गुरुवार, 4 अगस्त 2022

रेत समाधि और मूल्यांकन के नए आयाम और पद्धतिशास्त्र




           अनुवाद और राजनीति -

  

           गीतांजलि श्री के उपन्यासरेत समाधिके अनुवाद को इंटरनेशनल बुकर पुरस्कार 2022  मिला।यह भारत के लिए गौरव की बात है।खासकर हिंदी लेखक समुदाय का इससे सम्मान बढ़ा है। इस संदर्भ में विचारणीय सवाल वे हैं जो अनुवाद और मूल कृति से जुड़े हैं। इस उपन्यास के अनुवाद ने गंभीर सवाल खड़े किए हैं जिन पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है। पहली समस्या है पाठकीय चेतना, विधा ज्ञान विधागत वर्गीकरण,अनुवाद की राजनीति,उपन्यास की कथा संरचना का पद्धतिशास्त्र। हिन्दी में आम रिवाज है  विधा ज्ञान और साहित्यालोचना की हम अवहेलना करते हैं। अभी तक हिंदी में इस उपन्यास पर जो सामग्री सामने आई है वह प्रशंसा और लेखक से जुड़े संस्मरण से आगे नहीं जा पाई है। अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार बुनियादी तौर पर अनुवाद को मिला है।पुरस्कार के रुप में अनुवादिका-लेखिका दोनों को सम्मानित किया गया है।यह हम सबके लिए ख़ुशी की बात है।लेकिन इस ख़ुशी का मज़ा तब है जब हम मूल कृति पर गंभीर आलोचना करें।इस लेख में रेत समाधि के मूल्यांकन के कुछ बिन्दुओं पर विचार किया गया है।कायदे से उपन्यास की कथा संरचना पर विस्तार से विचार होना चाहिए।यह पुरस्कार लेखिका की विश्वदृष्टि की अब तक की सबसे बड़ी साहित्यिक स्वीकृति है।जिस कृति को पुरस्कार मिला है उसका नाम है -TOMB OF SAND , यह उपन्यास हिन्दी में रेत समाधि के नाम से सन् 2018  में छपा था।


            इस प्रसंग में पहला सवाल यह है कि क्या अनुवाद ,मूल की हूबहू प्रस्तुति है ? या फिर अनुवादक रचना के मर्म या स्प्रिट की रक्षा करते हुए मूल में प्रवेश करता है और अनुवाद करता है ? अनुवादक की क्या भूमिका है ? अनुवाद के स्वरूप को साहित्येतिहास में किस रुप में देखा जाय ?अनुवादक की मंशा कहां तक अनुवाद में स्थान पाती है ?यदि अनुवादक की मंशा दाखिल होती है तो क्या वह सह-लेखक बन जाता है ? अनुवाद और लेखन में व्यक्तिवादिता या व्यक्ति की निजी भूमिका होती है या नहीं ? क्या अनुवाद में अनुवादक ज़बरिया प्रवेश करता है ? यदि हाँ तो किस हद तक ? क्या अनुवाद , लेखक को अन्य भाषा का शरणार्थी बना देता है ? इत्यादि कुछ सवाल हैं जिन पर क़ायदे से इस उपन्यास के अनुवाद के संदर्भ में विचार करने की ज़रूरत है। 

              अनुवाद को स्वतंत्र साहित्य रुप के देखें यह पहली शर्त है। अनुवाद मूल कृति की हूबहू प्रस्तुति नहीं है।वह एक भाषा के शब्द की जगह दूसरी भाषा के शब्द चुनकर बिठा देना नहीं है। अनुवाद को लेकर विभिन्न क़िस्म के दृष्टिकोण प्रचलन में हैं।अधिकांश साहित्यिक परंपराएँ अनुवाद से आई हैं और वे अनुवाद का सम्मान करके ही अपना विकास कर पाई हैं।साहित्येतिहास की सैद्धांतिकी के लिए यह ज़रूरी है कि वह उपलब्ध साहित्यिक अनुवाद का समर्थन करे।आमतौर पर यह माना जाता है कि अनुवाद -मौलिक होता है।अनुवाद करते समय अनुवादक उसमें सौंदर्यात्मक स्तर कुछ ख़ास निवेश नहीं करता।यहां बुनियादी सवाल रुप और अर्थ से जुड़े हैं।उन सवालों के समाधान अभी तक नहीं हो पाए हैं।अभी तक किसी आलोचक ने कोई सुनिश्चित राय साहित्येतिहास के प्रसंग में व्यक्त नहीं की है अनुवाद की साहित्येतिहास में सटीक रुप में क्या भूमिका होती है। अनुदित रचना का स्थान कहां माना जाय ? उसका मौलिक भाषा में स्थान माना जाय या अनुदित भाषा में स्थान माना जाय ?या फिर उसकी अपनी कोई स्वतंत्र परंपरा है ? इन सवालों के उत्तर अभी तक नहीं खोजे ?ये साहित्येतिहास की ज्ञानमीमांसा के सवाल हैं जिन पर गंभीरता से चर्चा करने की ज़रूरत है। चूँकि अनुवाद की ज्ञानमीमांसा को लेकर ही अनिश्चितता बनी हुई है अतःयह अनिश्चितता पाठकों-आलोचकों में भी है।इसके कारण अनुवाद के पठन-पाठन और उससे जुड़े आलोचना सिद्धांतों में भी कोई सर्वसम्मत राय अभी तक नहीं बन पाई है। हम आमतौर पर रचना के मूल अर्थ और परिवर्तित संरचना पर बातें करते  हैं।

                   अनुवाद से जुड़े बहुत सारे सरोकार एक-दूसरी भाषा के भाषाविज्ञान की अर्थ और संरचनाओं से जुड़ें। वे एक-दूसरे पर निर्भर हैं।इसमें दोनों भाषाओं का डाटा और परिस्थितियाँ शामिल हैं। रोमन जैकोब्सन ने अनुवाद से संबंधित अपने प्रसिद्ध निबंध में अनुवाद के तीन वर्गीकरण किए हैं, पहला, एक वाचिक व्यवस्था से दूसरी वाचिक व्यवस्था में उसी भाषा में अनुवाद।दूसरा, एक भाषा की व्यवस्था से दूसरी भाषा की व्यवस्था में अनुवाद,तीसरा, वाचिक व्यवस्था से दूसरी प्रतीक व्यवस्था में अनुवाद। जैकोब्सन का मानना है  अनुवाद के ये तीन रुप अपने आपमें पर्याप्त हैं और सही हैं।वह यह भी मानता है सिद्धांततः समान भाषिक अनुवाद ही अनुवाद का अंतिम लक्ष्य है।लेकिन यह संभव नहीं है।वह लिखता है कविता का अनुवाद नहीं कर सकते।सिर्फ सर्जनात्मक अनुवाद कर सकते हैं।जैकोब्सन के नज़रिए का रुपवादी आलोचकों ने व्यापक समर्थन किया है।रुपवादी मानते हैं  सर्जना का प्रत्येक रुप अपने आप में विलक्षण घटना है।यहां यह उल्लेखनीय है कि दो भाषाओं के बीच में पर्यायवाची पदबंधों का उपयोग ज़रूरी नहीं है समान अर्थव्यंजना करे। दो भाषा के पदबंधों में समानता खोजना एकदम असंभव है।

                     भाषाविज्ञानियों के विभिन्न स्कूलों में अनुवाद को लेकर भिन्न नज़रिया है।वे सब एक तरह नहीं सोचते।ऐतिहासिक भाषाविज्ञान और संरचनात्मक भाषा विज्ञान की अनुवाद को लेकर एकदम भिन्न राय है।एक ही भाषा में किसी कृति के भाषिक रुप अलग हो सकते हैं। भाषा में समानता खोजना एकदम असंभव है।अनुवाद का क्षेत्र भाषा और भाव का क्षेत्र है। अर्थ,शब्द संरचना और मर्म इन तीनों चीजों से अभिन्न रुप से जुड़ा है।भाषा विज्ञान के विभिन्न स्कूलों के अलग-अलग नज़रिए के बावजूद भाषा एक खुली व्यवस्था है।वह नए प्रतीकों और नए अर्थों को अपने अंदर दाखिल करती है।भाषा चूँकि खुली व्यवस्था है इसलिए अनुवादक-लेखक को यह स्वतंत्रता होती है कि वह भाषा में जिस रुप में चाहे नए प्रयोग करे। अन्य भाषा के नए शब्द और प्रतीक शामिल करे।यह सब कुछ अनुवादक के विवेक पर निर्भर करता है कि वह वाचिक शब्दों को द्विभाषी जगत में किस तरह इस्तेमाल करता है।यह समूचा कार्य-व्यापार एकदम खुला है।हर भाषा की अपनी चेतना होती है।ऐसी अवस्था में यह संभव है कि दो भाषाओं में एक जैसी चेतना हो, यह भी संभव है भिन्न चेतना हो लेकिन भौतिक तौर पर अलग अर्थ रखते हों।इसके बावजूद चेतना के स्तर पर दोनों अपनी अस्मिता को अलग बनाए रखें।यह भी संभव है वे एक ही खुली व्यवस्था का अंग हों।यदि अनुवाद को हम संप्रेषण के अर्थ में परिभाषित करते हैं तो हमें संप्रेषण संरचना के सिद्धांतों को मानना होगा।क्योंकि उसमें प्रतीक संरचना और उसकी समग्र व्यवस्था चली आती है।अनुवाद में प्रतीकों का एक दूसरी भाषा में समावेश या सम्मिलन होता है क्योंकि प्रतीक व्यवस्था खुली और असुरक्षित होती है। अनुवाद में चेतना के अनुवाद के समय भाषा के खुलेपन की क्षमता का इस्तेमाल किया जाता है।उस अवस्था में समानार्थी वाचिक रुपों और भौतिक अर्थ में करीबी शब्दों का उपयोग किया जाता है।इसे भाषा में सामुदायिक चेतना का अनुवाद भी कह सकते हैं।खासकर भारत जैसे देश में विभिन्न भाषायी समुदाय जब साथ रह रहे हों तो प्रतीक और उनसे जुड़े अर्थों का समानार्थी प्रयोग महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।सामुदायिक भाषायी चेतना पैदा करता है।जे.सी काटफोर्ड ने लिंग्विस्टिक थ्योरी ऑफ ट्रांसलेशननामक ग्रंथ में अनुवाद के मूलाधार की परिभाषा देते हुए लिखा कि अनुवाद को भाषाविज्ञान के विभिन्न आधारों के स्तर पर अलग करके देखा जाना चाहिए। अनुवाद वस्तुतःभाषावैज्ञानिक गतिविधि है।इसलिए भाषा विज्ञान का ज्ञान होना ज़रूरी है।अनुवाद चूँकि भाषा में होता है अतः एक भाषा के  पाठ को विकल्प के रुप में जब दूसरी भाषा में लाते हैं तो भाषा की सैद्धांतिकी के क्षेत्र में दाखिल होते हैं और यह एकदम खुला क्षेत्र है।यह सामान्य भाषाविज्ञान का अंग है।जब किसी पाठ को दूसरी भाषा में ले जाते हैं तो उसके साथ नृतत्वशास्त्र और उससे जुड़े सिद्धांतकारों ,दुर्खीम और लेवीस्त्रास की भी मदद लेते हैं।

          उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप ने तीन तरह के ज्ञान को अनुवाद के ज़रिए संप्रेषित किया।इनमें त्रिस्तरीय हायरार्की भी है।मसलन् यूरोप के लोगों को तुलनात्मक अध्ययन दिया,प्राच्य के लिए प्राच्यवाद दिया और बाक़ी दुनिया के लिए एंथ्रोपोलॉजी दी।इन सबका पश्चिमी जगत में अलग-अलग स्तर पर विकास हुआ।मसलन्,सर विलियम जोन्स ने संस्कृत की खोज की।यूरोप को संस्कृत की रचनाएँ दीं उनके बहाने प्राच्यवाद पूरी तरह यूरोप में ऐतिहासिक भाषाविज्ञान पर निर्भर है। तुलनात्मक साहित्य आज भी दो भाषाओं के बीच अर्थ की समानता पर निर्भर है।जिससे एक भाषा को दूसरी भाषा के साथ साझा कर सकें।इन सब बातों का ज़िक्र करने का मक़सद है कि अनुवाद एक स्वतंत्र अनुशासन है।अनुदित रचना का वर्गीकरण तो मूल भाषा में कर सकते हैं और नहीं अनुदित भाषा के साहित्य में उसे रख सकते हैं।अनुवाद इन दोनों से भिन्न अनुशासन है उसके अध्ययन-अध्यापन की स्वतंत्र परंपरा ,सिद्धांत और विभाग हैं।अनुदित रचना का अनुवाद सिद्धांत या फिर तुलनात्मक साहित्य सिद्धांतों की रोशनी में मूल्यांकन किया जाएगा।

      

                    इसके अलावा अनुवाद की राजनीति भी होती है।गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक नेदि पॉलिटिक्स ऑफ ट्रांसलेशननिबंध में इस प्रसंग में अनेक गंभीर सवाल उठाए हैं जिनका कहीं कहींरेत समाधिसे भी संबंध है।यह सवाल उनके मन में मिशेल बरेट के लेखन को पढ़कर पैदा हुआ। स्पीवाक के अनुसार अनुवाद की राजनीति स्वयं का यानी मूल भाषा के पाठ का संहार करती है।वह जब नए अर्थ की सृष्टि करती है तो वह स्वयं को बदलती है। भाषा के अलावा अनेक तत्व हैं जो अनुवाद में भूमिका निभाते हैं।जैसे भाव-भंगिमाएँ ,अंतराल, संभावनाएँ आदि ये सब विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार सामने आते हैं।ये सीधे भाषा में विचारों के रुप में भी सामने सकते हैं।इससे वे स्वयं का या अस्मिता का निर्माण करते हैं।यदि हम यह मानें कि स्वयं को व्यक्त करना या अपने जीवन के व्यक्त करना अस्मिता है ,तो यह अस्मिता के समुद्र में कुछ बूँद पानी गिराने जैसा होगा।जरूरी नहीं है  अनुवाद से आपको संतोष मिले।कायदे से हमें इसके दायरे के बाहर जाकर क्रमबद्ध ढंग से विचारों की विकास प्रक्रिया देखनी चाहिए।यह संभव है कि जो अस्मिता नज़र रही हो वह स्वयं उसकी होकर अन्य की भी अस्मिता हो।इन सबका अनुवादक दोहन करता है।यह एक तरह से स्वयं में अन्य की खोज है।अनुवाद में सिर्फ भाषा का अनुवाद या अर्थ का स्थानान्तरण ही नहीं होता,बल्कि भाषा इसमें प्रतिनिधि या एजेंट की भूमिका निभाती है।संभव है अनुवाद में लेखक या पात्रों की मंशा का पूरी तरह रूपान्तरण या स्थानान्तरण हो सके।लेकिन अनुवाद में भाषा केन्द्रीय एजेंट की भूमिका निभाती है।

  

                      एक स्त्रीवादी या स्त्री अनुवादिका की यह भूमिका है कि वह स्त्री के प्रतिनिधि के रुप में भूमिका अदा करे।लेखक ने अपनी तरह लिखा है।लेकिन ब्रिटिश या अन्य जिस तरह सोचते हों ,वैसा लिखा हो।लेकिन अंग्रेज़ी में जब अनुवाद होगा तो वह ब्रिटिश स्त्रीवाद से भिन्न दिखाई दे ।ब्रिटिश स्त्रीवाद के इतिहास से भिन्न दिखाई दे।अनुवादिका ब्रिटिश साम्राज्यवादी अतीत को हाशिए पर रखे, या फिर उसे नहीं भी दिखा सकती है।इस तरह की प्रस्तुति के अंदर नस्लवादी प्रस्तुति होगी और यह ब्रिटेन के लिए निर्मित प्रस्तुति होगी।यह पुंसवादी वर्चस्व का इतिहास भी होगी।

               गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक ने अनुवाद को नज़दीकी रीडिंग माना है। एक अनुवादक जब अनुवाद करता है तो यह देखना चाहिए विशिष्ट चीजों का वह कैसे अनुवाद करता है।क्योंकि अनुवाद में भाषा की सैद्धांतिक प्रकृति और तार्किक संरचनाएँ अस्त-व्यस्त हो जाती हैं। सवाल यह है अनुवाद में सैद्धांतिक मानकों के आधार पर अनुवाद करें  या यांत्रिक अनुवाद करें ?स्पीवाक ने लॉजिकल अनुवाद पर ज़ोर दिया है। इसे वे अधिक सुरक्षित रुप मानती हैं।।ख़ासकर जब हिंसा का अनुवाद करते हैं तो इस बात का अधिक ख़्याल रखते हैं।इस प्रसंग में उन्होंने अपने एक अनुभव का ज़िक्र भी किया है।उन्होंने अठारहवीं सदी की एक बंगाली कविता का अनुवाद किया इस कविता में  दरबारी काव्यबोध था। दरबारी काव्यबोध का सटीक अनुवाद संभव नहीं था,क्योंकि वह आधुनिक पाठक की भाव दशा के अनुकूल नहीं था।इसलिए उसका सरल अंग्रेज़ी में अनुवाद किया।क्योंकिट्रांसलेशन इज दि मोस्ट इंटीमेट एक्ट ऑफ रीडिंगहै। फलतः मैंने पाठ का अनुवाद के सामने समर्पण कर दिया।यह गीत मेरे शुद्ध आत्मीय लगाव की अभिव्यक्ति भी था। रीडिंग और पाठ का अनुवाद के सामने समर्पण नए अर्थ की सृष्टि करता है।इस अर्थ में अनुवादक  ,मूल पाठ का अतिक्रमण करता है ,यह काम वह स्मृति के सहारे करता है।स्मृति में स्व रहता है।यानी अनुवाद में अर्थ के अतिक्रमण की प्रक्रिया में अनुवादक के स्व की केन्द्रीय भूमिका होती है। 

                       आमतौर पर यह धारणा प्रचलित  है  कि अनुवाद में भाषा ही सर्वस्व है लेकिन सबसे महत्वपूर्ण तत्व हैस्व’ ,जो अपनी सीमाएँ खो देता है। निश्चित रुप में भाषा एक महत्वपूर्ण तत्व है लेकिन अनुवाद मेंस्वअपनी सीमाएँ खो देता है।जिस तरह से रेहटोरिक चलता है,चरित्र आमने-सामने आते-जाते हैं, वे अपने ही तर्क को अस्त-व्यस्त करते हैं।ऐसी अवस्था में अनुवादक को खुलेमन से भाषा की मदद लेता है।इसके अलावा भाषा के चारों ओर जो चीजें है वे अपना प्रसार रोक नहीं सकतीं।उनका प्रसार हमारे नियंत्रण में नहीं होता।इसी तरह चटपटी भाषा, अलंकृत भाषा,चमत्कृत करने वाले वाक्य-विन्यास नए अर्थ की सृष्टि करते हैं।इसी अर्थ में आलंकारिक भाषा की महत्ता बनी रहती है।इसके बावजूद दो ऐतिहासिक भाषाओं के बीच अंतराल तो रहता ही है।बुनियादी तौर पर अलंकृत भाषा समूची सैद्धांतिक संरचना को तोड़ती है।

              पाठ का प्रत्येक बार पढ़ा जाना या संप्रेषण स्वयं में जोखिमभरा काम है। वह हमेशा कुछ कुछ तोड़ता है।हमेशा नए अर्थ की सृष्टि करता है।लेकिन हमें तो पढ़ने से प्रेम है ।लेकिन जिनको पढ़ने से प्रेम नहीं है, बिना पढ़े ही ज्ञान बघारने से प्रेम है।उनका तो भगवान ही मालिक है।पाठक का पढ़ने के प्रति प्रेम असल में संप्रेषण है।इसी प्रसंग में यह सवाल उठता है उपन्यास (अनुदित उपन्यास) क्या संप्रेषित करता है ? अनुवादक का काम है मूल और छाया के प्रति प्रेम पैदा करे यह प्रेम ही उसे माँजता है।अनुवादक अपनी कल्पनाशीलता को वास्तविक पाठक वर्ग से जोड़ता है।अनुवाद की राजनीति के तहत गैर-यूरोपियन औरतों का पाठ खुले अर्थ की संभावना का दमन करता है।अनुवादक मूल सैद्धांतिक संरचना की ओर ध्यान नहीं देता।हो सकता है अनुदित रचना में सामान्य संभावनाएँ अर्थपूर्ण या प्रासंगिक हों।इस तरह की चीजों को हमेशा सैद्धान्तिक व्यवस्था के तहत ही खोला जा सकता है।खासकर भाषा की संरचना के बाहर जाकर ही खोला जा सकता है।प्रत्येक भाषा का मिश्रित सांस्कृतिक संसार होता है।वह अनुवाद में बदल जाता है।अन्य भाषा में कही गई बात हो सकता है लेखक के मूल तर्क को अस्त-व्यस्त कर दे।यह काम वह चुप्पी के ज़रिए करता है।जबकि रेहटोरिक की शैली में बातचीत चलती रहती है। तर्क हमें शब्द से शब्द की ओर ले जाता है।इससे उसके आंतरिक संबंधों को समझा जा सकता है।रेहटोरिक चुपचाप शब्दों के ज़रिए अपना काम करता है।स्पीवाक ने रेखांकित किया है कि मिशेल बरेट के अनुसार अनुवाद में भाषा के तीन तरह के प्रयोग मिलते हैं।ये हैं- रेहटोरिक, लॉजिक और साइलेंस।हम पाठ पढ़ते हुए सीधे इन तीन तत्वों के बीच दाखिल होते हैं और पाठक की भूमिका निभाने लगते हैं।पाठ की व्याख्या करने लगते हैं।ऐसी स्थिति में पाठ का अर्थ हो जाता है पर्यायवाची वाक्य-संरचना और स्थानीय रंग।हम इनको देखने लगते हैं।

             स्पीवाक ने लिखा है तीसरी दुनिया की स्त्रियों का पाठ, खासकर स्त्रीवादी पाठ हमेशाताकतवर  की भाषा के नियम के तहत  अंग्रेज़ी में अनुदित होकर आता है।इस क्रम में जेण्डर भेद ख़त्म हो जाता है। वैसे देखें कि मेजोरिटी (अंग्रेज़ी) जैसी विलक्षण कोई चीज नहीं है।वह सिर्फ़ अल्पसंख्यक के साथ यानी अंग्रेज़ी लेखिका के साथ लोकतांत्रिक ढंग से पेश आती है।यह संभावना है कि अनुवाद ख़ासकर अंग्रेज़ी में अनुवाद लोकतांत्रिक आदर्शों के साथ ,ताकतवर के क़ानून के साथ दगा करे।यह स्थिति तब और होती है जब तीसरी दुनिया का साहित्य अंग्रेज़ी में अनुदित होता है।इसी प्रसंग में गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक ने महाश्वेता देवी की रचनास्तनदायिनीके अनुवाद का विस्तार से विश्लेषण किया है और बताया है कि उसके दो अनुवाद प्रचलन में हैं।एक का नाम है - ब्रेस्ट -गिवर, दूसरे का नाम है वेट नर्स।महाश्वेता ने पहले वाले नाम को स्वीकृति दी।जबकि दूसरा नाम तो अनुवाद के नाम पर मूल अर्थ को ही बदल देता है। इसकास्तनदायिनी' की मानसिकता के साथ कोई मेल ही नहीं है। वेट-नर्स में यह मान लिया गया कि स्तन एक अंग है ,ख़ासतौर पर उसे श्रम शक्ति की वस्तु के रुप में देखा गया ।और उसी रुप में स्त्री की कल्पना की गई है कि वह भी एक वस्तु है और दूसरा भी उसे एक वस्तु की तरह ही देखे। इस तरह शीर्षक में ही जो अनुवाद किया गया वह मूल कथानक को बदल देता है।कहानी अपना मूल अर्थ शीर्षक में ही  खो देती है।आप इन दोनों अनुवादों को पढ़ें तो पाएँगे कि बंगाली भाषा की सैद्धांतिक संरचना ही नष्ट हो गई है। 

              स्पीवाक के अनुसार अनुवादक को पहले पाठ के सामने समर्पण करना होता है।वह पाठ के साथ समाजीकरण करे और यह बताए कि भाषा की सीमा क्या है ? असल में भाषा का सैद्धांतिक पहलू ही है जो उसकी भाषिक चुप्पियों का उद्घाटन करता है।वह भाषा के साथ उड़ान भरता है।इसी अर्थ में अनुवाद एक तरह से आंतरिक लगाव वाली रीडिंग है।जब तक अनुवादक आंतरिक लगाव वाला पाठक नहीं बनता वह सही अनुवाद नहीं कर सकता।वह जब तक पाठ के सामने समर्पण नहीं करता तब तक पाठ के विशिष्ट अर्थों को खोल ही नहीं सकता।अनुवाद कोजस्ट लाइक मीकी शैली में प्रस्तुत किया जाय।खासकर स्त्री के लिखे को। 

       जस्ट लाइक मीके आधार पर मित्रता एकदम अलग चीज है और अनुवाद एकदम अलग चीज है।जस्ट लाइक मी  के आधार पर जब मित्रता करते हैं तो आप अपनी अस्मिता का समर्पण करते हैं।लेकिन पाठ में तो आप अपनी भाषा की सीमाएँ जानते हैं।इसलिए भाषा के साथ एक भिन्न रिश्ता बनाते हैं।पाठ विशेष के साथ भिन्न रिश्ता बनाते हैं।यह भी संभव है अनुवादक में मीडियम के साथ लगाव का अभाव हो।इस प्रसंग में गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक ने सुधीर कक्कड़ के द्वारा स्वामी विवेकानंद के द्वारा गाए जाने वाले गीत के अनुवाद की तीखी आलोचना की है।इस प्रसंग में उन्होंने यह भी लिखा कि सुधीर कक्कड़ का इस गीत को लेकर जो मूल्यांकन है वो एकदम ग़लत है।  


   रेत समाधि की औपन्यासिक संरचना - 

          

               रेत समाधि की औपन्यासिक संरचना हिंदी उपन्यास की लोकप्रिय उपन्यास संरचना से एकदम भिन्न है।यहाँ उपसंहार सहित 160 लघु अध्याय हैं या खंड हैं।इनको लेखिका ने अध्याय नाम नहीं दिया है बस अलग-अलग लघु आख्यानों और लघु पाठ के रुप में पेश किया है। प्रत्येक लघु पाठ स्वतंत्र है और उपन्यास के समग्र कथानक के अंग के रुप में प्रस्तुत किया गया है।लेखिका ने लिखा है , ‘ एक कहानी अपने आप आपको कहेगी।मुकम्मल कहानी होगी और अधूरी भी ,जैसा कहानियों का चलन है।दिलचस्प कहानी है।उसमें सरहद है और औरतें, जो आती हैं ,जाती हैं,आरम्पार।औरत और सरहद का साथ हो तो खुदबखुद कहानी बन जाती है।बल्कि औरत भर भी।कहानी भी।सुगबुगी से भरी ।फिर जो हवा चलती है उसमें कहानी उड़ती है। 

           इस क़िस्से में दो औरतें थीं।उन औरतों के अलावा जो आयीं और चली गयीं, या वे जो बराबर आती जाती रहीं, या वे भी जो लगभग लगातार रहीं पर बहुत अहम नहीं थीं और उनका तो अभी ज़िक्र ही क्या जो औरतें नहीं थीं ।अभी ऐसा कि दो औरतें अहम थीं और उनमें से एक छोटी होती गयी और एक बड़ी।

        दो औरतें थीं और एक मौत।

             रेत समाधि  उपन्यास की संरचना में दो चीजें प्रमुख हैं , पहला है  सचेतनता का प्रवाह, दूसरा तत्त्व है जादुई यथार्थवाद।समूचे उपन्यास की संरचना कोसचेतनता  के प्रवाहको अंग्रेज़ी आलोचना मेंस्ट्रीम ऑफ कांशसनेसकहते हैं।यह औपन्यासिक संरचना का बहुत ही प्रभावशाली ढाँचा है।इस ढाँचे का जेम्स जॉय,डोर्थी रिचर्डसन , वर्जीनिया वुल्फ़, विलियम फॉकनर आदि ने व्यापक रुप में इस्तेमाल किया है।

                   रेत समाधिवस्तुतः पात्रों की आंतरिक  स्वीकारोक्ति और एकालाप है और  दमित ऊर्जा की अभिव्यक्ति  है।इसमें चेतना वे क्षेत्र आकर्षित करते हैं ,मन  जिनको देखना चाहता है।इन दिनों पाठक का ग्लोबल कल्चर,उच्च-मध्यवर्गीय सांस्कृतिक रुपों और पुंसवादी आदतों को देखना चाहता है और ये सारी चीजें बड़े ही क़रीने और ब्यौरे के साथ चित्रित की गई हैं। उपन्यास का बड़ा अंश इन्हीं विवरण और ब्यौरों और जीवनशैली के रुपों-संवाद से भरा है।इन चीजों को उच्चस्तरीय रेशनल सचेतनता के धरातल पर ले जाकर संप्रेषित करने की कोशिश की गई है। इस उपन्यास का समूचा ढाँचा स्ट्रीम ऑफ कंशससनेस उपन्यास के मानकों पर निर्मित है।यह एक निर्मित विशिष्ट मनोवैज्ञानिक उपन्यास संरचना है।यह आम मनोवैज्ञानिक उपन्यासों से एकदम भिन्न है।उपन्यास की चमत्कारपूर्ण भाषा और जीवन शैली के विवरण पाठक का सहज ही ध्यान खींचते हैं।इसके लघु आख्यान गंभीर सवाल उठाते हैं साथ ही समाधान भी देते हैं।अनेक बार सिर्फ़ सूचनाएँ देते हैं। उपन्यास मेंनिम्नऔरउच्चस्तर के चेतना रुप औपचारिक कम्युनिकेशन का अंग बनकर आते हैं।लेखिका ने बड़े ही कौशल के साथ इन दोनों चेतना रुपों को रेशनली बांधने की कोशिश की है।उपन्यास में कुछ चीजें संवाद या वक्तृता के रुप में आई हैं और कुछ चीजें विवरणात्मक ढंग से पेश की गई हैं।वक्तृता या संवाद में जो चीजें पेश की गई हैं ,वहाँ अनेक स्थानों पर चुप्पियाँ भी नज़र आती हैं।जबकि विवरण पेश करते समय लेखिका बिना किसी सेंसरशिप के चीजें पेश करती है।ये दोनों ही रुप रेशनली नियंत्रित हैं।एक तार्किक व्यवस्था से जुड़े हैं।यहाँ पात्रों में सचेतनता तो है लेकिन इसे बुद्धिमत्ता समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। लेकिन ये दोनों रुप मिलकर चेतना के विभिन्न रुपों के उद्घाटन पर मुख्य ज़ोर देते हैं।इसमें चरित्रों के मनोविज्ञान पर अधिक ज़ोर है।इसमें चरित्रों की निजी आत्म- स्वीकृति और प्रतीकों के इस्तेमाल पर मुख्य रुप से ध्यान रखा गया है।

         स्ट्रीम ऑफ कंशसनेस यानी सचेतनता के प्रवाह की औपन्यासिक संरचना को आधार बनाने के कारण ही चरित्रों के मनोविज्ञान के चित्रण पर ख़ासतौर पर ज़ोर दिया गया है।इस अर्थ में यह पूरा उपन्यास मनोवैज्ञानिक उपन्यास है इसे ?यथार्थवादी उपन्यास समझने की भूल करें।यह हिन्दी का पहला मनोवैज्ञानिक उपन्यास है जिसे विश्व स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला है।इसमें प्राइवेट प्रतीक और प्राइवेट स्वीकारोक्तियां व्यापक रुप में सामने आई हैं।इस संरचना में लिखने के कारण ही रेत समाधि को साहित्य समीक्षा में उल्लिखित उपन्यास के मानकों और अवधारणों में वर्गीकृत करके विश्लेषित मुश्किल है। यहाँ आंतरिक फैंटेसी जैसी कोई चीज नहीं है।बल्कि इसमें विचार,स्मृतियां और संवेदनाओं का संगम है।ये तीनों चीजें उपन्यास की प्राथमिक चेतना यानी भारत विभाजन की चेतना के बाहर हैं।वे क्रमबद्ध ढंग से व्यक्त नहीं होते, बल्कि टुकड़ों में, लघु कहानियों के प्रवाह में व्यक्त होते हैं।इनमें आंतरिक सचेतनता है,आंतरिक स्वीकारोक्ति और आत्मालाप  है।यहाँ पर जो विचार या संवेदनाएँ चरित्रों के माध्यम से व्यक्त की गई हैं उनका तात्कालिकता से कम सचेतनता के प्रवाह से अधिक संबंध है।इस उपन्यास के पात्रों की स्वीकारोक्तियां और आत्मालाप सचेतनता के प्रवाह को बनाए रखते हैं। इसका बुनियादी लक्ष्य है पाठक की सचेतनता को  संतुष्ट करना।

                रेत समाधि में एक विलक्षण प्रयोग मिलता है यहाँ मनोविज्ञान और ज्ञानमीमांसा के बीच में अंतर्क्रियाएं प्रत्येक खंड में हैं।सवाल यह है सचेतनता के प्रवाह के माध्यम से लेखिका कहना क्या चाहती है ? उपन्यास किनका प्रतिनिधित्व करता है ? सचेतनता का प्रवाह का विलक्षण मनोविज्ञान नहीं है बल्कि पात्रों के माध्यम से वह अनुभवों से गुजरना चाहता है।असल में मानवीय चेतना की खोज करना इसका प्रधान लक्ष्य है।पात्रों के ज़रिए जो जीवनानुभव व्यक्त किए गए हैं वे संक्षिप्त और अपूर्ण हैं।उपन्यास का फलक इतना बड़ा है कि उससे यह महसूस होता है कि लेखक के पास अनुभवों और सचेतनता का व्यापक भंडार है जिसे वह असंख्य सूचनाओं के प्रक्षेपण के ज़रिए व्यक्त करती है।कईबार अनुभवों की अभिव्यक्ति पात्रों के उतावलेपन को सामने लाती है।चित्रण के दौरान पात्रों की मानसिक गतिविधियाँ,संवेदनाएं,स्मृति, कल्पनाशीलता  और अंतर्दृष्टि सामने आती है।सचेतनता के प्रवाह की संरचना में लिखे उपन्यास सटीक और सतह पर यथार्थवादी लगते हैं लेकिन वे यथार्थवादी नहीं होते।बल्कि मनोवैज्ञानिक होते हैं।इस उपन्यास में चरित्रों का व्यक्तिगत मनोजगत हावी है।उसमें आंतरिक सजगता के अनेक रुपों को बेहतरीन ढंग से उभारने में लेखिका को सफलता मिली है।सवाल यह है कि चरित्रों को मनोवैज्ञानिक तौर पर कैसे पेश किया गया है ?उपन्यास का कल्पना लोक किस तरह के आंतरिक जगत का उद्घाटन करता है?कभी कभी तो सचेतनता का प्रवाह रुपरहित यथार्थवादी संवाद की शक्ल में व्यक्त हुआ है।एक नमूना देखें- ‘ चिल्लाना परंपरा है।बड़े बेटों का चिल्लाने का पुराना रिवाज है।मालिकाना ढंग से।रिवाज मुलम्मा है। कोई दिल में ख़ूँख़ार हो हो, लिबास उसी का ओढ़ना पड़ता है।कहा जाता है कि बड़े पिता दिल से चिल्लाते थे जबकि बड़े का दिल ज़्यादा खौलन नहीं मारता।पर ज़बान दोनों की  एक सी है।रिटायरमेंट तक पिता चिल्लाते थे, फिर चिल्लाना बेटे को सौंप कुछ शान्त हो चले।बड़े ने और ज़ोरों से चिल्लाने की शान ओढ़ी और चमकने दमकने लगे।अब कुछेक महीनों में अवकाश प्राप्ति होगी।तब चिल्लाना सिड की झोली में गिरेगा,पर अभी तो बड़े में जोश मारता है। 

        कब से चिल्लाना टिन्नाना चुहल है ,कब बचकाना दंगल, कब हंसी ,कब चिढ़ और एक दूसरे को मात करने का शग़ल,कामवाली को अटकल लगानी पड़ती है।

             रेत समाधिमें स्त्रीत्व और पुंसवाद का रेजीमेंटेड वर्गीकरण भी साफ़ नज़र आता है।ख़ासकर पुरूषों की आदतों को विवरण और ब्यौरों के साथ पेश किया गया है।लेखिका की निजी सहानुभूति स्त्रीत्व के प्रति है।वह पुंसवाद को नापसंद करती है।लेकिन इन दोनों को लेखिका ने जिस तरह पेश किया है उससे यह आभास भी निकलता है कि पुंसवाद और स्त्रीत्व समान हैं और इनको एक ही फ़्रेम में रखा जा सकता है।जबकि वास्तविकता यह नहीं है।इनको समान नहीं मान सकते।ये दो क़िस्म के एटीट्यूट,मूल्यबोध और अस्मिताबोध हैं। इन दोनों के हितों में टकराव और शत्रुता है।असल में इस उपन्यास की समस्या स्त्रीत्व या पुंसवाद नहीं हैं,इनका तो सिर्फ़ कथानक के विस्तार के लिए,चरित्रों के मानसिक गठन को रचने के लिए इस्तेमाल किया गया है। एक अन्य चीज है कि सत्य स्वयं नहीं बोलता, बल्कि उसे बुलवाना होता है या पात्रों के माध्यम से अर्जित करना होता है।स्त्रीत्व-पुसंवाद की अभिव्यक्ति चरित्रों की सब्जेक्टिविटी को उद्घाटित करने के लिए इस्तेमाल की गई है। वह उनके प्राइवेट विजन को व्यक्त करते हैं।वहाँ किसी क़िस्म की नाटकबाजी नहीं दिखती।यहां चीजें सामान्य ढंग से व्यक्त करके जीवन के खोखलेपन,खासकर पुंसवाद के खोखलेपन,उससे जुड़े संस्कारों और आदतों के खोखलेपन को उद्घाटित किया गया है। इस तरह के चित्रण से यह भी संदेश निकलता है कि किस तरह खोखली चीजें जीवन को घेरे हुए हैं, ख़ासकर उच्च-मध्यवर्ग के लोगों में इस खोखलेपन के जीवनरुपों को जीवनशैली के विविध पक्षों के माध्यम से सुंदर चित्रित किया गया है।बुनियादी तौर पर इस उपन्यास में अस्मिता को अस्वीकार्य किया गया है।खासकर धर्म की अस्मिता को ख़ारिज किया गया है।स्त्रियां केन्द्र में हैं,स्त्री विषय केन्द्र में है,लेखिका भी स्त्री है लेकिन स्त्री का लक्ष्य स्त्रीवाद होकर मानवतावाद है।यह फेमिनिज्म का सबसे विकसित रुप है।सवाल यह है कि स्त्री पर विचार करते हुए जाना कहां है ? लेखिका स्त्री को मात्र स्त्री के रुपों तक सीमित नहीं रखती,बल्कि उसे मनुष्य और व्यक्ति के रुप में चित्रित करके नए पैराडाइम का सृजन करती है।

     कैमरे की कला- 

           रेत समाधि में टाइम और स्पेस की तकनीक का इस्तेमाल करते हुए सचेतनता के प्रवाह और कथा संरचना के निर्माण में सिनेमा तकनीक का जमकर इस्तेमाल किया गया है।सिनेमा की तकनीक का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है मोण्टाज।मोण्टाज माने एक साथ अनेक चरित्रों और चित्रों का चित्रण।यह प्रस्तुति खंड-दर- खंड की गई है। इस तरह के इस उपन्यास में 160 खंड हैं।इसमें कुछ चुके हुए चित्र हैं, कुछ करीबी चित्र हैं, कुछ फ़्लैशबैक के चित्र हैं, कुछ विराट कैनवास वाले चित्र हैं।मोण्टाज का मक़सद यह भी हो सकता है विभिन्न चित्रों (उपन्यास में खंडों में) और विचारों में संबंध स्थापित करते हुए वैविध्यमय ढंग से पेश किया जाय।दिलचस्प बात यह है कहीं पहले चित्र आता है फिर उसकी संगति में विचार आता है।कहीं पहले विचार आता है फिर उसकी संगति में जीवन चित्र आते हैं।इस तरह चरित्र,जीवन स्थिति और विचार के बीच संबंध स्थापित करने की कोशिश की गई है।हर कड़ी नए जीवन चित्र या नए विचार से शुरू होती है।इसमें मुख्य ज़ोर जीवन चित्र की इमेज पर है।इस आधार पर उपन्यास में इमेजों का वैविध्य दिखाई देता है।इस तरह की प्रस्तुति का मक़सद है विभिन्न इमेजों और उनके वैविध्य को एक बड़े विषय में बांधना।लेखिका ने बड़े कौशल के साथ मध्यवर्गीय जीवन की बहुस्तरीय प्रस्तुतियों को एक दूसरे से जोड़ने में सफलता हासिल की है।वैविध्यमय इमेजों के ज़रिए वह कथा प्रवाह बनाए रखती है।यह सिनेमा तकनीक का उपन्यास में सुंदर उपयोग है।इसी तकनीक का एक पहलू और भी है वह यह कि छोटे छोटे कथा रुप असल मेंक्लोज़ -अपमें पेश किए गए हैं।बहुत कम अंश हैं जो विस्तृत विवरण के साथ पेश किए गए हैं। क्लोज़-अप  में पेश की गई चीजें कथा और मोण्टाज के बीच सहस्संबंध बनाती हैं.इस पद्धति का उपयोग करके लेखिका ने टाइम और स्पेस की सीमाओं का अतिक्रमण किया है।फलतः इस उपन्यास को टाइम और स्पेस में नहीं बांध सकते।

             मोण्टाज की दूसरी विशेषता है कथा संरचना में समय  सुनिश्चित और स्थिर रहे.और वह परिवर्तन के विशेष तत्व से जुड़ा हो।यह स्पेस मूलतःमोण्टाज की देन है।यह रुप ज़रूरी नहीं है कि चेतना का प्रतिनिधित्व करता हो।इस पद्धति का गीतांजलि श्री ने रेत समाधि में खूब इस्तेमाल किया है। कैमरे की नज़र से वैविध्यमय इमेजों को पेश किया है।सिनेमा मोण्टाज की एक अन्य विशेषता है चरित्रों की गतिविधियों और सह-अस्तित्व के रुपों की एक साथ प्रस्तुति।यह प्रस्तुतिकरण की रेडीमेड डिवाइस है।यह लेखिका के चेतना प्रवाह को सामने लाता है।इस तरह की प्रस्तुति का लक्ष्य आंतरिक और बाह्य जीवन की एक साथ प्रस्तुति।अनेक  प्रस्तुतियों में वर्तमान,अतीत और भविष्य एक ही साथ गुँथे नज़र आते हैं ।कभी कभी चीजें फ़्लैशबैक में भी चली जाती हैं।पात्रों की गतिविधियों के विवरण और संवाद स्वतंत्र भाव से व्यक्त हुए हैं।ये मूलतः पात्रों की चेतना की गतिविधियों का आईना हैं।पूरे उपन्यास में स्पेस मोण्टाज का कौशलपूर्ण ढंग से इस्तेमाल किया गया है।

   

                      रेत समाधि के विभिन्न जीवन चित्रों को स्पेस-मोण्टाज के परिप्रेक्ष्य में ही निर्मित किया गया है।इस क्रम में अनेक खंड ऐसे भी हैं जिनमें इरेशनल और इनकोहरेंट निजी जीवन के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया गया है।बीसवीं सदी में यह फिनोमिना तेज़ी से विकसित हुआ और पाठक यह माँग करने लगे कि समग्र कथानक को छोटे-छोटे विवरण और इमेजों के साथ पेश किया जाय।यदि चेतना को अभिव्यंजित होना है तो उसे पाठक की आकांक्षाओं के अनुरुप व्यक्त होना चाहिए।जहां तक हो सके प्राइवेट लाइफ़ को प्रतीकों  के ज़रिए व्यक्त किया जाय।जीवन के अंदर सीक्रेड कोड और गोपनीयता को बनाए रखा जाय।एक अन्य चीज कि साधारण आदमी की चेतना को इस तरह की प्रस्तुति में शामिल नहीं किया जाय।इसका एक पहलू यह भी है चित्रण में स्व के बाहर की पीड़ा,परेशानी,बेचैनी को चित्रित किया जाय।इस सबके ज़रिए सचेतनता के प्रवाह का लेखक चेतना की प्रस्तुति को नियंत्रित रखता है।चरित्रों की प्राइवेसी की रक्षा करता है।प्राइवेसी माने इनकोहरेंस,डिसकंटीन्युटी और इम्प्लीकेशन ।एक सफल लेखक इन बातों का ख़्याल ज़रूर रखता है और गीतांजलि श्री को निश्चित तौर पर इसका श्रेय जाता है कि वह इन सभी लाक्षणिक विशेषताओं का ख़्याल रखती हैं।

           रेत समाधि में लेखिका ने सचेतनता के बाह्य रुपों को यथार्थवादी  रुप में पेश किया है।साथ ही वह अपने पाठक की कुछ चीजों के अर्थ से दूरी बनाए रखती हैं।साथ ही अंतर्वस्तु की प्रस्तुति के दौरान मनोविज्ञान के नियमों को स्थगित रखती हैं।मूल चरित्रों को विच्छिन्न और दमित भावों के साथ प्रस्तुत करती हैं। 

   अस्मिता के अंत की स्त्रीकथा-

            रेत समाधि में जिस वर्ग की स्त्रियों को कथानक के केन्द्र में रखा गया है ये वे औरतें हैं जो साधन-संपन्न हैं।उच्च-मध्यवर्ग की हैं।हाशिए की औरतों से एकदम भिन्न  हैं।इनकी जीवनशैली अपने वर्ग की औरतों जैसी है ।यहाँ तक कि कहीं -कहीं सोच भी वैसा ही है। इस वर्ग की औरतों की पहचान को जीवन संबंध और पारिवारिक संबंध की पहचान के रुप में चित्रित किया गया है। इस क्रम में स्त्री और पुंससत्ता के अंतर्विरोध स्वाभाविक रुप में उभरकर सामने आए हैं।मसलन् माँ,बेटी,बहन आदि रुपों को बार बार इस्तेमाल किया गया है।यह एक तरह से अस्मिता के प्रचलित वैचारिक ढाँचे को अस्वीकार करना है।स्त्री की पहचान को पुंसवादी सामाजिक संबंधों में निर्मित नामों में पेश करना स्वयं में समस्यामूलक है।लेकिन कथानक में अनेक स्त्री-पुरूष पात्र ऐसे भी हैं जो अपने नाम की पहचान के साथ आते हैं।अस्मिता की मिश्रित संरचना का विलक्षण प्रयोग मिलता है।यह एक तरह के स्त्रीवाद के दायरे के बाहर निकलकर देखने की कोशिश है।इसमें तो स्त्री अस्मिता है और सामुदायिक पहचान के रुप ही हैं, साथ ही धर्म या गोत्र की पहचान के रुपों का भी उपयोग नहीं किया गया है। लेखिका ने सुनियोजित ढंग से माँ, बहन, बेटी आदि रुपों के बहाने सार्वभौम अवधारणा में चरित्रों को रचने की कोशिश की है।इस सार्वभौम भावबोध के साथ महानगरीय जीवन शैली के ग्लोबल रुपों के असंख्य विवरण भी मिलते हैं।फलतः उपन्यास की संरचना में सार्वभौम मासकल्चर और सार्वभौम सामाजिक संबंधों के रुपायन पर ज़ोर है।इस समूचे कम्युनिकेशन की धुरी है चरित्रों की मनोविज्ञान सम्मत प्रस्तुति।इसके चलते स्थानीयता,स्थानीय भाषा और संस्कृति समूचे उपन्यास से एकदम नदारत है। उपन्यास की संरचना में विवरण और ब्यौरे व्यापक स्थान घेरते हैं।दिलचस्प बात यह है कि उपन्यास की नायिका स्त्रियाँ हैं और वे पूरे उपन्यास में छायी हुई हैं लेकिन कथानक का समूचा ताना बाना घर के अंदर और घर के बाहर घूमता रहता है।घर केन्द्र में है।घर केन्द्र में क्यों है ? यह असल में घर के अंदर के सत्य को उद्घाटित करने की रणनीति का अंग है।यहां घर के सत्य को वे पात्रों के ज़रिए सामने लाती हैं।पात्रों के विज़न का चित्रण करती हैं।यह एक तरह से प्राइवेट यथार्थ है।इसमें वे पात्रों के अंदर प्रवेश करती हैं और उनकी अनुभूतियों और संवेदनाओं को सामने लाती हैं।इस क्रम में पात्रों के सामान्यत्व पर ज़ोर है, उनके सामान्य दिम्ग के चित्रण पर ज़ोर है।इसके लिए किसी भी क़िस्म की नाटकीयता का सहारा नहीं लेतीं।यहाँ पात्रों के जीवन का खोखलापन और अर्द्ध पारदर्शिता भी नज़र आती है।पात्रों के वैविध्यपूर्ण संसार की सृष्टि का लक्ष्य है पात्रों के बीच में एकीकरण की भावना निर्मित करना।यह काम वस्तुगत ढंग से किया गया है और कहीं पर भी पूर्वाग्रह सामने नहीं आते। 

            सवाल उठता है  रेत समाधि में लेखिका क्या कोई नया रहस्योद्घाटन करती है ? इस उपन्यास में तो कोई नया रहस्योद्घाटन हुआ है और नहीं कोई स्कैंडल है।पात्र ऐसी कोई बात नहीं कहते जो अस्वीकार्य  और असहनीय हो।यहाँ जो चरित्र हैं उनके पास अपना स्पेस है।जबकि सामान्यतः शरणार्थी समस्या से प्रभावित विषयवस्तु पर लिखे उपन्यासों में पात्रों के पास स्पेस की समस्या रहती है, सुविधाओं का अभाव रहता है।शरणार्थियों के पास अपना कोई स्पेस नहीं होता।वे जिस जगह रहते थे या जहां से आए थे वहाँ हिंसक परिवेश था।लेकिन यह सब कुछ इस उपन्यास में नहीं है।वे जिस परिवेश में रहते थे उसमेंअंतर्विरोधथा।सामाजिक-राजनीतिक अराजकता थी।यही वजह थी कि मुख्य स्त्री पात्र को पाकिस्तान छोड़ना पड़ा,लेकिन इस उपन्यास में उस अराजकता और हिंसक परिवेश के कहीं दर्शन नहीं होते।जबकि इसके कारण ही  उसे पाकिस्तान में अपना घर छोड़ना पड़ा।सामान्य तौर पर शरणार्थी हाशिए पर जीते हैं लेकिन रेत समाधि के पात्र हाशिए पर नहीं रहते।वे मुख्यधारा का अंग हैं उनके पास सब कुछ है, किसी चीज का अभाव नहीं है।

            असल में शरणार्थी वे होते हैं जिनके पास वस्तु,स्पेस और पावर का अभाव होता है।वे जहाँ रहते हैं वह जगह सामान्य तौर पर रहने लायक़ नहीं होती।वे आमतौर पर तिरस्कार की संस्कृति के शिकार होते हैं।लेकिन यह सब इस उपन्यास में नहीं है।जीवन का यहाँ एकदम नया  निर्मित संसार है जिसका शरणार्थी यथार्थ से कोई संबंध  नहीं है।बस बताया भर है कि ये औरतें पाकिस्तान से आई हैं।यानी उपन्यास में जो बताया गया है ,उससे अधिक महत्वपूर्ण वह भी है जो छिपाया गया है।उस सबको भाषायी चमत्कार ,’ग्लोबल कल्चरऔरघरइनकी आड़ में छिपा लिया गया है। शरणार्थी वे हैं जिनकी कोई आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती। ये वे लोग हैं जो जीवन से बहिष्कृत जीवन जीते हैं लेकिन भारत में रेत समाधि में चित्रित शरणार्थी औरतें इन सब समस्याओं से मुक्त हैं।दिलचस्प बात यह है कि यहाँ पीड़ित के चरित्र को सामाजिक स्थानान्तरण से कोई परेशानी नहीं है, वह यहाँ खुश है।इस उपन्यास के आख्यान की पहली बड़ी मुश्किल है कि इसमें शरणार्थी  समस्या की ही क़ुर्बानी दे दी गई है।शरणार्थी का लोप स्वयं में एक बड़ी समस्या है।यह कैसे संभव है कि शरणार्थी समस्या से रहित होकर भारत विभाजन से प्रभावित औरतों का जीवन चित्रित किया जाय ? इससे शरणार्थियों के प्रति कोई सहानुभूति या उनकी समस्याओं से वाक़िफ़ कराने में यह उपन्यास असफल रहा है।शरणार्थी समस्या रोमैंटिक समस्या नहीं है,काल्पनिक समस्या नहीं है ।लेकिन लेखिका ने दो औरतों के आख्यान के बहाने एक नए परिवेश की सृष्टि की है जिसमें शरणार्थी का अंत कर दिया है।शरणार्थी समस्या के अंत का अर्थ यह है कि भारत विभाजन के असर को ख़ासकर औरतों पर पड़े असर को भाषिक चमत्कार और सचेतनता के प्रवाह के ज़रिए दरकिनार कर दिया गया है।यह उपन्यास एक तरह भूमंडलीकरण के द्वारा निर्मित बाह्य जगत का बंदी है।बतर्ज लेखिका शरणार्थी समस्या कोई गंभीर समस्या नहीं है।

           भारत विभाजन के साथ शरणार्थी समस्या और उसके बहुआयामी प्रभावों की अनदेखी करके भारत में अभी तक हिंदी-उर्दू-पंजाबी-बंगाली आदि में कोई उपन्यास नहीं लिखा गया।साथ ही साम्प्रदायिकता की अनदेखी करके इस विषय पर कोई रचना नहीं लिखी गई।भारत विभाजन पर  उपन्यास लिखते समय विभिन्न लेखकों ने सचेत रुप से कुछ गंभीर सवाल खड़े किए हैं।शरणार्थी समस्या,भारत विभाजन और साम्प्रदायिकता के बारे में समझदारी विकसित की है।लेकिन रेत समाधि में यह सब ग़ायब है।एक और सवाल उठता है रेत समाधि में शरणार्थी समस्या प्रमुख है या महानगरीय जीवन शैली और संपन्न मध्यवर्गीय परिवार और समुदाय के घर की आंतरिक घटनाएँ और सरोकारों को अधिक स्थान दिया गया है।कुल 376 पन्ने के उपन्यास में 264 पन्ने मध्यवर्गीय परिवार और घर की आंतरिक बातों,घटनाओं और जीवनशैली से भरे हैं। मात्र 100पन्ने विभाजन के गैर-प्रमुख सवालों पर -केन्द्रित और विश्रृंखलित ढंग से रोशनी डालते हैं।हाँ,भाषायी चमत्कार इसकी केन्द्रीय विशेषता है।यह वह भाषा है जो महानगरीय जीवन शैली से बनी है।इसमें स्थानीय भाषा और संस्कृति का कहीं पर कोई रुप नज़र नहीं आता।स्थानीय चीजें सिर्फ़ संकेत रुप में आती हैं।हां उपन्यास में व्यापक रुप में महानगरीय आंदोलनों,संस्कृति रुपों के विवरण भरे पड़े हैं।चूँकि उपन्यास लेखिका पर उत्तर औपनिवेशिक संस्कृति और विचारधारा का गहरा असर है इसलिए उपन्यास में पश्चिमी विचारों का वर्चस्व है।इसमें अन्य की संस्कृति और अन्य के विचार कहीं नज़र नहीं आते, कुछ जगहों पर थेगड़ी की तरह ऊपर से चिपकाए हुए प्रतीत होते हैं।

               रेत समाधि में ऐतिहासिक घटना के परिवेश में मूल कथा को रखा गया है। इस तरह की कथा संरचना स्व-सचेतन और गैर-सैद्धांतिक होती है।यहाँ गद्य कोमूल्य तटस्थरुप में पेश किया गया है।मूल्य तटस्थगद्य इतिहास में घुसपैठ की कोशिश करता नज़र आता है।यहाँ पर इतिहास को इतिहास के रुप में नहीं भाषा के रुप में पेश किया गया है।मिशेल फूको के शब्दों मेंमूल्य तटस्थगद्य में प्रस्तुत इतिहास हमेशा भाषा में ही व्यक्त होता है।यहाँ इस तरह की भाषा का प्रयोग किया गया है जिसमें यथार्थवाद और आदर्शवाद के विरोध को ध्वस्त कर दिया गया है।यहाँ पर तो इतिहास के नाम पर संवेदनाएँ और अनुभूतियाँ ही नज़र आती हैं।सवाल यह है क्या इस तरह की प्रस्तुति को वैचारिक तटस्थता की कोटि में रख सकते हैं ? यहाँ आख्यान में इतिहास को संवादों में देख सकते हैं।विमर्श को संवादों में देख सकते हैं। रेत समाधि में प्रस्तुत किए गएवक्तव्ययाविचार सूत्रविषयवस्तु की अवस्था से जुड़े हैं।वाक्य-विन्यास में जो कहा गया है उसकी अवहेलना नहीं करते।बल्कि  समग्र विमर्श बनाते हैं।

          यहाँमैंकी शैली प्रमुख है।मैंही मुख्य प्रतीक है।यहमैंमनो-कामुक, सामाजिक -राजनीतिक है।यहमैंज्ञान, घर,संस्थान आदि को व्यक्त करता है। उपन्यास में कोई  भी प्रसंग या घटना विमर्श( डिस्कोर्स) के बाहर नहीं है।भाषा इस विमर्श की धुरी है।भाषा,वाक्य-विन्यास,स्थिर, अपरिवर्तनीय नहीं हैं।बल्कि वे विभिन्न क़िस्म की गतिविधियों और पात्रों की शिरकत से जुड़े हैं।उपन्यास में व्यक्त वक्तव्यों या विचारों को लेखिका के साथ जोड़कर नहीं देखना चाहिए।जो विचार कहे गए हैं उनका लेखिका से संबंध हो सकता है और नहीं भी हो सकता है।उपन्यास के वक्तव्य और जगह-जगह व्यक्त विचार सूत्र मूलतः आधुनिक विमर्श निर्मित करते हैं।कथावस्तु के निर्माण में भूमिका निभाते हैं।ये उपन्यास की रणनीति का अंग हैं।विमर्श के रुप में देखने के कारण वे कथा में ऊपर से चिपकाए हुए लगते हैं।इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि उपन्यास के विचार सूत्र किस तरह का विमर्श निर्मित करते हैं और क्या उनमें एकाधिक विषयों पर विमर्श पैदा होता है? अथवा विचार सूत्रों के ज़रिए जोड़तोड़ की जा रही है ? इतिहास में सत्य घटनाएँ होती है लेकिन उपन्यास में काल्पनिक घटनाएँ होती हैं।

        दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि हाशिए के लोगों,इनमें स्त्रियाँ भी शामिल हैं, उनके लिए राष्ट्रवाद गैर-जरूरी विचार है।गैर जरूरी समस्या है। यही वजह है पूरे उपन्यास में राष्ट्रवाद,साम्प्रदायिकता आदि का कहीं पर कोई ज़िक्र तक नहीं है।इस उपन्यास मेंशिरकतऔरसक्रियतापर मुख्य ज़ोर है।यह पूरे उपन्यास का सबसे मूल्यवान तत्त्व है।इस तत्व की ज़रूरत इसलिए पड़ी कि भारत में जो लोकतंत्र है वह शिरकत और सक्रियता से आम जनता को दूर रखता है।जबकि उपन्यास की प्रकृति लोकतांत्रिक होती है ,लोकतंत्र में शिरकत महत्वपूर्ण तत्व है।लेखिका ने विभिन्न घटनाओं और पात्रों की गतिविधियों के चित्रण के ज़रिए शिरकत पर ज़ोर देकर लोकतंत्र की मौजूदा अवस्था में हम सबकी भूमिका की ओर इशारा किया है। हम सब जानते हैं कि भारत के लोकतंत्र में जनता की शिरकत तक़रीबन ख़त्म हो गई है।शिरकत पर विभिन्न तरीक़ों से रोक लगाई जा रही है।आतंकित किया जा रहा है।शासक यही चाहते हैं कि आम जनता मातहत बनी रहे,शिरकत करे।उसे मातहत लोगों का तटस्थ रहना पसंद है, शिरकत करना पसंद है।इस पहलू को बड़े ही कलात्मक ढंग से गीतांजलिश्री ने चुनौती दी है और शिरकत और सक्रियता को केन्द्रीय तत्व बनाया है।


यहां कुछ अंश देखें- 

         बेटियाँ हवा से बनती हैं।निस्पन्द पलकों में वे दिखाई नहीं पड़तीं और बेहद बारीक एहसास कर पाने वाले ही उनकी भनक पाते हैं।

       सब औरतें, मत भूलना, बेटियाँ हैं। 

यहाँ लेखिका एकदम स्पष्ट भाषा में स्त्री अस्मिता की राजनीति के दायरे के बाहर निकल जाती है और सामाजिक संबंधों को महत्व देती है।औरत को बेटी मानने पर ज़ोर देने के अनेक व्यापक अर्थ निकलते हैं।इन पर क़ायदे से स्त्रीवादी नज़रिए से विचार करने की जरुरत है।दूसरी महत्वपूर्ण बात कि स्त्री का निर्माण हवा यानी परिवेश में होता है।उसे समझने के लिए अनुभूति की ज़रूरत है। 

                चीजों को ख़ासकर प्यार को एकदम रुपवादी दृष्टि से चित्रित करते हुए लिखा, ‘प्यार की बात कभी भी की जा सकती है क्योंकि प्यार प्यारा होता है।प्राकृतिक होता है।झंझावात होता है।जब प्यार अपार होता है तो कायनात में मच जाती है।उसका सत चरम पर जाता है और उनकी आपस में एक-दूसरे को पछाड़ने की होड़ मच जाती है।फड़क और भड़क का फ़र्क़  मिट जाता है और कोई किसी के रोके रुकता हैं किसी सीमा पर अचकचाता है।इतनी चमक हर तरफ़ चमकती है कि दुनिया जादू लगती है।

       रेत समाधि स्त्री और मासकल्चर के अंतस्संबंध को बड़े ही सुंदर ढंग से चित्रित किया गया है।लिखा है, ‘बहन को हवाई अड्डे बुरे लगते थे इसलिए बार बार वो ख़ुद को हवाई अड्डों में ही पाती ।वहाँ उसे लगता वो कीड़े के बराबर का कीड़ा है, किसी ज़बरदस्त प्रयोगशाला में बंद।नकली बत्तियाँ, नकली गर्मियाँ, नकली धींगा धांगी, जहाँ है।उसी की तरह के कीड़े हर दिशा में भरे हुए हैं, सब बेहद व्यस्त और बदहबास,निकास का रास्ता ढूँढने को चारों ओर भागते हुए।सबको चकाचक पहनावा पहनाया है और सबको एक जैसी पहियों वाली अटैचियों से अटका दिया है, जो उन्हें खींचती ले चल रही हैं।और इसी जगर-मगर रोशनी में उनकी हर जरा सी हरकत पे नज़र है, कैमरे में क़ैद हो रहे सबके ब्यौरे हैं।


                  इसके तुरंत बाद लेखिका एक भिन्न स्त्री जगत में जादुई यथार्थवादी शैली में शिफ़्ट करती है, लिखा , ‘ ये प्रजनन का कैसा खेल इस विराट स्थल में चल रहा है ?क्या वैज्ञानिक बटोर लाये हमें जह हम अंडों में थे और रख दिया उस अनियंत्रित तापमान और प्रकाश में-इनक्यूवेटर उनका- कि देखें हमें फूटते,हाथ-पाँव खिसियाइ गति से हवा में मारते ,उलट-पुलट सीधे होते, और फिर बुड़भस भागते? सिटपिटाए से सिसपिट,सिटपिट?कीड़ों की क़तारें खड़ी हैं,कीड़े क़तारें तोड़ रहे हैं।कीड़े बिखर रहे हैं।चौकस उन पर।संदेह की ,जाँच की।

              अंडा फूटा हिल हिल हिला एक्सरे किया।कीड़ों का कीड़ा होना ठीक हैंगर इंसानों का कीड़ा होना ,हाय ,दिल कलौंस जाता है।कड़ी नज़र उन पर।देखो।परखो।वैसे इस देखते रहो परखते रहो का बहनों बेटियों से जन्मजन्मान्तर का रिश्ता है।तभी वे परिवारों से भागना चाहती हैं और दरवाज़े पर एक पैरक उठाए सोच में पड़ जाती हैं कि उन्हें भीतर जाना है या बाहर ? इसी हेरफेर में एअरपोर्ट पहुँच जाती हैं।एक चौकसी से भाग दूसरी में गिरती हैं।जानी-पहचानी सी चिढ़ उठती है और ज़ाहिर सी बात है कि हवाई अड्डे बुरे लगने लगते हैं।


              



































































































































































 
































































































 






































































 




















      

              








 






   

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...