गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

मनमोहन-सोनिया की अमेरिकी गुलामी

     ग्लोबल मीडिया यह प्रचार कर रहा है कि ईरान खतरनाक देश है और वह परमाणु अस्त्रों के मामले में अंतर्राष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन कर रहा है। यह मिथ्या प्रचार है। परमाणु सुरक्षा सम्मेलन में जब परमाणु सुरक्षा धुन का पाठ राष्ट्रपति ओबामा ने किया तो कम से कम भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इसका विरोध करना चाहिए था लेकिन वे गुलामों की तरह इस मसले पर चुप रहे। उल्लेखनीय है प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के शासन के दौरान ही भारत के प्रतिनिधि ने यूएनओ में ईरान के खिलाफ आर्थिक पाबंदी के प्रस्ताव का समर्थन किया। भारत का ईरान के प्रति यह शत्रुभाव उस बुनियादी समझ का उल्लंघन है जिसके आधार पर ईरान-भारत में मैत्री बनी थी। भारत ने इस मित्रता को तोड़ा है। इसका श्रेय मनमोहन-सोनिया को जाता है। ईरान हमारे देश का कठिन समय में भी मददगार दोस्त रहा है। कम से कम कांग्रेस को श्रीमती इन्दिरा गांधी की मौत के बाद से अमेरिकी अंधभक्ति के लिए याद किया जाएगा।
    लेकिन असल खेल कुछ और है,ईरान के खिलाफ परमाणु अस्त्रों की असुरक्षा का नारा देकर अमेरिका के द्वारा ईरान के तेल और गैस भंडारों को अपने कब्जे में लेने की तैयारियां चल रही हैं और इसके लिए स्थानीय स्तर पर चीन ने तकरीबन सहयोगी की भूमिका निभाने का मन बना लिया है। जिस तरह ईरान के खिलाफ पाबंदी के मसले पर रुस और चीन ने अमेरिका के सामने समर्पण किया है उससे यही लगता है कि आर्थिकमंदी ने अमेरिका की हेकड़ी को कम नहीं किया है बल्कि मंदी के बाद अमेरिका की दादागिरी और  बढ़ गयी है।
    अमेरिका ने ईरान के सवाल पर रुस और चीन को जिस तरह झुकाया है उससे यह भी पता चलता है कि ओबामा के अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका की विदेशनीति में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है।
   मध्यपूर्व में अमेरिका की नीति इस्राइल के विस्तारवादी मंसूबों के साथ बंधी है। अफगानिस्तान के मुक्ति अभियान  और सोवियत सेना को अफगानिस्तान से बाहर निकाल देने के साथ जिस विदेश नीति को  अमेरिकी प्रशासन ने लागू किया था उसकी धुरी है मध्य-पूर्व में अमेरिकी-इस्राइली सैन्यविस्तार और मध्यपूर्व में हथियारों  की अबाधित दौड़ पैदा करना।
   उल्लेखनीय है अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं को बाहर निकालने के लिए अमेरिका ने कठमुल्लाओं की सेना का निर्माण किया और इसमें पाक प्रशासन की मदद ली, पहलीबार समाजवाद से अफगानिस्तान को बचाने के नाम पर फंडामेंटलिस्टों की सेना बनाई गयी इसके लिए बिन लादेन और दूसरे फंडामेंटलिस्टों को आधिकारिक तौर पर अरबों-खरबों डॉलर की आर्थिक मदद दी गयी,पाकसेना -सीआईए- पेंटागन के अधिकारियों और सैन्यविशेषज्ञों ने अफगान फंड़ामेंटलिस्टों को प्रशिक्षित किया है। अलकायदा के नेटवर्क को विश्वव्यापी शक्ल प्रदान की गयी। अमेरिकी प्रशासन की इस विश्वव्यापी फंडामेंटलिस्ट मुहिम की ओर आरंभ में किसी ने ध्यान नहीं दिया, लेकिन फंडामेंटलिस्टों के विश्वव्यापी नेटवर्क को अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से लेकर सऊदी अरब के शासन,ब्रिटेन के शासकों से लेकर अमेरिकी राजनीतिक दलों का खुला अंध समर्थन था और आज भी है।
    फंड़ामेंटलिस्टों के इस विश्वव्यापी उभार का लक्ष्य है सारी दुनिया में अमेरिका निर्देशित और नियंत्रित नई विश्व व्यवस्था लागू करना, साथ ही आतंकवाद के नाम पर विश्वव्यापी भय और ध्रुवीकरण बनाना। इस प्रक्रिया में अमेरिकी शस्त्र उद्योग की चांदी हुई है।
    अमेरिका की मौजूदा परमाणु सुरक्षा मुहिम शस्त्र उद्योग के हितों से जुड़ी है। दुर्भाग्य से भारत भी अमेरिकी रणनीति का मोहरा बन गया है। सामान्य आर्थिक लाभों को पाने के चक्कर में कांग्रेस पार्टी ने गुटनिरपेक्ष विदेश नीति को तिलांजलि देकर सबसे पहले अफगानिस्तान के नवनिर्माण के गोरखधंधे में हाथ बंटाने का फैसला किया और इस तरह अमेरिका और नाटो देशों के द्वारा अफगानिस्तान पर किए अबैध कब्जे को स्वीकार कर लिया।
     भारत का अफगानिस्तान के नवनिर्माण के काम में हाथ बंटाना मूलतः अमेरिकी सैन्यविस्तार और नई विश्व व्यवस्था के प्रयासों के सामने खुला समर्पण है। दुर्भाग्य से भारत के किसी भी राजनीतिक दल ने भारत की विदेशनीति में अफगानिस्तान के संदर्भ में आए बदलाव की खुलकर आलोचना तक नहीं की। कांग्रेस पार्टी और मनमोहन-सोनिया का नेतृत्व अमेरिकी हितों के पोषक और अंधभक्तों के रुप में इतिहास में हमेशा याद किया जाएगा।




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