रविवार, 14 अगस्त 2016

जीवन में माधुर्य की तलाश में-

              मैं पेशे से प्रोफेसर हूँ,कलकत्ता विश्वविद्यालय में पढाता हूं,कोलकाता के कॉलेज स्ट्रीट में हमारा विश्वविद्यालय है,यह मेरे घर से मुश्किल से पांच किलोमीटर दूर है।मैं अपने घर से कुछ दूर पैदल चलकर काकुरगाछी चौराहे तक जाता हूँ,वहां से शेयर का ऑटो लेता हूँ और फूलबागान उतरता हूँ फिर फूलबागान से कॉलेज स्ट्रीट बाटा के लिए ऑटो लेता हूँ,वहां उतरकर एक फर्लांग के करीब पैदल चलकर विश्वविद्यालय पहुँचता हूँ।मात्र 30 रूपये में आना जाना।कभी कभार टैक्सी से जाताहूँ। आमतौर पर सामान्य अवस्था में मात्र 20 मिनट में मैं विश्वविद्यालय पहुँच जाता हूँ।इसके बाद बमुश्किल पांच-दस मिनट शिक्षक मित्रों से गप होती है और उसके बाद कक्षा में और वहां मुझे दो पूीरियड पढ़ाने होते हैं,कभी एमए,कभी एमफिल और कभी पीएचडी की कक्षा में भी जाना होता है।लेकिन कुल मिलाकर दो घंटे की नौकरी है लेकिन इन दो घंटों के लिए घर पर मेहनत बहुत करनी पड़ती है।पहले समय बहुत खर्च होता था इधर कम,लेकिन कोई नई रिसर्च या नई किताब सामने आती है तो तैयारी में समय बहुत लगता है।

इस समूची प्रक्रिया में किताबें मेरी सबसे बड़ी मित्र हैं।वे मुझे सभी किस्म की तकलीफों से दूर रखने में मदद करती हैं।मान-अपमान के कष्ट से मुक्त करने का काम करती हैं।कमीने किस्म के लोगों की संगत और प्रतिक्रियाओं से मुक्त रखने का काम करती हैं।मुझे कभी -कभी लगता है किताबें न हों तो बुद्धिमान लोग अकालग्रस्त होकर मर जाएं।किताबें हमारे समाज की वह भूख मिटाती हैं जिसे आप अन्य तरीकों से नहीं मिटा सकते।

मेरी तमाम कठिनाईयों में किताबों ने सबसे ज्यादा मदद की है,आप यह भी कह सकते हैं कि मैं कायर हूँ इसलिए किताबों में सिर गढ़ाए बैठा रहता हूँ।लेकिन यह हकीकत है किताबें न होतीं तो जालिम लोग जीने न देते।मैं बार बार जालिमों से कहता हूं तुम अपना काम करो ,हम अपना काम करते हैं,देखते हैं समाज में कौन सी चीज बचती है,जालिमाना हरकतें या किताबों के पाठक-लेखक।

मैंने काफी गणित लगाया और पाया कि मुझे विश्वविद्यालय में पूरे महिने में मात्र 24घंटे से ज्यादा का काम नहीं है।इसलिए बाकी समय मैंने किताबों के हवाले कर दिया।मेरे कोलकता में बहुत कम मित्र हैं। उनकी संख्या न बताऊं तो ही अच्छा है।लेकिन हजारों लोग मुझे जानते हैं,मैं आमतौर पर आवारागर्दी नहीं करता,हां कभी कभी माल में जाकर नेत्रसुख जरूर लेता हूँ।आईसक्रीम खा लेता हूँ,कभी सिनेमा देख लेता हूँ,चाय पी लेता हूँ।लेकिन यह भी बहुत कम।

लेकिन बाजार में चलते लोग,बंगलाभाषा बोलते लोग,खासकर बंगाली औरतों की भाषा मुझे बहुत अच्छी लगती है।वे आमतौर बहुत सुंदर भाषा में बोलती हैं,वह माधुर्य हिन्दीभाषी औरतों में कम है।

आप मुझे कुछ भी कह सकते हैं,जेएनयूवाले -मथुरावाले पंडितजी कहते हैं,कुछ लोग कॉमरेड कहते हैं,कुछ मानते हैं मैं मोदी का भक्त हूँ,कुछ का मानना है मैं मार्क्सवादी हूँ,कुछ देवीवाले के नाम से जानते हैं,कुछ भाईसाहब कहकर काम चला लेते,छात्र-छात्राओं के लिए जेसी हूँ,कुछ प्यार करते हैं तो कुछ बेइंतिहा नफरत करते हैं। कुछ मेरी किताबें पढ़ते हैं,खरीदते हैं,कुछ हैं जो किताबों को नफरतभरी निगाहों से देखते हैं।कुछ का मानना है मेरा लेखन कचरा है,कुछ को काम का लगता है।

कुछ की नजर में मैं बहुत खराब इंसान हूँ,कहने का आशय यह कि मेरे अंदर इंसान के अच्छे-बुरे दोनों ही किस्म के गुण हैं।मैं अनेकबार झूठ भी बोलता हूँ,मंदिर जाता हूँ लेकिन भगवान को नहीं मानता ,भगवान के नाम पर चढावा पाता हूँ लेकिन मैं कभी किसी का अपमान नहीं करता,गाली भी देता हूँ,लेकिन गालियों को नापसंद करता हूँ।शराब नहीं पीता लेकिन पीने वालों से मित्रता रखता हूं,पीने को बुरा नहीं मानता,मांसहारी नहीं हूँ लेकिन मांसाहारी मित्रों के साथ बैठकर खाना खाता हूँ।मैं पैदाइशी हिन्दू हूँ लेकिन हिन्दुओं के कोई गुण-अवगुण मेरे अंदर नहीं हैं।

घंटों सोचता रहता हूँ,समाज की समस्याओं से परेशान रहता हूँ,उन पर अपने विचार जाहिर करता रहता हूं,लेकिन अपनी निजी समस्याएं कभी सार्वजनिक नहीं करता,दुख अपने अंदर रखता हूँ,मुझे गम खाने की आदत है।सपने देखकर गुजारा करता हूँ।हकीकत से डरता हूँ।हकीकत हमेशा खौफनाक नजर आती है।अकेले में रोता हूँ,केले-अमरूद-पपीता आदि खाता हूँ,कम अक्ली पर गुस्सा आता है,अक्लवालों पर फिदा रहता हूँ.शिक्षित हूँ,लेकिन बीच-बीच में झुंझला जाता हूँ.सरकार और नेताओं से कभी डर नहीं लगता,लेकिन सामान्य सी गलती करके डरने लगता हूँ।मजदूर और किसान और उनकी राजनीति अच्छी लगती है,इंकलाबी जोश अच्छा लगता है लेकिन भजनों में रस पाता हूँ।पता नहीं मैं ऐसा क्यों हूं ?



मेरे अनेक मित्र सलाह देते हैं मैं सब कुछ फेसबुक पर न लिखा करूँ। लोग तुम्हारे विचार चुरा लेते हैं और तुम्हारा जिक्र तक नहीं करते,मैं हंसता हूूं और कहता हूूं विचार ही तो चुरा रहे हैं,चुराने दो समाज के काम आएंगे,हमारा मकसद भी तो यही है कि हमारे विचार ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचें।एक दूसरे मित्र ने कहा इतना कैसे लिख लेते हो भाई, मैंने कहां बस कम्प्यूटर खोला,बटन दबाया और विचार चालू।मित्र बोला यार हम भी कम्प्यूटर खोलते हैं,फेसबुक पर जाते हैं लेकिन दिमाग में विचार ही नहीं आते,तुम इतना जल्दी कैसे लिख लेते हो,मैंने कहा विचार तो मेरे जेब में सब समय पड़े रहते हैं।मंटोकी भाषा में कहूूँ कि मैं फेसबुक पर अपनी ही जेब काटता रहता हूँ।अपनी जेब काटता हूूँ और फेसबुक मित्रों के हवाले कर देता हूँ।

तर्कवाद और मंदिर की प्रतिस्पर्धा का केन्द्र है कोलकाता

         कोलकाता में रहते मुझे 27साल हो गए,इस दौरान कोलकाता में बहुत कुछ बदलते देखा है।कोलकाता में अनेक किस्म की विचारधारात्मक लड़ाईयां देखीं,नए किस्म के जनांदोलन देखे।लेकिन सबसे बड़ा परिवर्तन यह देखा कि हठात् मंदिर संस्कृति चारों ओर छा गयी।कोलकाता में पहले इतने मंदिर नहीं थे, लेकिन मेरे देखते ही देखते हर गली के मुहाने पर,हर पेड़ के आसपास कोई न कोई मंदिर आ गया,मंदिर बनाने वालों का यहां संगठित गिरोह है.ये मंदिर स्वतःस्फूर्त्त नहीं हैं।मैं जिस इलाके (काकुरगाछी) में रहता हूँ वहां देखते ही देखते कई छोटे-छोटे मंदिर जन्म ले चुके हैं।

कोलकाता सबसे जागृत राजनीतिक धर्मनिरपेक्ष शहर है,लेकिन हजारों छोटे-छोटे मंदिरों का शहर है। इस शहर में जिस तरह हर व्यक्ति ´तर्कवादी´,´विवेकवादी´है ,उसी तरह हर व्यक्ति के सामने मंदिरों का नए सिरे से हर मुहल्ले में उभरकर आना भी एक चुनौती है।´तर्कवाद´ और´मंदिर´का यह द्वंद्व इस शहर की जान है।इस शहर को जानना है तो इस द्वंद्व को समझना होगा,इस द्वंद्व में ही पश्चिम बंगाल की आत्मा नजर आएगी और भारत की आत्मा भी नजर आएगी।

कोलकाता ही अकेला शहर नहीं है जहां मंदिरों की बाढ़ आई हो,देश के विभिन्न शहरों में विगत 40 सालों में मंदिरों की बाढ़ को सहज ही देखा जा सकता है। कोलकाता तो इस देश के वैचारिक द्वंद्वों की आत्मा है। भारत के वैचारिक संघर्षों का अध्ययन करना है तो कोलकाता को गहराई के साथ जानना बहुत जरूरी है।कहने के लिए कोलकाता मुख्यधारा से दूर,कटा हुआ,अलग-थलग नजर आता है,लेकिन असल में ऐसा नहीं है।

कोलकाता पहला शहर है जिसमें आधुनिककाल में ´तर्कवाद´ और ´विवेकवाद´ ने ´ईश्वर´के खिलाफ वैचारिक जंग सुनियोजित ढ़ंग से लड़ी।जो लोग ´विवेकवाद´के लिए संघर्ष कर रहे थे वे अपने लिए कच्चा माल परंपरा से बटोरकर ला रहे थे।वे जाना चाहते थे भविष्य में लेकिन उनका कच्चा माल था अतीत का।यह ऐसा द्वंद्व था जो अभी भी बना हुआ है,हमारा समाज जाना चाहता है अंतरिक्ष युग में लेकिन हनुमान की पूजा करते हुए! पहले तमाम संस्थाओं,रीति-रिवाजों और मूल्यों को तर्क की कसौटी और सामाजिक प्रासंगिकता के आधार पर परखा गया फिर उसमें से बहुत कुछ को छोड़ दिया गया और उसके कारण जो अभाव पैदा हुआ उसके लिए पश्चिम से मूल्य,मान्यताएं और परंपराएं ग्रहण कर ली गयीं।यही वह प्रस्थान बिंदु था जिसने भारतीय जनमानस में नए सिरे से ´तर्कवाद´को पैदा किया,आज इसी ´तर्कवाद´को कोलकाता से लेकर पश्चिम बंगाल के सुदूरवर्ती इलाकों में पैर पसारे देख सकते हैं,आम जनता में कभी-कभी यह तर्कवाद सोने भी लगता है,लेकिन फिर अचानक किसी शॉक के झटके खाकर उठ बैठता है।

कोलकाता में पैदा हुए ´तर्कवाद´ बनाम ´मंदिर´ (ईश्वर भी कह सकते हैं )के द्वंद्व ने सबसे मूल्यवान चीज विकसित की वाद-विवाद में अहिंसा।कोलकाता में वैचारिक विवाद हिंसक,अपमानजनक, गाली-गलौज से भरा नहीं होता। कोलकाता के इसी सहिष्णु रूप ने आधुनिक भारत के सहिष्णु चरित्र को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । 19वीं सदी से लेकर आज तक जितने ज्यादा वैचारिक संघर्ष और परिवर्तन कोलकाता ने देखे हैं उतने संभवतः भारत के किसी शहर ने नहीं देखे ।

शहर की नई परिभाषा गढ़ने में कोलकाता सबसे आगे है,यह इच्छाओं का शहर है।यहां ´तर्कवादी´इच्छाओं को जितना मान-सम्मान मिलता है आम लोग उतना ही धार्मिक इच्छाओं को भी सम्मान देते हैं।इस शहर में भगवान जितना जरूरी है उतना ही जरूरी मनुष्य और विवेकवाद भी है।भगवान और विवेकवाद के द्वंद्व को इस शहर ने बड़े ही कौशल के साथ हल किया है।विभिन्न धर्म हैं, उनके मानने वाले हैं,लेकिन अधिकांश धर्मनिरपेक्ष हैं।धर्म को राजनीति और सरकार के साथ घालमेल करके जनता नहीं देखती और राजनीतिकदल भी इस घालमेल से बचते हैं।यहां साम्प्रदायिक संगठन हैं लेकिन लोग उनके प्रति भी अहिंसक भाव से पेश आते हैं।इस शहर में सभी किस्म की विचारधाराओं के लिए समान रूप से जगह है। ´तर्कवाद´बनाम ´मंदिर´के द्वंद्वं को सामंजस्य और सहिष्णुता के पैमाने देखने की परंपरा यहां इतनी पुख्ता है कि हर तरह के विचार के व्यक्ति को यहां सुरक्षा महसूस होगी।इस समूची प्रक्रिया में कोलकाता से लेकर समूचे पश्चिम बंगाल में मानवाधिकारों को लेकर देश के अन्य इलाकों से बेहतर सचेतनता है। यहां विज्ञान की जितनी मान्यता है परम्परा का भी उतना ही सम्मान है।यहां परंपरावादी भी तर्कवाद का सहारा लेकर परम्पराओं को तरासते रहे।यहां जाग्रत आधुनिक समाज है तो ऐसा समाज भी है जो हिन्दू होने में गौरव का अनुभव करता है।अ-हिन्दू और हिन्दू में यहां कटुता नहीं है,लेकिन सामाजिक विकास के क्रम में दूरी बढ़ी है।सामाजिक सद्भाव है लेकिन संशय बढ़ा है।बड़े पैमाने पर मुसलिम समाज है जो अपने जलसे-त्यौहार आदि बड़ी तैयारियों के साथ मनाता है और सारा शहर उसमें सहयोग करता है,उसके साथ सामंजस्य बिठाता है,कभी कटुता नजर नहीं आती,उसी तरह हिन्दुओं के बड़े त्यौहार बड़े शान से मनाए जाते हैं और मुसलमान उनमें सहयोग करते हैं।शहर की पूरी अर्थव्यवस्था मिश्रित संस्कृति, मिश्रित खान-पान,मिश्रित भावनाओं पर टिकी है।



कोलकाता में आज भी सघन हिन्दू इलाकों में मुसलमानों की दुकानें,सघन मुसलिम इलाकों में हिन्दुओं की दुकानें मिल जाएंगी।एक ही मार्केट में हिन्दू-मुसलमानों की एक साथ दुकानें मिल जाएंगी।इसने इस शहर में साम्प्रदायिक कटुता को कभी पैदा ही नहीं होने दिया,जबकि कोलकाता पर भारत-विभाजन से लेकर बंगलादेश से आए शरणार्थियों तक का बहुत दबाव रहा है,लेकिन ´तर्कवाद´के आधार पर उसने इस तरह के संकटों का समाधान अहिंसक ढ़ंग से खोज लिया है।इस शहर में एक करोड़ से ज्यादा लोग रहते है लेकिन इसकी चाल एकदम कस्बे जैसी है।इसमें कहीं पर भी महानगर जैसी बेचैनी और असंतोष नहीं है।

शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

कार्ल मार्क्स पखवाडा- धर्म और मार्क्स –


     आधुनिककाल में धर्म का उपभोक्तावाद और पूंजीप्रेम सबसे बड़ा ईंधन है। इन दोनों के बिना धर्म जी नहीं सकता। धर्म वैचारिक और भौतिक दोनों ही स्तरों पर उपभोक्तावाद और पूंजी की मदद करता है यही वजह है धर्म की जड़ें उन वर्गों में ज्यादा गहरी हैं जहां उपभोक्तावाद और पूंजीप्रेम खूब फल-फूल रहा है।जिस तरह धर्म जनता के लिए ´आत्मिक शराब है´ठीक उसी तरह उपभोक्तावाद और पूंजीप्रेम लत है। दोनों में मातहत बनाने की प्रवृत्ति है।
      धर्म कोई विचार मात्र नहीं है,उसकी सामाजिक जड़ें हैं,धर्म की समाजिक जड़ों को सामाजिक संघर्षों में जनता की शिरकत बढ़ाकर ही काट सकते हैं।धर्म के खिलाफ संघर्ष यदि मात्र वैचारिक होगा तो वह भाववादी संघर्ष होगा,धर्म भाववाद नहीं है,वह तो भौतिक शक्ति है।उसे अमूर्त्त विचारधारात्मक उपदेशों के जरिए नष्ट नहीं किया जा सकता। एक मार्क्सवादी को यह पता होना चाहिए कि धर्म का मुकाबला कैसे करें इस मामले में उनको बुर्जुआ भौतिकवादियों से अलगाना चाहिए।बुर्जुआ भौतिकवादियों के लिए ´धर्म का नाश हो´,´अनीश्वरवाद चिरंजीवी हो´´नास्तिकता अमर रहे´ का नारा प्रमुख है,वे आमतौर पर अनीश्वरवाद का ही जमकर प्रचार करते हैं,इस तरह के नजरिए की लेनिन ने  तीखी आलोचना की है और उसे ´छिछला दृष्टिकोण´ कहा है।
    लेनिन के शब्दों में यह बुर्जुआ जागृति का ´संकीर्ण नजरिया है। इससे धर्म की जड़ों के बारे में पूरी जानकारी नहीं मिलती।इस तरह की धर्म की व्याख्याएं भाववादी हैं,इनका भौतिकवाद से कोई लेना-देना नहीं है।लेनिन ने धर्म के बारे में लिखा है ´आधुनिक पूंजीवादी देशों में इसकी जड़ें मुख्यतःसामाजिक हैं। पूंजी की अंधी ताकत का भय-अंधी इसलिए क्योंकि व्यापक जनसमुदाय इसका पूर्वानुमान नहीं कर सकता-एक ऐसी शक्ति जो सर्वहारा और छोटे मालिकों के जीवन के हर चरण में प्रहार का खतरा पैदा करती तथा ´औचक´,´अनपेक्षित´,´आकस्मिक´,तबाही ,बर्बादी,गरीबी,वेश्यावृत्ति,भुखमरी का हमला करती है.आधुनिक धर्म की जड़ यहां है।इसे भौतिकवादियों को सर्वप्रथम अपने दिमाग में रखना चाहिए.

     जनता के दिमाग से धर्म को मिटाने के लिए जरूरी है उसे जनसंघर्षों के लिए तैयार किया जाए,जनता खुद धर्म की जड़ें खोदना सीखे,संगठित हो,सचेत रूप में पूंजी के शासन के तमाम रूपों से लड़ना सीखे।जबतक वह ऐसा नहीं करती तबतक जनता के मन से धर्म को मिटाना संभव नहीं है।

कार्ल मार्क्स पखवाडा- अफीम का व्यापार

            कार्ल मार्क्स का प्रसिद्ध निबंध है "अफ़ीम का व्यापार" ,यह न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून में 25सितम्बर 1858 को छपा था।इस निबंध में मार्क्स ने भारत-चीन में अफीम के व्यापार के साथ ब्रिटिश शासन के अन्तस्संबंध पर प्रकाश डाला है।

मार्क्स ने लिखा है-" विषय के इस पहलू पर विचार करते हुए हम ईसाई मत तथा सभ्यता की दुहाई देने वाली ब्रिटिश सरकार के एक निन्दनीय आत्मविरोधी स्वरूप का उल्लेख किये बिना नहीं रह सकते।एक साम्राज्य की सरकार होने के नाते वह दिखावा तो यह करती है कि उसे अवैध अफ़ीम व्यापार से कोई सरोकार नहीं,और उसका निषेध करने वाली सन्धियों पर हस्ताक्षर भी कर देती है।परन्तु भारत की सरकार के नाते वह बंगाल में जबरदस्ती अफ़ीम की काश्त करवाती है,जिससे उस देश की उत्पादक शक्तियों को बहुत बड़ा नुकसान पहुँचता है.पोस्त की काश्त करने के लिए वह भारतीय रैयतों के एक भाग को बाध्य करती है,तो दूसरे भाग को पेशगी पैसे देकर उसमें फंसाती है।वह इस विनाशकारी द्रव्य को बड़े पैमाने पर तैयार करने का एकाधिकार अपने हाथ में रखे हुए है।उसने सरकारी गुप्तचरों की फ़ौज इस काम पर लगा रखी है कि वे पोस्त की काश्त करने,उसे निश्चित स्थानों पर पहुँचाने,उसे चीनी उपभोक्ताओं की रूचि के अनुसार गाढ़ा और तैयार करने,उसे पेटियों में बन्द करने,जो लुक-छिपकर आसानी से एक जगह से दूसरी जगह ले जायी जा सके,और अन्त में उसे कलकत्ते में पहुंचाने की निगरानी करें जहां सरकारी माल के तौर पर अफीम की नीलामी की जाती है और सरकारी अफ़सर उसे सट्टेबाजों के सुपुर्द कर देते हैं,उनसे यह अवैध व्यापारियों के हाथों पहुँचती है जो उसे चीन ले जाते हैं।"

मार्क्स ने अंत में लिखा" वास्तव में,ब्रिटिश सरकार के भारतीय वित्त न केवल चीन के साथ अफ़ीम व्यापार पर ,बल्कि उस व्यापार के अवैध स्वरूप पर आश्रित बना दिये गये हैं। "


"अफ़ीम का व्यापार "( न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून ,20सितम्बर,1858)नामक एक अन्य निबंध में मार्क्स ने मान्टगोमरी मर्टिन का उद्धरण दिया है,यह बहुत ही महत्व का है।मोन्टगोमरी ने लिखा , "अफ़ीम व्यापार की तुलना में दास व्यापार अधिक दयालु था।हम अफ्रीकियों के शरीर का नाश नहीं करते थे,क्योंकि उन्हें जीवित रखने में हमारा हित था।हम उनके आचार को भ्रष्ट नहीं करते थे,उनके मनों को कलुषित नहीं करते थे।परन्तु अफीम बेचनेवाला उन अभागे पापियों की नैतिकता को भ्रष्ट,दूषित तथा मटियामेट करने के बाद उनके शरीर का भी हनन करता है।हर घड़ी एक ऐसे दैत्य के सामने नये नये लोगो की बलि चढ़ाई जा रही है,जो कभी भी तृप्त नहीं होता,और उसके मन्दिर में भेंट चढ़ाने के लिए हत्यारे अंग्रेज और आत्म-हत्या करनेवाले चीनी एक दूसरे से होड़ कर रहे हैं।"

गुरुवार, 11 अगस्त 2016

जाति समाज नहीं नागरिक समाज बनाओ

        भारत में समाज के चरित्र को लेकर विभ्रम इन दिनों गहराता जा रहा है,समाज को विभाजित इकाईयों में देखने की हमारी आदत बनी हुई है,साथ ही पुराने वर्गीकरण दिमाग में काम करते रहते हैं,पुराने नाम और पुरानी अंतर्वस्तु का आग्रह आम बात है।वर्गीय केटेगरी में सोचने और देखने से बचने लगे हैं। इस प्रसंग में मुझे पी.वी.अनेन्कव के नाम मार्क्स का 28दिसम्बर 1846 को लिखा पत्र याद आ रहा है।यह पत्र अनेक आधुनिक समस्याओं पर रोशनी डालता है। मसलन् ,समाज क्या है ,मशीन क्या है,प्रतियोगिता क्या है,किस तरह सोचें या देखें आदि प्रश्नों को मार्क्स ने बहुत सुंदर ढ़ंग से हल किया है।

मार्क्स ने लिखा ´समाज है क्या,उसका रूप चाहे जो हो ॽमनुष्यों की आपसी क्रिया का फल(उत्पाद)। क्या मनुष्य को खुद इस या उस प्रकार का समाज चुनने की आजादी हैॽकिसी हालत में नहीं। मनुष्य की उत्पादक शक्तियों की खास किस्म को आप मान लें आप खास किस्म के वाणिज्य और उपभोग देखेंगे। उत्पादन,वाणिज्य और उपभोग के विकास की विशेष अवस्थाओं की आप अवधारणा करें और आपको उसी के अनुरूप सामाजिक गठन,उसी के अनुरूप परिवारों,व्यवस्थाओं या वर्गों का संगठन,एक शब्द में उसी के अनुरूप नागरिक समाज मिलेगा।एक विशेष नागरिक समाज की अवधारणा करें और आप विशेष राजनीतिक स्थितियाँ पायेंगे जो नागरिक समाज का आधिकारिक इज़हार मात्र हैं।´

भारत के प्रसंग में देखें यहां पर उत्पादन, वाणिज्य और उपभोग के पूंजीवादी रूप और संरचनाएं काम कर रही हैं।समाज का मौजूदा ढांचा पूंजीवादी नियमों से संचालित है,इन्हीं के तहत सामाजिक संरचनाएं काम कर रही हैं और इनसे समूचा समाज संचालित है।लेकिन दिलचस्प बात यह है कि जाति का समूचा विमर्श सामंती फ्रेमवर्क में चल रहा है।सभी किस्म की घटनाओं को,खासकर उत्पीडन,शोषण, दमन आदि की घटनाओं को हम जाति के फ्रेमवर्क,जातिगत अवधारणाओं आदि में रखकर देख रहे हैं।इस फ्रेमवर्क के बाहर निकलकर देखने से डरते हैं।मसलन्,किसी दलित का अपमान हुआ या बलात्कार हुआ तो उसे जाति अपमान या जातिगत बलात्कार के रूप में देखते हैं,जबकि यह पूंजीवादी व्यवस्था में घटित घटना है और उसे सीधे बलात्कार की केटेगरी में रखकर देखा जाना चाहिए।दलित शोषण का जो रूप नजर आ रहा है उसे पूंजीवादी शोषण के रूप में देखा जाना चाहिए,लेकिन हम पूंजीवादी फ्रेमवर्क में देखने की बजाय सामंती केटेगरी में रखकर ही देखते हैं।

वास्तविकता यह है कि समाज का संचालन सामंती नियमों और कानूनों से नहीं पूंजीवादी नियमों और कानूनों के जरिए संविधान और भारतीय दण्ड संहिता के आधार पर हो रहा है। लेकिन हम संविधान प्रदत्त अवधारणाओं में नहीं सोचते।इस सबका परिणाम यह निकला है कि भारत में नागरिक समाज की अवधारणा विकसित ही नहीं हो पायी है।अभी भी हम दलित समाज के फ्रेमवर्क में रखकर ही चीजों को देख रहे हैं।चाहते हैं दलितमुक्ति लेकिन लेकिन दलित समाज के फ्रेम में! नागरिक समाज और संविधान के व्यापक फलक पर रखकर चीजों को देखना ही नहीं चाहते।चाहते हैं संवैधानिक हक लेकिन पुरानी अवधारणाओं में ही जीवित रहना चाहते हैं ! संविधान प्रदत्त हकों को हासिल करने के लिए संविधान निर्मित अवधारणाओं में सोचें,संविधान निर्मित समूह,संगठन आदि बनाएं।दलित समाज की जगह नागरिक समाज बनाने कोशिश नजर नहीं आती,जगह-जगह जाति संगठन पैदा हो गए हैं,हर व्यक्ति जाति के आधार पर हक मांग रहा है। जाति समाज की आलोचना करते ही हल्ला करने लगते हैं,हमले करने लगते,जाति-जाति चिल्लाने लगते हैं,जाति का शोर अंततःनागरिक समाज की चेतना के विकास में अवरोध पैदा करता है।हमारे समाज का कुल निचोड़ जाति नहीं है।जाति की जगह अब पूंजीवादी नए वर्गों ने ले ली है और नए वर्गों के नए अंतर्विरोध हैं,नए अंतर्विरोध नए नजरिए की मांग करते हैं,पुराने नजरिए से नए अंतर्विरोधों को हल नहीं किया जा सकता।पुराने नजरिए से नए अंतर्विरोध हल करने की सभी कोशिशें अंततः असफल होंगी।इससे नया समाज पैदा नहीं होगा।भारत के आधुनिक समाज के विकास के लिए नागरिक समाज चाहिए,न कि जाति समाज।





बुधवार, 10 अगस्त 2016

मार्क्स के बहाने गाली पर बातें ः गाली प्रकृतवाद है यथार्थवाद नहीं

      साहित्य में गालियों पर जब बहस हो रही है तो हम इस सवाल पर सोचें कि आलोचना में कभी किसी बड़े आलोचक ने आलोचना में गाली का इस्तेमाल क्यों नहीं किया ॽ जबकि आलोचना भी तो इसी समाज में लिखी जा रही है और आलोचक भी इसी समाज से आता है ! वह उन मसलों पर भी गालियां नहीं लिखता जिन पर बोलते हुए आए दिन गालियां खाता है ! मैंने कम से कम ऐसे किसी आलोचक को नहीं पढ़ा जो आलोचना लिखते समय लेखक,आलोचक,पात्र या परिस्थितियों को गाली दे।हिन्दी में अ-कविता के पहले साहित्य में गालियों का चलन नहीं था।अ-कविता वालों ने चमद वर्षों बाद गाली का मार्ग छोड़ दिया ,पता करो क्यों ॽ क्यों अन्य कवियों ने उनका अनुकरण नहीं किया ॽ

भारत में रचना में कामसूत्र सैंकड़ों साल रमता रहा है। समूचा संस्कृत साहित्य श्रृंगार रस में 18सौ वर्षों तक डूबा रहा,लेकिन गालियां नहीं लिखी गयीं। शरीर,शारीरिक क्रियाएं,संभोग,वियोग,दुख,सुख सब है, लेकिन गालियां नहीं हैं।सवाल यह है क्या मध्यकाल या प्राचीनकाल में समाज में गालियां नहीं थीं ॽ क्या गालियां आधुनिकाल काल के समाज की देन हैं ॽ आखिरकार गालियां आई कहां से ॽ

भारत साहित्य परंपरा में कोई चीज अछूत नहीं थी,न स्त्री अछूत थी और न उसका सौंदर्य टेबू था,न उसका प्रेम दुर्लभ था! साहित्य अनेक किस्म के रोमांस से भरा पड़ा है,संभोग विमर्श से भी भरा पड़ा है,यहां तक कि शिव-पार्वती के संभोग का वर्णन भी है।पौराणिक कथाओं में भगवान,ऋषि,गन्धर्व आदि के कथानकों के जरिए सैंकड़ों पुराने टेबू तोड़े गए हैं और नए टेबू बनाए गए हैं लेकिन गालियां लिखने का चलन नहीं था।

फेसबुक पर कुछ लोग हिमायत कर रहे हैं कि गालियां भी साहित्य है, वह जायज है,तो उनके लिए या फिर गालियों के लेखक के लिए वह तात्कालिक तौर पर जायज हो सकता है लेकिन साहित्यबोध के विकास में साहित्य के स्तर को ऊँचा उठाने के लिहाज से गालियों का चित्रण करने वाला साहित्य कभी समाज और साहित्य पर अपनी छाप नहीं छोड़ पाया है।जिन लेखक-लेखिकाओं ने कभी गालियों का प्रयोग किया है वे जल्द ही गालियों से दामन छुड़ाकर सभ्यता की शरण में लौटे हैं।

मसलन् सवाल यह है ´तमस´ और ´झूठा सच´ जैसे उपन्यास क्लासिकल असर पैदा करते हैं या विभाजन पर लिखी वे रचनाएं जिनमें गालियां हैं ॽ गालियाँ रचना को सुंदर नहीं बनातीं।यह तर्क गलत है कि पात्र बोलते हैं इसलिए लेखक लिखने को मजबूर है।सवाल यह है लेखक चुनता क्या है ॽ लेखक यदि प्रकृतवादी नजरिए से देखेगा तो उसे जो दिखेगा उसका बिना चयन के चित्रण करेगा लेकिन यथार्थवादी नजरिए से देखेगा तो यथार्थ में से चुनेगा।कार्ल मार्क्स ने एमिल जोला और बाल्जाक की रचनाओं का जिस आधार पर मूल्यांकन किया है उससे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। एमिल जोला ने ´नाना´उपन्यास में समाज में जो कुछ देखा उस सबका चित्रण किया ,कोई चीज उससे छूटी नहीं।संभवतःवह बेटे से मां को सेक्स करते चित्रित कर देता है। जोला का तर्क था उसने जो देखा वही लिखा,लेकिन मार्क्स ने इस बात को स्वीकार नहीं किया,लेखक के पास चयन का नजरिया होना ही चाहिए।

हमारे बीच में अनेक लेखक हैं जिनके पास चयन का नजरिया नहीं है,वे जो देखते हैं वही रच रहे हैं,उनके पात्र जिस भाषा को बोल रहे हैं, वे उसी भाषा को लिख रहे हैं।चयन के नजरिए के अभाव में लिखी रचनाएं प्रकृतवाद के दायरे में आती हैं,वे यथार्थवादी रचनाएं नहीं हैं।यथार्थवादी लेखक तो यथार्थ में से चुनता है।हमारे जो मित्र गालियों के पक्ष में लिख रहे हैं हम उनसे कहना चाहते हैं वे जरा इतिहास में जाएं और प्रकृवाद बनाम यथार्थवाद की बहस पढ़ें,मार्क्स-एंगेल्स को भी पढ़ें,आखिरकार मार्क्स ने क्यों बालजाक को यथार्थवाद का चितेरा कहा और जोला को नहीं,जबकि यथार्थ तो जोला के यहाँ भी था।

साहित्य में गालियों के प्रतिवाद में

      कबीर से लेकर अष्टछाप के कई दलित लेखकों तक कहीं पर भी कविता में गाली नहीं मिलेगी।लेकिन अफसोस है इन दिनों कविता में गाली को महिमामंडित किया जा रहा है।कविता में सभ्यता रहती है, कविता सभ्यता निर्माण का काम करती है।सवाल यह है कवि अपने लिए कच्चा माल गाली को बनाता है या सभ्यता को।यदि वह गाली को कच्चे माल की तरह इस्तेमाल करता है तो इस तरह की कविता सभ्यता निर्माण का अंग नहीं होगी,वह कहीं और काम में आएगी।

कबीर ने गालियां लिखी होतीं तो उनकी कविता महान कविता नहीं बन पाती।प्रेमचंद को पढ़ें कहीं पर भी गाली नहीं मिलेगी।लेकिन अफसोस है हिन्दी के अनेक नामी गिरामी लोग गाली को साहित्य का अविभाज्य अंग बनाकर पेश कर रहे हैं।नाथ-सिद्ध निचली जातियों से ही आते थे,उन्होंने बड़े पैमाने पर साहित्य को प्रभावित किया और बदला,लेकिन गालियां लिखकर कविता नहीं रची,उनके यहां गालियां कविता का कच्चा माल नहीं है। सवाल यह है हम लेखकों को क्या सिखा रहे हैं या लेखकों क्या ग्रहण करना चाहिए ?

प्रेमचंद का एक अप्रसिद्ध निबंध है ´गालियाँ´ वह जरूर पढें, लिखा है-
"हर एक जाति का बोल-चाल का ढंग उसकी नैतिक स्थिति का पता देता है।अगर इस दृष्टि से देखा जाये तो हिन्दुस्तान सारी दुनिया की तमाम जातियों में सबसे नीचे नजर आयेगा।बोलचाल की गम्भीरता और सुथरापन जाति की महानता और उसकी नैतिक पवित्रता को व्यक्त करती है और बदज़बानी नैतिक अन्धकार और जाति के पतन का पक्का प्रमाण है।"

-" गुस्से की हालत में ज़बान की यह रवानी औरतों में ज्यादा रंग दिखाती है।दो हिन्दुस्तानी औरतों की तू-तू मैं-मैं देखिए और फिर सोचिए कि जो लोग हमको अर्ध-बर्बर कहते हैं वे किस हद तक ठीक कहते हैं।"

प्रेमचंद ने यह भी लिखा बेगैरत और बेशर्म बना देती है गाली। स्वाभिमान और इज्जत नष्ट करती है। गाली तो बासी कढी का उबाल है। गालियां जातीय पतन की देन हैं।

कविता में दी गई गालियां हों या अ-कविता में दी गयी गालियां हों ,वे प्रेमचंद के मुताबिक पाक रिश्तों को नापाक करती हैं।वल्गरसेंस का वही स्थान है जो समाज में कीचड़ का ।दुख कबीर के पास भी थे , अनंत दुख थे,लेकिन कविता थी उनके पास,कीचड़ नहीं थी।कबीर ने गाली सुनी थीं,योनि आदि के बारे में भी जानते थे लेकिन कभी कविता में उसे घुसने नहीं दिया। यह सामान्य सी बात यदि फेसबुक लेखक समझ नहीं पा रहे हैं तो निश्चय ही बहुत खतरनाक समय में जी रहे हैं।रंडी,बलात्कार,रेप,योनि,पेटीकोट, कुतिया,साला पदबंधों के अलावा संसार में बहुत कुछ है लिखने के लिए। कमाल है कविता अचानक सामुद्रिकशास्त्र की ओर मुड़ गयी। फूहड़ता,पोर्न भाषा,गाली से कविता कब महान हुई है भाई!



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