शुक्रवार, 12 मार्च 2010

हिन्दी के लेखक संगठनों की दिमागी गुलामी का तानाबाना -5

सन् 1984-85 के बाद से समाजवाद के पराभव की जो प्रक्रिया शुरू हुई उसने महानगरीय सांस्कृतिकबोध और महानगरीय नजरिए पर ज्यादा जोर दिया है। भूमंडलीकरण के सवाल केन्द्र में आ गए हैं। समाजवाद फीका पड़ा है। वफादारी का भाव प्रबल हुआ है। संकट में आलोचकों की नहीं वफादारों की जरूरत महसूस होती है। लेखक संगठन जब वफादारों से घिरे हों तो समझना चाहिए संकट की गिरफ्त में हैं।
   लेखक संगठन आधुनिक बनें इसके लिए जरूरी है कि वे सत्ता को अपना एजेण्डा न बनाए, राजनीति को अपना प्रधान एजेण्डा न बनाएं। यदि वह ऐसा करते हैं तो सत्ता विमर्श का अंग बन जाएंगे। साम्प्रदायिकता,धर्मनिरपेक्षता,आतंकवाद आदि सत्ता विमर्श हैं। जनता के विमर्श नहीं हैं। लेखक संगठनों का लक्ष्य विकल्प के विमर्श होने चाहिए, विकल्प के विमर्शों को सामने लाना चाहिए।
    इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो हिन्दी के लेखक संगठनों की गतिविधियों की बड़ी फीकी तस्वीर उभरकर सामने आती है। उनके यहां वैकल्पिक विमर्श एकसिरे से गायब हैं। वे जिन विषयों पर बहस कर रहे हैं ,सेमीनार कर रहे हैं उनमें से अधिकांश सत्ताा विमर्श का हिस्सा हैं।
    राजनीति से भिन्न जनता और सत्ता के विकल्पों पर काम करना लेखक संगठनों का लक्ष्य होना चाहिए। मजेदार बात यह है कि हमारे लेखक संगठनों ने कभी विकल्पों की खोज नहीं की। लेखक संगठनों में जितनी भी विचारधारात्मक बहसें चली हैं ये वे बहस हैं जो सत्ता और राजनीतिक दलों ने थोपी हैं। इनमें लेखक संगठन प्रतिक्रिया के रूप में दाखिल हुए हैं। लेखक संगठनों का एकमात्र काम प्रतिक्रिया व्यक्त करना, प्रेस विज्ञप्ति जारी करना, सत्ताधारी वर्गों के द्वारा थोपे गए मसलों पर राय देना ही बुनियादी काम रहा है। उन्होंने सालों-साल इसी काम में अपनी अजस्र ऊर्जा खर्च की है।
     यह वैसे ही है जैसे कोई ऊर्जावान व्यक्ति अपनी ऊर्जा सही कार्यों में खर्च न कर पाए और सुबह जॉगिंग में जाकर खर्च करे। जॉगिंग में खर्च की गयी ऊर्जा बेकार में व्यय की गयी ऊर्जा है। यह ऐसे व्यक्ति की ऊर्जा है जो संतुष्ट है और अपने शरीर से दुखी है। अपने ही शरीर के बोझ को संभालने में असमर्थ है। यही वजह है कि दसियों वर्ष लेखक संगठन का काम करने वाले लेखकबंधु अंत में हताश, आलस्य के मारे अथवा लेखक संगठन की क्रमश: निष्क्रियता के आख्यानों को सुना-सुनाकर अपने मन को संतोष देते रहते हैं वे एक तरह से यह भी बता रहे होते हैं कि उन्होंने कितनी बड़ी ऊर्जा निरर्थक कार्यों में खर्च की और देखो अब कोई लेखक हमारी नहीं सुन रहा।
    लेखक संगठनों की वफादारी की त्रासदी यह है कि वे जिस राजनीति के लिए अपनी सारी ऊर्जा होम कर देते हैं उस राजनीतिक दल के अंदर भी उनके लिए कोई महत्वपूर्ण जगह नहीं होती। मसलन् मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी अथवा अन्य राजनीतिक दलों में उनके लेखक संगठनों की पार्टीगत तौर क्या हैसियत है ? बुद्धिजीवियों की क्या हैसियत है इसे बड़ी आसानी से पोलिटब्यूरो और केन्द्रीय समिति के सदस्यों को देखकर समझा जा सकता है। कभी भी इन दलों की प्रधान कमेटियों में बुद्धिजीवी होने के नाते अथवा लेखक संघ के पदाधिकारियों को चुना नहीं जाता। आप बहुत बड़े कम्युनिस्ट लेखक हो सकते हैं किंतु कम्युनिस्ट पार्टी की फैसलेकुन कमेटियों में आपका कोई स्थान नहीं होगा। जबकि सोवियत संघ,चीन आदि में कभी भी ऐसा नहीं रहा है।
      भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों का बुद्धिजीवियों को प्रचारक के रूप में इस्तेमाल करना वस्तुत मध्यकालीन दरबारीपन का अपभ्रंश रूप है। जाने-अनजाने बुध्दिजीवी वर्ग के प्रति इससे बेगानेपन का भाव ही संप्रेषित होता है। यह भी संप्रेषित होता है कि लेखक की सत्ता को कम्युनिस्ट पार्टियां किसी भी रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।
    कम्युनिस्ट पार्टियों में लेखकों के कामकाज की देखभाल और दिशानिर्देश का जिम्मा लेखक के पास नहीं बल्कि किसी कूडमगज राजनीतिज्ञ के पास होता है जिसे साहित्य-कला की कोई समझ नहीं होती। जब कम्युनिस्ट पार्टियां अपने यहां लेखक और बुद्धिजीवी को प्रधान दर्जा नहीं देती हैं तो बुर्जुआ दलों से यह कैसे उम्मीद की जाए कि वे लेखक को बड़ा दर्जा देंगी।
      एक तथ्य गौर करने लायक है कि लेखक के नाते कांग्रेस ने कम से कम श्रीकांत वर्मा को अपने दल का महासचिव बनाया, कवि बाल कवि बैरागी को सांसद बनाया। राज्यसभा के लिए नामजद लोगों की सूची निकाली जाए तो कई लेखकों को सांसद के तौर पर नामांकित कराया।
   जबकि कम्युनिस्ट पार्टियों ने लंबे समय से किसी भी हिन्दी,बांग्ला,मलयालम आदि भाषा के लेखक को राज्यसभा में नामजद तक नहीं किया। हां एक बात जरूर हुई कि कई फिल्मी हस्तियों को नामजद जरूर किया। किंतु किसी हिन्दी लेखक अथवा बुद्धिजीवी को कम्युनिस्ट पार्टियों ने नामजद नहीं किया। मजेदार बात है कि हिन्दीभाषी क्षेत्र से सीताराम येचुरी, वृंदाकारात जैसे बड़े नेता राज्यसभा में नामजद किए जा सकते हैं। किंतु नामवरसिंह,भैरवप्रसाद गुप्त, अमृतराय, राजेन्द्र यादव , मुरलीमनोहरप्रसाद सिंह, मार्कण्डेय , हबीब तनवीर, इनफान हबीब,श्रीलाल शुक्ल, हरिबंस मुखिया आदि को नामजद नहीं किया जा सकता।
    सवाल किया जाना चाहिए कि जब हिन्दीभाषी क्षेत्रों में कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारात्मक बागडोर हिन्दी के लेखक और बुद्धिजीवी संभालते हैं तो उन्हें संसदीय लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्थाओं में प्रतिनिधित्व दिलाने का काम कम्युनिस्ट पार्टियां क्यों नहीं करतीं ?
यह क्यों होता है कि जो लोग कम्युनिस्ट पार्टियों में आर्थिक और सांस्कृतिक नीति बनाने का काम करते हैं वे संसद में नहीं भेजे जाते , सिर्फ राजनीतिज्ञों को ही क्यों नामजद किया जाता है ? इस मामले में एकमात्र अपवाद हैं फिल्मी हस्ती। इसे ही कहते हैं इलैक्ट्रोनिक मीडिया का राजनीतिक प्रभाव।
    हिन्दी का लेखक इलैक्ट्रोनिक मीडिया में एकसिरे से अनुपस्थित है। इलैक्ट्रोनिक मीडिया में जो हिन्दी लेखक अनुपस्थित है उसे हिन्दी में खासकर राजनीतिक हलकों में तवज्जह ही नहीं मिलती। इलैक्ट्रोनिक मीडिया में तीन लेखकों की सबसे ज्यादा उपस्थिति रही है वे हैं नामवरसिंह,पुरूषोत्तम अग्रवाल और सुधीश पचौरी। बाकी हिन्दी लेखकों को आप कभी भी नहीं देख सकते। कभी-कभार कोई लेखक टीवी रिपोर्टिंग अथवा टीवी कार्यक्रम में आ जाए तो बड़ी करामात से कम नहीं है।
कहने का तात्पर्य कि हिन्दी लेखकों की इलैक्ट्रोनिक मीडिया में अनुपस्थिति बहुत बड़ा कारण है हिन्दी लेखक संगठनों के गुम हो जाने का। फिल्मी हस्ती को संसद के लिए नामजद करने का प्रधान कारण है उसका पर्दे या स्क्रीन पर दिखना। हिन्दी का लेखक छपता है दिखता नहीं है। मौजूदा दौर दिखने का है ,आप यदि दिखते नहीं हैं तो आपका अस्तित्व नहीं है। यदि छोटे पर्दे से लेकर बड़े स्क्रीन के पर्दे पर दिखते हैं तो आपने कम काम किया हो तब भी महान हैं।
    छोटे पर्दे ने छोटे को बड़ा और बड़े को छोटा बनाया है। अनुपस्थित को उपस्थित और उपस्थित को अनुपस्थित बनाया है। संगठन को छोटा और व्यक्ति को बड़ा बनाया है। हिन्दी के लेखक संगठन मूलत: प्रचार अभियान के संगठन हैं। इनका व्यवहार में एक अच्छे जनसंपर्क संगठन के रूप में अभी तक विकास नहीं हो पाया है।



1 टिप्पणी:

  1. आपका यह लेख अत्यंत प्रशंसनीय है। मैं आप जैसा नहीं लिख सकता पर वैचारिक धरातल पर आपसे सहमति तो जता ही सकता हूं। दूसरी बात यह कि हिन्दी साहित्य की दृष्टि से यह लेख संग्रहणीय है। ऐसी कटु पर सत्य बातें बहुत कम लेखक लिख पाते हैं क्योंकि सभी दरबार में सजने के लिये बेताब हैं-जैसा कि आप स्वयं भी मानते हैं।
    दीपक भारतदीप

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