गुरुवार, 30 सितंबर 2010

बाबरी मसजिद प्रकरण- कारपोरेट मीडिया के कलंकित कवरेज के सबक -2-

     टाइम्स सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के अध्ययन से अंग्रेजी दैनिकों के बारे में यह बात उभरती है कि ‘राजधानी के अंग्रेजी दैनिक सांप्रदायिकता भड़काने वालों में नहीं थे, वे सांप्रदायिकता भड़काने वालों को शह देनेवालों में थे। उनके लिए तर्क, सिद्धांत और व्याख्याएं जुटा रहे थे।’रिपोर्ट में यह बात रेखांकित हो गई है कि किस व्यक्ति के वक्तव्य को किस सीमा तक छापा जाए, इसका निर्णय हमें करना होगा। अराजक ढंग से बयान नहीं छापे जा सकते। किसी भी ट्रेन में या बस अड्डे पर कोई आदमी किसी मंत्री, प्रधानमंत्री को गाली देता हुआ मिल जाएगा तो क्या उसे छाप दिया जाए? यही हाल संपादक के नाम आनेवाले पत्रों का है। क्या पत्रों की भाषा और तेवर की कोई जिम्मेदारी अखबार पर नहीं है ? कोई अखबार ऐसे पत्रों को किस सीमा तक छूट देगा, यह तो उसे तय करना ही पड़ेगा।
यह भी सवाल उठाया जा सकता है कि पाठक को विचार-अभिव्यक्ति की छूट देने की आड़ में कहीं अखबार खुद अपना मकसद तो हल नहीं कर रहा है? मसलन, स्टेट्समैन में 4 नवंबर 1990 को एक पत्र छपा है जिसमें इस्लाम को असहिष्णु धर्म और हिंदुओं को सहनशील बताया गया। इसी पत्र में कहा गया कि राम मंदिर को बाबर ने नष्ट किया था। 21 अक्टूबर 1990 के अंक में एक पत्र छपा है, इसमें लिखा है कि बजरंग दल, शिवसेना, आरएसएस हिंदुत्व को बढ़ावा देने के लिए जाग्रत हो गए हैं। 22 अक्तूबर 1990 के अंक में छपे पत्र में कहा गया कि पाकिस्तान बन जाने के बाद अब  भारत हिंदुओं का है। सर्वे में लिखा है कि ‘पाठक लि सकता है। ऐसे पाठक तो हैं ही। लेकिन पाठक के पत्रों का संपादन तो होता होगा। ऐसे पत्रों को प्रकाशित होने देने का क्या मतलब निकाला जाए ?
‘टाइम्स सेंटर ऑफ मीडिया स्टडीज’ की रिपोर्ट में हिंदी पत्रों के विवेचन के क्रम में जनसत्ता (दिल्ली) का विवेचन करते हुए लिखा है कि ‘इस धखबार में 20 अक्तूबर से 3 नवंबर तक कोई भी दिन ऐसा नहीं रहा, जिस दिन रथयात्रा अयोध्या प्रकरण पर 15 से कम आइटम प्रकाशित हुए हों। किसी-किसी रोज तो यह संख्या 24-25 तक पहुंच गई है। यही हाल राजधानी से प्रकाशित होने वाले दूसरे अखबरों को भी था। भाषा संबंधी अध्ययन के लिए इस पत्र की भाषा का अध्ययन महत्वपूर्ण निष्कर्ष देता है। भाषा का सांप्रदायिक प्रयोग कैसे हो सकता है, उसकी यह पत्र मिसाल है। 3 नवंबर 1990 के जनसत्ता में प्रथम पृष्ठ पर छह कालम की रिपोर्ट छपी। लिखा था, ‘अयोध्या की सड़कें, मंदिर और छावनियां आज कारसेवकों के खून से रंग गईं। अर्द्धसैनिक बलों की फायरिंग से अनगिनत लोग मरे और बहुत सारे घायल हुए।’ यानी जो घायल हुए उनका तो कुछ अंदाजा लगाया जा सका- बहुत सारे थे लेकिन मरने वाले उससे भी ज्यादा थे। उन्हें गिना ही नहीं जा सकता था, अनगिनत थे।
बाबरी मस्जिद की जगह राममंदिर बनाए जाने की मांग पर उठे आंदोलन और 30 अक्तूबर से 2 नवंबर की घटनाओं में पुलिस फायरिंग से मरनेवालों की संख्या को 3 से 400 तक लिखे। पर, मरनेवालों की इतनी बड़ी सूची को आज तक किसी पत्र ने पेश नहीं किया और न ही विश्व हिंदू परिषद् ने ही जारी किया। विश्व हिंदू परिषद् ने जिन 59 लोगों की सूची जारी की थी, उसमें से अधिकांश व्यक्ति जिंदा हैं अथवा वे इस घटना में मारे ही नहीं गए, ये तथ्य अंग्रेजी पाक्षिक पत्रिका फ्रंट लाइन और हिंदी पाक्षिक पत्रिका माया के अंकों में पढ़ने से स्पष्ट होता है। इन दोनों पत्रिकाओं ने तथ्यों की छानबीन करके जो रिपोजदट छापी हैं, उनका खडडन करने का साहस किसी भी संगठन को नहीं हुआ। अत: पुलिस फायरिंग में मरे लोगों के बारे में अतिरंजना से बरें छापने के लिए दैनिक प्रतिष्ठानी पत्रों पर सबसे ज्यादा जिम्मेदारी है। एक्सप्रेस ग्रुप के समाचारपत्रों ने खुलकर भाजपा और विश्व हिंदू परिषद् के पक्ष की तरफदारी की और सांप्रदायिक दृष्टि के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
इस पक्षधरता का नमूना देखें : 27 अक्तूबर के जनसत्ता में निजी संवाददाता की एक रिपोर्ट छपी है। इस रिपोर्ट में लिखा है : ‘भारत के प्रतिनिधि राम और हमलावर बाबर के समर्थकों के बीच संघर्ष लंबा चलेगा।’
29 अक्तूबर 90 को निजी संवाददाता की रिपोर्ट छपी है। लिखा है : ‘श्रीमती सिंधिया ने कहा कि अगर एक भी रामभक्त पर गोली चली तो पूरे भारत में आग लगा दी जाए।’
4 नवंबर के अंक में निजी संवाददाता की रिपोर्ट में लिखा था कि ‘वृंदावन के स्वामी वामदेव महाराज ने कहा कि इस अवधि में कर्फ्यू हटाकर प्रशासन ने यदि कारसेवकों को राम जन्मभूमि में रामलला के दर्शन नहीं करने दिए तो बड़े पैमाने पर रक्तपात होगा।’
‘टाइम्स सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज’ के तत्वाधान में किए सर्वे में यह प्रश्न उठाया गया है कि ‘संवाददाता कह सकते हैं कि उन्होंने जो सुना, वहीं लिखा,लेकिन डेस्क पर बैठी संपादकीय टीम को तो यह तय करना पड़ेगा कि किसका बयान किस सीमा तक छापा जाए। इसी तरह सर्वे में बताया गया है कि 28 अक्तूबर को पहले पन्ने पर एक समाचार छपा जिसके शीर्षक में लिखा था, ‘भाजपा कार्यकर्ता ने आत्मदाह किया।’ पूरी बर पढ़ने से मालूम हो जाता है कि पुलिस ने घटना की जांच की थी और जांच से पता चला था कि श्री कपूर ने आत्मदाह नहीं किया था, यह एक महज दुर्घटना थी। इससे पहले 26 अक्टूबर को पहले पन्ने पर निजी संवाददाता की एक बर छपी थी, ‘अयोध्या में राममंदिर न बनने देने के सरकारी फैसले के खउलाफ पूरनचंद वर्मा ने रेल के नीचे कटकर जान दे दी।’बर में इस बात के प्रमाण नहीं थे। बर सिर्फ इतनी ही थी कि रेल पटरी पर जो कटी लाश मिली, उसकी शिनाख्त हुई। वह पूरनचंद वर्मा नाम के एक व्यक्ति की थी। बर में दिए गए तथ्यों से यह बात साफ हो जाती है कि राममंदिर के लिए कटकर जान देने की बात अपुष्ट है और किसी के दिमाग की उपज है। उपसंपादक उसे पकड़ सकता था।’
इस रिपोर्ट में अंग्रेजी पत्रों की छानबीन करते हुए जो बातें रेकांकित की गई हैं, वे भी गौरतलब हैं। खासकर प्रेस आयोग ने जिस तरह दिल्ली के प्रेस को निर्दोष और क्षेत्रीय हिंदी पत्रों को दोषी पाया है, वह पूरी तरह ठीक नहीं है। प्रेस आयोग ने अंग्रेजी पत्रों के सांप्रदायिक विष-वमन को अनदेखा किया है। यह कहीं न कहीं अंग्रेजी प्रेस के दबाव को ही दर्शाता है। अंग्रेजी का प्रेस साधन संपन्न, बौद्धिकता संपन्न माना जाता है। वह आभिजात्यों का प्रेस है तो हमारे देश के बौद्धिक और पुनरूत्पादन की रीढ़ है। यह प्रेस खुलकर सांप्रदायिक शक्तियों के साथ था। उदाहरण स्वरूप देखें
‘हिंदुस्तान टाइम्स’ (दिल्ली) ने हिंदू संप्रदायवादियों के समर्थन में ऐरे-गैरे लोगों के नाम से बयान छापे हैं। 21 अक्टूबर 1990 के हिंदुस्तान टाइम्स में निजी संवाददाता की रिपोर्ट का शीर्षक है, ‘राम टेंपल फर्वर इन गुजरात’ लिते हैं, (अनुवाद): ‘एक अंतर्निहित भावना कि मंदिर वहीं बनना चाहिए जहां राम का जन्म हुआ था। यह भावना न सिर्फ मध्य वर्गीय परिवारों एवं लोगों में बल्कि वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों, व्यापारियों, उद्योगपतियों एवं अन्य बुद्धिजीवियों में भी देखी गई।’
सर्वे रिपोर्ट में इस पर टिप्पणी की है कि  ‘संवाददाता महोदय यह तो कह सकता है कि उन्होंने लोगों में जो भावना देखी, वही लिखी और इसका प्रभाव क्या पड़ता है, यह देना उनका काम नहीं है। लेकिन वे यह नहीं कह सकते कि उन्होंने सिर्फ वही लिखा जो देखा क्योंकि उन्होंने राम, राम का भगवान होना और भूमि को उनकी जन्मभूमि बनते नहीं देखा था।’
 इस तरह 21 अक्तूबर को ही निजी संवाददाता की एक अन्य रिपोर्ट छपी थी शीर्षक है, ‘सेंटर टेक्स ओवर सेक्योरिटी ऑफ टेंपल’। सरकार विवादास्पद स्थल की सुरक्षा करेगी यह भी लिने की जरूरत महसूस नहीं की गई, सिर्फ मंदिर की सुरक्षा की बात लिखी गई। ऐसा इसलिए कि ऊपर से निष्पक्ष रिपोर्टिंग का मुलम्मा लगा है, अवचेतन में मंदिर ही बैठा है। 25 अक्टूबर को इसी पत्र में एक बर छपी,‘इंडियंस अब्रोड बैंक कारसेवा।’ इस शीर्षक से यह आभास मिलता है कि सभी आप्रवासी भारतीय ऐसा चाहते हैं,। जबकि वास्तविकता यह नहीं है। 26 अक्तूबर को बर छपी ‘मुस्लिम्स फॉर कारसेवा’ इसके मुकाबले यह खबर कभी नहीं छपी कि ‘हिंदूज अगेंस्ट डिमॉलिशन ऑफ मास्क’। जबकि, ऐसे हिंदुओं की तादाद काफी है।
यही स्थिति दैनिक हिंदू (दिल्ली) की भी थी। 23 अक्तूबर के अंक में एक बर है, ‘मुस्लिम लीडर्स क्वेश्चन मोस्कस एग्जिस्टेंस‌’। इसका आशय क्या है ? मुसलमान मस्जिद के मुद्दे पर विभाजित हैं लेकिन सही बात यह है कि हिंदू उससे ज्यादा विभाजित हैं। दिल्ली से प्रकाशित अंग्रेजी पत्रों के मुकाबले हिंदू का नजरिया कुछ निरपेक्ष इस अर्थ में था कि उसने किसी दिन सिर्फ राम जन्मभूमि नहीं लिखा। हमेशा ‘राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद’ लिखा। इसके विपरीत टाइम्स ऑफ इंडिया, दिल्ली की भूमिका सांप्रदायिकता को शह देने वाली ही थी।
20 अक्तूबर से 8 नवंबर तक इस प्रकरण पर छपने वाली बरों में मात्र 17 बरें बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमेटी या मुस्लिम समुदाय के किसी प्रतिनिधि तबके या संगठन से संबंध र¹ती हैं इसमें भी यह बरें दो या दो से अधिक कॉलम की हैं। शेष सभी सिंगल कॉलम की, जबकि 20 अक्तूबर से पांच नवंबर तक रोजाना इस प्रकरण पर बीस-बीस ¹बरें छपती रही हैं। मुश्किल से एक या दो दिन ऐसा रहा होगा जब पूरे अखबार में इस प्रकरण पर 17 से कम बरें छपीं।
‘टाइम्स सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज’ की रिपोर्ट में बताया है कि किसी व्यक्ति को हीरो बनाने में अखबार का इस्तेमाल किस तरह किया जाता है, यह जानना हो तो इंडियन एक्सप्रेस के 20 से 26 अक्तूबर 1990 के अंक दे लें। रिपोर्ट में इस अखबार के बारे में निष्कर्ष देते हुए लिखा कि ‘अखबार में इस दौरान छपी तस्वीरों और बरों से उसकी हिंदू-समर्थक छवि बनी। हिंदू नेताओं और साधु-महंतों की बरों और तस्वीरों को छापने पर खास ध्यान दिया गया।’
अंग्रेजी दैनिक स्टेट्समैन (दिल्ली) ने 20 अक्तूबर से 8 नवंबर तक रथयात्रा और मंदिर-मस्जिद प्रकरण पर करीब 424 बरें छापीं। यानी रोजाना 21 बरें।
स्टेट्समैन के संपादकीय तथा संपादकीय पृष्ठ के अन्य लेखों में सांप्रदायिक शक्तियों की आलोचना की गई पर बरों में हिंदुत्व को बढ़ावा दिया गया। बरों और चित्रों के कैप्शन में विवादास्पद स्थल को राम जन्मभूमि कहा गया। अयोध्या को रामनगरी लिखा गया।
18 अक्तूबर 1990 को स्टेट्समैन ने पांचवें पृष्ठ पर एक फोटो छापा। उसका कैप्शन था, ‘ड्रीमर इन क्वेस्ट आफ हिज ड्रीमलैंड’। प्रश्न उठता है क्या किसी भी तरह का सपना देने वाले को स्वप्नदर्शी कहा जा सकता है। इसी दिन इसी पृष्ठ पर एक बर में आडवाणी और हिंदू राष्ट्र की भावना को प्रोत्साहन दिया गया और कहा गया कि हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना कई लोगों का सपना है। कई लोगों का या भाजपा का ? कई लोग कहकर उसे भाजपा के दायरे से बाहर लाया गया। 30 अक्टूबर को छठे पृष्ठ पर दो कॉलम की बर में कहा गया कि शक का फायदा हिंदुओं को मिलना चाहिए और मुसलमानों को रहीम में राम देना चाहिए। यही अपील हिंदुओं से क्यों नहीं की गई?
1 नवंबर 1990 को एक लेख ‘बहुसंख्यकों की आत्मजागृति’ छपा, इस ले में कहा गया कि हिंदुओं को वर्षों से दबाया जा रहा है और आज जो भी हिंदू विद्रोह हो रहा है, वह इसी का नतीजा है।
प्रतिष्ठानी प्रेस के इस तरह के सांप्रदायिकीकरण के जरिए को अमूमन अनदेखा किया जाता है। कानूनी प्रावधानों के बावजूद सरकार इस तरह की बातें छपने देती है। तथाकथित स्वतंत्र प्रेस अपनी स्वतंत्रता के नाम पर अविवेकपूर्ण और तथ्यहीन पत्रकारिता में मग्न रहता है। प्रेस आयोग जैसे पंगु संस्थानों का ही इस तरह के लेन पर कोई नियंत्रण अथवा नियम लागू नहीं होता। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के कारण सैकड़ों लोगों की सांप्रदायिक दंगों में जानें गईं। अल्पसंख्यकों के मन में भय और आतंक का सृजन हुआ और सामाजिक तनाव को इससे विस्तार मिला। प्रेस आयोग ने भड़काऊ और तथ्यहीन ले के लिए हिंदी के क्षेत्रीय पत्रों को तो दोषी पाया, उनकी भर्त्सना की, पर दिल्ली के अंग्रेजी राष्ट्रीय दैनिकों को उसने टिप्पणी लायक भी नहीं समझा, जबकि इन पत्रों ने भी सांप्रदायिकता को शह देने वाले मुस्लिम विरोधी और तथ्यहीन बरों का अंबार लगा दिया। यह प्रेस आयोग की अंग्रेजियतपरस्ती और आभिजात्यवादी दृष्टि भी है। यह प्रेस आयोग का एकांगी दृष्टिकोण है।
हकीकत में यह माध्यम निर्मित यथार्थ का युग है। ‘माध्यम निर्मित यथार्थ’ के प्रभाववश हम ‘वस्तुगत यथार्थ’ देखने में असमर्थ होते जा रहे हैं। आज ‘वस्तुगत यथार्थ’ की प्रामाणिकता पर कम ‘प्रोजेक्टेड यथार्थ’ की प्रामाणिकता पर ज्यादा भरोसा करते हैं।
अभी तक हम पांच परंपरागत संवेदना इंद्रियों के माध्यम से जिस यथार्थ का अनुभव करते थे, उसमें और ‘प्रोजेक्टेड यथार्थ’ में अंतर करना बेहद कठिन हो गया है। आज हमारा पर्सेप्शन माध्यमों द्वारा निर्मित यथार्थ से निर्मित हो रहा है। आज विश्व में आलम यह है कि वह घटना , घटना ही नहीं मानी जाती जिसकी माध्यमों ने बर नहीं दी। ध्यान रहे कि जो बर रिपोर्ट की गई है जरूरी नहीं है कि वह घटित भी हुई हो। अधिकतर रिपोर्टिंग सुनिश्चित अनुमानों एवं पूर्वग्रहों के आधार पर तैयार होती है।
प्रसिद्ध माध्यम विशेषज्ञ पीटर ब्राह्म ने लिखा है कि तथ्य स्वयं के आधार पर टिके नहीं होते, बल्कि वे व्यापक स्तर पर फैले सुनिश्चित अनुमानों के तहत ही उनकी खोज करनी चाहिए और कौन या तथ्य स्टोरी के लिए महत्वपूर्ण है, यह निर्भर करता है कि कौन से निश्चित अनुमानों को आधार बनाया जाता है।




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