गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

रामचरित मानस में वायनरी अपोजीशन और हिन्दू अस्मिता के खेल



( अस्मिता साहित्य के महाकवि गोस्वामी तुलसीदास) 

( सामयिक हिन्दू अस्मिता के नायक लालकृष्ण आडवाणी)
           वायनरी अपोजीशन सिर्फ विलोम भाषिक रूपों में ही नहीं होता,बल्कि वह लोककथा संरचना, कहावत,सवाल,शैली आदि के रूप में भी हो सकता है।मिथ के लिए वायनरी अपोजीशन विलक्षण चीज नहीं है।
    वायनरी अपोजीशन सिर्फ मिथ तक ही सीमित नहीं है,बल्कि वायनरी अपोजीशन तो मानवीय विचार और मनोदशा का अन्तर्गृथित हिस्सा है।वह जब मिथ में आता है तो कथानक को भी मिथकीय बना देता है।
     वायनरी अपोजीशन में मिथकीय कहानी का आना कोई नयी घटना नहीं है,बल्कि महाकाव्य में तो यह काफी लंबे अर्से से प्रचलन में है।तुलसी के यहां वायनरी अपोजीशन का प्रयोग जितना ज्यादा है,उसके कारण छद्म बिडम्बनाओं को उन्होंने ज्यादा जगह नहीं दी है। अनेक बिंदु ऐसे भी हैं जहां वायनरी अपोजीशन की धारणा का वे एकदम इस्तेमाल नहीं करते।
     वायनरी अपोजीशन का व्यापारिक पूंजीवाद अथवा उपभोक्तावाद के मौजूदा युग में अस्मिता की अभिव्यक्ति के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। तुलसीदास ने जब रामचरित मानस की रचना की और उसे जनप्रियता दिलाई तो वे जाने-अनजाने हिंदू अस्मिता को निर्मित कर रहे थे,यह अचानक नहीं है कि आजाद हिंदुस्तान में अस्सी के बाद के वर्षों में जब अस्मिता की राजनीति अपने चरम पर थी तो उसका सबसे बड़ा अस्त्र रामचरित मानस ही था।
     हिंदू अस्मिता लंबे समय से रामचरित मानस के जरिए अपनी अस्मिता को व्यक्त करती रही है।रामचरित मानस में व्यक्त वायनरी अपोजीशन के तहत पैदा हुई अस्मिता की राजनीति व्यक्ति को गुमनाम रखती है,उसकी आधुनिक पहचान को छिपाती है,र्अमूत्ता अस्मिता में व्यक्त होती है,तुलसी के यहां पहचान का र्अमूत्ता रुप है 'भक्त' 'भक्त' के नाम पर पहचान का जो भी रूप बनता है वह व्यक्ति की वास्तविक पहचान को छिपाए रखता है,गुमनाम कर देता है। इसी तरह आधुनिककाल में अस्मिता की अमूर्त्त पहचान 'उपभोक्ता' पदबंध में व्यक्त होती है।
      वायनरी अपोजीशन का जब किसी रचना में प्रयोग किया जाता है,खासकर महाकाव्य में तो वह ऐसे नायक की सृष्टि करता है जिसकी सीमाएं हैं,जो नियमों का पाबंद है। मर्यादा पुरूष राम के साथ मर्यादारक्षक का जो बोध है वह वायनरी अपोजीशन की देन है। तुलसीदास के रामचरित मानस में 'तार्किकता' के ह्रास के चिन्ह भी मिलते हैं, मानस ऐसे समय में सामने आता है जब पुराने किस्म की 'तार्किकता' विदा हो रही है, यही वजह है कि तुलसी 'तर्क' की कसौटी पर राम-रावण युद्ध को रखकर परखते हैं, राम के वनवास से जुड़े प्रसंग को भी उसी 'तर्क' के आधार पर परखते हैं।
      साहित्य में 'तर्क' का केन्द्रीय समर्थक तत्व के रूप में आना एक नए किस्म की परंपरा की शुरूआत है,इसी के गर्भ से कालान्तर में रैनेसां के विवेकवाद का जन्म होता है। रामचरित मानस की संरचनाओं को कुछ इस तरह सजाया गया है कि वे वैध प्रतीत हों। रचना में वैधता अथवा प्रामाणिक प्रस्तुति के भक्ति आंदोलन में जो प्रयास अन्य लेखकों के द्वारा किए जा रहे थे, खासकर सूरदास और मीराबाई के द्वारा प्रामाणिक अभिव्यक्ति के जो चित्र पेश किए गए हैं,तुलसी का मानस भी उसी की एक कड़ी है।
     रचना और समाज में अलगाव के कारण प्रामाणिक प्रस्तुतियों की ओर,ऐसी अनुभूतियों और संवेदनाओं की प्रस्तुतियों की ओर ध्यान गया जो मन को आकर्षक लगें,भावों को स्पर्श करें। यही वजह है कि लंबे समय तक मानस साधारणजन की संवेदनाओं को स्पर्श करता रहा है।
     तुलसीदास ने रामचरित मानस में जब वायनरी अपोजीशन का इस्तेमाल किया तो वे प्रयोगों के मामले में काफी उदार नजर आते हैं,लोक प्रचलित रामकथा का वे अंधानुकरण नहीं करते,बल्कि अपने तरीके से अवधी में नया प्रयोग करते हैं। ये नए प्रयोग जीवन के प्रयोग भी हैं।वे चीजों को खास किस्म के पदबंधों में बांधकर पेश करते हैं। कायदे से इन पदबंधों को खोलने की जरूरत है।
    मसलन् तुलसी जब किसी अवस्था का चित्र रचते हैं तो वह चीज जैसी थी,वैसी ही नहीं रह जाती बल्कि अपना रूपान्तरण कर लेती है,वे विचार और भावों का विनिमय करते हुए चीजों को रूपान्तरित कर देते हैं। इसके लिए वे भाषायी प्रतीकों का इस्तेमाल करते हैं। भाषा के प्रतीकात्मक इस्तेमाल के कारण वे जिन वस्तुओं,विचारों,संवेदना और भावों को जिस पहचान के साथ पेश करते हैं वह चेतना का निर्माण करती है।
     फलत: उनकी रचना में जो तत्व स्थिर,वस्तुगत,अपरिवर्तनीय,प्रतीकात्मक नजर आता है, वह रूपान्तरकारी बन जाता है।वे बनाना चाहते हैं स्थायी किंतु बन जाता है परिवर्तनीय। यही वायनरी अपोजीशन की कलाबाजी है।
   तुलसी जब कोई बात कहते हैं तो पाठक के मन में अन्य चीज बुनते हैं।पाठ का पाठक के मन में बुनना, गुनना और विनिमय उस रूप में सम्पन्न नहीं होता जैसा तुलसी ने सोचा था,बल्कि यह वायनरी अपोजीशन की जटिल और संश्लिष्ट प्रक्रिया में रूपान्तरणकारी रूख अख्तियार कर लेता है।
     पाठक के मन में जो होता है उसमें भी परिवर्तन को तेज करते हैं।वायनरी अपोजीशन की बुनने की कला या प्रक्रिया पहले से बेहतर दिशा में सोचने के लिए प्रेरित करती है।तुलसी का मानस पुराने विचारों की तरंगों को अपदस्थ करता है,किंतु ये पुराने विचार समाज से पूरी तरह गायब नहीं होते। वे तैरते रहते हैं,यही वजह है कि अनेक मर्तबा हमारा समाज आगे जाने के बावजूद पीछे की ओर जाता नजर आता है।
     पुराने विचार अतीत के प्रेतों से परिवर्तन की प्रक्रिया के दौरान बार-बार टकराते हैं।फलत: यह प्रतीत होता है कि अतीत बदला नहीं है,जबकि सच यह है अतीत गायब हो चुका है उसके विचार ही तरंगों के रूप में तैर रहे हैं।
    हमारे समाज में ऐसे आलोचक हैं जो पुराने विचारों की तरंगों को देखकर आए दिन अतीत का हौव्वा खड़ा करते रहते हैं। अतार्किक किस्म का भय पैदा करते रहते हैं।तुलसी का मानस चूंकि वायनरी अपोजीशन की पद्धति का अनुकरण करता है अत: इसमें अतीत के लौटने की कोई संभावना संकेत के रूप में भी नहीं है।
     यह भी कह सकते हैं कि धर्म का विमर्श जब वायनरी अपोजीशन के फ्रेम में पेश किया जाता है तो वह अतीत की सृष्टि या पुष्टि नहीं करता बल्कि वर्तमान को गतिशील और सुरक्षित बनाता है।
   


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