शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

मनमोहन की 8 कविताएं



                             कविवर मनमोहन
भारतीय संस्कृति- मनमोहन
पहले पहल जब हमने सुना
चमड़े का वॉशर है
तो बरसों बरस नल का पानी नहीं पिया

तब कुओं-बावडि़यों पर हमारा कब्ज़ा था
जो आख़िर तक बना रहा

हमने कुएँ सुखा दिए
पर ऐरों-गैरों को फटकने न दिया
अब भी कायनात में पीने योग्य
जितना पानी बचा है
दलितों की बस्ती की ओर रूख करे इससे पहले
हमीं खींच लेते हैं

हमारे विकास ने जो ज़हर छोड़ा
ज़मीन की तहों में बस गया है

बजबजाते हुए हमारे विशाल पतनाले
हमारी विष्ठा हमारा कूड़ा और हमारा मैल लिए
सभ्यता की बसावट से गुजरते हैं
और नदियों में गिरते हैं
जिन्होने बहना बंद कर दिया है

कितना महान सांस्कृतिक दृश्य है कि
हत्याकांड सम्पन्न करने के बाद हत्यारा भीड़ भरे
घाट पर आता है
और संस्कृत में धारावाहिक स्तोत्र बोलता हुआ
रूकी हुई यमुना के रासायनिक ज़हर में
सौ मन दूध गिराता है



हाय सरदार पटेल ! - मनमोहन
 सरदार पटेल होते तो ये सब न होता
कश्मीर की समस्या का तो सवाल ही नहीं था
ये आतंकवाद वातंकवाद कुछ न होता
अब तक मिसाइल दाद चुके होते
साले सबके सब हरामज़ादे एक ही बार में ध्वस्त हो जाते
सरदार पटेल होते तो हमारे देश में
हमारा इस तरह अपमान न होता !
ये साले हुसैन वुसैन
और ये सूडो सेकुलरिस्ट
और ये कम्युनिस्ट वमुनिस्ट
इतनी हाय तौबा मचाते !
हर कोई ऐरे गैरे साले नत्थू खैरे
हमारे सर पर चठ़कर नाचते !
आबादी इस कदर बढ़ती !
मुट्ठीभर पढ़ी लिखी शहरी औरतें
 इस तरह बक बक करतीं !
सच कहें,सरदार पटेल होते
तो हम दस बरस पहले प्रोफेसर बन चुके होते !



चर्बी महोत्सव- मनमोहन

जिस तरह प्लास्टिक और पॉलीथिन हमारी नई सभ्यता है
जो अजर अमर हो गई है
चर्बी हमारी नई कल्चर है
जो इतनी नई भी नहीं

आप देख सकते
यह हमारी आँखों के आसपास सहज ही जमा हो जाती है
या गालों पर
या गलफड़ों में उतर आती है

दरअसल, हम चर्बी से बेहाल हुए जाते हैं
हमारी हँसी में चर्बी है
हमारे चुटकुलों में भी यह कम नहीं
बातों में बातें कम चर्बी ज्या़दा है
हाँ, बस रोना चाहें तो ढ़ंग से रो नहीं सकते

समझिए कि एक महोत्सव है

ख़ूबसूरत औरतें और क़ामयाब मर्द सब एक जगह
एक झुरमुट में व्यस्त हैं
लुक़मा चबलाते
बार-बार कन्धे उचकाते हैं

हमारा संप्रभु राष्ट्र-राज्य यही है
और इनके दायरे के बाहर सब दुश्मन देश

देखिए हमारे गोलमटोल बच्चे
जो कल को प्रबन्ध हाथ में लेंगे
अभी किस तरह तुतलाकर दिखलाते हैं
किस तरह खेल-खेल में वे कीटाणुओं को खदेड़ कर
भगा देते हैं और उनके दाँत कैसे चमकते हैं !

देववाणी -मनमोहन

अड़ियल चट्टानों को ढहा दिया जाएगा
डाइनामाइट लगा दिया जाएगा
ढेलों पर पाटा चला दिया जाएगा

चौरस बनेगा
चौरस
हमारा या आर्यावर्त

बिना कोनों वाला
बिना नोकों वाला

इसे टिकाएंगे हम

हम आर्यपुत्र
हम अमृतपुत्र
इसे टिकाएँगे इसे टिकाएँगे
तलवार की नोंक पर 


जिन्होंने मरने से इन्कार किया- मनमोहन

जिन्होंने मरने से इन्कार किया
और जिन्हें मार कर गाड़ दिया गया
वे मौका लगते ही चुपके से लौट आते हैं
और ख़ामोशी से हमारे कामों में शरीक हो जाते हैं

कभी-कभी तो हम घंटों बातें करते हैं
या साथ साथ रोते हैं

खा खाकर मर चुके लोगों को यह बात पता चलनी
जरा मुश्किल है
जो बड़ी तल्लीनता से अपने भव्य मकबरे बनाने
और अधमरे लोगों को ललचाने में लगे हैं


फिर भी मेरा क्या भरोसा- मनमोहन

मैं साथ लिया जा चुका हूँ
फ़तह किया जा चुका हूँ


फिर भी मेरा क्या भरोसा !

बहुत मामूली ठहरेंगी मेरी इच्छाएँ

औसत दर्जे़ के विचार
ज्यादातर पिटे हुए

मेरी याददाश्त भी कोई अच्छी नही

लेकिन देखिए ,फिर भी,कुत्ते मुझे सूँघने आते हैं
और मेरी तस्वीरें रखी जाती हैं



ईश वन्दना- मनमोहन

धन्य हो परमपिता ‍!

सबसे ऊँचा अकेला आसन
ललाट पर विधान का लेखा
ओंठ तिरछे
नेत्र निर्विकार अनासक्त
भृकुटि में शाप और वरदान
रात और दिन कन्धों पर
स्वर्ग इधर नरक उधर

वाणी में छिपा है निर्णय

एक हाथ में न्याय की तुला
दूसरे में संस्कृति की चाबुक

दूर -दूर तक फैली है
प्रकृति

साक्षात पाप की तरह।


ग़लती ने राहत की साँस ली
 उन्होंने झटपट कहा
हम अपनी ग़लती मानते हैं
ग़लती मनवाने वाले खुश हुए
कि आख़िर उन्होंने ग़लती मनवा कर ही छोड़ी
उधर ग़लती ने राहत की साँस ली
कि अभी उसे पहचाना नहीं गया















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