सोमवार, 8 अगस्त 2016

दुख ही जीवन की कथा रही

       मेरे लिए सुख की बात यह है सारी जिन्दगी दुखों ने पीछा नहीं छोड़ा।अनंत दुख और अनंत आनंद का गजब खेल है जीवन ।मैं निराला की लिखी कविता ´सरोज स्मृति´पढ़ रहा था और बार –बार सोच रहा था,हिन्दी के किसी और कवि ने बेटी के दुखों पर निराला जैसी कविता बाद में क्यों नहीं लिखी ॽ रामविलास शर्मा ने निराला के अनेक किस्म के दुखों का विस्तार से जिक्र किया है लेकिन उस दुख में छिपे सर्जनात्मक पक्ष की उपेक्षा की है,इसी प्रसंग में मुझे वे लोग भी याद आ रहे हैं जो दुखों से परेशान रहते हैं और अपनी व्यथा आए दिन साझा करते रहते हैं।

संसार में आए हैं तो दुख तो हैं,हम सबके पास दुख हैं।संसार की दुखों के बिना कल्पना संभव नहीं है। सृष्टि को रहना है,विकास करना है तो दुख रहेंगे।दुखों को सकारात्मक दिशा में मोड़ने की कला विकसित करने की जरूरत है।दुख के बिना जीवन अपूर्ण है,नीरस है।

रवीन्द्रनाथ की बात मानें तो दुख तो ´रस´है।दुख रहते हैं तो अपूर्णता का एहसास बना रहता है और यही एहसास हमें सर्जनात्मक शक्ति देता है।सिर्फ संतोष और सुख रहे तो जीवन बहुत ही नीरस हो जाता है। हम बार - बार यह महसूस करते हैं हमारे पास यह नहीं है,वह नहीं है, यह अभाव और अपूर्णता ही है जो हमको बल देती है,संघर्षशील चेतना पैदा करती है.जिसने दुख नहीं देखा,दुख को महसूस नहीं किया वह सत्य को अर्जित नहीं कर सकता।दुख तो मनुष्य की सबसे बड़ी दौलत है,इसलिए दुखों से डरना नहीं चाहिए,कुंठा में नहीं जाना चाहिए,दुखों का सामना करना चाहिए।

मैंने अपने जीवन में सबसे ज्यादा सेवा की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की और पश्चिम बंगाल में उनके कॉमरेडों ने उनके राज्य नेतृत्व ने अकारण मुझे सबसे ज्यादा सताया,मेरी अकल्पनीय क्षति की,मेरे अनेक मित्र-सहकर्मी-रिश्तेदार हैं जिनको मैंने कभी एक गाली तक नहीं दी,लेकिन वे सारी जिन्दगी मेरे खिलाफ निंदा अभियान में लगे रहे, अनेक करीबी नाते-रिश्तेदार हैं जो निरंतर विषवमन करने में लगे रहते हैं,ये वे लोग हैं जिनकी मैंने तन-मन-धन सब तरह से मदद की।बदले में मैंने कभी कोई मदद नहीं मांगी,लेकिन ये सभी लोग विभिन्न रूपो में दुख पहुंचाते रहे,मैंने वे दुख महसूस किए,झेले,क्षति उठायी,लेकिन कभी कुंठा और निराशा को पास फटकने नहीं दिया। अनेक लोग हैं जो अभी भी दुष्टता और असभ्यता से बाज नहीं आते।लेकिन मैंने उनको कभी कोई गाली नहीं दी।

मैं मानता हूं दुख को देखो,जानो,महसूस करो और उसे सुख में बदलो।यही वह चीज है जिसने मुझे दुखों में रहते हुए निरंतर लिखने,संवाद करने के लिए असीमित ऊर्जा दी।ये कलकत्ते के लोग दुख न देते तो मैं इतनी किताबें नहीं लिख पाता।मैं उस समय ज्यादा लिखता हूँ जब लोग कलकत्ते के लोग दुख देते हैं। मेरी किताबों के पीछे दुखों की सर्जनात्मक भूमिका है,इसी अर्थ में मुझे रवीद्रनाथ की यह बात सही लगती है कि दुख ही आनंद है।

टैगोर ने लिखा है ´मानव के इस दुःख में केवल आँसुओं का मृदुल वाष्प ही नहीं,हृद का प्रखर तेज भी है।विश्व में तेजःपदार्थ हैं।मानव-चित्त में दुख हैं।वही प्रकाश है,गति है,ताप है।वही टेढ़े-मेढ़े रास्तों से घूम-फिरकर समाज में नित्य-नूतन कर्मलोक और सौन्दर्य-लोक का निर्माण करता है।कहीं खुलकर तो कहीं छिपकर,दुःख के ताप ने ही मानव-संसार की वायु को धावमान रखा है।´



´इस दुःख को हम क्षुद्र नहीं समझेंगे।मस्तक उठाकर,सीना तानकर इसे स्वीकार करेंगे।इसकी शक्ति से हम भस्म नहीं होंगे,बल्कि अपने-आपको और कठिन रूप में गढ़ेंगे। दुःख की सहायता से अपने-आपको ऊपर उठाने के बदले यदि हम उसमें डूब जायें तो यह दुःख का अपमान होगा।जिसका भार सहने से जीवन सार्थक होता है उसीको आत्म-हत्या का साधन समझना दुःख-देवता के सामने अपराधी होना है। अस्तित्व की प्रतिष्ठा को समझने का दुःख के सिवा दूसरा मार्ग नहीं है।दुःख ही जगत् के पदार्थों का मूल्य है,जो कुछ आदमी ने रचा है दुःख की सहायता से रचा है।जिसे हमने दुःख से नहीं पाया वह हमारा अपना नहीं है।त्याग के द्वारा,दान तपस्या दुःख के द्वारा ही गम्भीर आत्मबोध सम्भव है-सुख या आराम के द्वारा नहीं। दुःख के अतिरिक्त किसी उपाय से हम अपना आन्तरिक सामर्थ्य नहीं जान सकते। ´

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