शनिवार, 1 जनवरी 2011

उत्तर आधुनिकतावाद,नारीवाद और मार्क्स- केरॉल ए.स्टेविले-2-


स्त्रीवाद क्या है?

प्रथमत: स्त्रीवाद उत्तरआधुनिकतावाद की तुलना में अधिक उपगम्य श्रेणी प्रतीत होता है क्योंकि यह प्रतीयमानत: महिलाओं को एक राजनीतिक कोटि मानता है जिसकी अपनी एक अलग पहचान है। यद्यपि 'अकादमिक' नारीवाद की प्रभुत्वशाली प्रवृत्तियां एक प्रविधि के रूप में ऐतिहासिक भौतिकवाद को और एक राजनीतिक समालोचना के रूप में मार्क्सवाद को अस्वीकार करने में उत्तरआधुनिकतावाद के समान है, फिर भी नारीवाद के भीतर उत्तरसंरचनावादी समालोचनाओं की एक स्पष्ट दिशा रही है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उत्तरआधुनिकतावाद के विपरीत समयुगीन स्त्रीवादी सिध्दांत का आरंभ तंत्र या 'समग्रता' के प्रत्यय की अस्वीकृति के साथ नहीं हुआ। इसके विपरीत अपने तंत्रगत विश्लेषण का विस्तार कर, सर्वप्रथम 'पितृसत्ता' को पूंजीवाद के विकल्प या कभी-कभी इसके सहायक के रूप में प्रतिस्थापित किया गया। इस सैध्दांतिक ढांचे में महिलाओं का पितृसत्तात्मक तंत्र द्वारा उत्पीड़न किया जाता था और इसका विरोध करने में उनका समान हित था। नारीवाद की परियोजना बौध्दिक और राजनीतिक दोनों रही है : महिला के रूप में अपने दमन के विरुध्द महिलाओं में चेतना का विकास और महिलाओं को एक अलग क्रांतिकारी वर्ग के रूप में सामूहिक रूप से संगठित कर सामाजिक परिवर्तन लाना।
बहरहाल, आरंभ से ही यह परियोजना समस्याओं से घिरी थी। थ्योरी के रूप में या सक्रियतावाद के ढांचे के रूप में नारीवादियों के लिए एक समान समूह के रूप में महिलाओं की अवधारणा अपर्याप्त बुनियाद साबित हुई। क्योंकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अधिकांश महिलाएं व्यापक नारीद्वेषी तंत्र के प्रभावों का अनुभव करती हैं लेकिन उनके इस अनुभव के रूप और तीव्रता अलग-अलग हैं। उदाहरण के लिए एक शिक्षित महिला के लिंग-भेदवाद के अनुभव, चाहे उसने इसे कितने भी अंतरतम से महसूस किया हो, उसकी वर्ग की स्थिति के कारण उसके पास उपलब्ध संसाधनों से इसकी तीव्रता कम हो जाती है। और उसका अनुभव मजदूर वर्ग की महिलाओं या कल्याण योजना पर निर्भर महिलाओं के अनुभवों से काफी अलग होता है। 'महिलाओं' के स्थान पर 'मजदूर वर्ग' को लाकर नारीवाद यह अस्वीकार करना चाहता है कि मुक्ति में सभी महिलाओं की रुचि नहीं है, राजनीतिक कार्रवाई के लिए एक सामूहिक आधार की तो बात ही छोड़िए। वर्ण-नारीवादियों तथा महिला-समलैंगिक नारीवादियों ने ध्यान दिलाया है कि कई नारीवादियों द्वारा यथा परिभाषित महिला-कोटि में बहिष्करण और दमनकारी आचरण शामिल कर लिए थे; यह भी कि महिलाओं के कुछ निश्चित समूह अन्य महिलाओं के दमन से लाभ उठाते हैं तथा पुरुषों के समान महिलाएं भी नस्लभेदी, लिंगभेदी और समलैंगिकों से भय संबंधी आचरणों में भाग लेती हैं। उत्तरऔपनिवेशिक नारीवादियों ने तर्क दिया है कि सभी 'पितृसत्तात्मक' तंत्र समान नहीं है; 'पितृसत्ता' में विभिन्न समाजों के भीतर गुणात्मक रूप से भिन्न-भिन्न संबंध समाहित होते हैं और ये संबंध स्वयं ही ऐतिहासिक परिवर्तनों केअध्याधीन हैं। जैसा कि इन उदाहरणों से विदित होता है कि महिलाओं और पुरुषों के बीच विभाजन पर विशेष बल देना नारीवादियों के लिए न केवल महिलाओं के बीच विभाजनों को इनकार करना था, बल्कि सेवापरक, पोषणपरक और संबंधपरक नारीप्रकृति के घिसे-पिटे दृष्टिकोण को पुन: प्रस्तुत करना भी था। संक्षेप में, पितृसत्ता की अवधारणा ने महिला और पुरुष होने का मतलब क्या है, इसकी लिंग-भेदवादी समझ प्रस्तुत करने का जोखिम ले लिया है और इसलिए इसे नारीवाद-विरोधी, प्रतिक्रियावादी राजनीति के साथ जोड़ा जा सकता है जैसा कि 1986 में मीज कमीशन के साथ अश्लील-विरोधी नारीवादियों के गठजोड़ के मामले में हुआ था।
1980 के दशक के दौरान नारीवादी सिध्दांत के अंतर्गत बहस तत्ववाद (यह तर्क कि 'महिलाओं' की श्रेणी का कुछ आधार नारी की प्रकृति में निहित है) और प्रति-तत्ववाद (यह तर्क कि 'महिला' ऐतिहासिक रूप से विशिष्ट और सामाजिक रूप से निर्मित कोटि है) के इर्द-गिर्द घूमती थी। तत्ववादियों (एसेंसियलिस्ट्स) के लिए (और यह शिक्षाप्रद है कि शायद ही कोई नारीवादी इस लेबेल का दावा करेगा क्योंकि यह अर्थापकर्षक रूप में कार्य करता है) महिलाओं में एकसमान लक्षण होते हैं जिसके आधार पर राजनीतिक कार्रवाई की जा सकती है। प्रति-तत्ववादियों (एंटी-एसेंसियलिस्ट्स) के लिए 'महिला' और 'पुरुष' जैसी कोटियां प्रकृति द्वारा निर्धारित नहीं हैं और न ही इन्हें कुछ अपरिवर्तनशील प्राकृतिक सत्व में पाया जा सकता। बल्कि वे सामाजिक रूप से निर्मित होती हैं और अलग-अलग संस्कृतियों तथा ऐतिहासिक क्षणों में इनमें उल्लेखनीय परिवर्तन होता है। यदि तत्ववाद अंग्रेजी वर्णमाला के बड़े अक्षर ष्ठ वाले विभेदों पर या महिला और पुरुष के बीच निरपेक्ष विभेद पर जोर देता है तो प्रति-तत्ववाद (एंटी-एसेंसियलिस्ट्स) 'महिला' कोटि के भीतर बहुल, निम्न-कारक (लोअर केस) विभेदों पर बल देता है।
तत्ववाद की समालोचना का महत्व उन निषेधों की पहचान करने में रहा है जिन पर नारीवादी सिध्दांत और आचरण आधृत थे लेकिन तत्ववाद और प्रति-तत्ववाद के बीच विरोध ने इसकी जो कुछ भी कभी उपयोगिता थी, उसे समाप्त कर दिया है। यहीं पर हम अकादमिक नारीवाद की प्रबल प्रवृत्तियों का उत्तरआधुनिकतावाद में आमिलन नोटिस कर सकते हैं चूंकि दोनों ही समान राजनीतिक अंतहीन वन में ले जाते हैं। प्रति-तत्ववादी नारीवादी महिलाओं के बीच विभेदों को देखते हुए अब उत्तरआधुनिकतावादी नेत्रहीनता की ओर अग्रसर हो गया है जो विभेद को छोड़कर कुछ नहीं देखती। दूसरे शब्दों में, जिस प्रकार उत्तरआधुनिकतावादी तर्क देते हैं कि 'यथार्थ' अब किसी ठोस, वस्तुपरक वास्तविकता को नहीं दरशाता है उसी तरह नारीवाद की वर्तमान प्रवृत्तियां 'महिला' कोटि को 'तर्कमूलक' निर्मिति में विलीन कर रही हैं। यह इतनी विखंडित और परिवर्तनशील है कि यह समझना कठिन हो जाता है कि यह किसी राजनीतिक परियोजना का आधार कैसे हो सकती है। इसमें आश्चर्य नहीं कि उत्तरआधुनिकतावाद भाषा और विमर्श पर बल देता है जिसे नारीवाद स्वीकार कर रहा है। अत: तत्ववाद औरप्रति-तत्ववाद के बीच अमूर्त विरोध ने सिध्दांत बहुत उत्पन्न किया है लेकिन आचरण निषिध्द कर दिया है।
उत्तरआधुनिकतावाद तथा प्रति-तत्ववादी नारीवाद के बीच इन मिलन बिंदुओं के बावजूद कोई यह तर्क दे सकता है कि दोनों के बीच मुख्य अंतर यह है कि जहां उत्तरआधुनिकतावाद की समालोचना की परिणति राजनीति के असंभाव्य में होती है वहीं नारीवाद महिलाओं की मुक्ति के लिए प्रतिबध्द है (यद्यपि कैसे यह स्पष्ट नहीं है)। उत्तरआधुनिकतावाद हमेशा से अतिशय प्रज्ञामूलक आंदोलन रहा है और अभी भी है जबकि अमरीकी अकादमी के भीतर नारीवाद की दिशा का कुछ संबंध राजनीतिक चुनाव क्षेत्र से भी रहा है। जहां उत्तरआधुनिकतावाद को सामाजिक तथा राजनीतिक यथार्थों की एक संभ्रांत अस्वीकृति के रूप में खारिज किया जा सकता है वहीं नारीवाद की निरंतर राजनीतिक वैधता की गारंटी इसके विरोधात्मक राजनीति के साथ मूल, यद्यपि अब काफी बारीक संबंध द्वारा की जाती है।
हाल के बरसों में एक राजनीतिक दृष्टिकोण या अभिवृत्ति दरशाने वाले शब्द के रूप में नारीवाद पहले से कहीं अधिक अस्पष्ट हो गया है। कोई स्पष्ट रूप से उत्तरआधुनिकतावादी नारीवादी हो सकता है जिसका फोकस जेंडर-कंस्टीटयूशन, भाषा और प्रतिनिधित्व हो। कोई समाजवादी नारीवादी, एंटीपोर्न नारीवादी, एंटी-एंटीपोर्न नारीवादी, उदारवादी नारीवादी, सांस्कृतिक नारीवादी या पर्यावरणवादी नारीवादी (इकोफेमिनिस्ट) भी हो सकता है। और जबकि पहले कभी यह समझा जाता था कि नारीवाद एकतरफा प्रजननात्मक स्वतंत्रता का प्रतीक था, अब अकादमी के भीतर गर्भपात-विरोधी नारीवादी तथा बाहर 'जीवन के लिए नारीवादी' (फेमिनिस्ट्स फॉर लाइफ) हैं।
नारीवाद के भीतर इन प्रतीयमानत: अंतर्विरोधी आवेगों के बावजूद प्रति-तत्ववाद तथा उत्तरआधुनिकतावाद के आमिलन बिंदु पर कुछ समानताएं देखी जा सकती हैं। उदाहरण के लिए हालांकि प्रति-तत्ववादी नारीवादी राजनीति के साथ संबंध का दावा करते हैं, फिर भी 'राजनीति' संवर्ग (महिला शब्द के समान) प्राय: भौतिक संघर्षों या सामाजिक संबंधों के साथ किसी भी संबंधन से खाली है, जैसा कि आम तौर पर उत्तरआधुनिकतावाद भी है। क्योंकि 'सामाजिक' को 'तर्कमूलक' में या असंगत में विलीन कर दिया गया है तथा सामाजिक संबंधों को भाषिक प्रतिमानों में। विभेदों के पक्ष में तर्क देने के लिए उनके तंत्रगत अंतर्संबंधन के निषेध के बनिस्बत विशिष्टता प्रदान किए गए शक्ति संबंधों पर बल दिया जाता है। और स्वाभाविक है कि ज्यों ही शक्ति के तंत्रगत स्रोत का लोप होता है, उत्पादन की पूंजीवादी रीति का भी लोप हो जाता है। (कहने की आवश्यकता नहीं कि अकादमिक नारीवादी इसमें अपने आपको कैसे फिट करते हैं) इस सूक्ष्म राजनीतिक फोकस का निष्कर्ष यह है कि 'जीवन शैली', उपभोग और व्यक्तिवाद पर आधृत अस्मिता (आइडेंटिटी) की राजनीति ने सामान्य हित और सामूहिक सामाजिक संघर्ष की राजनीति का स्थान ले लिया है।
जब राजनीतिक संघर्ष को भाषा तथा भाषिक चालों पर आधृत अमूर्तनों तक सीमित कर दिया जाए तो उस तंत्र की पहचान करने का कोई तरीका नहीं रह जाता, जिसके विरुध्द लोगों को संघर्ष करना है या क्रांतिकारी एजेंसियां जिसके ंखिलाफ इस प्रकार का संघर्ष चला सकती हैं। उत्तरआधुनिकतावादी खुलेआम स्वीकार करते हैं, दरअसल वे जोर देते हैं कि ऐसा कोई स्थल नहीं होगा जहां से कोई तंत्र-विरोधी संघर्ष आरंभ हो सके क्योंकि (यदि 'तंत्र' मौजूद हैं तो भी) उनकी अस्मिताएं (आइडेंटिटीज) अनंत रूप से विखंडित और गतिमान हैं। कुछ नारीवादी अभी भी पितृसत्ता को बीच में लाकर इस शून्यतावाद को चकमा दे रहे हैं लेकिन यदि सभी महिलाओं को प्रधानत: और समान रूप से पितृसत्तात्मक तंत्र से उत्पीड़ित मानना है तो महिलाओं के कुछ मौलिक विभेदों को दरकिनार करना अनिवार्य है। सामाजिक संगठनों में काम करने वालों (या संयोगवश जो मजदूर वर्ग हैं) को यह देखना स्वयं सिध्द प्रतीत होगा कि महिलाओं के वे समूह जो अन्य मानवों के शोषण से लाभ उठाते हैं शोषितों की तुलना में उन्हें अधिक विशिष्ट वर्ग का स्थान प्राप्त है। लेकिन प्रति-तत्ववादी नारीवादी आर्थिक निर्धारण के सिध्दांत को प्रस्तुत करके वर्ग को ही ध्यान में रख सकते हैं, जिसे अस्वीकार करने के लिए उन्होंने कठिन श्रम किया है। यह एक ऐसा चाल है जो उनके अपने सैध्दांतिक बुनियादों को कमजोर करेगी।(क्रमशः)


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