शुक्रवार, 12 मार्च 2010

हिन्दी के लेखक संगठनों की दिमागी गुलामी का तानाबाना -6-

    लेखकों के सभी संगठन आज सामाजिक हाशिए के बाहर हैं। हाशिए पर जाना घटना है और हाशिए के बाहर चले जाना त्रासदी है। दुर्घटना है। लेखक और संस्कृति मंचों की जरूरत तब ही महसूस की जाती है तब आप शोषित महसूस करें। लेखक जब शोषित महसूस करना बंद कर देता है तो संगठन की प्रासंगिकता खत्म हो जाती है। संगठन प्रतीकात्मक रह जाते हैं। लेखक संगठनों को सत्ता से कभी शक्ति नहीं मिलती। मलाई जरूर मिलती है।
     इसी तरह लेखक संगठनों को राजनीति का अंग भी नहीं समझना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो लेखक संगठन हाशिए के बाहर जाने के लिए अभिशप्त हैं। विलक्षण आयरनी है कि लेखक संगठनों का काम करते हुए ह्रास हुआ है। सबसे ज्यादा सक्रिय लेखक संगठन आज सबसे ज्यादा निष्क्रिय हैं। कभी-कभार प्रतीकात्मक कार्यक्रम कर देते हैं,शोकसभा कर देते हैं,सम्मेलन कर लेते हैं, कभी कभार सेमीनार कर लेते हैं। लेकिन लेखकीय अधिकारों के लिए कभी संघर्ष नहीं करते।
    लेखक संगठन की सक्रियता प्रायोजक जैसी हो गयी है। सवाल यह है कि लेखक संगठन प्रायोजक कैसे हो गया ? प्रायोजक भाव में रहने के कारण ही उसकी प्रेरणा सीमित दायरे में सक्रिय है। जब किसी कार्यक्रम का आयोजन करता है तो प्रेरक और सक्रिय के भ्रम में रहता है। कार्यक्रम खत्म और प्रेरक का भ्रम भी खत्म। प्रायोजक का भाव मूलत: वहां नहीं होता जिसका दावा किया जाता है बल्कि वहां पर होता हे जिसको छिपाकर रखा जाता है।
     प्रायोजक बगैर निवेश के लाभ लेना चाहता है। यही स्थिति लेखक संगठनों की भी है वे भी बगैर निवेश के लाभ लेना चाहते हैं। नाम कमाना चाहते हैं। मंच देना निवेश नहीं है। बल्कि मंच तो लाभ का स्रोत है।
    लेखक संगठन का निवेश आलोचनात्मक वातावरण निर्माण पर निर्भर करता है। मंच मात्र देने से आलोचनात्मक वातावरण नहीं बनता। आलोचनात्मक वातावरण अनालोचनात्मक वातावरण को नष्ट करके बनता है। इसके लिए विचारधारात्मक और सर्जनात्मक योगदान की जरूरत होती है। विचारधारात्मक-सर्जनात्मक वातावरण सीमाओं का अतिक्रमण करके ही बनता है। सीमाओं में बांधकर मंच और बहसों का आयोजन अनालोचनात्मक वातावरण को बनाए रखता है।
     कल तक लेखक संगठन जिसे प्रेरणा,अपरिहार्य,अनिवार्य और स्वाभाविक मानते थे आज प्रेरणा लेने की बजाय उससे यांत्रिकतौर पर बंधे हैं। लेखक संगठन जितने बड़े उत्साह के साथ बनते हैं उतनी ही तेजी से उनका उत्साह ठंड़ा पड़ जाता है । कल तक जो लेखक संगठन की महत्ताा पर निबंध लिखता था आज वही लेखक संगठन को अप्रासंगिक मानता है। कोई बात जरूर है जो लेखक संगठन को तमाम सक्रियता के बावजूद अप्रासंगिक बनाती है। क्या लेखकीय निष्क्रियता को संगठन के बयानों के जरिए जान सकते हैं ? जी नहीं।
     लेखक संगठन की व्याख्याएं राजनीतिक कार्य-कारण संबंधों के आधार पर आती रही हैं। कभी हमने राजनीतिक कार्य-कारण संबंध के फार्मूले के परे जाकर सोचा ही नहीं है। सवाल यह है कि लेखक संगठन की वर्तमान दशा और दिशा की क्या 'विखंडनवादी' रीडिंग संभव है ? लेखक संगठन के द्वारा विलोम निर्माण की प्रक्रिया को कभी गैर विखंडनवादी पध्दति और नजरिए के जरिए नहीं समझा जा सकता। 'सही' और 'गलत' राजनीतिक लाइन के आधार पर नहीं समझा जा सकता। 'प्रासंगिकता' और 'अप्रासंगिकता' के आधार पर नहीं समझा जा सकता। 'श्रेष्ठ' और 'निकृष्ट' के आधार पर वर्गीकृत करके नहीं समझा जा सकता।
    मसलन् यह वर्गीकरण वैध नहीं है कि ''लेखक संगठन में काम करना 'श्रेष्ठ' है और जो लेखक, संगठन का काम नहीं करते वे निकृष्ट हैं।'' उसी तरह '' जो लेखक संगठन का काम करते हैं वे निकृष्ट हैं और जो बाहर हैं वे श्रेष्ठ हैं।'' इसी तरह '' लेखक संगठन का सोच सही है, व्यक्ति के रूप में लेखक का सोच गलत है।'' अथवा 'संगठन वैध है बाकी सब अवैध है।'' ''लेखक संगठन का सत्य प्रामाणिक है ,व्यक्ति लेखक का सत्य अप्रामाणिक है'', '' साहित्यिक विधा में लिखना लेखन है और गैर साहित्यिक विधाओं जैसे मीडिया में लिखना साहित्य नहीं है।'', ''लेखक संगठन में काम करना पुण्य है और गैर सांगठनिक लेखकीय कर्म पाप है।'', ''लेखक संगठन टिकाऊ है बाकी सब नश्वर है।'' इत्यादि वर्गीकरण बोगस हैं।
    'लेखक संगठन ही सर्वस्व है' का नारा देने वाले यह भूल गए कि रचना का मूल स्रोत तो जीवन है। रचना का मूल स्रोत संगठन नहीं होता। अत: नारा होना चाहिए '' जीवन ही सर्वस्व है।'' इस नारे को भूलकर हमारे लेखक संगठनों ने मूल्य, कृति,राजनीति,विचारधारा इत्यादि चीजों को सर्वस्व बना दिया।
     यही वह बिंदु है जहां से लेखक संगठन अपने को हाशिए पर ले जाते हैं और अंत में सिर्फ प्रतीकात्मक उपस्थिति मात्र बनकर रह जाते हैं। लेखक संगठनों का जीवन के प्रति वाचिक लगाव है, वे जीवन की महत्ताा और मर्म से पूरी तरह वाकिफ नहीं हैं। जीवन की जटिलाओं को उन्होंने विश्वदृष्टि से देखा नहीं है। उन्होंने कभी परवर्ती पूंजीवाद ,इलैक्ट्रोनिक मीडिया,सैटलाइट के संदर्भ में लेखन को खोलकर नहीं देखा। साहित्य के दार्शनिक आयाम की कभी चर्चा तक नहीं की।
जीवन के साथ लगाव के नाम पर जीवन के इस या उस पक्ष की ही प्रतिष्ठा की गई। इस या उस पक्ष की हिमायत की गई। हिन्दी रचनाकार के लिए जीवनमूल्य महान और जीवन नश्वर रहा है।
     वह मानता है कि वह शाश्वत सत्य रच रहा है। अपने रचे को सत्य मानना, प्रामाणिक मानना,वैध मानना और उसी के आधार पर फतवे जारी करना मूलत: कर्मफल के सिध्दान्त का साधारणीकरण है। कर्मफल के सिध्दान्त का ही परिणाम है जो सही है वह सही है जो गलत है वह गलत है।
   कर्मफल का सिद्धान्त स्त्री और दलित की अनुभूति और सामाजिक अस्मिता को स्वीकार नहीं करता। यही वजह है कि लंबे समय से लेखक संगठनों की कार्यप्रणाली में पितृसत्ताात्मक विचारधारा हावी है। जो बड़ा है वह बड़ा है,जो छोटा है वह छोटा है। सांगठनिक हायरार्की का सब समय ख्याल रखा जाता है। ऊपर की शाखा की बातें निचली शाखा को मानना अनिवार्य है। सांगठनिक हायरार्की में चूंकि जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ में कम्युनिस्ट दलों की (क्रमश: माकपा और भाकपा) केन्द्रीय भूमिका है अत: पार्टी का आदेश अंतिम आदेश होता है और लेखक संगठनों के मुख्य पदाधिकारियों को तदनुरूप ही काम करना पड़ता है। आप कितने भी अच्छे संगठनकत्तर्ाा हों, कितने ही बड़े लेखक हों, यदि कम्युनिस्ट पार्टी की अनुकरणात्मक भावना आपके अंदर नहीं है तो आपको संगठन में जिम्मेदारी नहीं दी जा सकती। कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से लेखक संगठन को देखने वाला नेता अमूमन चुगद किस्म का व्यक्ति होता है जिसे किसी भी भाषा के साहित्य की समझ नहीं होती ऐसी स्थिति में वह सिर्फ अपने अनुयायी और विश्वस्त के हाथों ही संगठन का नेतृत्व सौंपना पसंद करता है। चाहे वह व्यक्ति कितना ही निकम्मा क्यों न हो।

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