सोमवार, 31 दिसंबर 2012

फेसबुक और स्त्रीमुक्ति

-1- 

स्त्री अपनी पहचान अर्जित करे इसके लिए जरूरी है कि झूठी भावनाओं और लालसाओं से मुक्त होकर स्वयं को देखे। विभ्रमों से दूर रहे।

-2-

स्त्री की मुक्ति का अर्थ है -स्त्रियों को आत्म-निर्णय का अधिकार होना चाहिए।

-3-

औरत की स्वायत्तता की रक्षा के लिए उससे बात बात पर स्पष्टीकरण मांगना बंद करें।

-4-

स्त्री की मुक्ति का मार्ग आरंभ होता है उसकी स्वायत्तता मानने से । हम उसे अपने अनुकूल ढालना बंद करें। स्त्री को अनुकूल ढालने का अर्थ है उसे मातहत बनाना।

-5-

टीवी चैनल लगे हुए हैं कि समाज को बदलने के लिए क्या करें और पंडितलोग बता रहे हैं यह करो, यह न करो। समाज बदले इसके लिए पहली शर्त्त है कि औरत के जीवन में हस्तक्षेप बंद हो।

हर स्तर पर स्त्री पर समाज और परिवार का हस्तक्षेप सबसे बड़ी बाधा है। हमें स्त्री पर विश्वास करना चाहिए। उस पर संदेह करना छोडें। स्त्री को निषेध और हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है।

-6-

कथाकार रमेश उपाध्याय का सुझाव है कि- सबसे पहले हिंदी की स्त्री और स्त्री अंगों से सम्बंधित गालियों के खिलाफ जंग ज़रूरी है.

-7-

भारतीय मनोदशा में जड़ जमाए हुए स्त्री के रूढ़बद्ध रूपों के खिलाफ जंग करने जरूरत है। इसमें सबसे जनप्रिय है रमणी , काली औरत, गोरी औरत,सुंदरी आदि।

-8-

भारतीय मध्यकालीनबोध का आदर्शरूप है बातूनीपन। भारतीयलोग बात करने के लिए प्रसिद्ध हैं। वे खूब बोलते हैं। तर्क करते हैं। लेकिन अधिकांश बातों को ठंड़े बस्ते में बंद कर देते हैं। हमें बातूनी भारतीय की जगह एक्शन वाले भारतीय की जरूरत है ,जो बात करें उसका पालन करें।

-9-

ग्राम्य संस्कृति में अनेक स्त्रीविरोधी बातें हैं जो हमें संस्कारों में मिली हैं। उनमें से एक है कुलच्छनी लड़की की धारणा। उसे तरह तरह के तर्कों से शुचिता से जोड़ा गया। साथ ही अनेक किस्म की नैतिकता संबंधी मान्यताएं इस कुलच्छनी लड़की की धारणा में आरोपित करके लड़की के ऊपर थोप दी गयी हैं। जो ग्राम्यसमाज हमें कुलच्छनी लड़की की धारणा में बांधता है उसके क्षय की हम कामना करते हैं। लडकी कुलच्छनी नहीं होती।

-10-

फेसबुक पर जो लोग आएदिन ग्राम्यसंस्कृति का महिमामंडन करते रहते हैं वे ग्राम्य संस्कृति में निहित कुसंस्कृति की हमेशा अनदेखी करते हैं। ग्राम्य संस्कृति की बल्गर कल्चर का आदर्श रूप है हलकट जवानी ,जलेबीबाई, चिकनी चमेली आदि के रूप में प्रचलित आइटम फिल्मी गाने। भोजपुरी आदि के लोकगीतों में कालांतर में आई वल्गर कल्चर को हिन्दी और भोजपुरी सिनेमा ने खूब भुनाया है। ये सारे हमारे ग्राम्यजीवन के पतन के सांस्कृतिक साक्ष्य भी हैं। इस तरह की प्रस्तुतियों ने स्त्री के भोग्यारूप को प्रतिष्ठा दिलायी है। स्त्री की वल्गर कल्चर का उपभोग अंततः मर्दानगी का नया पाठ रच रहा है।

लोककला के एक नहीं अनेकस्तर हैं। जैसे लोग होगें ,वैसे ही लोककला के स्तर भी होंगे। लोककला में इकसार जैसी चीज नहीं होती।इसलिए वह बदलती रही है। समाज में जितने सांस्कृतिक स्तर होगे के उतने ही लोककलाओं में भी स्तर होंगे। लोककला वल्गर संस्कृति का शिकार कब और किन सामाजिक समूहों के संपर्क और प्रभाव से हुआ है इसके अलग-अलग स्थानों के लिए अलग कारण हैं। लोकगीत किसी न किसी व्यक्ति की ही देन है। लोकसर्जक की प्रतिभा व्यक्तिगत होती है। उसमें समूह की भूमिका देखना सही नहीं होगा। जितने भी कला इतिहासकार हैं उन्होंने इस तथ्य को समानरूप से रेखांकित किया है। फलतः इसमें सर्जक व्यक्ति अनुभतियां और विचारधारा भी अभिव्यक्त हुई है।



हाउजर ने लोककला को कृषककला से अलगाया है। लिखा है- लेोककला जैसे कृषक कला के समरूप नहीं होती उसी तरह कस्बाई कला के भी समरूप नहीं होती। लोककला के सर्वाधिक उल्लेखनीय लक्षणों में एक शहरों और सांस्कृतिक केन्द्रों की कला से इसका वैपरीत्य है,यद्यपि सारतः यह गैर-शहरी कला है, लेकिन वह ऐसी कला नहीं जो शहरी होना चाहती है मगर हो नहीं सकती।... लोक कला हालांकि अपने आप शहरों,दरबारों और मठों में उत्पादित कला पर निर्भर करती है,पर कभी सचेतन रूप से, उद्देश्यपूर्वक या गुलाम ढ़ंग से उससे होड़ नहीं करती।हालांकि यह दोयमदर्जे की कला होती है।( कला का इतिहास दर्शन,पृ.258)



-11-

भारतीय ग्राम्य मानसिकता है कि अपराध करो और भूल जाओ। मर्द अपराध करता है और समाज-परिवार लड़की से कहता है चुप रह,किसी से मत कहना,छोड़ जाने दे,भूल जा। दूसरी ओर अपराधी हाथ-पैर जोड़ने लगता है।रोने-बिसूरने लगता है। माफी चाहता है और कहता है भूल जाओ-माफ करो। इस मानसिकता ने अपराध की मानसिकता को सामाजिक समर्थन दिलाया है। अपराध की अनदेखी करने की आदत पैदा की है।

अपराध की अनदेखी अंततःअपराधी को अपराधी मनोदशा में बांधे रखती है। वह अपराध करना नहीं छोड़ता। स्त्री-संबंधी अपराधों को इसी कारण हल्के ढ़ंग से लिया जाता है।

आधुनिककाल आने के बाद स्त्री ने ज्योंही निर्ममता से पेश आना आरंभ किया और प्रतिवाद किया तो स्त्रीरक्षा के विभिन्न कानूनों का जन्म हुआ।

यह अचानक नहीं है कि पुराने जमाने में स्त्री हिंसा के खिलाफ कभी भी न तो कड़े कानून बने और न कभी हिंसकों को दण्डित किया गया। बल्कि स्त्री अपहरण को वीरता से विभूषित किया गया।

स्त्री को मर्द की जिन हरकतों से परेशानी होती है उनको सहन करने की शिक्षा हमारा समाज सदियों से देता रहा है और यह ग्रामीण समाज था ।अतःग्रामीण समाज में चली आ रही स्त्रीविरोधी मानसिकता को निशाना बनाने की जरूरत है।

नए मध्यवर्ग में मर्द की अनेक सामंतीदौर की कुप्रथाएं चली आई हैं। उनमें से एक है अपराध करो और भूल जाओ। औरत से कहा जाता है सहन करो और सो जाओ।

-12-

स्त्री की सामाजिक और आर्थिक परनिर्भरता ने मर्दों के आतंक के खिलाफ स्त्री की लडाई को कमजोर किया है। इसके कारण औरत बेबस हुई है। औरत की बेबसी का आलम यह है कि यदि किसी लड़की के साथ किसी परिवारीजन के द्वारा बदतमीजी की हरकत की जाती है तो लड़की अपनी माँ से कहती है, पिता से नहीं। माँ कहती है तू चुप रह,वेबजह कलह होगी,सिर फूटेंगे,गोली चलेंगी,तेरी शादी-ब्याह का मसला भी उलझन में फंस जाएगा। यानी औरत को हमेशा अन्य की इज्जत की रक्षा दुहाई देकर अपनी इज्जत लुटने देने के लिए कहा जाता है। स्त्री के प्रति समाज का ग्राम्यबोध ही है जो औरत की इज्जत को इज्जत नहीं मानता ,मर्दों की इज्जत को इज्जत मानता है. परिवार,पंचायत,जाति,धर्म आदि सबकी इज्जत की रक्षा करने के नाम पर स्त्री की इज्जत को लूटा गया है।

स्त्री की इज्जत के सवाल हमें इसीलिए कभी उद्वेलित नहीं करते हम उनको बड़े बारीक -बारीक बहानों के जरिए टालते रहे हैं। स्त्री की इज्जत समाज की इज्जत है। समाज की इज्जत, स्त्री की इज्जत नहीं है। हमें ऐसे समाज से घिन आती है जो बहानों के जरिए स्त्री की इज्जत को हाशिए पर डालता रहा है। स्त्री की पूजा करने से हम बाज आएं ,उसकी इज्जत करना सीखें। स्त्री के प्रति पूजाभाव ग्राम्यबोध की देन है। स्त्री को इज्जत देना आधुनिकभावबोध से जुड़ा है।हम चाहते हैं स्त्री के प्रति चले आरहे ग्राम्यभावबोध का अंत हो।

-13-

भारत में स्त्रियों पर बढ़ते हुए हमलों का एक वैचारिक पहलू धर्मनिरपेक्षता (कांग्रेस मार्का) और छद्म धर्मनिरपेक्षता (संघ परिवार-भाजपा मार्का) दो छोरों में बंधा हुआ है। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में हमने देश में कभी भी पितृसत्ता के बारे में सवाल ही खड़े नहीं किए। आज भी हम पुलिस,कानून,सरकार आदि की बातें कर रहे हैं पितृसत्ता की परतों को खोलने के लिए तैयार नहीं हैं। धर्मनिरपेक्षता के बारे में राजा राममोहन राय की धारणा असल में पितृसत्ता को बरकरार रखती है। उससे मुक्ति के बारे में हमने कभी सोचा ही नहीं। कम से कम स्त्री के नजरिए से हमने धर्मनिरपेक्षता पर कभी पुनर्विचार नहीं किया। यहांतक कि कम्युनिस्ट चिंतकों ने भी इस पहलू की उपेक्षा की है। क्योंकि मार्क्सवाद की आड़ में भी पितृसत्ता बनी रहती है। यही हाल संघ परिवार की विचारधारा का है वे तो पितृसत्ता के घृणिततम रूपों की भी हिमायत करते रहे हैं और औरत के बारे में हिटलर के विचारों का प्रचार करते रहे हैं। स्त्री पर हमले न हों इसके लिए जरूरी है पितृसत्ता का क्षय हो।उसके सभी रूपों के खिलाफ समझौताहीन दीर्घकालिक संघर्ष चलाया जाय।

-14-

शहरों में गैर कानूनी गुजर बसर के वे इलाके भी देखे जाने चाहिए जिनको हम झुग्गी-झोंपडी के इलाके कहते हैं। ये समानान्तर इलाके हैं इनमें कानून का शासन नहीं चलता,यहां पर सामान्य नागरिक सुविधाएं भी नहीं हैं और ये समानान्तर अर्थव्यवस्था के बड़े क्षेत्र हैं। स्त्री पर शहरों में बढ़ते हमलों से लेकर तमाम किस्म के अवैध-धंधों के ये इलाके हैं,इन इलाकों में रहने वालों को दबंग किस्म के नेता-माफिया नियंत्रित करते हैं और ये वोटबैंक भी हैं। स्त्रियों पर हमले की घटनाएं इन इलाकों में रहने वाले मर्दों ने ज्यादा की हैं।



इसके अलावा शहरी मध्यवर्ग में जिनलोगों ने स्त्री को संपत्ति मानकर संबंध बनाए हैं वहां पर स्त्री पर हमले बढ़े हैं। स्त्री को निजी संपत्ति के रूप में देखने वालों में अच्छा-खासा तबका खाते-पीते मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग से आता है और स्त्री उत्पीडन का यह बड़ा सामाजिक क्षेत्र है। स्त्री स्वस्थ और सुखी रहे इसके लिए जरूरी है स्त्री को संपदा न समझा जाय और शादी-ब्याह में संपदा की मांग न की जाय।

-15-

दिल्ली में आए दिन होने वाली बलात्कार की घटनाओं में जिन सामाजिक कारकों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है उन पर कोई बात नहीं कर रहा।

दिल्ली में बड़े पैमाने पर माइग्रेटेड लोग गांवों से आ गए हैं और बड़े पैमाने पर गांवों को भी एनसीआर के दायरे में समेट लिया गया है। इसके कारण बडी मात्रा में गैर-शहरी जनता का एक अच्छा खासा असभ्य तबका शहरी संरचना में आ मिला है उसे महानगर की रौनक,उदारता,मूल्यबोध और आदतों का ज्ञान नहीं है और वह अपने पिछड़े भावबोध के साथ शहरी लोगों को खासतौर पर औरतों को औचक और असभ्यभाव से देखता है। इसी वर्ग में नशा करके चलने और शारीरिक हमले करने वालों की बड़ी संख्या पायी गयी है।

इसमें एकवर्ग वह भी है जो संपदा के लिहाज से मध्यवर्ग में आ गया है लेकिन सामाजिक चरित्र उसका ग्रामीण है और सामंती मूल्यों को जीता है। सामंती मूल्यबोध का घृणिततम रूप है स्त्री पर हमला।

सामंतों के लिए स्त्रियां कभी मनुष्य नहीं रही हैं। वे उनको मसलने की चीज समझते रहे हैं यही वजह है कि औरतों पर इन असभ्यों के हमले बढे हैं।

1 टिप्पणी:

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...