रविवार, 19 सितंबर 2010

राम मंदिर आंदोलन से साझा संस्कृति कमजोर हुई

           संघ परिवार ने जो राम मंदिर आंदोलन आरंभ किया था उससे धर्मनिपेक्षता कमजोर हुई तथा 'साझा संस्कृति' को गंभीर झटके भी लगे हैं। 'साझी विरासत' एवं 'साझा संस्कृति' को पिछले दशक में जितनी गंभीर चुनौती सांप्रदायिक विचारधारा ने दी है वह अब तक के इतिहास में बेमिसाल है। इसके कारण कुछ चिंतकों ने यह निष्कर्ष भी निकाल लिया कि 'कंपोजिट कल्चर' की अवधारणा खंडित हो गई है। और वस्तुत: यह अवधारणा ही गलत थी। 'कंपोजिट कल्चर' का खंडित होने का मतलब है, 'अनेकता में एकता की धारणा का खंडित होना क्योंकि 'अनेकता' अपनी पहचान के लिए छटपटा रही है, और 'एकता' से बाहर झांक रही है।
   इसी प्रसंग में एक अन्य नजरिया सांप्रदायिक शक्तियों का भी है वे 'साझा संस्कृति' की अवधारणा को 'अल्पसंख्यक तुष्टीकरण' का मूलमंत्र मानते हैं और बड़े ही जोर-शोर से इसी आधार से 'साझा संस्कृति' का विरोध भी कर रहे हैं। मूलत: ये दोनों दृष्टियां 'साझा संस्कृति' को खंडित मानती हैं, अगर कुछ बचा है तो इसके अलावा सबकुछ! बाबरी मस्जिद प्रकरण के दौरान मुस्लिम-हिंदू सांप्रदायिक विचारधारा ने अपने-अपने तरीके से साझा संस्कृति को नकारा एवं खंडित किया है पर क्या हम साझा संस्कृति की अवधारणा को बुर्जुआ संरचना एवं दृष्टिकोण से विश्लेषित करके सही नतीजे निकाल सकते हैं? मेरा मानना है, नहीं।
हमारे देश की साझा संस्कृति किसी एक नेता या संगठन के दिमाग का फितूर नहीं है और न ही यह इतनी कमजोर है कि उसे इतनी आसानी से तोड़ा जा सके। वह कोई धागा तो नहीं है कि जब मन आया तोड़ दिया। साझा संस्कृति को सांप्रदायिक विचारधारा से निश्चित रूप से तरा पैदा हुआ है पर इस तरे को न तो अतिरंजित करने की जरूरत है और न ही कम करने या नजरअंदाज करने की जरूरत है। साझा संस्कृति की अवधारणा का एक ऐतिहासिक प्रक्रिया एवं ऐतिहासिक अनिवार्यता के गर्भ से जन्म हुआ था ब्रिटिश शासकों के विरोध में साझा मोर्चा बने, हिंदू और मुस्लिम मिलकर लड़ें, यह राजनीतिक दबाव था जिसके कारण साझा संस्कृति पर बुर्जुआजी ने सबसे ज्यादा उस दौर में बल दिया था, इसका तात्कालिक लाभ भी हुआ था। पर बुर्जुआजी ने कंपोजिट कल्चर को सिर्फ राजनीति के सीमित अर्थ में, वह भी राजनीतिक समर्थन जुटाने भर के लिए इसका इस्तेमाल किया। इसके कारण राजनीतिक लामबंदी में कुछ समय के लिए तो सुविधा हुई पर बाकी प्रक्रिया को अधूरा छोड़ दिया। मसलन, संस्कृति के क्षेत्र में साझा संस्कृति के उन्नयन के लिए जो संघर्ष किया जाना था वह नहीं किया गया। साथ ही, उसे राजनीतिक संघर्ष से नहीं जोड़ा। राजनीति अलग और संस्कृति अलग और इन दोनों के संघर्ष भी अलग-अलग। बुर्जुआजी ने साझा संस्कृति का नारा उछालकर सन् 1919 में
राजनीतिक संघर्ष को तो चरम पर पहुंचा दिया था पर उस समय संस्कृति के क्षेत्र में संघर्ष सबसे कमजोर शक्ल में था। अगर राजनीतिक एवं सांस्कृतिक संघर्ष को अभिन्न अंग से चलाया गया होता तो यह स्थिति न होती। अगर राजनीतिक संघर्ष शक्तिशाली हो तथा चरम पर हो, सांस्कृतिक संघर्ष से द्वंद्वात्मक रिश्ता हो तो सांस्कृतिक क्षेत्र में जो पिछड़ी सामाजिक शक्तियां हैं, उन्हें संघर्ष में शामिल करने,   उनका सांस्कृतिक संस्कार बदलने में आसानी होती है पर स्वाधीनता संग्राम में ऐसा नहीं हो पाया। राजनीतिक संघर्ष तेज होते चले गए और संस्कृति के क्षेत्र का पिछड़ापन कायम रहा। पिछड़ी हुई सामाजिक शक्तियां लोकप्रिय जनता को इस प्रक्रिया में अपनी विचारधारा से प्रभावित करने में सफल रहीं और संस्कृति के क्षेत्र में उन्होंने वर्र्चस्व हासिल कर लिया।
राष्ट्रवादी बुर्जुआ नेतृत्व ने साझा संस्कृति के नाम पर सांस्कृतिक पुनर्जागरण की कोई कोशिश ही नहीं की। यहां प्रश्न उठता है कि उसने ऐसा क्यों किया? इसका प्रधान कारण यह था कि राष्ट्रवादी बुर्जुआ नेतृत्व सामाजिक सुधार एवं सांस्कृतिक जनजागरण को राजनीतिक संघर्ष में बाधक मानता था। वे डरे हुए थे कि उपनिवेश विरोधी राजनीतिक संघर्ष इससे कहीं विघटित न हो जाए। दूसरी बात यह थी कि कंपोटिज कल्चर की बात कहकर वे भीड़ तो जुटाना चाहते थे पर उसके सांस्कृतिक पक्ष को छूना नहीं चाहते थे। इसका परिणाम यह निकला कि सांस्कृतिक संघर्ष ने धार्मिक आधारों पर अपनी दिशा ग्रहण कर ली। स्वाधीनता संघर्ष के दौरान राजनीतिक संघर्ष का जिम्मा जिस दल के पास था, उसके पास सांस्कृतिक संघर्ष का जिम्मा नहीं था। राजनीतिक एवं सांस्कृतिक संघर्ष करने वाले संगठन अलग-अलग थे। कालांतर में सुधारवादी संगठनों के सांस्कृतिक संघर्षों ने धार्मिक आवरण धारण कर लिया और सांप्रदायिक विचारधारा के लिए सबसे बड़ी ऊर्जा का काम किया। इसके कारण साझा संस्कृति कमजोरी हुई और कमजोर धर्मनिरपेक्षता पैदा हुई। यह इतनी कमजोर थी कि संस्कृति के आवरण में छिपी सांप्रदायिकता की जरा-सी आक्रामक मुद्रा भी उसे झुकने के लिए मजबूर कर देती थी।
'साझा संस्कृति' की विरासत भारतीय समाज में बड़ी पुरानी है। पर विरासत को ओढ़ा नहीं जाता। इससे विरासत जिंदा नहीं रहती। बुर्जुआजी ने इस विरासत को ओढ़ लिया था और सीमित हद तक 'राजनीतिक लामबंदी' के लिए इसका प्रयोग किया था। इससे न तो साझा संस्कृति समृद्ध हुई और न ही धर्मनिरपेक्षता मजबूत हुई बल्कि संस्कृति एवं राजनीति के बीच में विभेदक रेखा खींचने के कारण सांप्रदायिकता को लाभ हुआ। यह कार्य बुर्जुआजी ने किया था क्योंकि वस्तुत: वह संस्कृति मात्र का शत्रु होता है, चाहे वह ब्रिटिश बुर्जुआ हो या भारतीय राष्ट्रवादी बुर्जुआ दोनों ने अलग-अलग ढंग से एक ही काम अंजाम दिया। आज 'साझा संस्कृति' अगर बची हुई है तो जनता की संघर्ष भावना के कारण।
  






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