बावजूद बड़े पैमाने पर अवैध बस्तियों का निर्माण जारी है।
      ओसलो समझौते अनुसार गाजा से सटे समुद्री इलाके में फिलीस्तीनी मछुआरे बगैर किसी बाधा के 20 मील तक समुद्र में नौका लेकर जा सकते हैं। सन् 2000 में दूसरे इंतिफादा के बाद से यह इलाका हम्मास के कब्जे में आने के बाद से इस्राइल ने समुद्री सीमा को 20 से घटाकर 6 मील तक सीमित कर दिया था। विगत दो सालों में 3 मछुआरे इस्राइली सेना के हाथों अतिक्रमण करने के कारण मारे गए हैं। अनेक घायल हुए हैं और अन्य की नौकाएं जब्त कर ली गयी हैं। जो मछुआरे पकड़े जाते थे उन्हें नंगा करके समुद्र में तैरकर उस जगह तक जाने के लिए बाध्य किया जाता है जहां तक वह अपनी नौका लेकर गया था। यहां तक कि तेज ठंड़ में भी उन्हें यह दंड झेलना पड़ता है. बाद में उन्हें इस्राइली सैनिक चौकियों पर ले जाया जाता है।
       संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार समुद्र से मछली पकड़ने के लिए कम से कम 12-15 मील तक अंदर जाने पर ही अच्छी मछलियों के मिलने की संभावना होती है। इस्राइली पाबंदी के कारण मछली उत्पादन में गिरावट आयी है। चूंकि समुद्र में ज्यादा गहरे जाकर मछली पकड़ने की संभावनाएं खत्म हो गयीं और लागत बढ़ गयी इसके कारण मछुआरों ने इस धंधे से अपना मुँह फेरना शुरु कर दिया।
       संयुक्तराष्ट्र संघ के अनुसार सन् 2006 में मछली उत्पादन 823 टन था जो सन् 2006 में घटकर 50 टन रह गया। उल्लेखनीय है फिलीस्तीनियों के सकल घरेलू उत्पाद का 4 फीसदी मछली उद्योग से आता था। फिलीस्तीन बड़े पैमाने पर मछली का निर्यात करते थे। 1990 के दशक में 10 मिलियन डालर की इस क्षेत्र से सालाना आय होती थी। आज मछली उद्योग पूरी तरह तबाह पड़ा है।
       सन् 2001 से 2006 के बीच में मछुआरों और समुद्री इलाके के बाशिंदों की अच्छी आय हुआ करती थी। लेकिन इन दिनों गाजा में भयानक बेकारी है। लगातार कुपोषण बढ़ रहा है। अब मछली का इस्राइल आयात किया जा रहा है। बाजार में मछली की जबर्दस्त मांग है लेकिन मछली नहीं है।
      दूसरी ओर गाजा में फूलों का समूचा व्यापार लगभग चौपट हो गया है। उल्लेखनीय है गाजा से फूलों का यूरोपीय देशों में बड़े पैमाने पर निर्यात किया जाता है, लेकिन गाजा की निरंतर नाकेबंदी और बमबारी ने फूलों का व्यापार बर्बाद कर दिया है। गाजा में 480 बड़े फूलों के बागान हैं जिनमें सालाना ( नवम्बर-मई के बीच) 60 मिलियन फूल पैदा होते हैं। सीजनल एक्सपोर्ट के जरिए सालाना 5 मिलियन डॉलर का रेवेन्यू आता था और तकरीबन 4 हजार नौजवानों को नौकरी भी मिलती थी, नाकेबंदी का इस पर महरा प्रभाव पड़ा है।
       इस्राइल के द्वारा सीमाएं बंद कर देने का अन्य बातों के अलावा फूलों के व्यापार पर सीधा असर हुआ है। क्योंकि फिलीस्तीन के बाहर कोई भी चीज बाहर तभी जा सकती है जब वह इस्राइल द्वारा रोकी न जाए। फिलीस्तीन की सारी सीमाएं इस्राइल के रहमोकरम पर निर्भर हैं। अकेले यूरोपीय देशों के लिए गाजा से 75 मिलियन करमुक्त फूल निर्यात किए जाते थे, इस साल बमुश्किल 5 मिलियन फूलों का ही निर्यात हो पाया है।
        नाकेबंदी ने फूलों का कारोबार बर्बाद कर दिया है। फूल उत्पादक कर्जों में डूब गए हैं। फूलों की बिक्री से आज न्यूनतम आमदनी भी नहीं हो पा रही है। इसके कारण माली- मजदूर, बीज,खाद आदि के भुगतान करने में फूल उत्पादक असमर्थ महसूस कर रहे हैं।
       चूंकि ज्यादातर फूल उत्पादक कर्ज लेकर खेती करते रहे हैं अतः उनके पास कर्ज चुकाने के लिए रुपये नहीं हैं और ऐसी स्थिति में उन्हें जेल की हवा खानी पड़ रही है। इस्राइल की हैवानियत का आलम यह है कि वह उन्हीं फूल उत्पादकों को सीमा पार जाकर फूल बेचने दे रहा है जो इस्राइली प्रशासन को यह लिखकर दें कि वे फूलों का निर्यात नहीं करेंगे। अनेक मर्तबा यह होता है कि फूलों से भरे ट्रक सीमा पर लंबे समय तक खड़े रहते हैं और सारे फूल नष्ट हो जाते हैं। इस्राइल ने समुद्री जहाजों से फूल निर्यात पर पाबंदी लगा दी है। यदि फूल देरी से सप्लाई के कारण नष्ट हो जाते हैं तो उसकी कीमत फूल उत्पादक को ही देनी होती है। जबकि देरी में इस्राइली अधिकारियों का हाथ होता है,फूलों के नष्ट होने की कीमत उनसे वसूली जानी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होता और देरी के कारण नष्ट होने वाले फूलों की कीमत फूल उत्पादकों को भरनी होती है। इस समूची प्रक्रिया में बेलेन्टाइन डे पर फूलों का कारोबार पूरी तरह चौपट हो चुका है, आगामी 11 मई को मातृदिवस पर फूलों के निर्यात के लिए फूल उत्पादक आस लगाए बैठे हैं। लेकिन अभी तक के हालात से लगता नहीं है कि कोई खास कारोबार हो पाएगा।

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

भारत बंदः विकासदर का सर्जक मनमोहन सिंह या मजदूरवर्ग ?

      कल मंहगाई के सवाल पर भारतबंद था। यह भारत बंद मंहगाई और अन्य समस्याओं पर जनता के गुस्से का इज़हार है। यह संघर्षशील जनता की हाल के समय में सबसे सार्थक कार्रवाई भी है। जिस समय बंद चल रहा था उसी समय संसद में मंहगाई और दूसरी समस्याओं पर विपक्ष  के बजट कटौती प्रस्तावों पर मतदान हो रहा था और शाम को चैनलों पर बंद और बजट प्रस्तावों पर विपक्ष की हार का चैनल वाले सरकारी भोंपू की तरह प्रचार कर रहे थे। चैनलों की इस निर्लज्ज हरकत की जितनी निंदा की जाए कम है।
     असल में संसद में सरकार जीती और जनता में सरकार हार गयी । मंहगाई आदि समस्याओं पर इतना व्यापक जनाक्रोश हाल के वर्षों में नजर नहीं आया। हमें सोचना चाहिए संसद महान है या जनता महान है ? जनता को मंहगाई के अंधकूप में डालने का जनादेश कांग्रेस को नहीं मिला था। जो सरकार जनादेश के बाहर चली जाए उसे शासन करने का राजनीतिक अधिकार नहीं है।
    एकबार संसद के बारे में कवि धूमिल ने लिखा था मेरी संसद तेली की वह घानी है जिसमें आधा तेल आधा पानी है।
      हमें इस सवाल पर सोचना चाहिए कि कारपोरेट मीडिया को मजदूरवर्ग नापसंद क्यों है ? क्या मजदूरवर्ग और उनके हितैषी संगठनों की राष्ट्र निर्माण में कोई भूमिका नहीं है ? क्या 7-8 या 9 प्रतिशत की विकासदर मनमोहन-सोनिया -प्रणव जैसे नेताओ के श्रम का परिणाम है या मजदूरवर्ग की मेहनत का परिणाम है ? कारपोरेट उत्पादन के लिए किसे श्रेय दें मालिक को या मजदूर को ? चैनलों के बेवकूफ एंकरों से लेकर टॉक शो में शामिल होने वाले भाड़े के कारपोरेट विचारक-राजनीतिज्ञ सिर्फ एक सवाल का जबाव दें देश की उत्पादक शक्ति मजदूर हैं या मनमोहन सिंह ?
    भारत बंद के कवरेज पर चैनलों और खासकर कारपोरेट मीडिया का मजदूरवर्ग के प्रति, बंद के प्रति घृणास्पद रवैय्या देखने लायक था। यह सच है कि बंद को व्यापक सफलता मिली और इसमें वामदलों और मजदूर संगठनों की केन्द्रीय भूमिका थी। यह 13राजनीतिक दलों के द्वारा आयोजित बंद था। कारपोरेट मीडिया ने बंद करने वालों को जनता का विरोधी करार दिया है। बंगला में चर्चित नाम है ‘कर्मनाशा दिन’,इसका खूब प्रचार किया गया।
      कुछ कारपोरेट पैरोकार यह भी तर्क दे रहे थे कि बंद से क्या मंहगाई कम हो जाएगी ? बंद से दैनिक मजदूरों का नुकसान हुआ है। देश को आर्थिक नुकसान हुआ है। असल में इस तरह के तर्क उपयोगितावादी राजनीतिक दर्शन के गर्भ से निकले हैं। यह फिनोमिना अमरीकी विचारकों के द्वारा निर्मित उपयोगितावादी दर्शन की देन है। इसके अनुसार वही करो जो उपयोगी हो। वही पढ़ो जो उपयोगी हो। जिससे काम बने उसे दोस्त बनाओ। उपयोगी नहीं तो बेकार है। येनकेन प्रकारेण काम बनाओ।  इस तरह के चिंतन का कारपोरेट मीडिया विज्ञापनों से लेकर समाचारों तक अहर्निश प्रचार चल रहा है।यह मूलतः निहित स्वार्थी असामाजिक दर्शन है।
    फिलहाल हम मीडिया के द्वारा बंद और मजदूरवर्ग के प्रति व्यक्त नजरिए पर गंभीरता से विचार करें।  
     टेलीविजन का मजदूरवर्ग के साथ गहरा अंतर्विरोध है। टेलीविजन की प्रकृति अ-जनतांत्रिक है। जबकि मजदूरवर्ग की प्रकृति जनतांत्रिक है। मजदूरों के मसले अमूमन खबर नहीं बनते। खबर तब ही बनते हैं जब मजदूरवर्ग हड़ताल पर जाता है। मजदूरवर्ग की खबरें सामान्य खबर की कोटि में नहीं आतीं। ये वर्ग विशेष की खबरें हैं। टेलीविजन हमेशा इस वर्ग की खबरों को सामान्य खबर की कोटि में रखकर पेश करता है।    
      टेलीविजन के लिए मजदूरवर्ग की हड़ताल और आम जनता के बीच अंतर्विरोध है। जबकि अवधारणात्मक और सामाजिक तौर पर मजदूरवर्ग के संघर्षों का आम जनता के हितों के साथ अंतर्विरोध नहीं है और न टकराहट है। किंतु ज्योंही मजदूरवर्ग हड़ताल पर जाता है अथवा अपने हकों की लड़ाई शुरू करता है उसका समूचे समाज के साथ अंतर्विरोध दिखाने पर टेलीविजन जोर देने लगता है। टेलीविजन यह भूल जाता है कि जिस तरह जनतंत्र में नागरिकों के हक होते हैं, जिम्मेदारियां होती हैं,उसी तरह मजदूरवर्ग के भी हक होते हैं,जिम्मेदारियां होती हैं।
      जिस तरह नागरिकों को अपने सामान्य जीवनयापन की अनुकूल परिस्थितियों की जरूरत होती है, उसी तरह मजदूरवर्ग को भी सामान्य नागरिक परिवेश, आवश्यक सुविधाएं और सौहार्द्रपूर्ण वातावरण की जरूरत होती है।
    टेलीविजन प्रस्तुतियों में मजदूरवर्ग की हड़ताल हो या सामान्य राजनीतिक कार्रवाई हो आदि सभी मामलों में टेलीविजन पूर्वाग्रह से काम लेता है।जब तक हड़ताल की संभावना नहीं होती तब तक मजदूरवर्ग को टेलीविजन पर्दे पर आने नहीं दिया जाता।   
     टेलीविजन जब हड़ताल की खबर का प्रसारण करता है तो पहला संदेश यह देता है कि यूनियनवाले आर्थिक स्थिति बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं। यूनियन के नेता की छवि हड़ताली नेता के रूप में पेश की जाती है। आम तौर पर हड़ताल की खबर को विकास विरोधी खबर के तौर पर पेश किया जाता है। उन तत्वों,संगठनों आदि पर बल होता है जो हड़ताल विरोधी होते हैं। उनके बयानों को बगैर किसी प्रमाण के पेश किया जाता है। इसके विपरीत मजदूरों के प्रामाणिक बयानों और तथ्यों को छिपाया जाता है। हड़ताल के मुद्दों को तमाम किस्म की आत्म- सेंसरशिप और कारपोरेट सेंसरशिप से गुजरना होता है। उन्हें चलताऊ ढ़ंग से पेश किया जाता है।
     आम तौर पर मजदूरों के बारे में टेलीविजन में मजदूर विरोधी लोग ज्यादा बोलते नजर आते हैं। टेलीविजन कैसे मजदूर विरोधी मानसिकता का प्रदर्शन करता है इसका आदर्श नमूना है टेलीविजन पर आने वाली व्यापारिक खबरें। इन खबरों में जब कभी यह बताया जाता है कि फलां-फलां कंपनी ने इस तिमाही या साल में मुनाफा कमाया तो इसका श्रेय मालिक को दिया जाता है न कि मजदूरों को।
    आज हिन्दुस्तान की ज्यादातर मुनाफा कमाने वाली कंपनियां मजदूरों के श्रम के कारण मुनाफे पर चल रही हैं। किंतु कोई कंपनी जब मुनाफा कमाती है तो टेलीविजन पर्दे पर मालिक या मुख्य प्रबंधक की छवि दिखाई देती है कंपनी के मजदूर नेता की छवि दिखाई नहीं देती।
    मजदूरों के जीवन में सालों-साल जो कुछ भी घटता है उसकी ओर टेलीविजन कभी ध्यान नहीं देता। किंतु हड़ताल पर तुरंत ध्यान देता है। हड़ताल के पहले मजदूर किस तरह की मुसीबतों का सामना करते रहे हैं,उनके घरों में किस तरह की मुश्किलों से परिवारीजनों को गुजरना पड़ा है। बच्चे समय पर स्कूल जा पाते हैं या नहीं। मजदूरों की औरतों को किस तरह की मुश्किलों से दो-चार होना पडता है। मजदूर परिवार को दो जून की रोटी मिल रही है या नही ? ये सारी चिन्ताएं टेलीविजन की नहीं है।
      टेलीविजन कैमरा मजदूर बस्तियों में प्रवेश ही नहीं करता। कभी यह जानने की कोशिश नहीं की जाती कि आखिरकार मजदूर कैसे रहते हैं ? मलिन बस्तियों में कैमरा जाएगा,वेश्यालयों और वेश्या बस्तियों में टेलीविजन वाले जाएंगे किंतु मजदूर बस्तियों में नहीं जाएंगे । इसका प्रधान कारण यह है कि मजदूर परजीवी नहीं है। वह उत्पादक शक्ति है। समाज को पैदा करके देता है। कैमरे में यदि उत्पादक शक्तियों का संसार उजड़ा हुआ नजर आएगा इससे मीडिया के उस प्रचार की पोल खुल जाएगी कि मजदूरों को बहुत वेतन मिलता है। सामान्य तौर पर पूंजीपतिवर्ग की छोटी सी समस्या भी खबर बन जाती है किंतु मजदूरों के बड़े-बड़े हादसे भी खबर नहीं बन पाते।
    सामान्य तौर पर धनियों की बस्ती में  कोई चोरी की घटना हो जाती है तो मुख्य खबर बन जाती है किंतु मजदूरों की बस्तियों, मलिन बस्तियों में गुंड़े सनसनाते घूमते रहते हैं। उत्पीड़न करते रहते हैं।किंतु खबर नहीं बन पाती। सवाल उठता है कि मजदूर रैली या प्रदर्शन या धरना या हड़ताल क्यों करते हैं ? क्या  वे काम चोर हैं ? क्या उनके कारण पूंजीपति के मुनाफों में कमी आई है ?जी नहीं।
   मजदूर हड़ताल या रैली तब निकालते हैं जब प्रशासन उनकी तकलीफों की तरफ ध्यान नहीं देता। यहां तक कि उनकी शिकायतों को भी कोई नहीं सुनता। मजदूर शौकिया तौर पर हड़ताल या रैली के अस्त्र का इस्तेमाल नहीं करते। बल्कि मजबूरी में,अपनी बातों को प्रशासन तक प्रभावशाली रूप में पहुँचाने के लिए ऐसा करते हैं। ये उनकी अभिव्यक्ति के रूप हैं।
    टेलीविजन अपनी अभिव्यक्ति पर किसी भी किस्म का हमला बर्दाश्त नहीं कर सकता किंतु समाज के कमजोर तबकों खासकर उत्पादक शक्तियों की अभिव्यक्ति के रूपों के खिलाफ माहौल बनाने में सबसे आगे रहता है। यही मीडिया का अधिनायकत्व है।इससे जनतंत्र का विकास बाधित होता है।
    

कम्प्यूटर क्रांति का महान विज़नरी वन्नेबर बुश -समापन किश्त -

        वन्नेबर बुश की जीवनी 'एण्डलेस फ्रंटियर' में जचेरी ने लिखा है कि ''साधारण करदाताओं को यह समझना चाहिए कि शोधकर्ताओं को करदाताओं के धन की शांति के समय भी दरकार होती है।''जचेरी ने रेखांकित किया है कि बुश का रूजवेल्ट से विशेष संबंध और उसके वैज्ञानिक कार्यकलाप यह तथ्य संप्रेषित करते हैं कि विज्ञान के बारे में लगातार वे विशेषज्ञ निर्णय ले रहे थे जो जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों की सत्ता के बाहर थे।विज्ञान के विकास का फैसला नागरिक नहीं ले रहे थे।सैन्य अधिकारी फैसला नहीं ले रहे थे। बल्कि बुश जैसे वैज्ञानिक फैसला ले रहे थे।इनकी किसी के प्रति जबावदेही नहीं थी।
     जचेरी ने लिखा है कि ''मुक्त दिमागों पर बढ़ती हुई निर्भरता के फायदे थे किंतु पेशेवर लोगों और जनता के लिए खतरा था।... ये लोग जनता के फंड का लाभ उठाते हुए जनता के जीवनस्तर के प्रति बेखबर थे।'' रूजवेल्ट की मौत के बाद बुश का प्रभामंडल कमजोर हुआ। किंतु शोध को उसने जिस ऊँचाई पर पहुँचा दिया था वहां से नीचे लाना किसी के लिए संभव नहीं था। वह प्रयोगशाला को सूचना युग तक ले गया।
       बुश का विचार था कि जिस तरह मानव मस्तिश्क अपने संबधों के आधार पर अपनी स्मृति बनाता है वैसे ही यह तकनीकी मशीनी संबंधों ,एसोसिएशन के आधार पर अपनी मेमोरी स्मृति बनाती है। 'मिमिक्स' के जरिए डाकूमेण्ट के साथ संपर्क (लिंक ) बनता है। बुश ने इसे पूर्वाभ्यास के रूप में पेश किया। इसके लिए बुश ने अंग्रेजी की बजाय तुर्किश भाषा के प्रतीकों का इस्तेमाल किया। 
        बुश ने 'मिमिक्स' में अनेक किस्म की सामग्री का संचय किया हुआ था। इसमें अनेक लेख और पुस्तकें थीं। इस मशीन में उसे लेख खोजने में काफी मजा आया।यहां तक कि उसने इन्साइक्लोपीडिया में भी खोजना शुरु किया। इसके अच्छे परिणाम निकले। बाद में वह 'हिस्ट्री' में गया। वहां जाने पर उसे कुछ और मिला। अब उसने इन सबको मिला दिया। इस तरह वह काम करता चला गया। कहीं-कहीं अपनी टिप्पणियां भी लिखता चला गया। यही पद्धति कालान्तर में टेड नेल्सन रचित हाइपर टेक्स्ट की धारणा का आधार बनी। नेल्सन ने बुश के ऋण को स्वीकार किया।
      वन्नेवर बुश का 30जून 1974 को निधन हुआ।यही वह दौर है जब इण्टरनेट जनप्रिय हो रहा था। वर्ल्ड वाइड वेब का जन्म हो चुका था।उल्लेखनीय है कि इटरनेट का जन्म 1969 में Arpanet के गठन के साथ हुआ। इंटरनेट का विचार 1968 में वन्नेवर बुश और जे.सी.आर. लाइकिल्डर के दिमाग में आया। अस्सी के दशक में यह अमेरिका के सभी विष्वविद्यालयों और संस्थानों में छा गया।जबकि डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू की धारणा के निर्माण का श्रेय टिम बर्नर्स ली को जाता है। टिम बर्नर्स ली,विंट किर्फ,एवं फिल बरेट ने इंटरनेट की भावी परिकल्पना पर आपस में विचार विमर्श किया।ये लोग शुरू से ही उन कंपनियों में काम कर रहे थे जो कंपनियां इंटरनेट के कारोबार से जुड़ी थीं।
      बुश के विचारों से तीन दशक बाद प्रभावित होकर टेड नेल्सन,डगलस इंगवर्ट, एंद्रीज वान दाम आदि ने कम्प्यूटर के हाइपर टेक्स्ट की सैध्दान्तिकी रची।इसमें ब्राउन यूनीवर्सिटी के इन्स्टीटयूट फॉर रिसर्च इन इंफोर्मेशन एंड स्कॉलरशिप ग्रुप की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।इन लोगों ने ही इण्टरमीडिया को जन्म दिया। बुश ने ही सबसे पहले लिंक,लिंकेज,ट्रायल्स,वेब आदि पदबंधों का नए किस्म की पाठात्मकता (टेक्स्चुएलिटी) के लिए निर्माण किया।
        बुश के विवेचन में पाठात्मकता से जुड़े अनेक क्रांतिकारी विचार निहित थे।ये सारे विचार रीडिंग या पठन और लेखन के क्षेत्र में नए किस्म के प्रयासों की मांग करते हैं। ये दोनों गतिविधियां एक-दूसरे से जुड़ी हैं। एक-दूसरे के साथ हैं।इसे बुक टैक्नोलॉजी में देख सकते हैं।बुश ही पहला व्यक्ति था जिसने वर्चुअल पाठात्मकता की परिकल्पना सबसे पहले पेश की। पहला सवाल यह है कि 'हाईपर टेक्स्ट' क्या है ?
          वन्नेवर बुश ने सबसे पहले इस अवधारणा का प्रयोग किया।बुश को ही इस धारणा का आविष्कर्त्ता माना जाता है।बुश ने 1945 में 'अटलांटिक मंथली' पत्रिका में हाइपर टेक्स्ट के बारे में सबसे पहले लेख लिखा।इस लेख में उसने तकनीकी आधारित सूचना देने वाली मशीन की चर्चा की।
      उसने लिखा कि यह मशीन सूचना विस्फोट के युग में स्कॉलरों और फैसले लेने वालों के लिए विशेष रूप से मददगार साबित हो सकती है।प्रत्येक क्षेत्र में जिस तरह के व्यापक अनुसंधान हो रहे हैं,शोधार्थियों को जिस तरह की जटिल समस्याओं से जूझना पड़ रहा है।उनसे निबटने में यह मशीन खास तौर पर मददगार साबित होगी। आज अनेक प्रकाशन हैं। ये हमारी पहुँच के परे हैं। तमाम ऐसे दस्तावेज हैं जो हमारे लिए जरूरी हैं किंतु उन तक पहुँचना मुश्किल है। वे हमारी क्षमता के बाहर हैं।
         आज जितने विराट पैमाने पर मानवीय अनुभवों और ज्ञान के साथ हम जी रहे हैं,उन सब तक पहुँचना मुश्किल हो गया है। आज मुख्य समस्या चयन की है,सूचना को खोजने की है। जो सूचना खोजना चाहते हैं, जिन्हें सूचना की जरूरत है,उन्हें सूचना खोजने,संचय करने, क्रमबद्ध करने आदि के काम में दिक्कतें आ रही हैं।हम इण्डेक्स व्यवस्था में जी रहे हैं। डाटा को स्टोरेज में अकारादि क्रम से रखते हैं। नम्बर से रखते हैं।सूचनाएं उपवर्ग दर उपवर्ग में वर्गीकृत करके रखते हैं।वहीं से हासिल करते हैं। सारी सूचनाएं एक ही जगह होती हैं।जब तक कि कोई उन्हें डुप्लीकेट रूप में अन्यत्र ले जाना न चाहे। इसके नियम भी खुले हैं।यदि आप एक आइटम खोज लेते हैं तो इसे सिस्टम से ही आना होगा।नए 'पथ' पर जाना होगा।बुश के श्रेष्ठ अनुयायी टेड नेल्सन ने लिखा कि ''वर्गीकरण में कुछ भी गलत नहीं है। क्योंकि उसकी प्रकृति रूपान्तरणकारी है। वर्गीकरण, सिस्टम की आधी जिन्दगी है।कुछ वर्षों के बाद यह वर्गीकरण भी मूर्खतापूर्ण लगने लगेगा।कुछ अर्से बद सार्वभौम रूपों का जन्म हो जाएगा।''
       मुद्रण और तत्संबंधित सूचना प्रबंधन व्यवस्था एकदम कठोर और पक्की है।उसमें कायिक तौर पर जिस रूप में चीजें दर्ज हैं उसे कोई बदल नही सकता।हमें ऐसे सूचना माध्यम की जरूरत है जो मनुष्य के दिमाग की तरह सामंजस्य बिठा सके,आत्मसात् कर सके।ज्ञान को स्टोर कर सके।ज्ञान का वर्गीकरण कर सके।बुश ने शिकायत की है कि मनुष्य का दिमाग वैसे काम नहीं करता जैसा हम सोचते हैं।दिमाग स्वत: स्फूर्त्त फोटो खींचता है। आगे आने वाले विचार और संबंध को बताता है।मनुष्य के दिमाग में ऐसे सैल होते हैं जो अंतर्गृथित ढ़ंग से यह कार्य करते हैं।हाइपर टेक्स्ट वर्गीकरण की अधूरी व्यवस्था के सीमित दायरे को तोड़ देता है।सीमित दायरे से मुक्त करता है। एसोसिएशन के आधार पर संबंध बनाने पर जोर देता है।न कि इडेक्सिंग पर।इन्हीं सब बातों को मद्देनजर रखते हुए बुश ने 'मिमिक्स' की धारणा का प्रतिपादन किया।'मिमिक्स' तकनीकी तौर पर ज्यादा प्रभावी है,ज्यादा मानवीय ढ़ंग से तथ्यों को मेनीपुलेट कर सकता है।कल्पना को मेनीपुलेट कर सकता है।'मिमिक्स' वह है जिसमें व्यक्ति अपनी पुस्तक, रिकॉर्ड आदि के संप्रेषण को तकनीकी तौर पर स्टोर कर सकता है।उसका संवाद और सलाह के लिए तीव्रगति और उदारता के साथ इस्तेमाल कर सकता है।अपनी याददाश्त को विस्तार दे सकता है। 
      उल्लेखनीय है कि वन्नेवर बुश के दिमाग में 'मिमिक्स' के बारे में पहलीबार चालीस के दशक में विचार आया। बुश के अनुसार एक डेस्क,जिसमें पारदर्शी स्क्रीन हो, लीवर्स और मोटर्स हों।जिससे जल्दी से सूक्ष्म स्तर पर सर्च किया जा सके। बुश के साथ 'मिमिक्स' पर पॉल कान्ह और एलन एडलमैन ने काम किया।इसमें उन्होंने ऐसे गतिशील डायग्राम और विकसित एनीमेशन तकनीकी की खोज की जिसके जरिए आप अन्य साइड से डाउनलोड कर सकते हैं। सर्च और सूचना की खोज के काम के अलावा 'मिमिक्स' ने पाठक को यह मौका भी दिया कि वह चाहे तो पाठ में छोटी टिप्पणी लिख सके,नोट्स ले सके। इसके लिए यह संभव है कि शुष्क किस्म की फोटोग्राफी का इस्तेमाल करे। इस फोटोग्राफी को स्टायल में समाहित कर लिया जाए।
      बुश की 'मिमिक्स' की अवधारणा के दो प्रमुख बिन्दु हैं। पहला बिन्दु रीडिंग से जुड़ा है।यह ऐसी खुली और विराट प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति अकेला दाखिल होता है।विचारों और प्रतिक्रियाओं को पारदर्शी पाठ में देखता है। बुश का यहां पर मुख्य जोर ग्रहणशील पठन या रीडिंग पर है।ग्रहणशील रीडिंग सक्रिय प्रक्रिया है।जिसमें लेखन शामिल है।इस धारणा का दूसरा मुख्य बिन्दु है कि पाठक सक्रिय होता है।हस्तक्षेप कर सकता है।पाठ पर टिप्पणी लिख सकता है।क्योंकि कायिक रूप में पृष्ठ उसके सामने मौजूद है।यह वस्तुत: कायिक की बजाय वर्चुअल पाठ की आवश्यकता को स्वीकार करना है। यह पाठ की एकदम नई धारणा है।'मिमिक्स' का बुनियादी तत्व 'खोज' और 'टिप्पण' पर ही निर्भर नहीं है। बल्कि इसमें इण्डेक्सिंग भी शामिल है।






मनमोहन-सोनिया -आडवाणी शर्म करो इस्राइली बर्बरता पर बोलो



( फिलीस्तीनी चित्रकार मोहम्मद सावू का गाजा दमन के खिलाफ बनाया चित्र)
          
   गाजा की इस्राइल द्वारा नाकेबंदी जारी है। हजारों लोग खुले आकाश के नीचे कड़कड़ाती ठंड में ठिठुर रहे हैं , इन लोगों के पास न तो कम्बल हैं, न टैंट हैं, न खाना है, न पीने का साफ पानी है। यह बातें संयुक्तराष्ट्रसंघ मानवीय सहायता दल के संयोजक मैक्सवेल गेलार्ड ने फिलीस्तीनी इलाकों का ङाल ही में निरीक्षण करने के बाद पत्रकारों से कही हैं। 
    आश्चर्य की बात है भारत सरकार ने अभी तक गाजा की तबाही और इस्राइली नादिरशाही के खिलाफ एक भी बयान तक जारी नहीं किया है। कांग्रेस के नेतृत्व का फिलिस्तीनियों पर इस्राइली सेना के बर्बर अत्याचारों पर चुप्पी लगाए रहना भारत के लिए शर्मिंदगी की बात है। भारत लगातार फिलीस्तीनी जनता के स्वाधीनता संग्राम का समर्थक रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के जमाने में विगत 6 सालों से इस्राइल के साथ जिस तरह का राजनीतिक व्यवहार किया जा रहा है और फिलीस्तीनी जनता के ऊपर हो रहे बर्बर हमलों पर जिस तरह की चुप्पी विदेश मंत्रालय ने लगाई हुई है वह भारत सरकार की फिलीस्तीन समर्थक विदेश नीति में आए बदलाव की सूचना है, यह इस बात का भी संकेत है कि कांग्रेस ने इस्राइल के प्रति समर्पण की एनडीए के शासन के दौरान अपनायी गयी नीति को स्वीकार कर लिया है। यह भारत की फिलीस्तीनी जनता के साथ भीतरघात है। भारत की जनता का अपमान है। हम जरा गाजा में झांककर देखें कि वहां क्या हो रहा है।
     उल्लेखनीय है पिछले साल दिसम्बर-08 से जनवरी 2009 के बीच गाजा पर की गई भयानक बमबारी के कारण हजारों बिल्डिंगें ,मकान, स्कूल,अस्पताल सड़कें आदि पूरी तरह नष्ट हो गए थे। एक गैर सरकारी संस्था ऑक्सफॉम के अनुसार गाजा को तत्काल 268,000 मीटर कांच खिड़कियों के लिए और 67,000 स्क्वेयर मीटर सोलर वाटर हीटर के लिए चाहिए। इसके अलावा इतना ही कांच 30 फुटबाल पिचों को कवर करने के लिए चाहिए।
     गाजा में फिछले साल हुई इस्राइली बमबारी के कारण पानी सप्लाई , पायखाना, बिजली आदि का समूचा ढ़ांचा नष्ट हो गया। सहायता कार्य में लगी संस्थाओं को बड़ी परेशानी हो रही है। उन्हें सीवर लाइन के पाइप,वाटर पंप ,टंकी आदि की मरम्मत के लिए पर्याप्त सामान, पुर्जे,तेल आदि नहीं मिल पा रहे हैं। इसके कारण पीने के साफ पानी का अभाव बना हुआ है। बिजली उत्पादन व्यवस्था के बमबारी के कारण पूरी तरह नष्ट हो जाने का पानी की सप्लाई पर सीधा असर हुआ है।
     फिलीस्तीन का दैनन्दिन नजारा यह है कि गाजा के सभी रास्ते इस्राइली सेना ने बंद पर दिए हैं। आए दिन लगातार इस्राइली सैनिक घर -घर घुसकर तलाशी अभियान चला रहे हैं, ऊपर से रॉकेट से बस्तियों पर हमले किए जा रहे हैं। कई नाके वाले इलाकों में इस्राइली सैनिकों और हम्मास के सैनिकों के बीच झड़पें भी हुई हैं। विगत कुछ दिनों में जिस तरह झड़पें हुई हैं और इस्राइल ने हमले तेज किए हैं उससे यह भी कयास लगाए जा रहा है कि इस्राइल के द्वारा गाजा पर बड़े हमले की तैयारी चल रही है।    
शांति के नाम पर इस्राइल-अमेरिका मांग कर रहे हैं कि फिलिस्तीनी जनता अपने संघर्ष की सभी योजनाओं को त्याग दे।प्रतिरोध के सभी प्रयास बंद कर दे।इस्राइल के आतंक-उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष बंद कर दे।उल्लेखनीय है  स्राइल के द्वारा फिलिस्तीनियों का उत्पीड़न उनके क्षेत्र में हो रहा है।इस्राइल बृहद इस्राइल के सपने को साकार करने में लगा है।इस प्लान के आने के पहले जिन्नी प्लान,टेनेट प्लान आदि लाए गए किंतु अंतत: इस्राइली विस्तारवाद के आगे सबको ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया गया।
     फिलिस्तीनी बच्चों को इस्राइली हमलों के कारण गंभीर मनोवैज्ञानिक कष्टों से गुजरना पड़ रहा है। इस्राइली हमलों का ये बच्चे मात्र पत्थरों से प्रतिरोध कर रहे हैं।जबकि इस्राइ के द्वारा न पर टैंकों, वायुयानों और तोपों से हमले किए जा रहे हैं।अनेक मर्तबा तो निहत्थे बच्चों को सीधे गोलियों का निशाना बनाया जा रहा है।फिलिस्तीनी जनता के खिलाफ इस्राइल सभी किस्म के हथियारों का इस्तेमाल कर रहा है। मानव सभ्यता के इतिहास में इतने बर्बर हमले पहले शायद किसी ने नहीं किए जितने इस्राइल ने किए हैं।

स्राइली आतंक ने फिलिस्तीनी बच्चों को सामान्य बच्चों से भिन्न बना दिया है।बच्चों के ऊपर जिस तरह का दबाव पड़ रहा है उसके कारण बच्चों का अपने ऊपर नियंत्रण खत्म होता जा रहा है। उनके अंदर सुरक्षा की भावना खत्म होती जा रही है।दैनंदिन आतंक ने बच्चों को अंतर्विरोधी अनुभूतियों का शिकार बना दिया है। इनमें कुछ सकारात्मक अनुभूतियां हैं तो कुछ नकारात्मक अनुभूतियां हैं।

मसलन् बंदूक से पलायन ही बच्चों में खुशी का कारण बन जाता है।बच्चे परेशान रहते हैं कि स्कूल कब खुलेंगे।बाजार कब खुलेगा।पिता कब लौटकर आएंगे।माता-पिता कब तक घर से दूर रहेंगे।वे दिन-रात इस्राइली सेना के हमले के दुस्वप्न देखते रहते हैं।इस्राइली सेना के प्रक्षेपास्त्र हमलों को लेकर आतंकित रहते हैं।सो नहीं पाते।ज्यादातर बच्चों की पाचन-क्रिया गड़बड़ा गई है। इससे बच्चों का शारीरिक विकास बाधित हो रहा है।
स्राइली आतंक ने बच्चों के खेलों का चरित्र बदल दिया है।पहले बच्चे जुलूस,सेना और बमबारी का खेल खेलते थे।किंतु अब इसमें मशीनगन और हेलीकप्टर भी शामिल हो गए हैं। हले बच्चे रबड़ की गोलियों,शब्द करने वाले पटाखों,धुँआ छोड़ने वाले या ऑंसू गैस के गोलों और बमों से खेलते थे। किंतु अब बच्चे हवाई जहाज, बमों,टैंक,खुले घरों,बम,और रॉकेट आदि से खेलते हैं।
 बच्चों की भाषा में भी बदलाव आया है।अब बच्चे धार्मिक भाषा में बोलने लगे हैं।वे कहते हैं कि 'शरीर मरता नहीं बल्कि स्वर्ग में जीवित है।' राष्ट्रवादी भावनाओं का राष्ट्रीय नारों के तहत प्रसार हो रहा है।वे राष्ट्रीय एकता के नारे लगाते रहते हैं। इन परिवर्तनों से भविष्य के मुक्तिदूत तैयार हो रहे हैं। इस्राइली प्रशासन द्वारा फिलिस्तीनी जनता पर उत्पीड़न की प्रतिदिन अनेक घटनाएं हो रही हैं।किंतु इक्का-दुक्का ही टीवी में दिखती हैं।
हाल ही में गार्जियन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार गाजा में सहायता कार्यों में लगे 80 से ज्यादा एनजीओ संगठनों और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक बयान में कहा है कि गाजा की नाकेबंदी के कारण 14 लाख लोगों का स्वास्थ्य दांव पर लगा है। बीमार लोगों में बीस प्रतिशत सख्त मरीज हैं, इन्हें तत्काल इलाज के लिए इस्राइल के अस्पतालों में भर्ती कराने की जरुरत है। गाजा में जिस तरह सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक हालात खराब हुए हैं उसके कारण लोगों की तबियत ज्यादा तेजी से खराब हो रही है।
    दूसरी ओर इस्राइली अस्पतालों में इलाज के लिए आने वाले मरीजों के साथ घनघोर अमानवीय व्यवहार किया जा रहा है। फिलीस्तीनी मरीजों को इस्राइल में प्रवेश की अनुमति नहीं दी जा रही है। उल्लेखनीय है गाजा पर सन् 2007 से हम्मास का नियंत्रण स्थापित होने के बाद से इस्राइल ने गाजा की ओर जाने वाले सभी रास्ते बंद कर दिए हैं, फिलीस्तीन का शेष  संसार के साथ संपर्क और संचार के जितने भी रास्ते हैं वे इस्राइल और मिस्र से होकर जाते हैं। इस्राइल की नाकेबंदी का फिलीस्तीन के लिए अर्थ है संसार से समस्त संपर्कों की समाप्ति। नाकेबंदी के कारण पर्याप्त मात्रा में दवा,इलाज की मशीनें ,एक्सरे मशीन आदि की सप्लाई तक में बाधा पड़ी है। यहां हम अपील पेश कर रहे हैं जो हाल ही में गाजा के हालात पर ध्यान खींचने के लिए यहूदियों ने जारी की है।
    
        
Rabbis Condemn Israel for War Crimes Committed in Gaza: Open Letter to Judge Goldstone

Global Research, April 26, 2010
Jewish Fast for Gaza - 2010-04-21

Dear Judge Goldstone,
As rabbis from diverse traditions and locations, we want to extend our warmest mazel tov to you as an elder in our community upon the Bar Mitzvah of your grandson. Bar and Bat Mitzvah is a call to conscience, a call to be responsible for the welfare of others, a call to fulfill the covenant of peace and justice articulated in our tradition.
As rabbis, we note the religious implications of the Report you authored. We are reminded of Shimon Ben Gamliel’s quote, “The world stands on three things: justice, truth, and peace as it says ‘Execute the judgment of truth, and justice and peace will be established in your gates’ (Zaccariah 8:16).” We affirm the truth of the report that bears your name.
We are deeply saddened by the controversy around the report. We affirm your findings and believe you set up an impeccable standard that presents strong evidence that during the war in Gaza Israel engaged in war crimes that revealed a pattern of continuous and systematic assault against Palestinian people and land that has very little to do with Israel’s claim of security. Your report made clear the intentional targeting of civilian infrastructures such as hospitals, schools, agricultural properties, water and sewage treatment centers and civilians themselves with deadly weapons that are illegal when used in civilian centers.
This is the ugly truth that is so hard for many Jewish people to face. Anyone who spends a day in Palestinian territories sees this truth immediately.
Judge Goldstone, we want to offer you our deepest thanks for upholding the principles of justice, compassion and truth that are the heart of Jewish religion and without which our claims to Jewishness are empty of meaning. We regret that your findings have led to controversy and caused you not to feel welcome at your own grandson’s Bar Mitzvah. We believe your report is a clarion call to Israel and the Jewish people to awaken from the slumber of denial and return to the path of peace.
This letter is endorsed by Taanit Tzedek- Jewish Fast for Gaza , Shomer Shalom Institute for Jewish Nonviolence, Tikkun and the Shalom Center.
Rabbi Lynn Gottlieb, Shomer Shalom Network for Jewish Nonviolence
Rabbi Brant Rosen, Taanit Tzedek –Jewish Fast for Gaza
Rabbi Brian Walt, Taanit Tzedek –Jewish Fast for Gaza
Rabbi Haim Beliak
Rabbi Michael Lerner, Tikkun Community
Rabbi Arthur Waskow, The Shalom Center
Rabbi Rebecca Alpert
Rabbi Phyllis Berman
Rabbi Michael Feinberg
Rabbi Zev-Hayyim Feyer
Rabbi Margaret Holub
Rabbi Shai Gluskin
Rabbi Douglas Krantz
Rabbi Eyal Levinson
Rabbi Mordecai Liebling
Rabbi David Mivasair
Rabbi David Shneyer
Rabbi Laurie Zimmerman
Rabbi Gershon Steinberg-Caudill
Rabbi Erin Hirsh
Rabbi Michael Rothbaum
Rabbi Benjamin Barnett
Rabbi Julie Greenberg
Rabbi Linda Holtzman
Rabbi Ayelet S.Cohen
Rabbi Jeffrey Marker
Rabbi Nina H.Mandel
Rabbi Victor Reinstein
Rabbi Everett Gendler
Rabbi Meryl M. Crean
Rabbi Sheila Weinberg
Rabbi Pamela Frydman Baugh
Rabbi Lewis Weiss
Rabbi Shaul Magid
Rabbi Stephen Booth-Nadav
Rabbi Phillip Bentley
Rabbi Anna Boswell-Levy
Rabbi Chava Bahle
This letter is supported by Taanit Tzedek- Jewish Fast for Gaza , Shomer Shalom Institute for Jewish Nonviolence, Tikkun and the Shalom Center.
If you are a rabbi and would like to add your name to this statement, send an e-mail to Rabbi Lynn Gottlieb (rabbilynn at earthlink dot net).



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