मंगलवार, 15 जनवरी 2013

विकास के नए सपने की तलाश में ममता


           
पन्द्रह जनवरी2013 को ममता सरकार हल्दिया में अपने माथे पर निरूद्योगीकरण के कलंक के टीके को मिटाना चाहती है और नई उद्योगनीति की घोषणा करने वाली है। इस नीति को लेकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इनदिनों बेहद परेशान हैं। उनकी मुश्किल यह है कि उनको एक साथ अपने सांस्कृतिक और माओपंथी मित्रों को खुश करना है तो दूसरी ओर पूंजीपतियों काभी दिल जीतना है।
    हल्दिया में आने वाली नई उद्योगनीति के बारे में ममता के करीबी सूत्रों का कहना है सन् 1994 की वामशासन में बनी नीति की बुनियादी धारणाओं में कोई बदलाव ममता सरकार नहीं करने जा रही है। हो सकता है कपड़ा ,चाय और जूट उद्योग के लिए कुछ नए नीतिगत प्रस्ताव घोषित कर दिए जाएं।
ममता बनर्जी की सबसे बड़ी बाधा यह है सत्तारूढ़ होने के बाद उनकी मीडिया में रेटिंग तेजी से गिरी है। इन दिनों मीडिया में उनकी साख सबसे नीचे है। मीडिया में साख उठे इसके लिए जरूरी है कि पूंजीपतियों का दिल जीता जाय और राज्य में पूंजी निवेश का माहौल बनाया जाय। बेकार नौजवानों में तेजी से असंतोष बढ़ रहा है। इस असंतोष के कारण राज्य में अपराधों में तेजी आई है। ममता के दल की गुटबाजी और आपसी झगड़े हर जिले में समस्या बन गए हैं और पुलिस सक्रिय हस्तक्षेप नहीं कर पा रही है। इसके कारण राज्य में पूंजीपतियों में पूंजी निवेश का माहौल नहीं बन पा रहा है।  
   पिछले दो सप्ताह में राइटर्स बिल्डिंग में मुख्यमंत्री और उद्योगमंत्री के साथ राज्य के व्यापारियों की कई बैठकें हुई हैं. लेकिन किसी भी बैठक में खुलकर यह बात सामने नहीं आई कि राज्य सरकार नया क्या करने जा रही है। नए को रहस्य बनाकर रखने की नीति पर राज्य के व्यापारी खुश नहीं हैं। व्यापारियों के साथ जिस तरह की ठंड़ी मीटिगें हुई हैं उनके अनुभव के आधार पर फिक्की के एक पदाधिकारी ने कहा कि ममता सरकार में उद्योग जगत को आकर्षित करने की इच्छाशक्ति का अभाव है।
     आगामी 15-17 जनवरी के बीच हल्दिया में व्यापारियों को रिझाने के लिए ‘बंगाल लीडस सम्मिट’ हो रही है। उल्लेखनीय है कि ममता सरकार को आए दो साल गुजर चुके हैं लेकिन राज्य में औद्योगिक हलचल कहीं पर भी नजर नहीं आ रही। ममता बनर्जी ने सत्ता संभालने के साथ जिस गति से काम करने का वायदा किया था उसकी दूर-दूर तक झलक नजर नहीं आ रही। हल्दिया सम्मेलन में 15 जनवरी को उम्मीद की जा रही है कि सरकार नई उद्योग नीति लेकर आएगी।
     ममता के करीबी सूत्रों के अनुसार राज्य के उद्योगमंत्री ने व्यापारियों के संगठनों के सामने उद्योग नीति का जो मसौदा पेश किया था। उसमें व्यापारियों के हितों की एकसिरे से उपेक्षा की गयी थी। इस मसौदे में नई नीति जैसी कोई बात नहीं रखी गयी। राज्य सरकार की बैठकों में चेम्बर ऑफ कॉमर्स और फिक्की के द्वारा दिए गए सुझावों में से अधिकांश सुझावों पर ममता सरकार का ठंडा रूख था।  नई नीति में संभावना है कि राज्य सरकार भूमिबैंक के जरिए उद्योगों के लिए जमीन लेने पर जोर दे। इसके अलावा जमीन की खरीददारी में व्यापारियों की मदद न करने की भी घोषणा आ सकती है। व्यापारियों का मानना है कि राज्य सरकार यदि दर्शक रहेगी तो राज्य में पूंजी निवेश नहीं होगा। राज्य सरकार को सक्रिय एजेंट के रूप में हस्तक्षेप का मन बनाना चाहिए।
  फिक्की के एक पदाधिकारी ने कहा कि इनदिनों जो उद्योगनीति चल रही है उसे वाममोर्चा सरकार ने 1994 में बनाया था और यह नीति राज्य के विकास में कोई खास योगदान नहीं कर पायी।
     पश्चिम बंगाल के व्यापारियों  का मानना है कि राज्य सररकार के मन में रहीं न कहीं पूंजीपति विरोधी भावनाएं गहरे जड़ें जमाए बैठी हैं। इसके कारण राज्य की ओर व्यापारीवर्ग आना नहीं चाहता। ममता की इच्छा है कि राज्य में पूंजीपति वैसे ही निवेश करें जिस तरह वे गुजरात में निवेश करते हैं। वे विकास के मामले में गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी को अपना आदर्श मानती हैं। लेकिन उनकी मुश्किल यह है कि पूंजीपति उन पर भरोसा नहीं करते। इसके विपरीत मोदी पर भारत के पूंजीपति भरोसा करते हैं। मोदी ने कभी भी उद्योगपति विरोधी रूख अख्तियार नहीं किया। चेम्बर ऑफ कॉमर्स के एक प्रतिनिधि का कहना है कि ममता बनर्जी यदि अपने पुराने राजनीतिक मनोभावों को बदल लेती हैं और खुलकर भूमि की खरीद में व्यापारियों की मदद करें और निचले स्तर पर दादाओं पर नियंत्रण स्थापित करती हैं तो राज्य में औद्योगिक माहौल फिर से चंगा हो सकता है। ममता बनर्जी के शासन में आने के बाद से कानून-व्यवस्था की स्थिति में गिरावट आई है। कम से कम इसे तो वे तत्काल रोकें।
   एक अन्य व्यापारी ने कहा कि ममता को एक नए यूटोपिया को खड़ा करने की जरूरत है। राज्य के औद्योगिक विकास के यूटोपिया का होना जरूरी है। पश्चिम बंगाल में किसी भी किस्म की आशाओं के संचार की संभावनाएं दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही हैं। ऐसी स्थिति में हमें नीति से भी ज्यादा जरूरी है आशाओं के नए संकेतों की और ये संकेत राज्य सरकार के मंत्रियों के व्यवहार में झलकने चाहिए। 
     

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...