शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

कर्णसिंह चौहान के कुतर्क और पलायन

       मोदी भक्ति का सबसे प्रचलित मुहावरा है विपक्ष को गाली दो !कीचड़ उछालने वाले कहो ! पंडितों –विशेषज्ञों को खराब भाषा में चित्रित करो ! तकरीबन यही पद्धति हिंदी आलोचक कर्णसिंह चौहान ने अपनायी है।समस्या है नोट नीति, चौहान साहब उस पर एक भी वाक्य बोलना नहीं चाहते,वे क्यों नहीं बोलना चाहते यह उनका सिरदर्द है,लेकिन बहस जब इस मसले पर हो रही है तो उनको बोलना चाहिए,वरना बहस न करें।बहस में शामिल भी होंगे लेकिन मूल सवाल पर नहीं बोलेंगे यह हो नहीं सकता।

नरेन्द्र मोदी के साथ जुड़ने के लिए जरूरी है कि आप अपना अतीत भूल जाएं,अपने को ज्ञानी नहीं अनुयायी बना लें,गैर-राजनीतिक लिखें,गैर-राजनीतिक दिखें,यहां तक कि अपने राजनीतिक कॉमनसेंस को भी भूल जाएं,यह दशा उनकी है जिन्होंने मार्क्सवाद के प्रमुख विचारकों को पढ़ा है,नाम है कर्णसिंह चौहान !

हम चाहते हैं चौहानजी सब समय व्यस्त रहें ! इतने व्यस्त भी न रहें कि नोट नीति पर लिखने के लिए कुछ शब्द भी न हों ! लेकिन नोट नीति की आलोचना करने वालों के खिलाफ ढेरों शब्द हों ! इसे मोदी भक्ति कहते हैं! यह मोदी पक्षधरता है!

चौहान साहब की फेसबुक वॉल पर मोदी सरकार की नीतियों को लेकर एकदम सन्नाटा पसरा पड़ा है ! चौहानजी ,यह सन्नाटा टूटना चाहिए! यदि आपसे कहा जाए कि स्वतंत्र अर्थशास्त्रियों के लिखे को पढो तो तुरंत आप उनको छोटा-तुच्छ-हेय-बोगस साबित करने के लिए जल्द ही मूल्य-निर्णय दे देते हैं,मसलन् मैंने जब टीएन नाइनन से लेकर इकोनोमिस्ट के अर्थशास्त्रियों के नाम सुझाए तो कह दिया कि वे ´´ वे खुद अँधेरे में रास्ता खोज रहे हैं या अपनी जड़ता पर मुग्ध और परम संतुष्ट हैं ।´´इसे कहते हैं मोदी भक्ति में डूबा निर्मल मन !

चौहानजी,कमाल की बात यह कि आपने मोदी की नोट नीति के अर्थशास्त्री आलोचकों को कहा ´जैसे सारी जनता के लिए आध्यात्मिकता और ईश्वर के प्रतिनिधि बने महात्माओं की असलियत होती है, कुछ वही अपने विशेषज्ञों के बारे में भी सच है ।´ कम से कम इतनी घटिया टिप्पणी की आपसे उम्मीद न थी ! लेकिन जैसी कि इन दिनों बयार बह रही है कि मोदी के आलोचकों को निकृष्ट कोटि का सिद्ध करो,अफसोस है आप भी उनमें शामिल हो गए !

कर्णसिंहजी आपने कमाल की मोदी डिफेंस तैयार की है,आपके अनुसार मोदीजी की आलोचना करने वाले किताबी ज्ञानधारी हैं ! मोदी न तो गांधी हैं और न श्यामाप्रसाद मुखर्जी हैं,मोदी के पापों पर खासकर उसकी नोट नीति के पापों पर पर्दा डालने के लिए आपने जो तर्क बनाए हैं उनको देखकर यह बात पक्की है कि आपने सम-सामयिक राजनीति के सामाजिक प्रभावों को न देखने का मन बना लिया है,इसका प्रधान कारण तो आप ही जानें लेकिन अब यह बात तय है कि मोदीजी के पक्ष में बड़े ही कौशल के साथ तर्क निर्मित कर रहे हैं।

आज समस्या क्रांति,समाजवाद,वाम नहीं है,समस्या है नोट नीति लेकिन नोट नीति पर आप एक भी वाक्य बोलने को तैयार नहीं हैं।ऐसा क्या है जो आप बोलने को तैयार नहीं!बुद्धिजीवी के नाते विषय चुनने,अपने नजरिए से बोलने का आपको हक है लेकिन नोट नीति तो हम सबका विषय है,आपकी इस विषय को लेकर राय है जिसे हम देख रहे हैं कि आप नोट नीति के खिलाफ लिखे को बेहद घटिया मान रहे हैं,मेरे लिखे को स्वयं के खिलाफ जिहाद कह रहे हैं, क्या मैं मोदी की डिफेंस में लिखे आपके लेखन को जिहाद कहूँ ॽ आप मोदी के पक्के ज्ञानी अनुयायी हैं,आप मोदीभक्त या मोदी जिहादी नहीं हैं,लेकिन नोट नीति के पक्के समर्थक हैं!

कर्णसिंह चौहान ने लिखा है ´ आप लोग भी जब उसी दलदल में कीचड़ उछालू शैली में बहस करते हैं और आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं तो दुख होता है ।´यह तथ्य की दृष्टि से गलत है।हमने कभी कीचड़ नहीं उछाली, ऩ उस शैली में बहस की है।हमने आरोप-प्रत्यारोप भी नहीं लगाए हैं।चौहानजी, आप नोट नीति के पक्ष में हैं तो गंभीरता से अपना पक्ष क्यों नहीं रखते,आपको किसने रोका है,आपको यह हक किसने दिया है कि हमारे लेखन को कीचड़ उछालू लेखन कहें ! इस तरह का निष्कर्ष निंदनीय ही कहा जाएगा।मैंने आपके लेखन को कभी कीचड़ नहीं कहा,मुझे उम्मीद नहीं थी कि आप इतने नीचे गिरकर इस तरह की घटिया भाषा का इस्तेमाल करेंगे।

हमने फेसबुक पर नोटनीति के विरोध में जिन पत्र-पत्रिकाओं,अर्थशास्त्रियों को पेश किया है उनकी आम लोगों में,मीडिया में,अकादमिक जगत में पेशेवर साख है,वे सरकार या विपक्ष के भोंपू नहीं हैं,आप मेरी फेसबुक वॉल पर नोट नीति पर लिखी पोस्ट देखें और बताएं कि कहां पर कीचड़ उछालू बहस चलायी गयी है।

चौहानजी ! फेसबुक कोई किताब नहीं है ,यह तुरंत कमेंटस करने और तुरंत संवाद का मीडियम है,आप इस मीडियम पर लिखेंगे तो इसके अनुरूप ही लिखेंगे,इस पर किताब के अनुरूप या पत्रिका के अनुरूप नहीं लिखा जा सकता,हां किताब या पत्रिका के लिखे को शेयर कर सकते हैं।



मैं उम्मीद लगाए बैठा हूँ कि नोट नीति के 50 दिन गुजर गए हैं आप इस समस्या पर जरूर लिखेंगे,आप यह भूल जाएं कि मैंने क्या लिखा है,मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं हूँ,मैं आपके जैसा विद्वान और ज्ञानी भी नहीं हूँ।मैं नागरिक के नाते लिखता हूँ और नागरिक के नाते ही यहां संवाद करता हूँ।नागरिक के नाते आपके कुछ सरोकार भी बनते हैं जिनको आप मुझसे बेहतर जानते हैं,आप नागरिक के रूप में यहां लिखें !

1 टिप्पणी:

  1. लगे रहो मुन्ना भाई ।

    आपकी लेखन क्षमता का पुनः कायल हो गया ।

    आप चाहते हैं कि मैं दिन में दस बार प्रचारित-प्रसारित सरकार की नीतियों-अनीतियों पर दिन भर लिखता रहूँ !

    वैसे आप लोग न किसी सरकार की नीतियों पर लिख रहे हैं, न नोटबंदी पर । आप मोदी पर लिख रहे हैं और यह लिखना आज की किसी नीति पर नहीं, २००२ में तय हो चुका है । इस देश में कुछ लोग १९४७ में ठहर गए हैं, कुछ १९७५ में, कुछ १९८४ में और कुछ २००२ में । वे आज लिखते हैं तो लगता है कि आज की किसी समस्या या नीति पर लिख रहे हैं, लेकिन दरअसल वे अपने ठहरे हुए समय में स्वयं को दुहरा रहे हैं । रोज-रोज का लिखना और रोना-गाना तो बस शगल है ।

    नोटबंदी कोई दर्शनिक या सैद्धांतिक सवाल नहीं है, सरकारी नीतियों का सवाल है । ऐसी नीतियों पर लगातार लिखना मेरा काम नहीं है । इन विमर्शों में जहाँ बड़े सवालों की गुंजाइश दिखती है तब मैं लिखता हूँ । अतीत में ठहरे लोगों के बीच उसे कहने का फायदा कम ही है ।

    नोटबंदी पर हालाँकि मैं कई बार समुचित रूप में लिख चुका हूँ पर आपकी समझ में तब तक नहीं आयगा जब तक इधर-उधर का स्पष्ट पक्ष नहीं लिया जाता । “या तो आप हमारे साथ हैं या हमारे विरुद्ध हैं और शत्रु हैं” वाला बचकाना रवैय्या बहुत पहले ही त्याग चुका हूँ । आप जिस तरह का जवाब चाहते हैं, वह तो आप ही दे सकते हैं । अगर संक्षेप में फिर से सुनना चाहते हैं तो एक बार पुनः संक्षेप में सुन लीजिए -

    नोटबंदी के पीछे अगर वही उद्देश्य रहे हैं जो घोषित हैं (यानी कालाधन, भ्रष्टाचार के तमाम रूपों के विरुद्ध सतत संघर्ष तथा शासन और अर्थ-व्यवस्था में तकनीकी वर्चस्व लाकर पारदर्शिता स्थापित करना ) तो इस देश के अर्थतंत्र पर और जनता के जीवन पर उसका सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा । लेकिन अगर उसके पीछे वे सब छिपी मंशा हैं जो आप लोग रात-दिन उजागर कर रहे हैं या इसे केवल नोटबंदी तक सीमित कर दिया , तो इसके परिणाम घातक होंगे । जो भी हो, इसके संबंध में स्थितियों को स्पष्ट होने में चार-छः महीने का समय तो लगेगा ही । अभी तो सब-कुछ गड्ड-मड्ड है । सब कुछ तो सामने आने वाला है फिर इतनी जल्दबाजी क्यों कर रहे हैं !

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