शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2014

धर्म आनंद और आराम की जुगलबंदी

         धर्ममंदिरों और संतों के आश्रमों का धार्मिकता से बुनियादी सम्बन्ध खत्म हो गया है। खासकर आजादी के बाद के वर्षों में धर्मकेन्द्र और संतकेन्द्र अब आनंद –आराम केन्द्र बन गए हैं। धर्मकेन्द्र और संतकेन्द्र आजादी के पहले धार्मिकता के प्रचार के केन्द्र हुआ करते थे लेकिन इन दिनों यह फिनोमिना बदल गया है। देशी पूंजीवाद के विकास और पूंजीसुख के बढ़ते संसार ने जीवनशैली को रुपान्तरित किया है,इसका धर्म पर भी असर पड़ा है। धर्म-संत केन्द्रों का सारे देश में नियोजित उद्योग की तरह विकास हुआ है। अब इन केन्द्रों पर आनंद-आराम –जीवनशैली और स्वास्थ्य का खासतौर पर ख्याल रखा जाता है।
     स्वातंत्र्योत्तर दौर में पैदा हुए धर्म-संत समाज ने मासकल्चर के साथ अपना सम्बन्ध विकसित किया है।इनके यहां धर्म के मासकल्चर रुपों पर खासतौर पर जोर है। पहले धर्म को साधना के रुप में देखा जाता था,लेकिन मासकल्चर के साथ सम्बन्ध बनाने के कारण अब यही धर्म-संतकेन्द्र 'उपभोग' पर जोर देते हैं। इस तरह वे पूंजीवादी बाजार का विस्तार और विकास भी करते हैं। पूजा-पाठ-उपासना आदि इनमें गौण है और आनंद-आराम प्रमुख चीज है। स्वामीनारायण मंदिर से लेकर श्रीश्रीरविशंकर तक,रजनीश से लेकर महर्षि महेश योगी तक हजारों संत हैं, और उनके हजारों नेटवर्क हैं, जो आनंद-आराम के नेटवर्क के तौर पर काम कर रहे हैं। इस समूचे जगत को आनंद-आराम उद्योग कहना समीचीन होगा। इन संत-धर्मस्थलों का प्रमुख लक्ष्य है आगंतुकों के खालीसमय को आनंद से भरना और आराम की अनुभूति देना। इनके केन्द्रों में जीवनशैली प्रबन्धन कला भी सिखायी जाती है।

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