रविवार, 14 अगस्त 2016

धर्मनिरपेक्षता के बिना संघ-

      मोदीजी जब भाषण देते हैं तो उनके बोलने का ढ़ंग कुछ ऐसा होता है कि उनकी बात न मंजूर हो और न नामंजूर हो।उन्हें केवल छोड़ दिया जाय। हाल ही में कश्मीर पर वे कुछ इसी भाव से बोले हैं।यह क्रियाहीन भाषण का आदर्श नमूना है।भाषण उनके कार्य का वाहक नहीं है,लेकिन कार्य के ढोंग से उन्हें भाषण का बहाना मिल जाता है।

अरस्तू ने कहा था नाटक का निर्णायक नियम क्रिया है।राजनीतिक भाषण-कला का भी यही नियम है।मोदी के भाषण का हम 15अगस्त को इंतजार कर रहे हैं,जरा उनके पहले वाले इसी दिन दिए गए भाषण देख लें।ये सभी भाषण विलक्षण क्रियाहीनता,तटस्थता और झूठ के सहमेल से तैयार किए गए हैं।ये भाषण न तो देश के उपयुक्त हैं,न काल के और न ही अवसर के। मोदी अपने भाषण में शब्दों को पीस-पीसकर बोलते हैं।यह संवेदनाहीन भाषा है।
          मेरी सहानुभूति आरएसएस के उन कार्यकर्ताओं के साथ है जो तिरंगा यात्रा के लिए कमर कसकर निकल चुके हैं ! हे भगवान इनकी रक्षा करना ! तिरंगा उठाने की जब जरूरत थी तब यह संगठन तिरंगा झुकाने वालों,तिरंगा का अपमान करने वालों की चिलम भरता रहा,लेकिन इधर अचानक इसके अंदर तिरंगा "प्रेम " उमड़ पड़ा है ! यह कैसे संभव है जिन संघी कार्यकर्ताओं को धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ,गांधी के विचारों के खिलाफ,संविधान में वर्णित धर्मनिरपेक्ष -लोकतांत्रिक नजरिए के खिलाफ सालों-साल जहर पिलाया गया हो,जिनके मन को कलुषित करके रखा गया हो और आज अचानक कहा जा रहा है कि चलो तिरंगा यात्रा करो,यह तो नाइंसाफी है !!

तिरंगा महज देश का झंडा या झंडा मात्र नहीं है,यह कोई कपड़े का टुकड़ा नहीं है कि उसे डंडे में लगाओ और जोर जोर से हिलाओ।तिरंगा के साथ विचारधारा भी जुड़ी है,उस विचारधारा से हर संघी नफरत करता है।

मसलन् हर संघी के मन में मुसलमानों और ईसाईयों के प्रति प्रेम का अभाव है बल्कि अनेक मामलों में गहरी घृणा देखी गयी है।जबकि तिरंगा से सच में प्यार करने वाले के मन में मुसलमान-ईसाई आदि अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत नहीं होनी चाहिए।

जिनको धर्मनिरपेक्षता-लोकतंत्र का वैचारिक अभ्यास नहीं है वे तिरंगा को संभालेंगे किस मन से ! क्योंकि तिरंगे के साथ हाथ ही नहीं धर्मनिरपेक्ष मन और हृदय भी होना चाहिए।मुश्किल यह है आरएसएस के लोगों के पास तिरंगा लायक न तो मन है और न हृदय है,ऐसे में तिरंगा सिर्फ नकली प्रचार का साधन मात्र बनकर रह जाएगा।

इससे भी बड़ी एक बात और मसलन् कोई व्यक्ति खेती नहीं जाने,शारीरिक श्रम का अभ्यस्त न हो और उसे हठात् किसानी के काम में लगा देंगे तो बेचारा परिश्रम करते करते मर जाएगा। या फिर किसान को सीधे खेत से उठाकर विश्वविद्यालय में पढाने के काम में लगा दो तो वह ढेर हो जाएगा।अभ्यास का बन्धन सबसे बड़ा बन्धन है,जिसे जिस चीज के अभ्यास में जीने की आदत होती है वह उस बन्धन से सहज ही मुक्त नहीं हो पाता।बेचारे आरएसएस वाले हिन्दूवाद के बन्धन में बंधकर धर्मनिरपेक्षता का तिरंगा उठा रहे हैं,बेचारे कही धर्मनिरपेक्षता के बोझ में मर न जाएं !

15 अगस्त महज एक तारीख या जश्न का दिन या इवेंट नहीं है बल्कि इतिहास है।यह इतिहास उन लोगों का जिन्होंने इसको रचा है।जिन लोगों ने रचा है उनमें नेता भी हैं जनता भी है,इसमें अनेक रंगत के क्रांतिकारी और उदार विचार भी हैं।लेकिन जो इस इतिहास के निर्माण के विरूद्ध खड़े थे उनको इतिहास से मिटाया नहीं जा सकता।15अगस्त का इतिहास जब भी पढा जाएगा,या इस दिन को याद किया जाएगा तो उन लोगों और उन विचारधाराओं पर नजर रखने की जरूरत है जिनके कारण देश टूटा,सामाजिक सद्भाव नष्ट हुआ,जिन्होंने अंग्रेजों की गुलामी की और स्वतंत्रता के मार्ग में बाधाएं खड़ी कीं।

ज्यों ही 15 अगस्त आने को हुआ आरएसएस वालों का सालों-साल चलने वाला हिन्दूवादी राष्ट्रवाद धूम-धड़ाके साथ चरमोत्कर्ष तक पहुँच गया है। मोदी सरकार आने के पहले तक संघ ने कभी तिरंगा को लेकर राष्ट्रीय पदयात्रा नहीं निकाली।

तिरंगा देश भक्ति का प्रतीक है, ये लोग इसे हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रतीक में,उन्माद के प्रतीक में तब्दील करना चाहते हैं।हम सिर्फ यह जानना चाहते हैं आरएसएस ने क्या अपने पूर्व नेताओं के तिरंगा के बारे में व्यक्त विचारों को अस्वीकार कर दिया है ?क्या कभी भारत की जनता के सामने इस तरह की कोई घोषणा की गयी कि वे अपने तिरंगा के बारे में घोषित विचारों को खारिज करते हैं ?

एक हाथ में तिरंगा और दूसरे हाथ हिन्दुत्व ये दो चीजें नहीं चल सकतीं।तिरंगा का अर्थ है हिन्दुत्व का त्याग,संविधान की सभी धारणाओं को नतमस्तक होकर मानना,संविधान की अब तक जो अवमानना संघ के नेताओं ने लेख लिखकर या भाषण देकर की है उसके लिए भारत की जनता से वे पहले माफी मांगे,वरना उनकी तिरंगा यात्रा मात्र नाटक है और तिरंगा के रीयल अर्थ को विकृत करने की साजिश है।



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