बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

मोहन भागवत का झूठ और सामाजिक सच

  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का इसबार का विजयादशमी के भाषण का सार -संक्षेप मेरे सामने है। इसे यहां देख सकते हैं। http://www.pravakta.com/story/15007  हिन्दुत्ववादी होने के नाते उनका सुंदर राजनीतिक भाषण है।
     संघ एक सामाजिक संगठन का दावा करता है लेकिन संघ के प्रधान का विजयादशमी को दिया गया भाषण सामाजिक समस्याओं पर न होकर राजनीतिक समस्याओं पर था। संघ को जब राजनीतिक कार्यक्रम पर ही काम करना है तो उसे सामाजिक संगठन का मुखौटा उतार फेंकना चाहिए। भागवतजी ने बड़े ही तरीके से राममंदिर निर्माण,इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बैंच के हाल के फैसले, धर्मनिरपेक्षता, कश्मीर समस्या, जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद,चीन, नक्सली आतंक,उत्तर पूर्वांचल में अलगाववाद की समस्या, बंगलादेश से घुसपैठ,उदारीकरण और पश्चिमी विकास मॉडल के दुष्परिणाम,शिक्षा के व्यवसायीकरण आदि समस्याओं पर प्रकाश डाला है।
       उपरोक्त सारी बातें राजनीति की हैं। सामाजिक समस्या के दायरे में इन्हें नहीं रखा जा सकता। वैसे इनमें से प्रत्येक समस्या का समाज से संबंध है। मौटे तौर पर पूरा भाषण हिन्दू मृगमरीचिका का प्रतिबिम्ब है।
    इस प्रसंग में मैं भागवतजी की अयथार्थवादी समझ का एक ही नमूना पेश करना चाहूँगा। उनका मानना है कि जम्मू-कश्मीर की स्थिति से निबटने का आधार है संसद के द्वारा 1994 में  पारित सर्वसम्मत प्रस्ताव। उन्होंने कहा है ‘‘संसद के वर्ष 1994 में सर्वसम्मति से किये गये प्रस्ताव में व्यक्त संकल्प ही अपनी नीति की दिशा होनी चाहिए।’’
   लेकिन यह प्रस्ताव आज के यथार्थ को सम्बोधित नहीं करता। सन् 1994 के बाद  पैदा हुई समस्याओं का संघ के पास कोई समाधान नहीं है।कश्मीर में दस हजार से ज्यादा बच्चे अनाथ हो गए हैं उनकी देखभाल कौन करेगा ? बीस हजार से ज्यादा विधवाएं हैं उनके भरणपोषण की जिम्मेदारी कौन लेगा ? सैंकड़ों औरतें हैं जिनके ऊपर आतंकियों और सेना ने जुल्म किए हैं उनके बारे में क्या किया जाए ? क्या पुराने संसदीय प्रस्ताव को दोहराने मात्र से काम बनेगा ?
    विगत 60 सालों में किसी न किसी बहाने इस राज्य को प्राप्त अधिकारों में कटौती हुई है। इस समस्या को सही राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में नए सिरे से सम्बोधित करने की जरूरत है। भारत के संविधान के दायरे में जितने व्यापक अधिकार दिए जा सकें उस दिशा में सोचना होगा। राज्य के अधिकारों को छीनकर उसे सिर्फ सेना के बल पर चलाना अक्लमंदी नहीं है। यह राजनीतिक समाधान खोजने में केन्द्र सरकार की असमर्थता की निशानी है।  नागरिक जीवन में स्थायी तौर पर सेना का बने रहना समस्या का समाधान नहीं है।
      मोहन भागवत ने अपने भाषण में कहा है कि  ‘‘अपने देश के जिस सामान्य व्यक्ति के आर्थिक उन्नयन की हम बात करते हैं, वह तो कृषक है, खुदरा व्यापारी, अथवा ठेले पर सब्जी बेचनेवाला, फूटपाथ पर छोटे-छोटे सामान बेचनेवाला है, ग्रामीण व शहरी असंगठित मजदूर, कारीगर, वनवासी है। लेकिन हम जिस अर्थविचार को तथा उसके आयातित पश्चिमी मॉडल को लेकर चलते हैं वह तो बड़े व्यापारियों को केन्द्र बनाने वाला, गाँवों को उजाड़नेवाला, बेरोजगारी बढ़ानेवाला, पर्यावरण बिगाड़कर अधिक ऊर्जा खाकर अधिक खर्चीला बनानेवाला है। सामान्य व्यक्ति, पर्यावरण, ऊर्जा व धन की बचत, रोजगार निर्माण आदि बातें उसके केन्द्र में बिल्कुल नहीं है।’’
     सवाल उठता है कि संघ के राजनीतिक सुपुत्रों अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी  और भाजपा सांसदों ने नव्य उदारीकरण की बुनियादी नीतियों का संसद में विरोध क्यों नहीं किया ? यह कैसा राजनीतिक पाखण्ड है कि भाजपा ,जिसका संघ से चोली-दामन का संबंध है, वह तो नव्य उदारीकरण के पक्ष में काम करे,आदिवासियों को उजाड़ने का काम करे।
    गुजरात और मध्यप्रदेश की राज्य सरकारों के हाथ आदिवासियों के विस्थापन से सने हैं। कौन नहीं जानता कि नर्मदा बचाओ आंदोलन करने वालों के प्रति संघ परिवार का शत्रुतापूर्ण रूख है। संघ परिवार मुस्तैदी से आदिवासियों को फंडामेंटलिस्ट बनाने में लगा है दूसरी ओर संघ के प्रधान के मुँह से आदिवासी प्रेम शोभा नहीं देता।
    पश्चिमी मॉडल और खासकर नव्य उदार आर्थिक नीतियों और उपभोक्तावादी नीतियों का संसद में भाजपा ने कभी विरोध नहीं किया बल्कि बढ़-चढ़कर लागू करने में कांग्रेस की मदद की है। एनडीए के शासन में इन नीतियों को तेजगति से लागू किया गया।
      मोहन भागवत के राजनीतिक विचार यदि एक ईमानदार देशभक्त के विचार हैं तो उन्हें भाजपा को आदेश देना चाहिए कि संसद में वे नव्य उदारीकरण से जुड़ी नीतियों का विरोध करें। मोहन भागवत जी के मौखिक कथन और व्यवहार में जमीन-आसमान का अंतर है। भाजपा के सांसदों और विधायकों और मोहनभागवतजी के कथन और एक्शन में जमीन -आसमान का अंतर है। इस तरह का राजनीतिक गिरगिटिया व्यवहार शोभा नहीं देता। इससे यही पता चलता है कि बातों में हिन्दू हैं लेकिन एक्शन में अमरीका भक्त हैं। इस तरह का व्यवहार सिर्फ वे ही कर सकते हैं जिनकी जनता और देश  के प्रति कोई आस्था ही न हो।
       मोहन भागवत जी ने देवरस जी के हवाले से कहा है  भारत में पंथनिरपेक्षरता, समाजवाद व प्रजातंत्र इसीलिए जीवित है क्योंकि यह हिन्दुराष्ट्र है यह बात बुनियादी तौर पर गलत है।
     भारत धर्मनिरपेक्ष पूंजीवादी लोकतांत्रिक देश है। यह हिन्दू राष्ट्र नहीं है। लोकतंत्र में हिन्दू,ईसाई,इस्लाम,बौद्ध,जैन,सिख धर्म आदि के मानने वाले रहते हैं। लेकिन वे सब नागरिक हैं ,वे न हिन्दू हैं, न मुसलमान है,न सिख हैं, न ईसाई है। वे तो नागरिक हैं और इनकी कोई धार्मिक पहचान नहीं है। एक ही पहचान है नागरिक की।
    दूसरी बड़ी पहचान है भाषा की। तीसरी पहचान है जेण्डर की। इन सबसे बड़ी पहचान है भारतीय नागरिक की। भारत में आज धार्मिक पहचान प्रधान नहीं है। भारतीय नागरिक की पहचान प्रमुख है। भारत हिन्दू राष्ट्र नहीं है। यह विभिन्न धर्मों,जातियों, संस्कृतियों को मानने वालों का विविधता से भरा बहुजातीय लोकतांत्रिक ,समाजवादी , धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। यह बात संविधान में लिखी है। जिसे संघ परिवार को विकृत करने का कोई हक नहीं है।
     मोहन भागवतजी को एक भ्रम और है ,उन्होंने कहा है- ‘‘सभी विविधताओं में एकता का दर्शन करने की सीख देनेवाला, उसको सुरक्षा तथा प्रतिष्ठा देनेवाला व एकता के सूत्र में गूंथकर साथ चलानेवाला हिन्दुत्व ही है। ’’ राजनीतिशास्त्र कोई भी साधारण विद्यार्थी भी यह बात जानता है कि भारत की चालकशक्ति भारत का संविधान है , न कि हिन्दुत्व।
     इसके अलावा समाज में एक ही संस्कृति का बोलवाला है वह उपभोक्ता संस्कृति। उपभोक्ता संस्कृति का सर्जक पूंजीपति वर्ग और उसकी नीतियां हैं न कि हिन्दुत्व। विविधता में एकता का आधार है लोकतांत्रिक संविधान न कि हिन्दुत्व।
    हिन्दुत्व कोई सिस्टम नहीं है। वह एक फासीवादी विचार है जिसका संघ के सदस्यों में संघ के कार्यकर्ता प्रचार करते रहते हैं। हिन्दुत्व न तो संस्कृति है और न जमीनी हकीकत से जुड़ा विचार है यह एक फासीवादी विचार है ,छद्म विचार है। इसको आप संघ के नेताओं के प्रचार के अलावा और कहीं देख-सुन नहीं सकते।
     मौजूदा भारतीय समाज की चालकशक्ति है पूंजीवाद और पूंजीवादी मासकल्चर । इसके सामने कोई न हिन्दू है न मुसलमान है,सिख है न ईसाई है ,यदि कुछ है तो सिर्फ उपभोक्ता है। नागरिक को उपभोक्ता बनाने में नव्य उदार आर्थिक नीतियों को लागू करने वालों (कांग्रेस और भाजपा) की सक्रिय भूमिका रही है।
    संघ परिवार को कायदे से राजनीतिक समस्याओं की बजाय सामाजिक समस्याओं की ओर ध्यान देना चाहिए। बाल विवाह,बाल शिक्षा, स्त्रीशिक्षा,जातिभेद, धर्मभेद आदि के खिलाफ काम करना चाहिए।
     आश्चर्य की बात है कि मोहन भागवत जी के भाषण में औरतों की समस्याओं का कहीं पर भी कोई जिक्र नहीं है। सवाल किया जाना चाहिए कि क्या भारत में औरतें खुशहाल जिंदगी बिता रही हैं ? औरतों के बारे में मोहन भागवतजी की चुप्पी अर्थवान है । यदि सारे देश की औरतों की बात छोड़ भी दें तो भी उन्हें कम से कम हिन्दू औरतों की पीड़ा और कष्ट से कराहते चेहरे नज़र क्यों नहीं आए ? उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि संघ को हिन्दू मर्दों की सेवा करनी है ,उनकी मुक्ति के लिए काम करना है,हिन्दुत्व के लिए पुरूषार्थी बनाना है।
     मैं समझ सकता हूँ कि वे औरतों के बारे में क्यों नहीं बोले ? वे चाहते हैं औरतें बदहाल अवस्था में रहें। औरतों की समस्याओं को उठाने का मतलब सामाजिक काम करना और सामाजिक काम करना संघ का लक्ष्य नहीं है।
    संघ एक फासीवादी संगठन है और उसकी औरतों के बारे में एक खास समझ है जो हिटलर के विचारों से मिलती है। वे मानते हैं कि समाज में औरत की परंपरागत भूमिका होगी। वह चौका-चूल्हे और चारपाई को संभालेगी और बच्चे पैदा करेगी। घर की चौखट के अंदर रहेगी। यही वह बिंदु है जिसके कारण मोहन भागवतजी ने औरतों की समस्याओं पर एक भी शब्द खर्च नहीं किया।
     औरतों की बदहाल अवस्था इस बात का भी संकेत है कि इस समाज में विभिन्न धर्मावलम्बियों ने औरत को किस तरह बर्बाद किया है। खासकर संघ जैसे विशाल संगठन के होते हुए औरतों पर जुल्म बढ़े हैं। अनेक मौकों पर तो संघसेवकों ने औरतों की स्वतंत्रता का अपहरण करने और अन्तर्जातीय-अन्तर्धार्मिक शादी ऱूकवाने में सक्रिय हस्तक्षेप किया है। वे  आधुनिक औरत की स्वतंत्रचेतना और आत्मनिर्भर लोकतांत्रिक इमेज से नफ़रत करते हैं और यही वजह है कि मोहन भागवतजी के भाषण से औरतों का एजेण्डा एकसिरे से गायब है।
   मोहन भागवतजी के भाषण से दूसरा सबसे बड़ा राजनीतिक और सामाजिक मुद्दा गायब है वह है भ्रष्टाचार। पूरे भाषण में एक भी शब्द भ्रष्टाचार के बारे में नहीं है ? क्या हम यह मान लें यह समस्या नहीं है ? या भ्रष्टाचार के बारे में भागवतजी की चुप्पी भी अर्थवान है ? लगता है संघीतंत्र में भ्रष्टाचार समस्या नहीं है। वह तो आम अनिवार्य नियम है। यदि समस्या है तो पता लगाया जाना चाहिए कि भ्रष्टाचार के कारण आज तक किसी भी संघी को संघ से क्यों नहीं निकाला गया ? क्या हिन्दुत्व की विचारधारा में नहाने मात्र से भ्रष्ट लोग पवित्र हो जाते हैं ? या कोई और वजह है ?  

















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