शनिवार, 27 अगस्त 2016

राष्ट्रवाद के अन्तर्विरोधों में फंसा अशांत कश्मीर

         कश्मीर को देखने के लिए राष्ट्रवाद की नहीं लोकतांत्रिक नजरिए की जरूरत है।भाजपा ऊपर से नाम संविधान का ले रही है लेकिन कश्मीर की समस्या को राष्ट्रवादी नजरिए से हल करना चाहती है। राष्ट्रवाद के पास जातीय समस्या का कोई समाधान नहीं है।दिलचस्प बात यह है कि भाजपा-आरएसएस हिन्दू राष्ट्रवाद के पैमाने से समाधान खोज रहे हैं वहीं आतंकी संगठन कश्मीरी राष्ट्रवाद के जरिए समाधान खोज रहे हैं लेकिन ये दोनों ही नजरिए अंततःहिंसा और अशांति की ओर जाते हैं। सारी दुनिया का अनुभव है कि उत्तर –औपनिवेशिक दौर में राष्ट्रवाद आत्मघाती मार्ग है।

कश्मीर की जनता के इस समय दो शत्रु हैं पहला है कश्मीरी राष्ट्रवाद और दूसरा है हिन्दू राष्ट्रवाद।राष्ट्रवाद बुनियादी तौर पर हिंसा और घृणा की विचारधारा है।इसका चाहे जो इस्तेमाल करे उसे अंततःहिंसा की गोद में उसे शरण लेनी पड़ती है। राष्ट्रवाद को उन्मादी नारे और हथियारों के अलावा और कोई चीज नजर नहीं आती।कश्मीर की आजादी के नाम पर जो लोग लड़ रहे हैं वे आजादी के नाम पर कश्मीर को जहन्नुम के हवाले कर देना चाहते हैं।जमीनी हकीकत यह है कि अधिकतर युवाओं को कश्मीरी की आजादी का सही अर्थ तक नहीं मालूम ,यही हाल नेताओं का है।

विगत 70 सालों में हजारों मीटिंगें हुई हैं लेकिन कश्मीर की आजादी का अर्थ समझाते हुए कभी किसी दल ने कोई दस्तावेज आज तक भारत की जनता के सामने,संसद में पेश नहीं किया।कश्मीर की आजादी को कश्मीरी राष्ट्रवाद के हिंसक और अंतर्विरोधी फ्रेमवर्क में रखकर ही हमेशा पेश किया गया, इसके बहाने कश्मीर के अंदर जो धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक ताकते हैं उनके खिलाफ माहौल बनाने की लगातार कोशिशें हुई हैं।दिलचस्प बात यह है कि कश्मीरी राष्ट्रवादियों और हिन्दू राष्ट्रवादियों का संयुक्त मोर्चा मौजूदा राज्य सरकार को संचालित कर रहा है और सारी समस्या की जड़ यही मोर्चा है।

पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी बाजपेयी के नारे ´जम्हूरियत कश्मीरियत और इंसानियत´में भी कश्मीरी राष्ट्रवाद को कश्मीरियत के नाम पर शामिल कर लिया गया है और मौजूदा प्रधानमंत्री उस नारे को बार-बार दोहरा रहे हैं,जबकि समस्या इसी समझ में है।कश्मीर की समस्या को यदि मोदीजी राष्ट्रवाद के फ्रेमवर्क से देखेंगे तो समाधान कम और टकराव ज्यादा पैदा होंगे, अटलजी के फ्रेमवर्क से देखेंगे तो वहां से भी हिंसक रास्ते ही खुलते हैं।इस दौर में जब भी जातीयता और राष्ट्रवाद को आधार बनाकर राजनीतिक समस्याओं के समाधान खोजे गए हिंसा और टकराव ही पैदा हुआ।खालिस्तान के दौर में ´पंजाबियत´का हश्र हम हिंसा में रूपान्तरित होते देख चुके हैं।

कश्मीर को लोकतंत्र चाहिए ´कश्मीरियत´नहीं।कश्मीर को ´नागरिक´ भावबोध चाहिए ´कश्मीरी´भावबोध नहीं।जो लोग´कश्मीरियत´के परिप्रेक्ष्य में देख रहे हैं वे पुराने अ-प्रासंगिक परिप्रेक्ष्य में देख रहे हैं।कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है,इसमें वह इलाका भी आता है जो पाक अधिकृत कश्मीर के नाम से जाना जाता है। कश्मीर की स्थानीय राजनीति में धर्मनिरपेक्ष ताकतें भी कश्मीरियत को भुनाती रही हैं,इससे भी समस्याएं पैदा हुई हैं।

मूल प्रश्न यह है कि कश्मीर को लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य से देखें या राष्ट्रवाद के परिप्रेक्ष्य से ।राष्ट्रवाद का परिप्रेक्ष्य ,चाहे वह देशभक्त हो या विभाजनकारी,अंततःजनता को अंधी भीड़ में तब्दील करता है। लोकतंत्र का परिप्रेक्ष्य कश्मीरी जनता के स्वायत्त और आत्मनिर्भर संसार को सृजित करता है।कश्मीर की समस्या पर संविधान के दायरे में कोई भी बातचीत होगी तो लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य में ही होगी।हमारा संविधान राष्ट्रवाद को मंजूरी नहीं देता।राष्ट्रवाद का परिप्रेक्ष्य अ-संवैधानिक है।

कश्मीर पर जब भी बातें होती हैं तो हिन्दू बनाम मुसलमान,पाक बनाम भारत,आतंकी बनाम राष्ट्रवादी,मुसलिम बहुसंख्यक बनाम हिन्दू अल्पसंख्यक या कश्मीरी पंडित आदि वर्गीकरण में रखकर देखते हैं।फलतः कश्मीर के बाशिंदों को हम नागरिक के रूप में देख ही नहीं पाते।बार-बार यही कहा जाता है कश्मीर में तो बहुसंख्यक मुसलमान हैं ,फलतः वहां आतंकी-पृथकतावादी संगठनों का राजनीतिक रूतबा है। कायदे से हमें इस तरह के विभाजनकारी वर्गीकरण में रखकर कश्मीर को,वहां की जनता को नहीं देखना चाहिए.कश्मीर में भी भारत के अन्य इलाके की तरह मनुष्य रहते हैं,वे हमारे देश के नागरिक हैं,उनको धर्म ,जातीयता और राष्ट्रवाद के नाम पर वर्गीकृत करके नहीं देखें।

कश्मीर की जनता को भीड़ में तब्दील करने में राष्ट्रवादी नजरिए की बड़ी भूमिका है।राष्ट्रवादी-आतंकी नजरिए का परिणाम है कि वहां पर आज जनता भीड़ की तरह आगे चल रही है और नेता उसके पीछे चल रहे हैं।लोकतंत्र में नेता जनता का नेतृत्व करते हैं लेकिन राष्ट्रवादी फ्रेमवर्क में भीड़ नेताओं का नेतृत्व करती है।यही वह आयरनी है जिससे निकलने की जरूरत है।



कश्मीर के निवासियों को हम अपने ही देश का नागरिक समझें,उनके दुख-दर्द को अपना दुख-दर्द समझें,पराए के रूप में देखना बंद करें।कश्मीर को पराए के रूप में देखने के कारण ही आज हालात यह हैं कि हमारी संसद भी ठीक से नहीं जानती कि कश्मीरियों की फिलहाल असल समस्याएं क्या हैं।हाल ही में संसद में कश्मीर के मौजूदा हालत पर जो बहस हुई उसमें विभिन्न दलों के नेताओं ने भाषण दिए,उन भाषणों में कश्मीरी जनता की अनुभूतियां,दुख-दर्द गायब थे,सिर्फ नारे थे,रेटोरिक था,लेकिन मर्मस्पर्शी भावबोध गायब था।इससे पता चलता है राजनीतिक नेतृत्व कश्मीर की जमीनी हकीकत से एकदम अनभिज्ञ है।

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

मनुष्य के दस गुण और आम्बेडकर -

"(1) पन्न, (2) शील, (3) नेक्खम, (4) दान, (5) वीर्य, (6) खांति (शांति) , (7) सच्च, (8) अधित्थान, (9) मेत्त और (10) उपेक्खा।

पन्न या बुद्धि वह प्रकाश है, जो अविद्या, मोह या अज्ञान के अंधकार को हटाता है। पन्न के लिए यह अपेक्षित है कि व्यक्ति अपने से अधिक बुद्धिमान व्यक्ति से पूछकर अपनी सभी शंकाओं का समाधान कर ले, बुद्धिमान लोगों से संबंध रखे और विभिन्न कलाओं और विज्ञान का अर्जन करे, जो उसकी बुद्धि विकसित होने मे सहायक हों। शील नैतिक मनोवृत्ति अर्थात बुरा न करने और अच्छा करने की मनोवृत्ति, गलत काम करने पर लज्जित होना है। दंड के भय से बुरा काम न करना शील है। शील का अर्थ है, गलत काम करने का भय। नेक्खम संसार के सुखों का परित्याग है।


दान का अर्थ अपनी संपत्ति, रक्त तथा अंग का उसके बदले में किसी चीज की आशा किए बिना, दूसरों के हित व भलाई के लिए अपने जीवन तक को भी उत्सर्ग करना है।

वीर्य का अर्थ है, सम्यक प्रयास। आपने जो कार्य करने का निश्चय कर लिया है, उसे पूरी शक्ति से कभी भी पीछे मुड़कर देखे बिना करना है।

खांति (शांति) का अभिप्राय सहिष्णुता है। इसका सार है कि घृणा का मुकाबला घृणा से नहीं करना चाहिए, क्योंकि घृणा, घृणा से शांत नहीं होती। इसे केवल सहिष्णुता द्वारा ही शांत किया जाता है।

सच्च (सत्य) सच्चाई है। बुद्ध बनने का आकांक्षी कभी भी झूठ नहीं बोलता। उसका वचन सत्य होता है। सत्य के अलावा कुछ नहीं होता।

अधित्थान अपने लक्ष्य तक पहुंचने के दृढ़ संकल्प को कहते हैं।

मेत्त (मैत्री) सभी प्राणियों के प्रति सहानुभूति की भावना है, चाहे कोई शत्रु हो या मित्र, पशु हो या मनुष्य, सभी के प्रति होती है।

उपेक्खा अनासक्ति है, जो उदासीनता से भिन्न होती है। यह मन की वह अवस्था है, जिसमें न तो किसी वस्तु के प्रति रुचि होती है, परिणाम से विचलित व अनुत्तेजित हुए बिना उसकी खोज व प्राप्ति में लगे रहना ही उपेक्खा है।

प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह इन गुणों को अपनी पूर्ण सामर्थ्य के साथ अपने व्यवहार में अपनाए। इन पर आचरण करे। यही कारण है कि इन्हें परिमिता (पूर्णता की स्थिति) कहा जाता है। यही वह सिद्धांत है, जिसे बुद्ध ने संसार में दुःख तथा क्लेश की समाप्ति के लिए अपने बोध व ज्ञान के परिणामस्वरूप प्रतिपादित किया है।"

(बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स,निबंध से)

दस मुख्य कठिनाईयां और आम्बेडकर-

       "प्रथम बाधा अहम् का मोह है, जब तक व्यक्ति पूर्णतया अपने अहम् में रहता है, प्रत्येक भड़कीली चीज का पीछा करता है, जिनके विषय में वह व्यर्थ ही यह सोचता है कि वे उसके हृदय की अभिलाषा की तृप्ति व संतुष्टि कर देंगी, तब तक उसको आर्य मार्ग नहीं मिलता। जब उसकी आंखें इस तथ्य को देखकर खुलती हैं कि वह इस असीम व अनंत का एक बहुत छोटा सा अंश है, तब वह यह अनुभूति करने लगता है कि उसका व्यक्तिगत अस्तित्व कितना नश्वर है, तभी वह इस संकीर्ण मार्ग में प्रवेश कर सकता है।


दूसरी बाधा संदेह तथा अनिर्णय की स्थिति है। जब मनुष्य अस्तित्व के महान रहस्य, व्यक्तित्व की नश्वरता को देखता है तो उसके अपने कार्य में भी संदेह तथा अनिर्णय की स्थिति की संभावना होती है, अमुक कार्य किया जाए या न किया जाए, फिर भी मेरा व्यक्तित्व अस्थाई नश्वर है, ऐसी कोई चीज प्रश्न क्यों बन जाती है, जो उसे अनिर्णायक, संदेही या निष्क्रिय बना देती है, परंतु वह चीज जीवन मंर काम नहीं आएगी। उसे अपने शिक्षक का अनुसरण करने, सत्य को स्वीकार करने तथा संघर्ष की शुरुआत करने का निश्चय कर लेना चाहिए अन्यथा उसे और आगे कुछ नहीं मिलेगा।

तीसरी बाधा संस्कारों तथा धर्मानुष्ठानों की क्षमता पर निर्भर करती है। किसी भी उत्तम संकल्प से वह चाहे जितना दृढ़ हो, किसी चीज की प्राप्ति उस समय तक नहीं होगी, जब तक मनुष्य कर्मकांड से छुटकारा नहीं पाएगा, जब तक वह इस विश्वास से मुक्त नहीं होगा कि कोई बाह्य कार्य, पुरोहिती शक्ति तथा पवित्र धर्मानुष्ठान से उसे हर प्रकार की सहायता मिल सकती है। जब मनुष्य इस बाधा पर काबू पा लेता है, केवल तभी यह कहा जा सकता है कि वह ठीक धारा में आ गया है और अब देर-सवेर विजय प्राप्त कर सकता है।

चौथी बाधा शारीरिक वासनाएं हैं। पांचवीं बाधा दूसरे व्यक्तियों के प्रति द्वेष व वैमनस्य की भावना है छठी भौतिक वस्तुओं से मुक्त भावी जीवन के प्रति इच्छा का दमन है और सातवीं भौतिकता से मुक्त संसार में भावी जीवन के प्रति इच्छा का होना है। आठवी बाधा अभिमान है और नौवीं दंभ है। ये वे कमजोरियां हैं, जिन पर मनुष्य के लिए विजय प्राप्त करना बहुत कठिन है और जिनके लिए विशेष रूप से श्रेष्ठ व्यक्ति उत्तरदायी हैं। यह उन लोगों के लिए निंदा की बात है, जो अपने आप से कम योग्य तथा कम पवित्र हैं।दसवीं बाधा अज्ञानता है। यद्यपि अन्य सब कठिनाइयों व बाधाओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है, फिर भी यह बनी ही रहेगी, बुद्धिमान तथा अच्छे व्यक्ति के शरीर में कांटे के समान चुभती रहेगी। यह मनुष्य की अंतिम तथा सबसे बड़ी शत्रु है।"(बुद्ध अथवा मार्क्स,निबंध से) 

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी और फेसबुक

श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर मंदिरों से मूर्ति औरउत्सव की इमेज वर्षा जिस तरह हो रही है, उसने श्रीकृष्ण को डिजिटल कृष्ण बना दिया है। डिजिटल होने का मतलब आभासी है। आभासी कृष्ण अंतत: जो संदेश देता है - जो डिजिटल है वह अनुपस्थित है। इस तरह की इमेज वर्षा अपील करती है ,जनता को एक्टिव करती है, लेकिन कृष्ण को ज़ीरो बनाती है। कृष्ण का ज़ीरो बन जाना भगवान की डिजिटल त्रासदी है।यह पूँजीवाद की परम विजय की अवस्था है।

श्री कृष्ण को गोपियों में जनप्रिय नायक क्यों बनाया गया ? गोपियों का नायक बनाकर सर्जक असल में किसे चुनौती देता है ?

कृष्ण के साथ गोपियों का संसार सामंतकाल में जुड़ता है। श्रीकृष्ण और गोपियों का प्रेम वस्तुत: सामंती बंदिशें और नियमों का निषेध है।

सवाल यह है इतने ताक़तवर आख्यान को रचने के बाद भी ब्रज के इलाक़े में सामंती मूल्य ध्वस्त क्यों नहीं हुए? आज भी जो जय हो जय हो कर रहे हैं वे सामंती मूल्यों के मोह में क्यों बँधे हैं? यह भक्ति का ग़ैर -यथार्थवादी रूप है।



श्रीकृष्ण कल्पना है ,कल्पना को सत्य बनाने में हमारा समाज महान है।फिर श्रीकृष्ण की कल्पना मनोहर,मनोरंजक और ज्ञान से भरी है।संभवतः खृष्म पहले ऐसे विचारक हैं जो गीता के जरिए विकसित समाज व्यवस्था की परिकल्पना पेश करते हैं।गीता जब लिखी गयी तो उसमें वर्गहीन,आदिम समाज व्यवस्था से आगे बढ़ी हुई नई चातुर्वण्य व्यवस्था की ओर ले जाने का सपना पेश किया गया।यानि आने वाला व्यवस्था के प्रति ऐतिहासिक आकांक्षा व्यक्त की गयी।यह वर्गहीन समाज से वर्गों वाले समाज के रूपान्तरण की दिशा में बड़ा ऐतिहासिक परिवर्तन था।

कृष्ण का चरित्र ग़ैर-परंपरागत है। ग़ैर- परंपरागत चरित्र और आचरण किस तरह सिस्टम में तनाव पैदा कर सकता है , आनंद, प्रेम और युद्ध का नायक बन सकता है यह सीखना चाहिए कृष्ण से।

श्रीकृष्ण पहले विचारकों में हैं जो संसार मिथ्या है ,इस धारणा का खंडन करते हैं,वे कहते है संसार विमुख होकर कोई पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता।निष्काम कर्मयोग उनकी ही देन है,जिसका कालांतर में शासकवर्गों ने जमकर उपयोग किया।लेकिन इस धारणा का प्रगतिशील ताकतों ने नए समाज के निर्माण के लिए इस्तेमाल किया।

श्रीकृष्ण ऐसा चरित्र है जो भगवान के रूप में कम चरित्र रूप में ज़्यादा लोकप्रिय है।लोकप्रिय कहानियों के ज़रिए सबसे ज्यादा जनप्रिय है।



आरएसएस, बुद्धिजीवी और मीडिया का झूठ

        हाल ही में आरएसएस के लेखकों-बुद्धिजीवियों की एक बैठक संपन्न हुई ,जिसमें आरएसएस के नेताओं ने लेखकों-बुद्धिजीवियों को यह आदेश दिया कि वामपंथी लेखकों की तरह ज्यादा से ज्यादा लेखकों को प्रभावित करो,ऐसा साहित्य लिखो जिससे आम जनता हमारे करीब आए और युवा लेखक पैदा हों जो संघ की विचारधारा का प्रचार करें।

संघी नेता जानते हैं कि संघ की विचारधारा में लेखक-बुद्धिजीवी पैदा करने की क्षमता नहीं है।यह मूलतःबांझ विचारधारा है।संघ सत्ता पा सकता है,लेकिन लेखक तैयार नहीं कर सकता।लेखन के लिए स्वतंत्र दिमाग,स्वतंत्र विचार और लेखक के पास जोखिम उठाने की मनोदशा का होना बेहद जरूरी है।संघ के साथ जुड़कर कोई भी लेखक स्वाभाविक स्वतंत्र लेखन नहीं कर सकता।संघ में रहकर स्वतंत्र चिंतन-मनन,सवाल खड़े करना और रोज नए वैचारिक संघर्षों में शामिल होना संभव नहीं है।

हिन्दुत्व बंद प्रकृति की विचारधारा है,यह स्वतंत्रता के निषेध पर आधारित है।स्वतंत्रता के बिना बेहतरीन लेखन संभव नहीं है।अनेक वाम संगठनों में भी यह समस्या है कि वे लेखक के स्वतंत्र चिंतन से परेशान होते हैं,वे स चिंतन से जरूर परेशान होते हैं जो उनकी सांगठनिक विचारधारा के विरोध में हो।इसलिए वाम संगठनों के साथ भी लेखक का कभी-कभार पंगा हो जाता है।वाम संगठनों में तुलनात्मक तौर पर लेखक के पंगे कम होते हैं,क्योंकि वाम संगठन बड़े फलक में लेखक को सोचने और लिखने की स्वतंत्रता देते हैं।यही वजह है कि सांगठनिक विचारधारा और लेखकीय स्वातंत्र्य में जब अंतर्विरोध पैदा होता है तो वाम संगठन अपने लेखक को त्याग देते हैं।लेकिन आरएसएस जैसे संगठन की तो समस्या और भी गहरी है।वे तो हर चीज को हिन्दुत्व के नजरिए से देखते हैं।यह अपने-आपमें समस्यामूलक है।अच्छा वामपंथी उसे माना जाता है जो पार्टीलाइन से बंधा रहे।इसी तरह अच्छा संघी लेखक वह है जो संघी लाइन से बंधा रहे।यह सांगठनिक लाइन से बंधने का अर्थ है लेखन की मौत,स्वतंत्र लेखन का अंत।

इस समय हालात यह हैं कि आरएसएस के पक्ष में जो लोग लिख रहे हैं उनको सत्ता की ओर से व्यापक सम्मान-सत्कार मिल रहा है।इनाम-पद आदि भी मिल रहे हैं।इस समय जिस तरह के वैचारिक हमले हो रहे हैं उनके खिलाफ बुद्धिजीवियों –लेखकों और शिक्षकों की ओर से सबसे कम बोला जा रहा है। खासकर शिक्षकों में सन्नाटा पसरा हुआ है, वे पद और इनाम का लालच देकर लेखकों-शिक्षकों को अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रहे हैं। विश्वविद्यालय-कॉलेज शिक्षकों में हिन्दुत्व की विचारधारा के प्रति आकर्षण साफ दिखाई दे रहा है।अधिकांश शिक्षक उनके द्वारा उठाए मसलों के खिलाफ बोलने से कतरा रहे हैं।संघ के हिंसाचार के खिलाफ उनमें कहीं पर भी आक्रोश नजर नहीं आता,उलटे संघ के साथ जुड़ने का भाव साफ नजर आता है।

शिक्षकों- बुद्धिजीवियों में अपने-आसपास के मसलों पर चुप्पी बेहद चिंतित करने वाला फिनोमिना है।इसके विपरीत संघ के संगठन अ-वास्तिवक घटना को खबर बनाने में मशगूल रहते हैं या फिर गलत सूचनाएं प्रसारित करते रहते हैं। इनका टीवी से लगातार प्रसारण हो रहा है।शिक्षक-लेखक टीवी द्वारा प्रक्षेपित सूचनाओं से अभिभूत हैं और उनको सही मानकर चल रहे हैं।यह भी कह सकते हैं जनता की बुद्धि को अपहृत करने लिए टीवी का संघ दुरूपयोग कर रहा है। बुद्धिजीवियों और शिक्षकों का अपने आसपास के घटनाक्रम पर चुप रहना अंततःआरएसएस को वैचारिक मदद कर रहा है।

संघ नियंत्रित मीडिया जिस तरह का डिस-इनफॉर्मेशन प्रचार चला रहा है वह अपने आपमें गंभीर चिंता का विषय है।इस प्रचार का चौतरफा असर देखने को मिल रहा है।यह प्रचार अभियान पंक्चर हो सकता है बशर्ते बुद्धिजीवी -शिक्षक अपने आसपास घटने वाली घटनाओं पर बोलें,लिखें।इस दौरान संघ ने जो मसले उठाएं हैं वे बेहद गंभीर हैं।

आरएसएस की नई रणनीति है ´अघटित घटना´को खबर बनाओ। उसके बाद गलत- सलत सूचनाएं मीडिया में प्रसारित करो।गोरक्षकों के हमले और गोमांस के बहाने अखलाक की हत्या और उसके प्रसंग में चलाया गया समूचा हंगामा,मीडिया मुहिम इसका ताजा उदाहरण है।इस सबका परिणाम यह निकला है कि मीडिया में घटना से संबंधित सत्य एकसिरे से गायब हो गया है।इसी तरह संघ के लोग मीडिया में इतिहास के नाम पर मनमानी बातें कह रहे हैं,मनगढ़ंत बातें बोल रहे हैं,कपोल कल्पित इतिहास पेश कर रहे हैं। इन सबको कायदे से मीडिया को सेंसर करना चाहिए,यह मीडिया आचार संहिता का खुला उल्लंघन है।लेकिन मीडिया उनको सेंसर नहीं कर रहा बल्कि अबाध रूप में प्रसारित कर रहा है, इस तरह के काल्पनिक इतिहास के खिलाफ शिक्षकों का हस्तक्षेप बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है लेकिन मीडिया से लेकर शिक्षा संस्थानों तक संघ के विचारों के खिलाफ प्रतिवाद नजर ही नहीं आ रहा।संघ ने बड़ी खूबी के साथ समूचे विवाद को धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ मुहिम की आड़ में छिपा दिया है। सत्य बताने के नाम पर आरएसएस ऐसी चीजों का प्रचार कर रहा है जो कभी घटित ही नहीं हुई हैं।इसने खबरों की प्रामणिकता को खत्म कर दिया है,हर चीज को लेकर भावुकताभरे हमले किए जा रहे हैं।जो संघ के विचारों का विरोध करता है उसे देशद्रोही कहा जा रहा है।असहमत होना राष्ट्रद्रोह की केटेगरी में शामिल कर दिया गया है।इसने बुद्धिजीवियों और शिक्षकों के मन में डर पैदा कर दिया है।इस डर से निकलने की जरूरतहै।टीवी एंकरों से लेकर प्रवक्ताओं तक झूठ को दोहराया जा रहा है,इन सबके खिलाफ रीयल टाइम में हस्तक्षेप करने की जरूरत है।



गुरुवार, 25 अगस्त 2016

कार्ल मार्क्स पखवाड़ा - अंधविश्वास और मार्क्सवाद

              अंधविश्वास सामाजिक कैंसर है। अंधविश्वास ने सत्ता और संपत्ति के हितों को सामाजिक स्वीकृति दिलाने में अग्रणी भूमिका अदा की है। आधुनिक विमर्श का माहौल बनाने के लिए अंधविश्वासों के खिलाफ जागरूकता बेहद जरूरी है। आमतौर पर साधारण जनता के जीवन में अंधविश्वास घुले-मिले होते हैं।

अंधविश्वासों को संस्कार और एटीटयूट्स का रूप देने में सत्ता और सत्ताधारी वर्गों को सैकड़ों वर्ष लगे हैं। अंधविश्वासों की शुरुआत कब से हुई इसका आरंभ वर्ष तय करना मुश्किल है। फिर भी ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि सामाजिक विकास के क्रम में जब राजसत्ता का निर्माण कार्य शुरू हुआ था उस समय साधारण लोग किसी से डरते नहीं थे। किसी भी किस्म का अनुशासन मानने के लिए तैयार नहीं थे, राजा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते थे। सत्ता के दंड का भय नहीं था। यही वह ऐतिहासिक संदर्भ है जब अंधविश्वासों की सृष्टि की गई।

आरंभिक दौर में अंधविश्वासों को संस्कार और जीवन मूल्य से स्वतंत्र रूप में रखकर देखा जाता था। कालांतर में अंधविश्वासों ने सामाजिक जीवन में अपनी जड़ें इस कदर मजबूत कर लीं कि अंधविश्वासों को हम सच मानने लगे।

अंधविश्वास का दायरा बहुत बड़ा है। इसके दायरे में सामाजिक मान्यताएं, सामाजिक आचार-व्यवहार से लेकर कला, ललित कला, साहित्य, राजनीति, व्यापार तक आता है। इसके कारण सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया बाधित हुई है।

भारत में विगत दो हजार वर्षों में किसी भी किस्म की सामाजिक क्रांति नहीं हुई। हम लोगों ने कभी भी इस सवाल पर सोचा नहीं कि हमारे समाज में विगत दो हजार वर्षों में सामाजिक क्रांति क्यों नहीं हुई? तमाम किस्म की कुर्बानियों के बावजूद आधुनिक भारत में कोई सामाजिक क्रांति क्यों नहीं हुई? यदि गंभीरता से भारतीय समाज पर नजर डालें तो पाएंगे कि भारत में सामाजिक क्रांति न होने के जिन कारणों की ओर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ध्यान खींचा था उनकी तरह हमारे समाज ने पूरी तरह ध्यान नहीं दिया।

हजारीप्रसाद द्विवेदी का मानना था कि भारत में सामाजिक क्रांति न होने के तीन प्रमुख कारण हैं। पहला, अंधविश्वास, दूसरा, पुनर्जन्म की धारणा और तीसरा कर्मफल का सिध्दांत। हमारी समूची चेतना इन तीन सिद्धांतों से परिचालित रही है। अंधविश्वास के कारण ही रूढ़ियों ने जन्म लिया। साहित्य एवं कलारूपों में रूढ़ियां और सामाजिक जीवन में रूढ़ियां अंधविश्वास की ही देन हैं।
आधुनिककाल आने के बाद साहित्य से रूढ़ियों का खात्मा हुआ बल्कि सामाजिक जीवन में रूढ़ियां बनी रहीं , अंधविश्वासों के खिलाफ सामाजिक संघर्ष लड़ा नहीं गया। वहीं दूसरी ओर, पूंजीवाद ने बड़े कौशल के साथ अंधविश्वास को अपनी मासकल्चर, विज्ञापन रणनीति और मार्केटिंग का अंग बनाकर नई शक्ल दे दी।

आज बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने बाजार के विकास के लिए जिन दो तत्वों का प्रचार रणनीति में सबसे ज्यादा इस्तेमाल कर रही हैं वह है धार्मिक संप्रेषण की पध्दति और दूसरा है अंधविश्वास। इन दो के जरिए जहां एक ओर उपभोक्तावाद का तेजी से विकास हो रहा है वहीं दूसरी ओर अंधविश्वासों के प्रति भी आस्था बढ़ रही है।

जो लोग सामाजिक परिवर्तन करना चाहते हैं उन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियों की धार्मिक संप्रेषण की रणनीति और अंधविश्वास की जुगलबंदी को तोड़ना होगा। उन तमाम क्षेत्रों में हमले तेज करने होंगे जिनसे इन दो तत्वों को संजीवनी मिलती है। इसके अलावा पुनर्जन्म और कर्मफल के सिध्दांत के प्रति आम जनता में आलोचनात्मक रवैय्या पैदा करना होगा। आज अंधविश्वास संस्कृति उद्योग का अनिवार्य तत्व बन गया है। संभवत: कुछ लोगों को यह बात समझ में न आए और कुछ लोगों की भावनाएं भी आहत हों। किंतु इस डर से अंधविश्वासों के खिलाफ जागरूकता पैदा करने के काम को छोड़ा नहीं जा सकता।

प्रश्न उठता है अंधविश्वास क्या है? इसे किन तत्वों से मदद मिलती है? इसका सामाजिक आधार कौन सा है? इससे किस तरह का समाज निर्मित होता है? किस तरह के कला रूप जन्म लेते हैं? और इसका विकल्प क्या है? ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें तो पाएंगे कि अंधविश्वास की धारणा का बुनियादी सारतत्व एक जैसा रहा है। मिस्र, यूनान और भारत में अंधविश्वासों की शुरुआत तकरीबन एक ही तरह हुई।

अंधविश्वास की बुनियादी विशेषता है अंधानुकरण, वैज्ञानिक विवेक का त्याग और स्वतंत्र चिंतन का विरोध। सामाजिक जीवन में इसका लक्ष्य था आम लोगों को अपने श्रेष्ठजनों के किसी भी आदेश के पालन का अभ्यस्त बनाया जाए। दूसरा , वे उन्हीं पर भरोसा करना सीखें जो हर मामले में समान भाव से धार्मिक विधि-विधानों का पालन करते हों। कलाओं की दुनिया में इसने नयनाभिराम चित्रों और मधुर गीतों की सृष्टि की। नयनाभिराम चित्रों और मधुर गीत-संगीत को मंदिरों में मानदंड के रूप में स्थापित किया गया। कला के क्षेत्र में किसी को यह इजाजत नहीं थी कि उनमें परिवर्तन करे। इसके कारण कलाओं के रूप सैकड़ों वर्षों तक अपरिवर्तित रहे। किसी ने यह साहस नहीं दिखाया कि कलाओं और मधुर गीतों में परिवर्तन करे। ये कलारूप सैकड़ों वर्षों से एक जैसे हैं। मिस्र के कलारूप इस अंधानुकरण के आदर्श उदाहरण हैं। विगत दस हजार साल से उनकी शैली में किसी तरह का परिवर्तन नहीं हुआ है। इस दौरान वे न तो बेहतर बन पाए और न बदतर ही बन पाए।
इसी तरह अंधविश्वास को जनप्रिय बनाने में झूठ खासकर इष्टकर झूठ की बहुत बड़ी भूमिका रही है। एक ऐसा झूठ, उदात्त झूठ जिसके सहारे संपूर्ण समुदाय को, संभव हो सके तो शासकों को भी स्वीकार करने के लिए राजी किया जा सके।

इस तरह के झूठ के आदर्श उदाहरण हैं हमारे रीति-रिवाज और संस्कार जिनकी प्रशंसा करते हुए हमारे शास्त्र थकते नहीं हैं। रीति-रिवाज और संस्कारों की प्रशंसा के क्रम में सबसे ज्यादा हमला स्वतंत्र चिंतन पर किया गया, उन लोगों पर हमले किए गए जो स्वतंत्र चिंतन के हिमायती थे। जो प्रत्येक बात पर शंका करते थे। प्रश्न करते थे।
आज हम रोम की महानता के गुण गाते हैं किंतु यह भूल जाते हैं कि रोम की महानता का आधार अंधविश्वास था। रोम की महानता के बारे में पोलिबियस ने लिखा कि मैं साहसपूर्वक यह बात कहूंगा कि संसार के शेष लोग जिस चीज का उपहास करते हैं, वह रोम की महानता का आधार है और उस चीज का नाम अंधविश्वास है। इस तत्व का उसके निजी और सार्वजनिक जीवन के सभी अंगों में समावेश कराया गया है और इसने ऐसी खूबी से उनकी कल्पनाशक्ति को आक्रांत कर लिया है कि उस खूबी को बेहतर नहीं बनाया जा सकता। संभवत: बहुत से लोग इसकी विशेषता समझ नहीं पाएंगे, लेकिन मेरा मत है कि ऐसा लोगों को प्रभावित करने के लिए किया गया है। यदि किसी ऐसे राज्य की संभावना होती, जिसके सभी नागरिक तत्वज्ञ होते तो इस तरह की चीज से हम बचे रह सकते थे। लेकिन सभी राज्यों में जनता अस्थिर है, निरंकुश भावनाओं, अकारण क्रोध और हिंसक आवेगों से ग्रस्त है। इसलिए केवल यही किया जा सकता है कि जनता को अदृश्य के भय से, और इसी किस्म के पाखंडों से काबू में रखा जाए। यह अकारण नहीं, बल्कि सुविचारित चाल थी कि पुराने जमाने के लोगों ने जनता के दिमाग में देवताओं और मृत्यु के बाद के जीवन की बातें बैठाईं। हमारी मूर्खता और विवेकहीनता यह है कि हम इस प्रकार की भ्रांतियों को दूर करना चाहते हैं।
इसके अलावा जिस विधा का निर्माण किया गया वह है चमत्कारवर्णन और दंतकथा। चमत्कारवर्णन और दंतकथाओं ने अंधविश्वासों को आम जनता के जीवन में उतारने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। किसी भी दर्शनवेत्ता और धर्मशास्त्री के उपदेशों के द्वारा पुरुषों और औरतों के समूहों को श्रध्दा, भक्ति और विश्वास की ओर नहीं मोड़ा जा सकता था। इनको प्रभावित करने के लिए अंधविश्वास का लाभ उठाना पड़ता था। यह कार्य चमत्कारवर्णन और दंतकथाओं के बिना संभव नहीं था। कालांतर में इसने नागरिक जीवन की प्राचीन व्यवस्था और साथ ही, वास्तविक सृष्टि संबंधी स्थापनाओं में मिथकशास्त्र के रूप में सम्मानजनक स्थान प्राप्त कर लिया।
कौटिल्य का अंधविश्वास में विश्वास नहीं था किंतु उन्होंने राज्य के कौशल के तौर पर अर्थशास्त्र में अंधविश्वास की चर्चा की है। उनका न तो राजा के दैवी अधिकार और उसकी सर्वज्ञता की सच्चाई में विश्वास था और न वे यह चाहते थे कि स्वयं शासक इस तरह की वाहियात बात को सच मानें। वे सुझाव देते हैं कि राज्य को अपनी आंतरिक और बाह्य स्थितियों को सुदृढ़ करने के लिए सामान्य लोगों की अंधमान्यताओं का लाभ उठाना चाहिए।

कौटिल्य अर्थशास्त्र में अनेक ऐसे सुझाव देते हैं जो अंधविश्वासों पर आधारित हैं। संयोग से जिन उपायों को सुझाया गया है वे थोड़े फेरबदल के साथ अब भी लागू किए जाते हैं। कौटिल्य ने कुछ ऐसे साधनों को अपनाने की सलाह दी जो बहुत ही भद्दे थे और जिनका दोहरा उद्देश्य था। वे न केवल जनता के बीच अंधविश्वासमूलक भय उत्पन्न करते थे, बल्कि अंधविश्वास के विरोध में यथार्थ और ठोस कदम उठाने वाले प्रचारकों का शारीरिक रूप से सफाया करने की ओर भी लक्षित थे।

अंधविश्वास के साथ-साथ पुनर्जन्म और कर्मफल की प्राप्ति की धारणा का भी व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल किया गया। इसका साहित्य पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार साहित्य में काव्य-रूढ़ियों का चलन शुरू हुआ।

यह मान लिया गया कि जो कुछ हो रहा है उसका उचित कारण है ज़िस कार्य में असामंजस्य है, वह अवश्य भविष्य में करने वाले को दंड देने का साधन बनेगा। इस विचार ने भारतीय साहित्य में सामंजस्यवादी दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा की है। समाज की विषमताओं और अनमेल परिस्थितियों को कभी विद्रोही दृष्टि से नहीं देखा गया।

यह मान लिया गया नाटक दुखांत नहीं होना चाहिए। असंतोष और विद्रोह के अभाव में कवि की बुध्दि अधिकाधिक सूक्तियों और चमत्कारों में उलझती गई। साहित्य में सिर्फ रस और रस में भी सिर्फ श्रृंगार रस की रचनाओं का बाहुल्य इस मार्ग के अनुसरण का स्वाभाविक परिणाम था।
उल्लेखनीय है रस की अवधारणा की उत्पत्ति का समय तकरीबन वही है जब अंधविश्वास, पुनर्जन्म और कर्मफल की प्राप्ति के सिध्दांत का जन्म हुआ। रसों में हमारे प्राचीन लेखकों ने सिर्फ श्रृंगार रस पर ही मुख्यत: जोर दिया और अन्य रसों की उपेक्षा की।

तात्पर्य यह है कि अंधविश्वास के साथ आनंदमूलक मनोरंजन, कामुकता, स्त्री के सौंदर्यमूलक हाव-भावों का गहरा संबंध है। यह संबंध मध्यकाल से विकसित हुआ और आधुनिक काल तक चला आया है। अंधविश्वास के समूचे कार्य-व्यापार को यदि इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो पाएंगे कि समाज में कलाओं में नकल की प्रवृत्ति वस्तुत: अंधविश्वास के प्रति सहिष्णु भाव पैदा करती है।
नकल की प्रवृत्ति को पूंजीवाद का प्रधान गुण माना जाता है। इस अर्थ में पूंजीवाद अपने विकास के साथ-साथ सामंती और पूर्व सामंती कला रूपों और मूल्यबोध को बरकरार रखता है।कलाओं में अंधानुकरण आधुनिक काल में नकल में रूपांतरित कर लेता है। इससे जहां कभी न खत्म होने वाले मनोरंजन की सृष्टि करने में मदद मिलती है वहीं दूसरी ओर अंधानुकरण के एटीटयूट्स, रवैए और संस्कार का विकास होता है। कलाओं से यथार्थ गायब हो जाता है। उसकी जगह काल्पनिक यथार्थ या आभासी यथार्थ ले लेता है।

इसी तरह अंधविश्वास या नकल की संस्कृति का परजीवीपन और पेटूपन की संस्कृति से गहरा संबंध है। इसका स्वतंत्राता के विचार से विरोध है, यह उन तमाम विचारों को अस्वीकार करती है जो नकल या अंधानुकरण के विरोधी हैं।

पूंजीवाद अपनी सामान्य प्रकृति के अनुसार अंधविश्वासों को भी वस्तु के रूप में बदल देता है, उन्हें संस्थागत रूप दे देता है। अंधविश्वासों को कामुकता एवं रोमांस के साथ प्रस्तुत करता है और यह कार्य फिल्म, टी.वी. और वीडियो फिल्मों के संगठित औद्योगिक माल के उत्पादन के रूप में करता है।

कामुकता, पोर्नोग्राफी, अतिलयात्मक गीत और संगीत तथा नकल के आधार पर निर्मित कलाएं जितनी ज्यादा बनेंगी उतना ही ज्यादा अंधविश्वास भी बढ़ेगा। उतनी ही ज्यादा सामाजिक असुरक्षा, भेदभाव और तनाव की सृष्टि होगी। इसका प्रधान कारण यह है कि आज अंधविश्वास को मासकल्चर ने अपना सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बना लिया है।

अंधविश्वास की रणनीति और धार्मिक संप्रेषण की शैलियों को अपनाकर विज्ञापन, फिल्म और टी.वी. उद्योग तेजी से अपना विकास कर रहा है। पहले अंधविश्वास के माध्यम से राज्य अपने लिए जहां एक ओर धन जुटाता था वहीं दूसरी ओर जनता के दिलो-दिमाग पर शासन करता था। आज भी इस स्थिति में बुनियादी फर्क नहीं आया है। सिर्फ तरीका बदला है और इस कार्य में परंपरागत अंधविश्वास प्रचारकों के अलावा जो नया तत्व आकर जुड़ा वह है पूंजीपति वर्ग, बाजार और संस्कृति उद्योग।

अब अंधानुकरण की प्रवृत्ति का बाजार की शक्तियां खुलकर अपने मुनाफों के विस्तार के लिए इस्तेमाल कर रही हैं। अंधानुकरण के लिए जरूरी है कि स्टीरियोटाइप प्रस्तुतियों पर जोर दिया जाए। इनमें खर्च कम और मुनाफा ज्यादा होता है और प्रस्तुतियां जल्दी ही समझ में आ जाती हैं। इस तरह की प्रस्तुतियां यथार्थ के निषेध और स्वतंत्र सृजन या मौलिक सृजन के निषेध को व्यक्त करती हैं।

वे ऐसे उन्माद, आनंद और मनोरंजन की सृष्टि करती हैं जो प्रभेदों का सृजन करता है। ध्यान रहे, प्रभेद वहीं पैदा होते हैं जहां भय हो, अंधविश्वास हो या जहां एक-दूसरे को धोखा देकर हराने का प्रयत्न किया जाता है। वहां परस्पर व्यवहार में सहज भाव नहीं होता।

अंधविश्वास मूलत: ऐसी स्वाधीनता की हिमायत करते हैं जो मनुष्य को पीड़ित करती है। यह संबंधहीन स्वाधीनता है। यह बुनियादी तौर पर नकारात्मक स्वाधीनता है। अंधविश्वास तरह-तरह के धार्मिक उपकरणों को जमा करने और धार्मिक उपकरणों के माध्यम से अंधविश्वासों से राहत पाने का रास्ता सुझाते हैं। रवींद्रनाथ टैगोर के शब्दों में, 'मानव जीवन में जहां अभाव है वहीं उपकरण जमा होते हैं। ... इस अभाव और उपकरण के पक्ष मेंर् ईष्या है, द्वेष है, वहां दीवार है, पहरेदार है, वहां व्यक्ति अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है और दूसरों पर आघात करना चाहता है।'

अंधविश्वास, पुनर्जन्म और कर्मफल के सिध्दांत से मुक्ति पाने के लिए जरूरी है कि तर्क और विमर्श के पुराने पैराडाइम को बदलें। पुराने पैराडाइम से जुड़े होने के कारण हम प्रभावी ढंग से अंधविश्वास का विरोध नहीं कर पा रहे हैं। तर्क के पैराडाइम को बदलते ही हम विकल्प की दिशा में बढ़ जाएंगे। पैराडाइम को बदलते ही विचारों में मूलगामी परिवर्तन आने लगेगा।

आम तौर पर हमारे बहुत से बुध्दिजीवी पुराने पैराडाइम को बनाए रखकर तर्कों में परिवर्तन कर लेते हैं। ध्यान रहे, अंधविश्वास को तर्क और विवेक से अपदस्थ नहीं किया जा सकता। जब तक वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर नया पैराडाइम निर्मित नहीं किया जाता तब तक अंधविश्वास को अपदस्थ करना मुश्किल है।

अंधविश्वास का जबाव तर्क नहीं विज्ञान है। जो लोक तर्क में विश्वास करते हैं वे पैराडाइम बदलते ही असली शक्ल में सामने आ जाते हैं। ध्यान रहे, जब पैराडाइम बदलते हैं तो उसके साथ ही, सारी दुनिया भी बदल जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि पैराडाइम बदलते ही हमारा विश्व दृष्टिकोण बदल जाता है, नए का जन्म होता है, वैज्ञानिक चेतना के विकास की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं। यही वह बिंदु है जिस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है।

अंधविश्वास का जबाव तर्क से देंगे तो अंतत: पराजय हाथ लगेगी यदि पैराडाइम बदलकर विज्ञानसम्मत चेतना से इसका जबाव देंगे तो अंधविश्वास को अपदस्थ कर पाएंगे। हमारे रैनेसां के चिंतकों ने अंधविश्वास का प्रत्युत्तर तर्क से देने की चेष्टा की और इसका अंतत: परिणाम यह निकला कि हम आज अंधविश्वास से संघर्ष में बहुत पीछे चले गए हैं। तर्क को आज अंधविश्वास ने आत्मसात कर लिया है। अंधविश्वास का तर्क से बैर नहीं है उसकी लड़ाई तो विज्ञानसम्मत चेतना के साथ है।

अंधविश्वास के कारण बौध्दिक अधकचरापन पैदा होता है। इन दिनों विज्ञान और विज्ञानसम्मत चेतना के बजाय मिथकीय चेतना पर जोर दिया जा रहा है। आज विज्ञान को सत्य की खोज के काम से हटाकर व्यावहारिक उपयोग, उद्योग और युध्द के साजो-सामान के निर्माण में लगा दिया गया है। यहां तक कि धर्म और विज्ञान में सहसंबंध स्थापित करने की कोशिशें चल रही हैं। अब विज्ञान को पूंजीवाद ने महज एक चिंतन का रूप या शुध्द विज्ञान बना दिया है या उपयोगी रूप तक सीमित कर दिया है।

एक जमाना था विज्ञान पर विश्वास था। किंतु एक अर्से के बाद विज्ञान के प्रति संशय का भाव पैदा हुआ। शुरू में विज्ञान के प्रति प्रशंसाभाव था। बाद में मोहभंग हुआ और विज्ञान के प्रति संशय भाव पैदा हुआ। आज पूंजीवादी वैज्ञानिक निराश और हताश हैं कि क्या करें? वे पीछे मुड़ नहीं सकते। आगे किस तरह बढ़ना है? बढ़ गए तो कहां पहुचेंगे? आज विज्ञान के पूंजीवादी पक्षधर परेशान हैं कि विज्ञान के इतने विराट जुलूस को कहां ले जाएं? इसके कारण विज्ञान और विज्ञानसम्मत चेतना के प्रति अविश्वास और गहरा हुआ है।

आम लोगों से लेकर बुध्दिजीवियों तक संशयवाद बढ़ा है। इसके कारण पुन: एकसिरे से अंधविश्वास और आध्यात्मिकता की बाढ़ आ गई है। कुछ लोग मानव स्वभाव की उन्नतिशीलता को लेकर कुछ भी होता न देखकर हताशा में डूबे जा रहे हैं और विज्ञान को तिलांजलि दे रहे हैं। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो पहले से ही यह मानकर चल रहे हैं कि विज्ञान की सामाजिक परिणतियों पर कोई भी विचार-विमर्श हानिकर होने को बाध्य है।

कुछ ऐसे लोग भी हैं जो विज्ञान के व्यावहारिक उपयोग के अलावा और किसी भूमिका पर सोचने के लिए तैयार नहीं हैं। कुछ लोगों के लिए विज्ञान का विनाश के अलावा और किसी काम में उपयोग संभव नहीं है। कुछ के लिए यह संपत्तिा और मुनाफों के अंबार खड़ा कर देने का साधन मात्रा है। यह सही है कि पूंजीवाद समाजों में विज्ञान का सही उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा रहा। यह भी सच है कि वैज्ञानिक वेतनभोगी कर्मचारी होकर रह गए हैं।

आज वैज्ञानिक या तो किसी विश्वविद्यालय में काम करता है या किसी उद्योग या संस्था में काम करता है। निजी साधनों से वैज्ञानिक अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक अब दुर्लभ हो गए हैं। जाहिरा तौर पर वैज्ञानिक जहां काम करता है वहां के हितों की उसे सबसे पहले पूर्ति करनी होगी। यही ्रूबदु है जहां पर हमें विज्ञान की सामाजिक भूमिका पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। यदि विज्ञान बंदी है और वैज्ञानिक खरीदा जा चुका है तब अंधविश्वास के खिलाफ विज्ञान और विज्ञानसम्मत चेतना की भूमिका शून्य के बराबर होगी।

कार्ल मार्क्स पखवाडा- धर्म धर्मनिरपेक्षता लोकतंत्र


           बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर का प्रसिद्ध निबंध है ´बुद्ध और कार्ल मार्क्स´,इसमें आम्बेडकर ने बुद्ध के विचारों के बहाने धर्म की 25 सूत्रों में व्याख्या पेश की है। ये सूत्र अब तक विचार विमर्श के केन्द्र में नहीं आए हैं,इन सूत्रों पर वाद-विवाद-संवाद होना चाहिए।

ये 25 सूत्र हैं-´´1. मुक्त समाज के लिए धर्म आवश्यक है।2. प्रत्येक धर्म अंगीकार करने योग्य नहीं होता।3. धर्म का संबंध जीवन के तथ्यों व वास्तविकताओं से होना चाहिए, ईश्वर या परमात्मा या स्वर्ग या पृथ्वी के संबंध में सिद्धांतों तथा अनुमान मात्र निराधार कल्पना से नहीं होना चाहिए।4. ईश्वर को धर्म का केंद्र बनाना अनुचित है।5. आत्मा की मुक्ति या मोक्ष को धर्म का केंद्र बनाना अनुचित है।6. पशुबलि को धर्म का केंद्र बनाना अनुचित है।7. वास्तविक धर्म का वास मनुष्य के हृदय में होता है, शास्त्रों में नहीं।8. धर्म के केंद्र मनुष्य तथा नैतिकता होने चाहिए। यदि नहीं, तो धर्म एक क्रूर अंधविश्वास है।9. नैतिकता के लिए जीवन का आदर्श होना ही पर्याप्त नहीं है। चूंकि ईश्वर नहीं है, अतः इसे जीवन का नियम या कानून होना चाहिए।10. धर्म का कार्य विश्व का पुनर्निर्माण करना तथा उसे प्रसन्न रखना है, उसकी उत्पत्ति या उसके अंत की व्याख्या करना नहीं।11. कि संसार में दुःख स्वार्थों के टकराव के कारण होता है और इसके समाधान का एकमात्र तरीका अष्टांग मार्ग का अनुसरण करना है।12. कि संपत्ति के निजी स्वामित्व से अधिकार व शक्ति एक वर्ग के हाथ में आ जाती है और दूसरे वर्ग को दुःख मिलता है।13. कि समाज के हित के लिए यह आवश्यक है कि इस दुःख का निदान इसके कारण का निरोध करके किया जाए।14. सभी मानव प्राणी समान हैं।15. मनुष्य का मापदंड उसका गुण होता है, जन्म नहीं।16. जो चीज महत्त्वपूर्ण है, वह है उच्च आदर्श, न कि उच्च कुल में जन्म।17. सबके प्रति मैत्री का साहचर्य व भाईचारे का कभी भी परित्याग नहीं करना चाहिए।18. प्रत्येक व्यक्ति को विद्या प्राप्त करने का अधिकार है। मनुष्य को जीवित रहने के लिए ज्ञान विद्या की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी भोजन की।19. अच्छा आचारणविहीन ज्ञान खतरनाक होता है।20. कोई भी चीज भ्रमातीत व अचूक नहीं होती। कोई भी चीज सर्वदा बाध्यकारी नहीं होती। प्रत्येक वस्तु छानबीन तथा परीक्षा के अध्यधीन होती है।21. कोई वस्तु सुनिश्चित तथा अंतिम नहीं होती।22. प्रत्येक वस्तु कारण-कार्य संबंध के नियम के अधीन होती है।23. कोई भी वस्तु स्थाई या सनातन नहीं है। प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील होती है। सदैव वस्तुओं में होने का क्रम चलता रहता है।24. युद्ध यदि सत्य तथा न्याय के लिए न हो, तो वह अनुचित है।25. पराजित के प्रति विजेता के कर्तव्य होते हैं।´´

यानी हर धर्म स्वीकार करने योग्य नहीं होता।धर्म को चुनते समय क्या देखें यह आम्बेडकर ने उपरोक्त 25 सूत्रों में रेखांकित किया है।धर्म कोई बनी-बनायी व्यवस्था नहीं है,बल्कि उसे हर बार नए सिरे से अर्जित करना पड़ता है।धर्म को अर्जित करने के लिए धार्मिक होने की जरूरत नहीं है,बल्कि धर्म को देखने का वैज्ञानिक नजरिया अर्जित करने की जरूरत है। आम्बेडकर ने धर्म के जिन 25सूत्रों का जिक्र किया है उनमें धर्म को शाश्वत न मानने वाली बात बेहद रोचक है।धर्म के जितने भी रूप प्रचलन में हैं वे धर्म को शाश्वत मानकर चलते हैं।जबकि धर्म शाश्वत नहीं बल्कि परिवर्तनशील है।धर्म को परिवर्तनशील मानना अपने आपमें भौतिक जगत की सत्ता को महत्व देना है। धर्म का प्रमुख काम है मनुष्य को प्रसन्न रखना और स्वतंत्र रखना।जो धर्म यह काम करे वह स्वीकार्य है जो यह काम न करे वह अस्वीकार्य है। इन दिनों धर्म के नाम पर प्रतिस्पर्धा और घृणा का जमकर प्रचार हो रहा है।आम्बेडकर ने धर्म की इस भूमिका का निषेध किया है और रेखांकित किया है धर्म का मुख्य कार्य है मैत्री स्थापित करना।

धर्म पूजा या उपासना की चीज नहीं है बल्कि आचरण की चीज है।जो लोग धर्म को पूजा-उपासना की चीज मानते हैं उनके जीवन में धर्म की कोई भूमिका नहीं होती,वे धर्म को प्रचार प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करते हैं।धर्म , प्रचार की नहीं ,आचरण की चीज है।धर्म आचरण में मिलता है।आचरण में ढालने का अर्थ है कि धर्म का कायाकल्प करना।



यह सवाल भी उठा है धर्म के केन्द्र में कौन है ॽ इन दिनों धर्म के केन्द्र में उपदेश हैं,राजनीति है,हिंसा है,अंधविश्वास हैं, मुनाफेखोरी है,संपत्ति संचय करने की प्रवृत्ति है,इन सभी चीजों का धर्म से कोई संबंध नहीं है। धर्म के केन्द्र में मनुष्य को रहना चाहिए।मनुष्य को केन्द्र में रखे बिना धर्म बेहद खतरनाक भूमिका अदा करता है।धर्म के बर्बर होने के चांस बढ़ जाते हैं।धर्मनिरपेक्षता की भी यही मांग है कि धर्म के केन्द्र में मनुष्य को रखा जाय।धर्म को मानवीय रूप दिया जाय। धर्म का ईश्वर या उपासना से कोई संबंध नहीं है।धर्म का मूलाधार तो मनुष्य है,लेकिन अधिकांश लोग धर्म का आधार ईश्वर को मानते हैं।ईश्वर दासता की मनोदशा में बांधता है, जबकि मनुष्य दासता की मनोदशा से मुक्त करता है।धर्म को मानो लेकिन मनुष्य को उसके केन्द्र में प्रतिष्ठित करो।ईश्वर को केन्द्र से अपदस्थ करो।धर्म के केन्द्र में ईश्वर का होना बंधन है।मानसिक गुलामी है।जबकि मनुष्य को धर्म के केन्द्र में रखेंगे तो धर्म की भूमिका और चरित्र बदल जाएगा,धर्म मुक्ति और स्वतंत्रता का रूप ग्रहण कर लेगा।

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मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...