बुधवार, 24 अगस्त 2016

कार्ल मार्क्स पखवाडा- नव्य उदार यथार्थ और मार्क्सवादी असफलताएं


             
मार्क्सवादी आलोचक फ्रेडरिक जेम्सन ने मौजूदा दौर के संदर्भ में मार्क्सवाद की पांच थीसिस प्रतिपादित की हैं। इनमें दूसरी थीसिस में उन्होंने उन खतरों की ओर ध्यान खींचा है जो मार्क्सवाद के लिए आ सकते हैं या आए हैं और जिनसे मार्क्सवादी आंदोलन को धक्का लगा है। उत्तर आधुनिक परिस्थितियों के आने के साथ मार्क्सवादी चिंतन को नव्य उदार आर्थिक नीतियों और उसके गर्भ से पैदा हुए बाजार ने सबसे बड़ा खतरा पैदा किया है।नव्य उदारतावाद के खिलाफ विचारधारात्मक संघर्ष में मार्क्सवादी आम लोगों का दिल जीतने ,उन्हें इसके परिणामों के बारे में समझाने में असमर्थ रहे। इस समस्या के दो स्तर थे, पहला स्तर स्वयं मार्क्सवादियों के लिए था वे खुद समझ ही नहीं पाए कि नव्य उदार आर्थिक नीतियों का क्या परिणाम निकलेगा। उनका इन नीतियों के प्रति तदर्थ रवैय्या था। जब वे स्वयं दुविधाग्रस्त थे तो वे अन्य को कैसे समझाते ? इससे संकट और भी गहरा हो गया।
दूसरी समस्या यह आयी कि नव्य उदार परिवर्तनों के गर्भ से जो परिवर्तन पैदा हुए उनसे मार्क्सवादी लाभ नहीं उठा पाए। वे उस यथार्थ को पकड़ ही नहीं पाए जो नव्य उदार आर्थिक नीतियों के गर्भ से जन्मा है। उन्हें यह सामान्य सी बात समझ में नहीं आई कि कम्यूटर आज के मनुष्य की अपरिहार्य जरूरत है। भारत में लंबे समय तक अनेक मार्क्सवादी कम्प्यूटरीकरण के पक्ष में नहीं थे। लंबे अर्से के बाद उन्होंने हथियार डाले। इस चक्कर में मजदूरवर्ग को उन्होंने पिछड़ी कठमुल्ला चेतना के हवाले कर दिया। पश्चिम बंगाल और केरल कम्प्यूटर क्रांति में पिछड गए और बाकी देश आगे निकल गया। समूचा सोवियत संघ और पुराना समाजवादी देशों का समूह इस परिवर्तन को नहीं समझने के कारण तबाह हो गया। सोचिए 18 साल तक सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी ने पार्टी कॉमरेड वैज्ञानिकों को काफ्रेंस में कम्प्यूटर की उपयोगिता पर बहस करने की अनुमति नहीं दी।
उत्तर आधुनिकतावाद के संदर्भ में मार्क्सवादियों की सफलताएं कम हैं असफलताएं ज्यादा हैं। सबसे बड़ी असफलता है नव्य उदार आर्थिक नीतियों के गर्भ से पैदा हुई असुरक्षा, अव्यवस्था,विस्थापन और भय को संगठनबद्ध न कर पाना। नव्य उदार दौर में मजदूरवर्ग के क्षय को वे रोक नहीं पाए और असंगठित मजदूरवर्ग की तबाही को अपने संगठनों के जरिए एकजुट नहीं कर पाए। आज महानगरों में लाखों असंगठित मजदूर हैं जो किसी भी वाम संगठन में संगठित नहीं हैं।
मजदूरवर्ग के अंदर नव्य उदारतावाद ने जो भय पैदा किया उसे भी प्रभावशाली ढ़ंग से मार्क्सवादी लिपिबद्ध नहीं कर पाए। इसका व्यापक दुष्परिणाम निकला है,मजदूरों की आवाज सामान्य वातावरण से गायब हो गयी है। दूसरी ओर नव्य उदारपंथी एजेण्डा वाम संगठनों में आ घुसा है। वे इससे बचने की युक्ति वे नहीं जानते।
इसी प्रसंग में फ्रेडरिक जेम्सन ने लिखा, तर्कमूलक संघर्ष (जैसा कि यह सीधी वैचारिक लड़ाई के विरुध्द है) अपने विकल्पों की साख समाप्त करके और थीमैटिक प्रसंगों की एक पूरी श्रृंखला को अनुल्लेखनीय घोषित करके सफलता हासिल करता है। यह राष्ट्रीकरण, विनियमन, घाटा व्यय, कीन्सवाद, नियोजन, राष्ट्रीय उद्योगों की सुरक्षा, सुरक्षा नेट, तथा अंतत: स्वयं कल्याणकारी राज्य जैसी पूर्ववर्ती गंभीर संभावनाओं को निर्णायक रूप में अवैध घोषित करने के लिए क्षुद्रीकरण, निष्कपटता, भौतिकस्वार्थ, 'अनुभव', राजनीतिक भय ऐतिहासिक सबक को 'आधार' मानने का आग्रह करता है। कल्याणकारी राज्य को समाजवाद बताना बाजारवाद का उदारवादियों (अमरीकी प्रयोग में जैसा कि 'न्यू डील लिबरल्स' में किया गया है) तथा वामपंथियों दोनों पर दोहरी जीत दिलाता है। इस प्रकार आज वामपंथ ऐसी स्थिति में आ गया है जब उसे बड़ी सरकारों या कल्याणकारी राज्यों का समर्थन करना पड़ रहा है। सामाजिक प्रजातंत्र की समीक्षा करने की जो वामपंथियों की विस्तृत और परिष्कृत परंपरा रही है, उसके लिए यह कार्य खासकर वामपंथियों को इतिहास की द्वंद्वात्मक समझ जितनी होनी चाहिए उतनी नहीं होने के कारण बेहद लज्जित करने वाला है।
मार्क्सवादी फ्रेडरिक जेम्सन ने आगे लिखा है इसी बीच मनोराज्य (यूटोपिया) से जुड़ी चिंताएं जो इस भय से उत्पन्न होती हैं कि हमारी वर्तमान पहचान, हमारी आदतें और आकांक्षा पूर्ति के तरीकों का निर्माण करने वाली चीज कतिपय नई सामाजिक व्यवस्था में समाप्त हो जाएगी तथा सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन आज कुछ समय पहले की तुलना में अधिक संभव है। स्पष्टतया दुनिया के आधे से अधिक भाग में और न केवल प्रभावशाली वर्गों में आज निस्सहाय लोगों के जीवन में परिवर्तन की आशा का स्थान 'नष्ट हो जाने के भय' ने ले लिया है। इस प्रकार की मनोराज्य-विरोधी (एंटी-यूटोपियन) चिंताओं को दूर करना अनिवार्य है जो कि सांस्कृतिक निदान और उपचार के रूप में किया जाना चाहिए न कि बाजार के सामान्य बहस और अलंकार की इस या उस विशेषता से सहमति जताकर इससे बचना चाहिए।
मानव-स्वभाव मूल रूप से अच्छा और सहयोगी है या फिर बुरा और आक्रामक। यदि यह सर्वसत्तात्मक राज्य (लेवियाथन) को नहीं तो कम से कम बाजार को वश में रखने की अपेक्षा करता है, ये सारे तर्क वास्तव में मानवतावादी और विचारधारात्मक हैं (जैसा कि अल्थूसर ने कहा है) और इसके स्थान पर रैडिकल परिवर्तन और सामूहिक परियोजना का परिप्रेक्ष्य लाना चाहिए। साथ ही वामपंथियों को बड़ी सरकारों या फिर कल्याणकारी राज्यों का आक्रामक रूप से बचाव करना चाहिए तथा मुक्त बाजार के ऐतिहासिक ध्वंसात्मक रिकार्ड को देखते हुए बाजारवाद पर लगातार प्रहार करते रहना चाहिए ।
मार्क्सवादी के लिए साम्यवाद या कम्युनिस्ट पार्टी पूजा की चीज नहीं है। मार्क्सवादी के लिए वैज्ञानिक ढ़ंग से इस समाज को समझना और उस परिवर्तन के तर्क को समझना जरूरी होता है जिसके कारण परिवर्तन घट रहे हैं। पुराने साम्राज्यवाद के दौर में पूंजीवाद का केन्द्र था इंग्लैण्ड,बाद में द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर दौर में अमेरिका केन्द्र बना।नव्य उदारतावाद के आरंभ में अमेरिका ही पूंजीवाद का गोमुख था। लेकिन नव्य उदारतावाद के अगले चरण में यानी मौजूदा दौर में पूंजीवाद का केन्द्र चीन है,अमेरिका नहीं। कारपोरेट और लंपट पूंजीवाद की इसमें सभी खूबियां हैं। सब कुछ हजम कर जाने का इसमें भाव है। विश्व बाजार में छा जाने ,सब कुछ बनाने और सस्ता उपलब्ध कराने का नजरिया है। इस समाविष्टकारी भाव से सारी दुनिया में देशज उद्योगों के लिए गंभीर संकट पैदा हो गया है।
एक जमाना था चीन में कम से कम चीजें पैदा होती थीं। सारा देश पांच किस्म के कपड़े पहनता था। सारा देश साइकिल पर चलता था। लेकिन विगत 30 सालों में उसने सब कुछ बदल दिया है। उत्पादन और जिन्सों के उत्पादन में तो उसने क्रांति की है। किसी वस्तु को सस्ते में बनाना,बाजार में इफ़रात में उपलब्ध कराना और बाजार को घेरे रखना। बड़ी पूंजी को आकर्षित करना,श्रम और श्रमिक को सस्ते माल में लब्दील करना। मैन्यूफेक्चरिंग की ताकत को ऐसे समय में स्थापित करना जब सारी दुनिया मैन्यूफैक्चरिंग छोड़कर सेवाक्षेत्र की ओर आंखें बंद करके भाग रही थी।अपने आप में महान उपलब्धि है।
उत्पादन और खूब उत्पादन का नारा लगाकर चीन ने उत्पादन और उत्पादकों की महत्ता स्थापित की है। तंत्रगत संकटों को उसने अभिनव परिवर्तनों और प्रौद्योगिक क्रांति के जरिए संभाला है। विकास की तेजगति को बरकरार रखा है। साथ ही उत्पादन की गति को बनाए रखकर कारपोरेट पूंजीवाद को नए सिरे से पुनर्गठित किया है। इन परिवर्तनों को उत्तर मार्क्सवाद के आधार पर ही परखा जा सकता है। चीन और अमेरिका के नव्य उदार आर्थिक परिवर्तन पुराने मार्क्सवाद से नहीं उत्तर मार्क्सवाद से ही समझ में आ सकते हैं।
नव्य उदार परिवर्तनों का विश्व में सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा है। लेकिन यहां पर हम वामपंथ पर जो प्रभाव पड़ा है उसकी समीक्षा तक ही फिलहाल सीमित रखेंगे। वामपंथ पर नव्य उदारतावाद के प्रभाव को हम इस रूप में देख तकते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियां अब अपने बुनियादी मसलों पर विचारधारात्मक संघर्ष नहीं कर रही हैं बल्कि उन मसलों पर संघर्ष कर रही हैं जो पूंजीवादी मसले हैं। पूंजीवादी विचारधारा के द्वारा निर्मित मसले हैं।
इन दिनों कम्युनिस्टों का संघर्ष समाजवाद के लिए नहीं चल रहा बल्कि कल्याणकारी राज्य को बचाने के लिए चल रहा है। भारत से लेकर अमेरिका तक सभी जगह कम्युनिस्ट पार्टियां कल्याणकारी राज्य को बचाने के एजेण्डे में फंस गयी हैं।कल्याणकारी राज्य आंतरिक गुलामी का परिवेश तैयार करता है।
नव्य उदारतावाद के आने के साथ ही अनेक समाजवादी देशों ने समाजवाद को त्यागकर कारपोरेट पूंजीवाद का मार्ग पकड़ लिया। यह काम अकारण सभी किस्म के मार्क्सवादी मूल्यों और मान्यताओं को त्यागकर किया गया। भारत में आज कम्युनिस्ट पार्टियां कल्याणकारी राज्य के एजेण्डे को लेकर ही हल्ला मचा रही हैं। जबकि पूंजीपतिवर्ग ने कल्याणकारी पूंजीवाद के मार्ग को तिलांजलि दे दी है और नव्य उदार आर्थिक कारपोरेट पूंजीवादी विकास का मार्ग ग्रहण कर लिया है। अनेक अवसरों पर कम्युनिस्टों में भी वे तमाम विकृतियां देखने को मिलती हैं जो कल तक पूंजीवादी दलों में हुआ करती थीं। वे पूंजीवादी विकृतियों को समझने और उनके खिलाफ अनवरत संघर्ष चलाने में असमर्थ रहे हैं।
पहले लोग बुनियादी सामाजिक परिवर्तन के सवालों को पसंद करते थे। उनके लिए कुर्बानी देने के लिए तैयार रहते थे। लेकिन नव्य उदार प्रचार अभियान के कारण आम आदमी बुनियादी सामाजिक परिवर्तनो से डरने लगा है। जोखिम उठाने से डरने लगा है। बहस करने से बचने लगा है। वह इस या उसकी हां में हां मिलाकर सामंजस्य बिठाकर यथास्थितिवाद के सामने समर्पण कर चुका है। अब हमारे बीच में बुनियादी मसलों पर बहसें कम हो रही हैं,कचरा विषयो पर बहसें ज्यादा हो रही हैं।
मसलन हाल ही में उठे 2जी घोटाले को ही लें। मीडिया और संसद बहस कर रही है पूर्व संचारमंत्री ए.राजा ने 1 लाख 75 हजार करोड़ का देश को चूना लगा दिया। नियम तोड़े। घूस ली बगैरह-बगैरह। इस प्रसंग में आम लोग,मीडिया और सांसद यह बात नहीं कर रहे कि आखिरकार ये रेडियो तरंगें किसकी हैं ? क्या इन्हें बेचा जा सकता था ? क्या रेडियो तरंगे कारपोरेट पूंजी की सेवा के लिए आवंटित की जाती हैं ? रेडियो तरंगे राष्ट्र की संपदा हैं और इन्हें हमारा देश अंतर्राष्ट्रीय संचार समझौते के तहत अंतर्राष्ट्रीय संस्था के जरिए आवंटन के माध्यम से प्राप्त करता है। इन्हें बेचा नहीं जा सकता। क्योंकि ये राष्ट्र की संपत्ति हैं। वैसे ही जैसे भारत के ऊपर का आकाश भारत का है उसे बेचा नहीं जा सकता। समुद्र को बेचा नहीं जा सकता। संसद भवन बेचा नहीं जा सकता।ताजमहल बेचा नहीं जा सकता। बजट घाटे को कम करने के नाम पर रेडियो तरंगों का कारपोरेट घरानों को आवंटन देशद्रोह है,देशभक्ति नहीं है। सवाल उठता है देशद्रोह बड़ा अपराध है या भ्रष्टाचार ?कायदे से रेडियो तरंगे बेची नहीं जानी चाहिए। लेकिन संसद में कभी भी किसी भी दल के सांसदों ने रेडियो तरंगों के निजी हाथों बेचे जाने का विरोध नहीं किया,आज भी वे विरोध नहीं कर रहे बल्कि यह कह रहे हैं कि नए सिरे से इनका आवंटन बाजार दर पर करवा दो और राष्ट्र को 1लाख 75 हजार करोड़ रूपये दिलवा दो। उनकी रूचि राष्ट्र को पैसा दिलवाने में हैं तरंगों को राष्ट्र के खाते में बचाने में नहीं है। यहीं पर उत्तर आधुनिक समाज की आयरनी छिपी है। हम जानते ही नही हैं कि राष्ट्र हित क्या हैं ? कारपोरेट हितों को राष्ट्रहित समझ रहे हैं और यही नव्य उदार प्रौपेगैण्डा की जीत है।बजट घाटे को कम करना देशसेवा है चाहे रेडियो तरंगें बेचनी पड़ें। धन्य हैं ये देशभक्त जो देश की संपदा (रेडियो तरंगें) बेचकर देशभक्ति का पाठ पढ़ा रहे हैं। यह नव्य उदार प्रौपेगैण्डा की जीत है । आज मीडिया में सारे राजनीतिक दल और बुद्धिजीवी बहस के उन मसलों पर उलझे हैं जो बाजार के मसले हैं,सतही मसले हैं। बहस-मुबाहिसे में बाजार का लक्ष्य प्रधान हो गया है और बुनियादी सामाजिक परिवर्तन के सवाल बहस से गायब हो गए हैं। उपभोग के सवालों पर बहस कर रहे हैं ,उत्पादन के सवालों पर नहीं। भ्रष्टाचार पर बहस कर रहे हैं भूख पर नहीं। नरेगा के कार्यान्वयन पर उलझे हैं गांव की गरीबी पर नहीं। यह विचारधारात्मक अवमूल्यन है।

कार्ल मार्क्स पखवाडा- सूचना समाज की नयी भाषा को पहचानो

         सोवियत संघ के पराभव के बाद सारी दुनिया में मार्क्सवादी चिंतकों को करारे वैचारिक सदमे और अनिश्चितता से गुजरना पड़ा है। सूचना समाज किस तरह वैचारिक विपर्यय पैदा कर सकता है इसके बारे में कभी विचार ही नहीं किया गया। अधिकांश समाजवादी विचारक इसे सामान्य और एक रूटिन परिवर्तन मानकर चल रहे थे। वे यह भी देखने में असमर्थ रहे कि परवर्ती पूंजीवादी मॉडल को लागू किए जाने के बाद मार्क्सवाद का भी रूप बदलेगा। पुराने किस्म का मार्क्सवाद चलने वाला नहीं है। लेकिन अनेक विचारकों के यह बात गले नहीं उतर रही है। एक तरफ मीडिया में समाजवाद विरोधी उन्माद और दूसरी ओर सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ की धड़कनों का हाथ में न आना, यही वह बिडम्वना थी जिसने मार्क्सवादियों को हतप्रभ अवस्था में पहुँचा दिया। सूचना समाज में मार्क्सवाद की प्रकृति और भूमिका एकदम बदल गयी है। राजनीतिक प्रतिवाद की शक्ल बदल गयी है। लोगों को जोड़ने और उनसे संवाद करने और संपर्क करने के तरीके बदल गए। सूचना समाज आने के पहले राजनीतिक मुहावरे,पदबंध आदि संचार के हथकंड़े के रूप में इस्तेमाल किए जाते थे। सूचना समाज के जन्म के साथ ही राजनीतिक पदबंधों और मुहावरों की जगह सांस्कृतिक पदबंधों और मुहावरों ने ले ली। अब सारी चीजें वस्तुओं और उपभोक्तावादी तत्वों के जरिए व्याख्यायित होने लगीं। साहित्य से लेकर राजनीति तक सब जगह उपभोक्तावाद की भाषा और मुहावरे चले आए। मसलन पहले नामवर सिंह की तुलना आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के साथ की जाती थी नए दौर में उनकी तुलना अमिताभबच्चन से होने लगी। प्रसिद्ध आलोचक सुधीश पचौरी ने उन्हें हिन्दी के अमिताभ बच्चन के नाम से पुकारा। कहने का अर्थ यह है कि सूचना समाज अपने साथ नया यथार्थ और नयी भाषा लेकर आया है और इस नए यथार्थ को पढ़ने के लिए नए किस्म की सैद्धांतिकी की भी जरूरत है। इसी प्रसंग में प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक फ्रेडरिक जेम्सन ने मार्क्सवाद की पांचवी थीसिस में लिखा ‘‘राजनीतिक तथा आर्थिक दोनों क्षेत्रों के लिए संस्कृति का बढ़ता हुआ महत्व इन क्षेत्रों के सोद्देश्यमूलक अलगाव या विभेदीकरण का परिणाम नहीं, बल्कि स्वयं जिन्सीकरण (कोमोडिफिकेशन) की अपेक्षाकृत अधिक विश्वव्यापी संतृप्ति और प्रवेश है। जिन्सीकरण अब उस सांस्कृतिक क्षेत्र के उन विशाल क्षेत्रों को अपना उपनिवेश बनाने में सक्षम हो गया है, जो क्षेत्र अब तक इससे बचे थे और सचमुच इसके विरुध्द या इसके तर्क से असहमत थे। यह तथ्य कि संस्कृति आज अधिकांशतया व्यवसाय में बदल गई है, इसका परिणाम यह हुआ है कि अधिकांश चीजें जो पहले विशिष्ट रूप से आर्थिक और वाणिज्यिक समझी जाती थी, वे भी अब सांस्कृतिक बन गई हैं, यह ऐसी व्याख्या है जिसमें इमेज सोसायटी या उपभोक्तावाद के विभिन्न निदानों को शामिल करने की आवश्यकता है।’’
‘‘इस प्रकार के विश्लेषण, मसलन जिन्सीकरण (कामोडिफिकेशन) की अवधारणा संरचनात्मक और गैर-उपदेशात्मक, में अपेक्षाकृत अधिक सामान्य रूप में मार्क्सवाद को सैध्दांतिक बढ़त हासिल है। नैतिक मनोवेग राजनीतिक कार्रवाई उत्पन्न करता है लेकिन यह बहुत ही क्षणिक होती है जो शीघ्र ही पुनर्समाहित और पुनर्शमित हो जाती है। यह अपने विशिष्ट विषयों को अन्य आंदोलनों के साथ बांटने के लिए शायद ही प्रवृत्त होती है। लेकिन केवल इस प्रकार के संलयन और निर्माण द्वारा ही राजनीतिक आंदोलनों का विकास और विस्तार संभव है। सचमुच मैं इस मुद्दे को दूसरी तरह से कहना चाहूंगा कि उपदेशपरक राजनीति में वहीं विकसित होने की प्रवृत्ति होती है जहां संरचनात्मक संज्ञान और समाज का मानचित्रण (मैपिंग) अवरुध्द होता है। समाजवाद के असफल होने का बोध होने पर उत्पन्न आक्रोश को आज के संजातीय और धार्मिक प्रभुत्व के रूप में, उस शून्य को नए अभिप्रेरकों से भरने के एक हताश अंध प्रयास के रूप में देखा जा सकता है।’’
‘‘जहां तक उपभोक्तावाद का संबंध है, यह आशा की जा सकती है कि यदि इसके स्थान पर जान बूझकर कुछ और बिलकुल भिन्न चीज चुनना हो तो यह ऐतिहासिक रूप में उतना ही महत्वपूर्ण सिध्द होगा जितना कि मानव समाज को एक जीवन शैली के रूप में उपभोक्तावाद के अनुभवों से गुजरना। लेकिन विश्व के अधिकांश के लिए उपभोक्तावाद के व्यसन वस्तुनिष्ठ रूप में उपलब्ध नहीं होंगे, तब यह संभव प्रतीत होता है कि 1960 के दशक की रैडिकल थ्योरी का दूरदर्शितापूर्ण निदान : कि पूजीवाद स्वयं ठीक उसी रूप में एक क्रांतिकारी शक्ति है जिस रूप में यह नई आवश्यकताओं और इच्छाओं को जन्म देता है लेकिन जिनकी पूर्ति यह नहीं कर सकता है : नई विश्व व्यवस्था के विश्व स्तर पर प्राप्त होगा।’’
‘‘सैध्दांतिक स्तर पर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में स्थायी संरचनात्मक बेरोजगारी, वित्तीय सट्टेबाजी और अनियंत्रणीय पूंजी संचलन, इमेज सोसाइटी के ज्वलंत मुद्दे व्यापक रूप में उस स्तर पर एक दूसरे से अंतर्संबंधित हैं जिसे उनकी अंतर्वस्तु, उनके अमूर्तन का अभाव (ठीक उसके विपरीत जिसे किसी अन्य काल में उनका 'आत्मनिर्वासन' (एलीनेशन) कहा जाता) कहा जा सकता है। जब हम विश्वीकरण एवं सूचनाकरण (इनफार्मेटाइजेशन) जैसे मुद्दों को जोड़ने का प्रयास करते हैं तो द्वंद्वात्मकता का और भी विरोधाभासी स्तर मिलता है। जब नए विश्व नेटवर्कों (वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों) की राजनीतिक और विचारधारात्मक संभावनाओं को आज के विश्व तंत्र की स्वायत्तता के लोप तथा किसी राष्ट्र या क्षेत्र की अपनी स्वायत्तता और अस्तित्व प्राप्त करने की असंभावना या स्वयं को विश्व बाजार से अलग करने की असंभावना के साथ जोड़ा जाता है तो प्रतीयमानत: जबरदस्त असमंजस की स्थिति उत्पन्न होती है। किसी एक विचार को अपना लेने मात्र से बुध्दिजीवी इस गलियारे से रास्ता नहीं निकाल सकते। वास्तव में संरचनात्मक विरोधाभासों के परिपक्व होने से ही नई संभावनाओं का विहान होता है। पुनश्च: जैसा कि हीगेल ने कहा होता; हम कम से कम इस असमंजस को 'नकारात्मक से चिपके रहकर' बरकरार रख सकते हैं, उस स्थान को जीवित रखकर जहां से नव्य की अप्रत्याशित रूप से उत्पत्ति की आशा की जा सकती है।’’

सोमवार, 22 अगस्त 2016

मुस्लिम विद्वेष के खतरे-

मुस्लिम विद्वेष देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती है,हमारे देश में मुस्लिम विद्वेष हिन्दुत्ववादियों में रहा है तो मुसलमानों के हितों के पक्षधर मुसलिम लीग-पीडीपी टाइप दलों में भी है।यह विलक्षण संयोग है कि भाजपा-पीडीपी दोनों जम्मू-कश्मीर में संयुक्त सरकार चला रहे हैं,क्योंकि दोनों की विचारधारा है मुस्लिम विद्वेष।भाजपा अपने कारणों से मुसलिम विरोधी आचरण कर रही है, पीडीपी अपने पृथकतावादी-आतंकी प्रेम के कारण मुस्लिम विद्वेष का प्रदर्शन कर रही है।इस मुस्लिम विद्वेष के कारण ही लंबे समय से कश्मीर का मुसलिम समाज तबाह पड़ा हुआ है।
देश के अन्य इलाकों में विभिन्न बहाने बनाकर मुसलमानों पर ही हमले हो रहे हैं और इन हमलों के आयोजक और हमलावर हिन्दुत्व ब्रिगेड है।भारत को एक रखना है तो मुसलिम विद्वेष को खत्म करना जरूरी है।मुसलमानों के प्रति विद्वेष जहां एक ओर हिन्दुत्ववादी नेताओं के जरिए आ रहा है वहीं पर मुसलिम फंडामेंटलिस्ट भी यही काम कर रहे हैं।वे मुसलिमप्रेम की आड़ में मुसलमानों के लोकतांत्रिक हकों पर हमले कर रहे हैं।
देश में अमन-चैन कायम करने लिए मुसलिम विद्वेष को आम जनता के मन में से निकालने की जरूरत है।मुसलमानों को किसी भी तरह की मदद नहीं चाहिए,वे अपना विकास कर लेंगे,लेकिन कम से कम कृपा करके मुसलमानों के खिलाफ विद्वेष फैलाना बंद करो।
मुसलिम विद्वेष को वैचारिक खाद-पानी हिन्दी का सिनेमा देता है,उसमें मुसलमानों का स्टीरियोटाइप चित्रण सबसे बड़ा वैचारिक शत्रु है । इसने मुसलमानों की सामान्य मनष्य की इमेज को पूरी तरह नष्ट कर दिया है। हिन्दी फिल्मों ने मुसलमानों की जो इमेज हमारे जे़हन में उतारी है उसके कारण ही हम मुसलमानों से सहज ही नफरत करने लगते हैं,उनसे दूरी रखते हैं,संदेह करते हैं।
हमें मुसलमानों के प्रति अपना नजरिया बदलना होगा,उनको स्टीरियोटाइप ढ़ंग से,मीडियादृष्टि से देखना बंद करना होगा। हम याद रखें मुसलमानों को अशांत रखकर,उत्पीड़िित करके देश को शांत नहीं रखा जा सकता।मुसलमान के दर्द होगा तो सारे देश के दर्द होगा।मुसलमान हमारे देश का अभिन्न अंग हैं।हम उन्हें सामान्य मनुष्य की तरह देखें और उनके साथ सामान्य आचरण करें।

सोमवार, 15 अगस्त 2016

कलकत्ते के वे दिन

      मैं 1989 में जब कलकत्ता आया तो आने के कुछ ही दिन बाद रोज ´स्वाधीनता´अखबार के दफ्तर जाता था वहां अयोध्या सिंह,महादेव साहा,इजरायल, अरूण माहेश्वरी,सरला माहेश्वरी के साथ घंटों बैठना होता। तरह –तरह की बातें होतीं।हमलोगों का रोज शाम को चार बजे लेकर 8बजे तक का समय बहुत ही मस्ती और आनंद में कटता, इस दौरान देश-दुनिया की तमाम खबरों के साथ –साथ कम्युनिस्ट आंदोलन की समस्याओं,कम्युनिस्ट नेताओं के आचरण और उनमें आ रहे परिवर्तनों पर भी लंबी बातचीत होती थी।लंबे समय तक यही मेरी दिनचर्या थी , मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय से कक्षाएं करके ´स्वाधीनता´चला आता,वहां 3-4घंटे रहता और अंत में लौटते समय अरूण माहेश्वरी अपनी गाड़ी से उलटा डांगा छोड़ देते और वहां से बस लेकर मैं अपने घर चला आता,अरूण जब ´स्वाधीनता´नहीं आता तब मैं जोडागिरजा से बस लेकर अकेले घर लौटता।इसी क्रम में धीरे –धीरे ´स्वाधीनता´ अखबार में कई साल मैंने जमकर लिखा। क्या लिखा और किस तरह की समस्याओं का सामना किया इस पर बाद में फिर कभी लिखूँगा। महादेव साहा चलते-फिरते इनसाइक्लोपीडिया थे। वहीं दूसरी ओर अयोध्या सिंह की इतिहास और कम्युनिस्ट आंदोलन को लेकर बहुत गहरी समझ थी।इनके बीच में शाम गुजारने के कई लाभ थे,पार्टी भी उनसे लाभान्वित होती थी,हमसब भी।

हम सबकी शाम का मुख्य नाश्ता मूडी(मुरमुरा),चना,मूंगफली,कभी -कभी पकौड़े या चॉप या समौसा हुआ करता,साथ में ब्लैक टी।हालत यह थी कि हम सब शाम को मिलने के आदी हो गए थे।रोज शाम मिलने के लिए बुरी तरह झटपटाते थे,किसी को देर भी हो जाए तब भी मिलने जरूर आते थे।इस मेल-मुलाकात में कॉमरेडशिप तो थी साथ ही बात करने का सुख था जिसके कारण हम सब एक-दूसरे के आने का बेसब्री से इंतजार करते रहते।इजरायल साहब का हाल यह था उनकी अरूण-सरला के साथ बातें रोज रात साढ़े दस बजे के पहले खत्म नहीं होती थीं।इजरायल,अरूण,सरला और मैं एक साथ अरूण की गाड़ी से निकलते,मैं बीच में उलटाडांगा उतर जाता ,वे तीनों अरूण के घर चले जाते।

इस दैनंदिन मेल-मुलाकात के कारण अनेक काम हुए,जमकर बेशुमार लिखना हुआ।सरला जब सांसद बनकर दिल्ली चली गयी तो अरूण भी साथ चला गया,लेकिन वो हर सप्ताह शनिवार को जरूर कोलकाता आ जाती और हम लोग फिर मिलकर बातें करते। बीच-बीच में महादेव साहा भी दिल्ली चले जाते लेकिन कुछ दिन वहां रहकर लौट आते।



मैं जेएनयू से जब कोलकाता आया तो बेहद परेशान था ,कोलकाता में शाम की संगत ,सुंदर बातचीत आदि के लिए सही साथी नहीं दीखे,हिन्दी के शिक्षकों की सीमाओं और सीमित दुनिया से मैं वाकिफ था इसलिए उसमें समय गुजारना बहुत मुश्किल था,हिन्दी शिक्षकों से विचारयुक्त मित्रता कोलकाता में संभव नहीं दिखी,ऐसी स्थिति में ´स्वाधीनता´में उपरोक्त कॉमरेडों का साथ बहुत सुखकारी साबित हुआ।

15अगस्त की आत्मा है लोकतंत्र -

        आज 15अगस्त है और इसे हम स्वाधीनता दिवस के रूप में मनाते हैं।यह स्वाधीनता बहुत बड़ी कुर्बानियां देकर मिली है,इतिहास के तमाम दुर्गम पहाडों से गुजरकर मिली है,अनेक बुरे फैसले लेने के बाद मिली है।

अधिकांश नेता भारत-विभाजन से दुखी थे,लेकिन वह मजबूरी थी,देश विभाजन न होता तो देश नष्ट होता , आजादी न मिलती।यह भी सच है देश विभाजन की बहुत बड़ी कीमत अदा की है जनता ने।देश की जनता देश विभाजन के पक्ष में नहीं थी,मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच उस समय जो स्थिति थी उसमें देश विभाजन से बेहतर फैसला संभव ही नहीं था,इससे भारत को बड़ी क्षति को बचाने में मदद मिली,इसका अर्थ यह नहीं है कि देश विभाजन से भारत की कोई क्षति नहीं हुई,देश विभाजन से भारत को बहुत बड़ी क्षति उठानी पड़ी।विभाजन की पीड़ा को हम आज भी झेल रहे हैं।लेकिन समग्रता में देखें तो विभाजन और सम्पूर्ण देश विनाश में से विभाजन को चुनकर कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व ने सही फैसला लिय़ा था।

संप्रभु राष्ट्र के रूप में भारत का जन्म हमारे देश की सबसे बड़ी उपलब्धि है।इसके कारण हम लोकतंत्र ,स्वाधीनता और समानता के सपनों के लिए संघर्ष का बुनियादी आधार बनाने में सफल रहे।आज भी लोकतंत्र,समानता और बंधुत्व हम सबके लिए सपने की तरह है।इनके सपनों में जीना और सपनों को पाने के लिए निरन्तर जद्दोजहद करना हमारी दैनंदिन जिन्दगी है।

लोकतंत्र आज हमारी प्राणवायु है,इसके बिना हम जिन्दा नहीं रह सकते।लोकतंत्र पर कोई समझौता नहीं कर सकते,क्योंकि भारत विभाजन जैसी बड़ी कीमत अदा करके हमने इसे पाया है।लोकतंत्र हम सबके लिए बेहद कीमती मूल्य है,जीवनशैली है,हमारे समाज की आत्मा है और आत्मा को बेचकर,आत्मा पर हमले करके कोई समाज सुख से नहीं रह सकता।



स्वाधीनता का अर्थ है लोकतंत्र। वह हमारे देश की प्राणवायु है,यह झूठा लोकतंत्र नहीं है अधूरा लोकतंत्र है,इसे संपूर्ण बनाने के लिए निरंतर संघर्ष और लोकतांत्रिक आंदोलनों की जरूरत है।स्वाधीनता आंदोलन की यह महानतम उपलब्धि है।हमें इस पर गर्व है।

विभाजन की पीड़ा और कोलकाता

     कोलकाता कुछ मामले में असामान्य शहर है।इस शहर ने जितनी राजनीतिक उथल-पुथल झेली है वैसी अन्य किसी शहर ने नहीं झेली।यह अकेला शहर है जिसने दो बार भारत विभाजन की पीड़ा को महसूस किया है।यह असामान्य पीड़ा थी।मैं अभी तक समझ नहीं पाया हूं कि बंगाली समाज के मनोविज्ञान पर इन दोनों विभाजन की घटनाओं के किस तरह के असर रहे हैं।मैं स शहर के विभिन्न इलाकों में कईबार घूमा हूँ,अनेक रंगत के लोगों से मिला हूँ,लेकिन कहीं पर भी हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य की अनुभूति नहीं हुई ।दिलचस्प बात यह है पहले भारत विभाजन के समय कई साल आंदोलन चला । यह बंग-भंग के नाम से चला आंदोलन था।यह पहला सबसे बड़ा आंदोलन था जिसने राष्ट्रवाद की परिकल्पना को सड़कों पर साकार होते देखा।इस दौर के राष्ट्रवाद के हीरो थे सुरेन्द्र नाथ बनर्जी। सांस्कृतिक भिन्नता के बावजूद हम सब एक हैं का नारा,इसकी धुरी था। इस आंदोलन ने संस्कृति के भेदों और अंतरों को बीच में आने ही नहीं दिया।उल्लेखनीय है उस समय बंगाल समूचा राष्ट्रवादी नेतृत्व उच्च जाति के हिन्दुओं के हाथ में था,लेकिन हम सब एक हैं,का नारा प्रमुख रहा।राष्ट्रवाद के साथ धर्म को किसी ने नहीं जोड़ा।लेकिन दुखद है कि इधर के वर्षों में आरएसएस ने राष्ट्रवाद के साथ धर्म को जोड़ दिया है।कालांतर में चित्तरंजन दास ने सभी धर्मों की एकता को ´जन राष्ट्रवाद´ की शक्ल में रूपान्तरित कर दिया।इसका आधार उन्होंने हिन्दू-मुसलिम एकता को बनाया।

बंग-भंग आंदोलन के मुझे दो प्रसंग याद आ रहे हैं जिनसे हम आज भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। 28सितंबर1905 को महालया अर्थात् पितृविसर्जन का दिन था।उस दिन के कलकत्ता के प्रसिद्ध कालीघाट के काली मंदिर में अनोखी विराट पूजा हुई।उसका वर्णन करते हुए अंग्रेजी दैनिक ´अमृत बाजार पत्रिका´ ने 29सितंबर को लिखा , ´सबेरे से ही नंगे पैर लोगों के जुलूस चितपुर रोड़ और कार्नवालिस स्ट्रीट में कालीघाट की तरफ चलने लगे।दोपहर 2बजे तक मंदिर के सामने 50हजार से ज्यादा विशाल जनसमुदाय जमा हो गया।कीर्तन पाटियां राष्ट्रीय गाने गा रही थीं।विराट पूजा के बाद मंदिर के ब्राह्मणों ने संस्कृत में आह्वान कियाः ´सब देवताओं से पहले मातृभूमि की पूजा करो; संकीर्णता,सारे धार्मिक मतभेदों,कटुता और स्वार्थपरता को छोड़ दो,सब लोग मातृभूमि की सेवा करने की सौगंध लो और उसके कष्ट दूर करने में अपना जीवन लगा दो ।´

इसके बाद लोग बड़े बड़े जत्थों में मंदिर के अंदर गए और निम्नलिखित सौगंध लीः

´मां इस पवित्र दिन आपके सामने और इस पवित्र स्थान में खड़े होकर मैं गंभीरता से प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं भरसक विदेशी वस्तुओं का कभी इस्तेमाल कभी न करूँगा,कि मैं ऐसी वस्तुओं को विदेशी दुकानों से न खरीदूँगा जो भारतीय दुकानों में मिलती हैं,कि मैं ऐसे काम के लिए विदेशियों को नियुक्त नहीं करूँगा जिसे मेरे देशवासी कर सकते हैं।´

दूसरा वाकया रवीन्द्रनाथ टैगोर से जुड़ा है।16अक्टूबर 1905 को ,जिस दिन भारत सरकार बंगाल के दो टुकड़े करने जा रही थी उस दिन उन्होंने ´राखी दिवस´मनाने का आह्वान किया और कहा ´यह दिन पूर्व बंगाल के लोगों और पश्चिम बंगाल के लोगों के बीच,धनियों और गरीबों के बीच,इस भूमि में पैदा हुए ईसाइयों,मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच अटूट भातृत्व को सूचित करने के दिवस के रूप में मनाया जाए।´

इन दो घटनाओं ने आम जनता में अटूट एकता और साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की।इसके विपरीत इन दिनों जितने भी आंदोलन हो रहे हैं उनमें आरएसएस खुलकर धर्म का राजनीतिक दुरूपयोग करके आम जनता की एकता तोड़ने,मुसलमानों और हिन्दुओं में भाईचारा नष्ट करने का प्रयास करता रहा है।इससे स्वतंत्र भारत, विषाक्त भारत की अनुभूति देने लगा है।बंग-भंग जैसी महान दुर्घटना के बावजूद नेताओं ने जनता की एकता बनाए रखने की भरपूर कोशिश की।यही वह मुख्य बिन्दु है जहां से हमें अपनी सभी किस्म की राजनीतिक गतिविधियों,लेखन,सांस्कृतिक कार्यों आदि को देखना चाहिए।जनता में एकता रहे,साम्प्रदायिक सद्भाव रहे चाहे जितनी कठिन परिस्थिति हो हम इस मार्ग से विचलित न हों।



रविवार, 14 अगस्त 2016

धर्मनिरपेक्षता के बिना संघ-

      मोदीजी जब भाषण देते हैं तो उनके बोलने का ढ़ंग कुछ ऐसा होता है कि उनकी बात न मंजूर हो और न नामंजूर हो।उन्हें केवल छोड़ दिया जाय। हाल ही में कश्मीर पर वे कुछ इसी भाव से बोले हैं।यह क्रियाहीन भाषण का आदर्श नमूना है।भाषण उनके कार्य का वाहक नहीं है,लेकिन कार्य के ढोंग से उन्हें भाषण का बहाना मिल जाता है।

अरस्तू ने कहा था नाटक का निर्णायक नियम क्रिया है।राजनीतिक भाषण-कला का भी यही नियम है।मोदी के भाषण का हम 15अगस्त को इंतजार कर रहे हैं,जरा उनके पहले वाले इसी दिन दिए गए भाषण देख लें।ये सभी भाषण विलक्षण क्रियाहीनता,तटस्थता और झूठ के सहमेल से तैयार किए गए हैं।ये भाषण न तो देश के उपयुक्त हैं,न काल के और न ही अवसर के। मोदी अपने भाषण में शब्दों को पीस-पीसकर बोलते हैं।यह संवेदनाहीन भाषा है।
          मेरी सहानुभूति आरएसएस के उन कार्यकर्ताओं के साथ है जो तिरंगा यात्रा के लिए कमर कसकर निकल चुके हैं ! हे भगवान इनकी रक्षा करना ! तिरंगा उठाने की जब जरूरत थी तब यह संगठन तिरंगा झुकाने वालों,तिरंगा का अपमान करने वालों की चिलम भरता रहा,लेकिन इधर अचानक इसके अंदर तिरंगा "प्रेम " उमड़ पड़ा है ! यह कैसे संभव है जिन संघी कार्यकर्ताओं को धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ,गांधी के विचारों के खिलाफ,संविधान में वर्णित धर्मनिरपेक्ष -लोकतांत्रिक नजरिए के खिलाफ सालों-साल जहर पिलाया गया हो,जिनके मन को कलुषित करके रखा गया हो और आज अचानक कहा जा रहा है कि चलो तिरंगा यात्रा करो,यह तो नाइंसाफी है !!

तिरंगा महज देश का झंडा या झंडा मात्र नहीं है,यह कोई कपड़े का टुकड़ा नहीं है कि उसे डंडे में लगाओ और जोर जोर से हिलाओ।तिरंगा के साथ विचारधारा भी जुड़ी है,उस विचारधारा से हर संघी नफरत करता है।

मसलन् हर संघी के मन में मुसलमानों और ईसाईयों के प्रति प्रेम का अभाव है बल्कि अनेक मामलों में गहरी घृणा देखी गयी है।जबकि तिरंगा से सच में प्यार करने वाले के मन में मुसलमान-ईसाई आदि अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत नहीं होनी चाहिए।

जिनको धर्मनिरपेक्षता-लोकतंत्र का वैचारिक अभ्यास नहीं है वे तिरंगा को संभालेंगे किस मन से ! क्योंकि तिरंगे के साथ हाथ ही नहीं धर्मनिरपेक्ष मन और हृदय भी होना चाहिए।मुश्किल यह है आरएसएस के लोगों के पास तिरंगा लायक न तो मन है और न हृदय है,ऐसे में तिरंगा सिर्फ नकली प्रचार का साधन मात्र बनकर रह जाएगा।

इससे भी बड़ी एक बात और मसलन् कोई व्यक्ति खेती नहीं जाने,शारीरिक श्रम का अभ्यस्त न हो और उसे हठात् किसानी के काम में लगा देंगे तो बेचारा परिश्रम करते करते मर जाएगा। या फिर किसान को सीधे खेत से उठाकर विश्वविद्यालय में पढाने के काम में लगा दो तो वह ढेर हो जाएगा।अभ्यास का बन्धन सबसे बड़ा बन्धन है,जिसे जिस चीज के अभ्यास में जीने की आदत होती है वह उस बन्धन से सहज ही मुक्त नहीं हो पाता।बेचारे आरएसएस वाले हिन्दूवाद के बन्धन में बंधकर धर्मनिरपेक्षता का तिरंगा उठा रहे हैं,बेचारे कही धर्मनिरपेक्षता के बोझ में मर न जाएं !

15 अगस्त महज एक तारीख या जश्न का दिन या इवेंट नहीं है बल्कि इतिहास है।यह इतिहास उन लोगों का जिन्होंने इसको रचा है।जिन लोगों ने रचा है उनमें नेता भी हैं जनता भी है,इसमें अनेक रंगत के क्रांतिकारी और उदार विचार भी हैं।लेकिन जो इस इतिहास के निर्माण के विरूद्ध खड़े थे उनको इतिहास से मिटाया नहीं जा सकता।15अगस्त का इतिहास जब भी पढा जाएगा,या इस दिन को याद किया जाएगा तो उन लोगों और उन विचारधाराओं पर नजर रखने की जरूरत है जिनके कारण देश टूटा,सामाजिक सद्भाव नष्ट हुआ,जिन्होंने अंग्रेजों की गुलामी की और स्वतंत्रता के मार्ग में बाधाएं खड़ी कीं।

ज्यों ही 15 अगस्त आने को हुआ आरएसएस वालों का सालों-साल चलने वाला हिन्दूवादी राष्ट्रवाद धूम-धड़ाके साथ चरमोत्कर्ष तक पहुँच गया है। मोदी सरकार आने के पहले तक संघ ने कभी तिरंगा को लेकर राष्ट्रीय पदयात्रा नहीं निकाली।

तिरंगा देश भक्ति का प्रतीक है, ये लोग इसे हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रतीक में,उन्माद के प्रतीक में तब्दील करना चाहते हैं।हम सिर्फ यह जानना चाहते हैं आरएसएस ने क्या अपने पूर्व नेताओं के तिरंगा के बारे में व्यक्त विचारों को अस्वीकार कर दिया है ?क्या कभी भारत की जनता के सामने इस तरह की कोई घोषणा की गयी कि वे अपने तिरंगा के बारे में घोषित विचारों को खारिज करते हैं ?

एक हाथ में तिरंगा और दूसरे हाथ हिन्दुत्व ये दो चीजें नहीं चल सकतीं।तिरंगा का अर्थ है हिन्दुत्व का त्याग,संविधान की सभी धारणाओं को नतमस्तक होकर मानना,संविधान की अब तक जो अवमानना संघ के नेताओं ने लेख लिखकर या भाषण देकर की है उसके लिए भारत की जनता से वे पहले माफी मांगे,वरना उनकी तिरंगा यात्रा मात्र नाटक है और तिरंगा के रीयल अर्थ को विकृत करने की साजिश है।



विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...