मंगलवार, 16 नवंबर 2010

साइबरकल्चर का एशियाई परिप्रेक्ष्य

            परवर्ती पूंजीवाद ने एशिया में विकास की नयी राजनीतिक संभावनाओं को खोला है। उसके कारण एशिया इस समय सबसे समर्थ आर्थिक शक्ति बन गया है। शीतयुद्ध की समाप्ति और संचार क्रांति ने विश्व की अर्थनीति में एशिया को ताकतवर बनाया है। एशिया आज जितना ताकतवर है वैसा ताकतवर वह कभी नहीं था। नयी परिस्थितियों में तीन बड़े परिवर्तन हुए हैं पहला परिवर्तन यह हुआ है कि चीन में समूचा वातावरण बदला है। बंदिशें कम हुई हैं। चीन के बदले हुए वातावरण ने एशिया में मासकल्चर को नई बुलंदियों पर पहुँचा दिया है और सामाजिक-आर्थिक विश्व शक्ति संतुलन को भी इसने प्रभावित किया है। मासकल्चर,संचार उद्योग और संस्कृति उद्योग के मालों का चीन आज सबसे बड़ा उत्पादक देश है । चीन में मजदूरों का शोषण बढ़ा है। मालों की खपत बढ़ी है।   
    एशियाई देशों की साझा समस्या है कारपोरेट लूट, पृथकतावाद और फंडामेंटलिज्म ।इन तीन विराट दैत्यों से कैसे संघर्ष करें ? मजेदार बात यह है कि जिस समय सारी दुनिया में समाजवाद और शीतयुद्ध से मुक्ति का मार्ग खोजा जा रहा था ठीक उसी समय जातीयताओं और अल्पसंख्यकों पर हमले तेज हुए हैं। जातीयसंकट गहरा हुआ है। इससे एशिया में लोकतंत्र का रास्ता क्षतिग्रस्त हुआ है। एशिया में लोकतांत्रिक प्रणाली को सबसे बड़ी चुनौती इसी दौर में दी गई । समाजवाद टूटा।खासकर सोवियत संघ और चीन में गैर समाजवादी मार्ग का अनुसरण किया गया। लंपट लोकतंत्र का उदय हुआ। अबाध कारपोरेट लूट के पूंजीवादी मार्ग का विकास हुआ।
    इसके अलावा देशज स्तर पर भाषायी असहिष्णुता कम हुई । दूसरी ओर भाषाओं के भूमंडलीकरण की प्रक्रिया आरंभ हुई। संचार क्रांति के अनेक नकारात्मक लक्षण हो सकते हैं लेकिन एक सकारात्मक लक्षण है भाषाओं का भूमंडलीकरण।
      भाषा के भूमंडलीकरण ने अस्मिता के समूचे विमर्श को,समाजवाद और शीतयुद्ध के दौर में बनी धारणाओं को गंभीर चुनौती दी और उन्हें नष्ट किया। फलतःआज भाषा विवाद की नहीं संवाद और संपर्क का माध्यम है।        
     रूस और चीन में घटित परिवर्तनों ने नव्य-उदारतावाद की दिशा ही गड़बड़ा दी है। जिस तरह समाजवादी सोवियत संघ के उदय ने पूंजीवाद के छंद को बेसुरा बनाया था और उन्हें कल्याणकारी राज्य के निर्माण की दिशा में जाने या समाजवाद अपनाने के लिए मजबूर किया था। ठीक वैसे ही चीन ने नव्य उदारतावाद को अपनाकर अमरीकी नव्य उदारतावाद को नई ऊँचाईयों पर पहुँचा दिया। सोवियत संघ जैसे सारी दुनिया को समाजवाद और कल्याणकारी राज्य का पाठ पढ़ाते पढ़ाते समाजवाद का पाठ भूल गया यहीदशा अमेरिका की हुई है। वह नव्य उदारतावाद का पाठ पढ़ाते हुए उसकी स्वयं की गाड़ी नव्य उदारतावाद की पटरी से उतर गयी है। समाजवाद के पराभव के समय अमेरिका ने सोवियत कम्युनिस्टों की मदद की. ठीक उसी तरह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने आर्थिकमंदी में अमेरिका की मदद की। आज बिडम्बना यह है कि समाजवाद रूस सेचला गया और नव्य उदारतावाद अमेरिका से जाने के लिए छटपटा रहा है।और चीन समाजवाद और नव्य उदारतावाद के बीच में फंसा हुआ लोकतंत्र की राह का यात्री बन चुका है। 
    इस क्रम में संस्कृति हाशिए पर चली गयी है और मासकल्चर ,फंडामेंटलिज्म और शरणार्थी समस्या सामने सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने हैं। हिन्दी के संदर्भ में पहली बात यह कहनी है कि हिन्दी का प्रसार हुआ है लेकिन हिन्दी की शिक्षा का ह्रास हुआ है। संस्कृति के रूप अपनी स्वायत्त स्थिति खो चुके हैं। हिन्दी का मीडिया बड़ा हुआ है, कारपोरेट मीडिया बना है। संस्कृति उद्योग की ताकतवर भाषा के रूप में हिन्दी का विस्तार हुआ है।  दूसरी ओर हिन्दी में आलोचनात्मक स्पेस कम हुआ है।
    नयी सांस्कृतिक दुनिया सरकारी विनिमय शर्तों के परे जाकर काम कर रही है। खासकर उपग्रह टेलीविजन,विज्ञापन और इंटरनेट की यूनीकोड भाषा ने हिन्दी को ग्लोबल संचार भाषा बना दिया है। इससे हिन्दी का आंतरिक संसार बुनियादी तौर पर बदला है। संचार क्रांति ने सांस्कृतिक विनिमय को बढ़ाया है। संस्कृति के उपभोग को बढ़ाया है। संस्कृति के ग्लोबल बाजार का निर्माण किया है।
        एशियाई देशों में समस्याओं का एक छोर आंतरिक है और दूसरा ग्लोबल है। आंतरिक समस्याएं लोकतंत्र के अभाव और अवरूद्ध विकास से जुड़ी हैं। अवरूद्ध विकास में सहयोगी हैंअंधजातीयतावाद,पृथकतावाद और धार्मिक टकराव। बाहरी समस्याओं की जड़ें नव्य उदारतावाद और युद्ध से संबंधित हैं। इन दोनों ही किस्म की समस्याओं ने अस्थिरता और विस्थापन और शरणार्थी समस्या को जन्म दिया है। यही वह परिदृश्य है जिसमें एशिया में संचार क्रांति हुई है, ग्लोबल मीडिया उद्योग का विकास हुआ है। हिन्दी में साइबरकल्चर का जन्म हुआ है।
      साइबर युग में हिन्दी की दुनिया तेजी से बदली है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के शब्दों में कहें तो हिन्दी अब नई चाल में ढ़ल रही है। नई चाल में हिन्दी कैसे ढ़ल रही है। इसके बारे में अभी हमने सोचना आरंभ नहीं किया है। हमें हिन्दी के बदले मानकीकरण को गौर से देखना चाहिए। हाल ही में भारत में ‘W3C ’ नामक कंपनी ने अपना मुख्यालय खोला है। इस कंपनी का काम होगा वेब पर भारत की संविधान स्वीकृत 22 राजभाषाओं के मानकीकरण के काम की निगरानी करना। यह काम भारत सरकार के सूचना तकनीकी विभाग के सहयोग से होगा।
     इसके पहले भारत सरकार ने आईसीएएनएन यानी ‘दि इंटरनेट कारपोरेशन फॉर एसाइननेम्स एंड नम्बर्स ’ में भारतीय भाषाओं में डोमेन नेम दर्ज करने का आवेदन किया है। भारत सरकार ने सात भाषाओं में डोमेन नेम दर्ज करने का अनुरोध किया है। ये भाषा हैं- हिन्दी,बांग्ला,पंजाबी,उर्दू,तमिल,तेलुगू और गुजराती। अभी स्थिति यह है कि हिन्दी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली तीसरे नम्बर की भाषा है। बांग्ला का आठवां स्थान है। लेकिन इंटरनेट पर इस्तेमाल होने वाली 10 सर्वोच्च भाषाओं में भारत की एक भी भाषा का नाम नहीं है।
     भाषावार स्थिति इस प्रकार है- अंग्रेजी 464 मिलियन,चीनी 321 मिलियन,स्पेनिस 131 मिलियन,जापानी 94 मिलियन ,फ्रेंच 74 मिलियन,पोर्तुगीज 73 मिलियन,जर्मन 65 मिलियन, अरबी 41 मिलियन ,रशियन 38 मिलियन और कोरियन भाषा  का 37 मिलियन यूजर इस्तेमाल करते हैं। कुल मिलाकर 10 भाषाओं के इंटरनेट पर 1,338 मिलियन यूजर हैं। बाकी भाषाओं के 259 मिलियन यूजर हैं। सारी दुनिया में 1,596 मिलियन भाषायी यूजर हैं।
    इसी तरह अनुवाद उद्योग पर नजर डालें तो व्यापक असंतुलन नजर आएगा। सबसे ज्यादा जिन 20 भाषाओं की रचनाओं का अनुवाद हो रहा है ,वे हैं-अंग्रेजी,फ्रेंच,जर्मन, रशियन, इटालियन,स्पेनिश,स्वीडिश,लैटिन,डेनिश,डच,चेक,एनशिएंट ग्रीक,जापानी,पोलिश, हंगेरियन, अरबी,नॉर्वेजियन, पोर्तुगीज,हिब्रू, चीनी।
       इन भाषाओं का जिन भाषाओं में अनुवाद हो रहा है वे हैं जर्मन,स्पेनिश, फ्रेंच,जापानी,अंग्रेजी,डच,पोर्तुगीज,पोलिस,रशियन,डेनिश,इटालियन,चेक,हंगेरियन,फिनिस, नॉर्वेजियन, स्वीडिश,मॉडर्न ग्रीक,बल्गेरियन,कोरियन और स्लोवाक।
   भारतीय भाषाओं के नेट पर अवरूद्ध विकास के कुछ कारण हैं। मसलन अभी भारत में पीसी साक्षरों की संख्या मात्र 62 मिलियन यानी कुल शहरी आबादी का यह मात्र 26 प्रतिशत है। सर्वोच्च चार बड़े महानगरों में इंटरनेट 21प्रतिशत आबादी तक ही पहुँच पाया है। इसके बाद के चार महानगरों में 21 प्रतिशत आबादी तक पहुँच पाया है। गैर महानगरों में 23 प्रतिशत आबादी तक पहुँच पाया है। पांच से एक लाख की आबादी  वाले इलाकों में 16 प्रतिशत तक ही पहुँच पाया है।  5 लाख की आबादी वाले टाउन में मात्र 4 प्रतिशत तक ही इंटरनेट पहुँच पाया है। स्थानीय भाषा के प्रयोग के लिहाज से चीन,जापान और कोरिया सबसे ऊपर आते हैं। भारत में अधिकांश लोग जानते ही नहीं हैं कि स्थानीय भाषा में सॉफ्टवेयर कहां मिलता है।
    एक सर्वे के अनुसार भारत के महानगरों के 35 प्रतिशत इंटरनेट यूजर नहीं जानते कि ऑनलाइन भारतीय भाषाओं का सॉफ्टवेयर कहां पर मिलता है। गैर महानगरीय यूजरों में यह संख्या 53 प्रतिशत तक बढ़ गयी है।
   भारत में आमतौर पर रोमन लिपि में लिखने की आदत बढ़ती जा रही है। इस समस्या से भी भारतीय भाषाओं को जल्दी ही मुक्ति मिल जाएगी। ‘दि वर्ल्ड वाइड वेब कंसोर्टियम ने 7 सितम्बर 2010 को यह फैसला लिया है कि नेट पर एशिय़ाई भाषाओं के बहुभाषी स्पीच सिस्टम को आरंभ कर दिया जाएगा। इस सिलसिले में चीन,भारत और ग्रीस में वर्कशॉप भी हो चुकी है।
    इसी क्रम में भारत में ‘स्पीच सिंथेसिस मार्कप लैंग्वेज ( एसएसएमएल 1.1) की व्यवस्था लागू होने जा रही है। इसके तहत आवाज के नियंत्रण,उच्चारण,ध्वनि के वोल्यूम और स्तर को नियंत्रित किया जा सकेगा। इससे भाषा के सटीक उच्चारण को समझने में मदद मिलेगी।
       साइबर संस्कृति के संदर्भ में यदि एशिया को देखें तो व्यापक भाषायी असंतुलन नजर आएगा। यह माना जा रहा है कि आने वाले एक बिलियन से ज्यादा इंटरनेट यूजर एशियाइ देशों से आएंगे। लेकिन इंटरनेट पर इस इलाके की भाषाओं का कंटेंट बहुत कम है। इंटरनेट के सकल कंटेंट का मात्र 13.83 प्रतिशत ही एशियाई भाषाओं में है। यह सामग्री सिर्फ चीन,कोरिया और जापान जैसे विकसित देशों की है। इनके अलावा सभी एशियाई देशों का इंटरनेट पर सन् 2011 तक मात्र 0.03 प्रतिशत रहेगा। उम्मीद है कि एशियाई भाषाओं का ऑनलाइन कंटेंट बढ़कर 14.69 प्रतिशत हो जाएगा। अभी दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की भाषाओं का कंटेंट कुल मिलाकर 10 मिलियन पन्ने है। जबकि सारी दुनिया के नेट यूजरों में एशिया की संख्या 41.3प्रतिशत है। यह संख्या सन् 2012 तक बढ़कर 50 प्रतिशत हो जाएगी। इसके बाबजूद सच यह है कि एशिया में इंटरनेट की पहुँच मात्र 17.2 प्रतिशत तक ही हो पायी है। इसके विपरीत पश्चिम देशों में इंटरनेट का विकास सर्वोच्च स्तर तक पहुँच गया है। पश्चिमी देशों में 73.1 प्रतिशत आबादी इंटरनेट के दायरे में है। अब इन देशों में इंटरनेट के विकास की बहुत कम संभावनाएं बची हैं। यही वह परिदृश्य है जो हमें आगे बढ़ने और ज्यादा से ज्यादा ईसाक्षर बनाने का एहसास पैदा करता है।        

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