शनिवार, 7 मई 2011

पश्चिमबंगाल में 'स्वशासन' बनाम 'सुशासन' की जंग

पश्चिम बंगाल में इसबार का विधानसभा चुनाव 'स्वशासन' ( पार्टी शासन) बनाम 'सुशासन' के नारे के तहत लड़ा जा रहा है। 'सुशासन' की धुरी है जनता और कानून का शासन। 'स्वशासन' की धुरी है पार्टीतंत्र की मनमानी और सामाजिक नियंत्रण। इसके आधार पर वोट पड़ने जा रहे हैं। इसबार का चुनाव नव्य आर्थिक उदारीकरण के सवालों पर नहीं हो रहा। यह चुनाव माओवादी हिसा के सवाल पर भी नहीं लड़ा जा रहा। इस चुनाव में ममताबनर्जी की इमेज और वर्गीय चरित्र को लेकर पर भी बहस नहीं हो रही। इस चुनाव का प्रधान मुद्दा 'स्वशासन' बनाम 'सुशासन' है। मुख्य सवाल है राज्य में पार्टीतंत्र का शासन चलेगा या भारतीय कानून का शासन चलेगा। ममता ने सुशासन के सवालों को प्रधान मुद्दा बनाया है और यही उसकी सबसे बड़ी ताकत है। 

इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो पश्चिम बंगाल विधानसभा के आगामी चुनाव असाधारण होंगे। 35 सालों में वाम मोर्चे ने सातबार आराम से चुनाव जीता है लेकिन इसबार ऐसा लग रहा है कि वाम मोर्चा कठिन चुनौती का सामना कर रहा है। वाम मोर्चा और खासकर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ( मार्क्सवादी) या माकपा और ममता बनर्जी दोनों के लिए यह चुनाव आर-पार की लड़ाई है। इस चुनाव में कई बुनियादी सवाल उठे हैं जिनसे वाम मोर्चा और राज्य की राजनीति पहलीबार मुखातिब है। विलक्षण आयरनी है वाम मोर्चे का एक तबका यह चाहता है कि इसबार वाम मोर्चा चुनाव हारे। इससे वाम के अंदर जो सामाजिक गंदगी है वो साफ होगी। सामाजिक नियंत्रण टूटेगा। इसबार का बुनियादी मुद्दा है माकपा के सामाजिक नियंत्रण तंत्र को ध्वस्त करो।

उल्लेखनीय है माकपा ने 2009 में लोकसभा चुनाव के पहले एक शुद्धीकरण अभियान चलाया था । कई हजार दोषी पार्टी सदस्यों को अपने दल से निकाला था ये हजारों लोग बाद में ममता की राजनीतिक पार्टी में चले गए । उसकी राजनीतिक ताकत बन गए। फलतःसन् 2009 के लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चे को अभूतपूर्व पराजय का सामना करना पड़ा। सन् 2009 की पराजय के बाद वाम मोर्चे को छोड़ने वालों का सिलसिला थमा नहीं है। ऐसी अवस्था में वाम की पहली बड़ी चुनौती है अपने संगठन और सांगठनिक जनाधार को बचाने की ।दूसरी चुनौती है विधानसभा चुनाव जीतने की।

वाम और खासकर माकपा की कुछ बुनियादी भूलें रही हैं जिनके कारण बड़े पैमाने पर जनता नाराज है और चाहती है ममता बनर्जी को कम से कम एकबार मौका दे दिया जाए। इसके कारण पहलीबार वाम मोर्चा प्रत्याशी क्षमाप्रार्थी हैं। 23 मार्च को राज्य के मुख्यमंत्री और माकपा के पोलिट ब्यूरो सदस्य बुद्धदेव भट्टाचार्य ने प्रेस कॉफ्रेस में पार्टी सदस्यों की नागरिक जीवन में हस्तक्षेप करने वाली हरकतों की पहलीबार तीखी आलोचना की है। उन पहलुओं पर पहलीबार खुलकर बोला है जिन पर वे अब तक पार्टी के अंदर बोलते रहे हैं। असल में गड़बड़ियां ज्यादा गहरी हैं। इन्हें संक्षेप में मार्क्सवाद की 5 भूलों के रूप में देख सकते हैं। पहली भूल , पार्टी और प्रशासन के बीच में भेद की समाप्ति। इसके तहत प्रशासन की गतिविधियों को ठप्प करके पार्टी आदेशों को प्रशासन के आदेश बना दिया गया । दूसरी भूल ,माकपा कार्यकर्ताओं ने आम जनता के दैनंन्दिन-पारिवारिक -सामाजिक जीवन में व्यापक स्तर पर हस्तक्षेप किया है,और स्थानीयस्तर पर विभिन्न संस्थाओं और क्लबों के जरिए सामाजिक नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की । तीसरी भूल , अनेक कमेटियों ने कामकाज के वैज्ञानिक तौर-तरीकों को तिलांजलि देकर तदर्थवाद अपना लिया । अवैध ढ़ंग से जनता से धन वसूली और अपराधी लोगों का लोकल तंत्र स्थापित किया । चौथी भूल ,बड़े पैमाने पर अयोग्य,अक्षम और कैरियरिस्ट किस्म के नेताओं के हाथों में विभिन्न स्तरों पर पार्टी का नेतृत्व आ गया है।

मसलन् जिन व्यक्तियों के पास भाषा की तमीज नहीं है,मार्क्सवाद का ज्ञान नहीं है,पेशेवर लेखन में शून्य हैं ,बौद्धिकों में साख नहीं है,ऐसे लोग पार्टी के अखबार,पत्रिकाएं और टीवी चैनल चला रहे हैं। वैचारिकगुरू बने हुए हैं। अलेखक-अबुद्धिजीवी किस्म के लोग बुद्धिजीवियों के संगठनों के नेता बने हुए हैं। जो व्यक्ति कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में सामान्य विचारधारात्मक ज्ञान नहीं रखता वह नेता है। जिस विधायक या सांसद की साख में बट्टा लगा है वह अपने पद पर बना हुआ है।

पांचवी भूल, राज्य प्रशासन का मानवाधिकारों की रक्षा के प्रति नकारात्मक रवैय्या रहा है। मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री तक सबके अंदर 'हम' और 'तुम' के आधार पर सोचने की प्रवृत्ति ने राज्य प्रशासन के प्रति सामान्य जनता की आस्थाएं घटा दी हैं। आम जनता के दैनन्दिन जीवन में प्रशासन सहयोगी की बजाय सबसे बड़ी बाधा बन गया है और निहित स्वार्थी लोगों ने राज्य प्रशासन को मानवाधिकारों के हनन का औजार बना दिया है।

विगत 35 सालों में विकेन्द्रीकरण के बाबजूद राज्य में प्रत्येक स्तर पर लोकतंत्र पंगु बना है। विकेन्द्रीकरण और लोकतांत्रिक संस्थाओं के चुनाव प्रत्येक स्तर पर मखौल बनकर रह गए हैं। स्थिति की भयावहता को समझने के लिए एक-दो उदाहरण ही काफी हैं,मसलन राज्य में छात्रसंघों के नियमित चुनाव होते हैं लेकिन विपक्षी उम्मीदवारों को नामांकन पत्र तक दाखिल नहीं करने दिया जाता । मजेदार बात है ज्यादातर कॉलेज और विश्वविद्यालयों में वाम प्रत्याशी बगैर किसी प्रतिद्वंद्विता के जीत जाते हैं। जो छात्र वाम प्रत्याशियों खासकर एसएफआई के खिलाफ अपना नामांकन भरना चाहता है उसे तरह तरह से आतंकित किया जाता है,परेशान किया जाता है,यहां तक कि उसके परीक्षा के नम्बर कटवाने की धमकियां भी दी जाती हैं और साथ में रहने,मुँह बंद करके रहने के लिए परीक्षा में अच्छे नम्बर देने का आश्वासन दिया जाता है। इस काम में घृणिततम ढ़ंग से शिक्षकों का एक धड़ा उनकी मदद करता है और ये ही लोग शिक्षा में सामाजिक नियंत्रण का काम भी करते हैं। इसके बाबजूद भी यदि कोई छात्र चुनाव लड़ना ही चाहे तो बमबाजी का सामना करना होता,कॉलेज के रास्ते में कई दिनों तक अशांति बनी रहती है ,बमबाजी होती रहती है। इस पूरे काम में स्थानीय पुलिस घृणिततम ढ़ंग से उत्पातियों की मदद करती है।

कायदे से छात्रसंघ चुनावों में आम छात्रों की शिरकत बढ़नी चाहिए लेकिन व्यवहार में देखा गया है कि शिरकत घटी है,रस्मीतौर पर चुनाव होते हैं , इनकी वास्तविक प्रक्रिया अलोकतांत्रिक है। कागज पर लोकतांत्रिक नियम हैं लेकिन व्यवहार में विशुद्ध सामाजिक नियंत्रण के फार्मूले हैं जिनका छात्रनेता पालन करते हैं।यही दशा तकरीबन सभी स्तरों पर होने वाले चुनावों की है। 35 सालों में पहलीबार नंदीग्राम-सिंगूर की घटना के बाद माकपा के सामाजिक नियंत्रण के खिलाफ व्यापक विक्षोभ दिखाई दिया और वाम और खासकर माकपा के मजबूत किलों में भी जनता ने सामाजिक प्रतिवाद किया और ममता बनर्जी को जो राजनीत्क हाशिए पर थी हठात रातोंरात बड़ी राजनीतिक ताकत बना दिया।

आम लोगों में माकपा के सामाजिक नियंत्रण की नीति के खिलाफ व्यापक असंतोष है। मसलन आप कोई मकान खरीदना चाहते हैं तो स्थानीय माकपा पार्टी इकाई के सहयोग के बिना यह काम नहीं कर सकते। यदि आप अपना मकान बनाना चाहते हैं तो मिट्टी,सीमेंट,चूना,ईंट किससे लेंगे यह भी पार्टी ही तय करेगी,अन्य को वे सप्लाई नहीं करने देंगे। आपके साथ कोई आपराधिक कांड हो जाए और आप थाने में एफआईआर दर्ज कराने जाएं तो पुलिस शिकायत दर्ज नहीं करेगी जब तक आप किसी लोकल पार्टी ऑफिस से फोन नहीं करा देते। आम रिवाज रहा है कोई भी परेशानी है पहले पार्टी ऑफिस जाओ,वहां बैठे नेता को कहो ,वो फिर सोचेगा कि क्या किया जाए,यहां तक कि हत्या होने पर भी पुलिस एफआईआर नहीं लिखती।

यदि आप कॉलेज-विश्वविद्यालय शिक्षक हैं और आपका माकपा के साथ मतैक्य नहीं है तो तय मानिए आपको भेदभाव,उपेक्षा,बहिष्कार,अपमान आदि का सामना करना पड़ेगा। जीवन के प्रत्येक स्तर पर पार्टी वफादारी को बुनियादी पैमाना है और यह सारा खेल लोकतंत्र,मार्क्सवाद आदि की ओट में चलता रहा है। इसके कारण व्यापक सामाजिक असंतोष पैदा हुआ है। यह असंतोष शांत होगा इसमें संदेह है। इस असंतोष को ममता ने पापुलिज्म के जरिए अभिव्यक्ति दी है।

ममता के पापुलिज्म की सामाजिक धुरी है माकपा के सामाजिक नियंत्रण से सतायी जनता। इस क्रम में ममता बनर्जी के पापुलिस्ट राजनीतिक खेल ने पश्चिम बंगाल में अस्मिताओं को जगाया है। ममता बनर्जी की राजनीति के दो छोर हैं एक है अस्मिता की राजनीति और दूसरा है पापुलिज्म। इसके तहत ही उसने मुस्लिम धार्मिक अस्मिता को हवा दी है। विभिन्न जिलों में अस्मिता के मोर्चों के साथ गठबंधन किया है।

पश्चिम बंगाल में अस्मिता की राजनीति के उभार के दो बड़े कारण हैं। पहला , निरूद्योगीकरण और जंगी मजदूर आंदोलन का लोप। दूसरा ,विगत 10 सालों में राज्य सरकार ने किसानों की जमीन का बड़े पैमाने पर अंधाधुंध अनियोजित -लक्ष्यहीन ढ़ंग से अधिग्रहण किया है। यह जमीन बिना किसी योजना के किसानों से ले ली गयी और इससे बड़े पैमाने पर छोटी जोत के किसान प्रभावित हुए हैं। इनमें मुस्लिम किसानों की संख्या काफी है। इस मौके का लाभ उठाते हुए ममता ने अस्मिता और किसानों की जमीन रक्षा के सवाल को बड़ा मसला बना दिया है। ममता जानती है अस्मिता की राजनीति का मुस्लिम खेल खतरनाक साम्प्रदायिक खेल है। यह नियंत्रण के बाहर न चला जाए इसलिए वाम ने सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की है। लेकिन क्या इससे अस्मिताएं शांत होंगी ?

उल्लेखनीय है वाम मोर्चे ने बड़े ही कौशल के साथ बंगभाषायी श्रेष्ठत्व और वर्गीय राजनीति का मिश्रित रसायन तैयार किया था। इसमें अल्पसंख्यकों और उनकी भाषाओं को दोयमदर्जे के रूप में देखा गया। वाम ने अपनी भूलों से ममता बनर्जी को अस्मिता की राजनीति का कार्ड खेलने के लिए भौतिक परिवेश प्रदान किया और देखते ही देखते वह विभिन्न समूहों और समुदायों में जनप्रिय हो उठीं। माकपा विरोधी मुस्लिम असंतोष को उसने वोटबैंक में तब्दील किया। वाम के खिलाफ एकमुश्त वोट देने पर जोर दिया। वाम मोर्चे के 35 साल के शासन में मुसलमानों की उपेक्षा को बहाना बनाया ।

सच यह है सारे देश में मुसलमानों को दोयम दर्जे के नागरिक का जीवन जीना पड़ रहा है,इसकी तुलना में पश्चिम बंगाल में वाम ने मुसलमानों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान की। गांवों में भूमिसुधार कार्यक्रम के तहत हजारों मुसलमानों को जमीनों के पट्टे दिए । हाल ही में मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण दिया। साम्प्रदायिक सदभाव का माहौल दिया। लेकिन यह सब किया सामाजिक नियंत्रण के दासरे और पार्टी वर्चस्व के तहत। सामाजिक वर्चस्व की निकृष्टतम परिणति है सरकारी नौकरियों में पार्टी मेम्बरों और हमदर्दों की भरती। इसके तहत पूरे राज्य में सरकारी विभागों में विगत 35 साल में माकपा और वाम के अलावा अन्य किसी दल के कार्यकर्ता की नौकरी नहीं लगी।

ममता बनर्जी की रणनीति है छोटे मसलों को बड़ा बनाना। स्थानीय मसलों को राष्ट्रीय और आर्थिक समस्याओं से ऊपर स्थान देना। वे राजनीतिक हथियार के तौर पर वाम के प्रति किसी एकल स्थानीय मसले को उठाती हैं । वह वाम की किसी एक गलती को पकडती है और फिर कारपोरेट मीडिया के जरिए 'माकपा शैतान' 'माकपा शैतान' का प्रचार आरंभ कर देती है। वे यथार्थ के अंश को समग्र राज्य का सच कहकर प्रचारित करती हैं। यह पद्धति उन्होंने लैटिन अमेरिका के कम्युनिस्ट विरोधियों के प्रौपेगैण्डा से सीखी है।

मसलन वाम शासन में नंदीग्राम में पुलिस गोलीबारी में किसानों के मारे जाने को उन्होंने इतना बड़ा घटनाक्रम बनाया कि देखने वाले को लगे कि देश में उससे ब़ड़ा जघन्य कांड और कहीं नहीं हुआ ! नंदीग्राम पर वे जितनी बेचैन रही हैं वैसी बेचैनी और आक्रोश उनमें गुजरात के दंगों को लेकर नहीं दिखाई दिया।

असल में अस्मिता की राजनीति का पाठ ममता बनर्जी ने नरेन्द्र मोदी से पढ़ा है। गुजरात में हिन्दू अस्मिता के खेल की सफलता ने उन्हें पश्चिम बंगाल में मुस्लिम अस्मिता का कार्ड चलाने की प्रेरणा दी है। अस्मिता की राजनीति मूलतः खोखली राजनीति है। यह सामाजिक विभाजन पैदा करती है। ममता बनर्जी जब भी कोई मसला उठाती हैं तो 'मैं सही' की राजनीति पर जोर देती हैं। प्रचार की यह कला उन्होंने संघ परिवार से सीखी है।

उल्लेखनीय है वामदलों का मुसलमानों में एक अंश पर प्रभाव रहा है। राज्य सारे मुसलमान कभी भी वामदलों को वोट नहीं देते थे। अधिकांश मुसलमान पहले कांग्रेस के साथ थे आज भी वे कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के साथ हैं। अंतर एक है कि मुसलमानों के सवालों को ममता ने सीधे सम्बोधित किया है। अस्मिता की राजनीति के फ्रेम में रखकर उठाया है। मुस्लिम प्रतीकात्मकता का जमकर दोहन किया है। इसके विपरीत वामदलों ने अस्मिता के रूप में मुसलमानों को कभी नहीं देखा। उन्होंने सामाजिक सम्मिश्रण बनाने के लिए हिन्दुओं-मुसलमानों के बीच सदभाव स्थापित करने की कोशिश। उनकी स्थानीय धार्मिक पहचान की बजाय बंगला जातीय पहचान पर जोर दिया। यह काम बड़े ही सचेत ढ़ंग से किया गया।

वाम आंदोलन का यह बड़ा योगदान है कि उसने मुसलमानों को धर्मनिरपेक्ष पहचान दी और धार्मिक पहचान से मुक्ति दिलायी। ममता बनर्जी ने नंदीग्राम आंदोलन के बहाने मुसलमानों की धार्मिक अस्मिता और उसकी रक्षा के सवालों को प्रमुख सवाल बना दिया है और मुसलमानों की संपत्ति और खेती की जमीन खतरे में है, मुसलमानों के लिए वाम मोर्चे ने कुछ नहीं किया आदि बातों को उठाते हुए विकास पर कम मुसलमान की अस्मिता के उभार और माकपा विरोध में मुस्लिम एकजुटता पर जोर दिया है। यह आश्वासन दिया है कि वे और उनका दल मुसलमानों का सबसे बड़ा हितैषी है। मुसलमानों का हितैषी होने का ममता बनर्जी का दावा एकसिरे से बुनियाद है। वे वाम मोर्चा विरोध के नाम पर मुसलमानों को प्रतिक्रियावादी और धार्मिक अस्मिता के आधार पर गोलबंद कर रही हैं । यह पुराना कांग्रेसी फार्मूला है कि मुसलमान को मुसलमान रहने दो।

वाम मोर्चे ने सचेत रूप से इस फार्मूले को धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक-सांस्कृतिक रसायन के जरिए तोड़ा था। मुसलमानों को धर्मनिरपेक्ष जातीय भाषायी पहचान के साथ एकीकृत किया है। यह मुसलमानों की जिंदगी में एक बड़ा मूलगामी कदम था लेकिन ममता बनर्जी महज वोटों की खातिर मुसलमानों को धर्मनिरपेक्ष जातीय भाषीय पहचान से वंचित करके उन्हें महज मुसलमान बनाने पर तुली हैं। ढ़ोंगी राजनेताओं की तरह विभिन्न मुस्लिम त्यौहारों पर मुस्लिम वेशभूषा पहनकर नाटक करती रहती हैं। इस संदर्भ में ही ममता बनर्जी का मुस्लिमों औरतों की तरह सिर ढकना और प्रार्थना करना आदि सहज ही देखा जा सकता है।

ममता बनर्जी जानती हैं वे मुसलमान नहीं हैं और वे मुस्लिम वेशभूषा और आचरण करके मुस्लिम समुदाय के सबसे प्रतिक्रियावादी तबकों को आकर्षित करके मुसलमान की धर्मनिरपेक्षता अस्मिता को अपदस्थ करके धार्मिक अस्मिता की स्थापना करना चाहती हैं और यह अस्मिता की राजनीति का खतरनाक खेल है। उल्लेखनीय है कम्युनिस्टों में शानदार मुस्लिमनेताओं की परंपरा रही है और वे कम्युनिस्ट पार्टी से लेकर राज्य प्रशासन के सर्वोच्च पदों पर आसीन रहे हैं ,कभी भी उनको सार्वजनिक मंचों पर तथाकथित मुस्लिम ड्रेसकोड में नाटक करते नहीं देखा गया। मसलन मुजफ्फर अहमद और विधानसभा स्पीकर हाशिम अब्दुल हलीम को कभी किसी ने सार्वजनिक राजनीतिक मंचों पर मुस्लिम अस्मिता के साथ जुड़ने के लिए मुस्लिम वेशभूषा बदलकर नाटक करते नहीं देखा। इन लोगों का एक भी फोटो नहीं मिलेगा कि ये अपने को धार्मिक पहचान के साथ जोड़ रहे हैं,जबकि ये पक्के धर्मनिरपेक्ष मुसलमान हैं और इस्लाम के भी बड़े सुंदर ज्ञाता रहे हैं,और वे मुसलमानों की धार्मिक अस्मिता की बजाय जातीय बंग भाषायी अस्मिता पर जोर देते रहे हैं।

पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे ने धार्मिक अस्मिता को गौण बनाया और बांग्ला जातीय गौरव पर जोर दिया है। सामाजिक नियंत्रण के फार्मूले को लागू करने के चक्कर में उसने कभी अस्मिता की राजनीति को पनपने नहीं दिया। अन्य के लिए राजनीतिक स्पेस नहीं दिया। लेकिन आज वाम की यह वैचारिक घेराबंदी टूट चुकी है। वाम ने जनता से लेकर बुद्धिजीवियों तक सबको पार्टी पक्षधरता और बंगला जातीय श्रेष्ठत्व के दायरे में कैद रखा। पार्टी और जातीय श्रेष्ठत्व की वैचारिक नाकेबंदी की संसार के अनेक साम्यवादी देशों में दुर्गति हुई है। पश्चिम बंगाल में यह काम वाम मोर्चा कैसे करता रहा है इसका एक ही उदाहरण देखें।यहां पर दुर्गापूजा पंडालों में लाउडस्पीकर खूब बजते हैं ,गाने भी बजते हैं,लेकिन पंडालों में हिन्दी गाने बजाने पर पाबंदी है। लेकिन विगत लोकसभा चुनाव में वाम की जबर्दस्त पराजय के बाद पहलीबार अधिकांश पूजा पंडालों में बंगला की बजाय हिन्दी फिल्मी गानों की गूंज रही। वाम दलों को ध्यान रखना होगा इंटरनेट के युग में सामाजिक नियंत्रण की रणनीति पिटेगी। वे इससे बाज आएं। यही स्थिति उन अधिकांश रिहाइशी कॉपरेटिव सोसायटियों की है जो बंगालियों ने बनाई हैं। इनमें अधिकांश में भेदभावपूर्ण नियम हैं,मसलन बंगाली ही मकान खरीदने या कॉपरेटिव सोसायटी का सदस्य होने का अधिकारी है।हिन्दी भाषी और मुसलमानों को यह हक प्राप्त नहीं है।

हाल ही में बंगला के नामी संस्कृतिकर्मियों ने बांग्ला में डबिंग किए गए महाभारत सीरियल के प्रसारण का विरोध किया और उसका प्रसारण बंद करा दिया। ये लोग पहले भी इस तरह के प्रसारण रूकवा चुके हैं। इनका मानना है डबिंग कार्यक्रमों से बांग्ला मर जाएगी। कलाकर भूखे मर जाएंगे। यह राज्य में वाम अंधलोकवाद की सबसे खराब मिसाल है। डबिंग और अनुवाद से कोई भाषा नहीं मरती। यदि ऐसा होता तो हिन्दी सिनेमा को तो तबाह हो जाना चाहिए था।

बंगाल के इस आख्यान का लक्ष्य यह तय करना नहीं है कि विधानसभा चुनाव कौन जीतेगा ? बल्कि यह बताना है कि पश्चिम बंगाल की जमीनी हकीकत के बारे में आम लोग बहुत कम जानते हैं। यहां तक कि राष्ट्रीय मीडिया भी सामाजिक नियंत्रण के सवाल पर चुप्पी लगाए है। विधानसभा चुनाव में वामदलों का सारा जोर इस बात पर है कि हमसे गलतियां हुई हैं हमें माफ कर दो, लेकिन वे यह नहीं कह रहे कि वे सामाजिक नियंत्रण नहीं करेंगे और जो लोग इसके लिए दोषी रहे हैं उनको वे दण्डित नहीं कर रहे। ऐसे में वाम के प्रति आम जनता का गुस्सा कम होगा ,इसमें संदेह है।

दूसरी ओर ममता बनर्जी की आक्रामक प्रचार शैली ने वाम को स्थानीयस्तर पर रक्षात्मक मुद्रा में पहुँचा दिया है। ममता बनर्जी इसबार कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही हैं। वे पहले भी मिलकर लड़ चुकी हैं लेकिन वे सफल नहीं हो पायीं।

ममता बनर्जी की मुश्किल यह है कि वे माकपा की कैडरवाहिनी से मुखातिब हैं और इसबार वे यदि सफल होती हैं तो यह निश्चित रूप से वाम के लिए गहरे सदमे से कम नहीं होगा। क्योंकि पश्चिम बंगाल में 35 सालों तक शासन करते करते वामदल यह भूल ही गए कि लोकतंत्र में पराजय भी होती है। लोकतंत्र में हार-जीत सामान्य प्रक्रिया है। लेकिन पश्चिम बंगाल में ऐसा नहीं है। वे निहितस्वार्थी और अपराधी गिरोह अब रातों-रात ममता के साथ आ खड़े हुए हैं जो कल तक माकपा के बैनरतले सामाजिक नियंत्रण और लूट कर रहे थे। ऐसी स्थिति में भविष्य में सामाजिक नियंत्रण का मसला खत्म हो जाएगा इसमें संदेह है। बल्कि संभावनाएं यही हैं कि खूंरेजी बढ़ेगी। पश्चिम बंगाल के चुनावों की घोषणा होने के बाद से गांवों में हिंसाचार अचानक थम गया है ,शहरों में हिसा नहीं हो रही है। यह अस्वाभाविक शांति है।











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