गुरुवार, 6 मई 2010

सभ्यता का अंत है कश्मीरी पंडितों का विस्थापन

            कश्मीरी पंडितों का वैभव और सांस्कृतिक संपन्नता का इतिहास रहा है। भारत की श्रेष्ठतम बौद्धिक परंपराओं को कश्मीरी पंडितों ने पैदा किया। भारत का मान-सम्मान सारी दुनिया में ऊँचा किया। कश्मीरी पंडित भारत के सबसे सुंदर,मधुरभाषी , ज्ञानी-गुणी लोग रहे हैं। ये लोग हिंसा से कोसों दूर हैं। कश्मीरी पंडित कश्मीरियत की पहचान के आदर्श मानक भी हैं। उनका विस्थापन कश्मीरियत का अंत है। यह लेट कैपिटलिज्म की बड़ी त्रासद घटनाओं में से एक घटना है। कश्मीरी पंडितों की समस्या हिन्दू समस्या नहीं है। यह साम्प्रदायिक-आतंक की राष्ट्रीय समस्या है,यह स्थानीय समस्या नहीं है,यह कानून-व्यवस्था की समस्या भी नहीं है। यह साम्प्रदायिक-आतंक की राष्ट्रीय समस्या है।
     कश्मीरी पंडितों का समूचा समुदाय साम्प्रदायिक सहिष्णुता का आदर्श रहा है और आज भी है। ज्ञान,शांति और सभ्यता का विकास ये तीन इनके सामुदायिक लक्ष्य रहे हैं। अपने इन तीन लक्ष्यों को कश्मीरी पंडितों ने कभी छोड़ा नहीं। कश्मीरी पंडितों का भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के साथ चोली-दामन का साथ है। कश्मीरी पंडितों ने कभी किसी पर हमला नहीं किया। वे कभी साम्प्रदायिक नहीं बने। इसके बावजूद उन्हें निशाना बनाया गया है तो इसका प्रधान कारण उनका सभ्य और नरम स्वभाव।  
      कश्मीर में मुस्लिम साम्प्रदायिकता का लंबे समय से गहरा असर रहा है और समय-समय इलाके की स्थानीय राजनीतिक पार्टियां मुस्लिम साम्प्रदायिकता के सामने समर्पण और समझौते करती रही हैं। इसके जबाव में हिन्दू साम्प्रदायिकता भी प्रतिकार स्वरूप हिन्दुओं को एकजुट करती रही है। लेकिन इन दोनों ही किस्म की राजनीति से कश्मीरी पंडित अलग-थलग रहे अथवा दोनों ही किस्म की साम्प्रदायिकता की उन्होंने मुखालफत की।
    आज के ताजा प्रसंग में कश्मीरी पंडित शरणार्थी हैं और अपनी जमीन-जायदाद और मातृभूमि से बेदखल होकर दिल्ली और जम्मू में बदहाल, अशांत और संस्कृतिविहीन जिंदगी जी रहे हैं। भारत सरकार शरणार्थी कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास,घर वापसी और सुरक्षा को अभी तक सुनिश्चित नहीं कर पायी है।
       कश्मीरी पंडित कब घर लौटेंगे इसका कोई कार्यक्रम अभी तक क्यों नहीं बना ? कश्मीरी पंडित एकबार बेदखल होने के बाद दोबारा क्यों नहीं बस पाए ? इन सवालों का कोई संतोषजनक उत्तर नजर नहीं आ रहा। सरसरी तौर पर इसका प्रधान कारण है कश्मीर प्रशासन का साम्प्रदायिक चरित्र  और केन्द्र सरकार का साम्प्रदायिकता के प्रति नरम रुख।
      कश्मीर प्रशासन का साम्प्रदायिक चरित्र विगत 50 सालों में बना है। उसमें नेशनल काँफ्रेंस और काग्रेस की मिलीभगत रही है ,इस मिलीभगत में ये दोनों पार्टियां मुस्लिम साम्प्रदायिक ताकतों से बढ़त हासिल करने के चक्कर में अनेक ऐसे कदम उठा चुकी हैं जिससे साम्प्रदायिक भेदभाव में इजाफा हुआ है। इन दोनों दलों का मानना था कि साम्प्रदायिक रुख अख्तियार करके वे मुस्लिम साम्प्रदायिकता को आम जनता में अलग-थलग कर देंगी। लेकिन हुआ उलटा। 
    मुस्लिम साम्प्रदायिकता को जनता से काटने के चक्कर में ये दोनों दल जनता से कटते चले गए। आज हालात यह हैं कि कश्मीर में सेना न भेजी जाए तो कांग्रेस और नेशनल काँफ्रेंस का एक भी कार्यकर्ता वहां जिंदा न बचे। कई लाख सैन्य और अर्द्ध सैन्यबलों के भरोसे भारत का झंड़ा कश्मीर में फहरा रहा है। सेना को वहां से हटा दीजिए समूचा कश्मीर भारत विरोधी ताकतों की जय-जयकार से गूंज उठेगा।
    जो लोग मुस्लिम साम्प्रदायिकता का जहर फैला रहे थे और मुस्लिम लीग और दूसरे साम्प्रदायिक संगठनों के तहत गोलबंद थे वे ही संगठन नए नाम के साथ पृथकतावाद का प्रचारतंत्र लेकर मैदान में आए। इसकी शुरुआत 1968 से होती है। पाकिस्तान की मदद से ‘नेशनल लिबरेशन फ्रंट’ नामक संगठन बनाया गया और इसे ही कश्मीर में सीधे पृथकतावाद की नींव रखने का श्रेय जाता है।
      इसके बाद पृथकतावाद के कश्मीरी पंडितों पर हमले बढ़ने शुरु हुए। खासकर सोपोर,कुपवारा,अनंतनाग में पंडितों को निशाना बनाया गया। हिन्दुओं के पवित्र स्थानों पर हमले किए गए,हिन्दुओं के घर जलाए गए,सैंकड़ों हिन्दुओं पर कातिलाना हमले किए गए। इस समूची प्रक्रिया को साम्प्रदायिक-पृथकतावादी ताकतों ने पूरे कश्मीर में लागू किया। फलतः कई लाख कश्मीरी हिन्दुओं को मार-मारकर बेदखल किया गया और राज्य प्रशासन और केन्द्र सरकार इस बेदखली को रोक नहीं पायी।
    कश्मीरी पंडितों की बेदखली और उन पर अहर्निश हिंसक हमले भारत की सुरक्षा नीति की अब तक की सबसे बड़ी असफलता है। यह पृथकतावादी-साम्प्रदायिक ताकतों की सबसे बड़ी राजनीतिक विजय है। आश्चर्य की बात है कि केन्द्र में 6 साल तक भाजपा के नेतृत्ववाली एनडीए सरकार के जमाने में भी कश्मीरी पंडितों की घर वापसी नहीं हो पायी।
      उल्लेखनीय बात यह है कि संघ परिवार जिस समय सारे देश में हिन्दुत्व का राम-राम का बिगुल बजा रहा था और बाबरी मस्जिद गिराओ राममंदिर बनाओ का नारा लगाकर देश में मुसलमानों के खिलाफ जहर फैला रहा था ठीक उसी दौर में कश्मीरी पंडितों पर मुस्लिम पृथकतावादियों और आतंकियों के हमले तेज होते हैं। यही वह दौर है जब कश्मीरी हिन्दुओं के सामाजिक बहिष्कार से लेकर उन पर कातिलाना हमलों का सिलसिला शुरु होता है। सन् 1980 के बाद से यह सिलसिला शुरु होता है और 1984-85 तक आते-आते परवान चढ़ता है ,बाद में  कश्मीरी हिन्दुओं पर हमले तेज हुए, मंदिरों पर हमले हुए,मंदिरों को सुनियोजित ढ़ंग से नष्ट किया गया, अनंतनाग,कुपवारा और सोपोर में कश्मीरी पंडितों का सामाजिक बहिष्कार किया गया और अंत में सन् 1989 के मध्य तक आते-आते कश्मीरी पंडितों को अपने घर-द्वार छोड़कर अनंतनाग,कुपवारा,सोपोर आदि इलाकों से निकलना पड़ा।
     सन् 1989 के मध्य से आरंभ हुआ विस्थापन 1991 में जाकर चरमोत्कर्ष पर पहुँचा तब तक 90 प्रतिशत से ज्यादा कश्मीरी पंडितों की आबादी को आतंकी-मुस्लिम साम्प्रदायिक संगठनों ने अपदस्थ करके शरणार्थी बना दिया।
     जिस समय कश्मीरी पंडित शरणार्थी बनाए जा रहे थे संघ परिवार राममंदिर आंदोलन के नाम पर सारे देश में मुसलमानों के खिलाफ घृणा फैलाने का काम कर रहा था। देश के विभिन्न इलाकों में साम्प्रदायिक संगठन मुसलमानों को सबक सिखाने,दंगे करने, मुलमानों की हत्या करने का काम कर रहे थे।
     दूसरी ओर कश्मीर में मुस्लिम फंडामेंटलिस्ट -साम्प्रदायिक संगठनों के द्वारा कश्मीरी पंडितों का सुनियोजित कत्लेआम किया जा रहा था। यहां यह कहना मुश्किल है कि कौन किससे प्रेरणा ले रहा था। मोटे तौर पर मुस्लिम फंडामेंटलिस्टों और साम्प्रदायिकों से हिन्दुत्ववादी संगठनों ने घृणा और साम्प्रदायिक हिंसा का गुरुमंत्र लिया है। भारत में साम्प्रदायिक हिंसा के उस्ताद मुस्लिम साम्प्रदायिक संगठन रहे हैं। स्वातंत्र्योत्तर भारत में साम्प्रदायिक हिंसा का मूल पाठ हिन्दुत्ववादी संगठनों ने उनसे ही सीखा है।
   कश्मीरी पंडितों की समूची जाति पर मुस्लिम साम्प्रदायिकता ने जिस तरह हमला किया और उन्हें बरबाद किया उसकी तुलना फासीवादी हिंसाचार से की जा सकती है।                    
    आरंभ में भारत सरकार कश्मीरी पंडितों के विस्थापन को त्रासदी मानने को तैयार नहीं थी, बाद काफी हील-हुज्जत के बाद कश्मीरी पंडितों की समस्या की ओर सरकार ने ध्यान दिया और शरणार्थी शिविरों में रहने वाले विस्थापित कश्मीरी पंडितों का सरकारी रजिस्ट्रेशन आरंभ हुआ। आज सरकार द्वारा संचालित 14 शरणार्थी शिविरों में हजारों कश्मीरी पंडित जम्मू में रह रहे हैं।
     जो सरकारी कर्मचारी विस्थापित हुए है उनकी पगार के लिए सन् 1990-93 के बीच 83 सरकारी आदेश जारी किए गए । जिसके कारण विस्थापित कर्मचारियों को कुछ राहत मिली।
     बुनियादी तौर पर केन्द्र और राज्य सरकार का कश्मीरी पंडितों की शरणार्थी समस्या के प्रति तदर्थ रवैय्या रहा है। शरणार्थियों के रहने,खाने आदि के समुचित बंदोबस्त करने में राहत अधिकारियों की असफलता के किस्से आए दिन मीडिया में आते रहे हैं।  
     ज्यों-ज्यों समय बीतता जा रहा है कश्मीरी पंडितों के प्रति उदासीनता बढ़ती जा रही है। विभिन्न राजनीतिक दलों ने कश्मीरी पंडितों की समस्या को स्थानीय समस्या में तब्दील करके रख दिया है। कश्मीरी पंडितों की शरणार्थी समस्या राष्ट्रीय समस्या है यह भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर लगा बदनुमा दाग है। यह दाग जितनी जल्दी मिटे भारत का उतनी ही जल्दी मंगल होगा। कश्मीरी पंडितों की घर वापसी सभ्यता की वापसी कहलाएगी। यह काम हमें सर्वोच्च प्राथमिकता देकर करना चाहिए।  





4 टिप्‍पणियां:

  1. 1) "कश्मीरी पंडितों ने कभी किसी पर हमला नहीं किया। वे कभी साम्प्रदायिक नहीं बने। इसके बावजूद उन्हें निशाना बनाया गया है तो इसका प्रधान कारण उनका सभ्य और नरम स्वभाव"
    - यह शोकान्तिका तो सभी हिन्दुओं की है… एक-दो बार आक्रामक हुए भी (बाबरी मस्जिद और गुजरात) लेकिन तब "कौओं" ने इतनी कांव-कांव की, कि पूछिये मत…

    2) "सरसरी तौर पर इसका प्रधान कारण है कश्मीर प्रशासन का साम्प्रदायिक चरित्र और केन्द्र सरकार का साम्प्रदायिकता के प्रति नरम रुख"
    - देश की लगभग 90-95% समस्याओं के लिये कांग्रेस ही जिम्मेदार है।

    3) "आश्चर्य की बात है कि केन्द्र में 6 साल तक भाजपा के नेतृत्ववाली एनडीए सरकार के जमाने में भी कश्मीरी पंडितों की घर वापसी नहीं हो पायी"
    - यानी आप कहना चाहते हैं कि 50 साल में जो गोबर का ढेर एकत्रित किया हुआ था, वह सिर्फ़ 6 साल में साफ़ हो जाना चाहिये था? और वह भी 23 दलों के भरोसे चल रही NDA के शासन में? क्या भाजपा अकेले दम पर सत्ता में थी?

    4) "भारत में साम्प्रदायिक हिंसा के उस्ताद मुस्लिम साम्प्रदायिक संगठन रहे हैं। स्वातंत्र्योत्तर भारत में साम्प्रदायिक हिंसा का मूल पाठ हिन्दुत्ववादी संगठनों ने उनसे ही सीखा है"
    - यह बात कितनी भी सच हो, कांग्रेस और वामपंथियों को आप जैसे विद्वान भी नहीं समझा सकते…

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  2. सुरेश जी की बात का पूर्ण समर्थन करता हूं। वस्‍तुत: कांग्रेस आज से ही नहीं बल्कि आजादी के पहले से ही देश को पंगु बनाने में लगी है, पर जाने हम लोग कब समझेंगे इस बात को

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  3. कश्मीरी पंडितों के दर्द को इस आलेख में उकरेने हेतु आपका हार्दिक धन्यवाद.
    चलिए किसी ने तो समझा/माना कि हिन्दुओं में उग्रता पनपने का मुख्य कारण "साम्प्रदायिक हिंसा के उस्ताद मुस्लिम साम्प्रदायिक संगठन" रहे हैं और हैं भी. फिर भी छद्म धर्मनिरपेक्षी सरकार और लोग तुष्टिकरण का झंडा उठाए पड़े हैं...

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