सोमवार, 27 सितंबर 2010

प्रगतिशील परंपरा- 'दुनिया के अंधेरे कोने'- फिदेल कास्त्रो

     हम बहुत मुश्किल समय में रह रहे हैं। हाल के महीनों में हमने दिल दहलाने वाले शब्द और विचार सुने हैं। वेस्ट प्वाइंट के कैडिटों को 1 जून 2002 को दिए गए भाषण में अमरीका के राष्ट्रपति ने यह घोषणा की :
'हमारी सुरक्षा के लिए आपकी सेना के रूप को बदलना होगा उसे ऐसी सेना बनाना होगा जो एक क्षण की सूचना पर दुनिया के किसी अंधेरे कोने पर आघात कर सके।'
उसी दिन उसने रोकथाममूलक तथा औचक युध्द के सिध्दांत की घोषणा की। विश्व के राजनीतिक इतिहास में पहले कभी ऐसी बात नहीं सुनी गई। इसके कुछ महीनों बाद इराक के खिलाफ अनावश्यक लेकिन लगभग तयशुदा कार्रवाई का उल्लेख करते हुए उसने घोषणा की कि यदि उन्हें लड़ने के लिए बाध्य किया गया तो वे अपनी सशस्त्र सेनाओं की पूरी ताकत के साथ लड़ेंगे।
यह बात किसी छोटे और कमजोर देश की सरकार ने नहीं कही थी। यह बात दुनिया के सबसे धनवान देश और सैनिक ताकत के प्रमुख ने कही जिसके पास दुनिया को कई बार नष्ट कर देने में सक्षम हजारों परमाणु हथियार हैं तथा व्यापक विनाश की भयंकर सैनिक विधियां हैं।
हम क्या हैं : 'दुनिया के अंधेरे कोने।' कुछ लोग तीसरी दुनिया के देशों को इसी रूप में देखते हैं। हमारी इससे बेहतर व्याख्या किसी ने नहीं की होगी और न ही किसी ने इतना तिरस्कार किया होगा। जिन शक्तियों ने दुनिया को बांट कर शताब्दियों तक लूटा उनके पूर्व उपनिवेश हम विकासशील देशों के समूह के रूप में जाने जाते हैं। हममें से कोई भी पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं है, किसी के साथ उचित और बराबरी का व्यवहार नहीं होता, किसी की भी राष्ट्रीय सुरक्षा नहीं है; किसी के पास भी वीटो का अधिकार नहीं है, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संगठनों में कोई फैसला नहीं ले सकता है, कोई अपनी प्रतिभाओं को अपने पास नहीं रख सकता है,कोई पूंजी पलायन, आर्थिक दृष्टि से विकसित देशों के फिजूलखर्च, स्वार्थी और अतिलालची उपभोक्तावाद के कारण प्रकृति और पर्यावरण के विनाश से खुद को नहीं बचा सकता।
1940 के दशक के कत्लेआम के बाद हमसे शांतिपूर्ण दुनिया, अमीर और गरीब के बीच कम खाई तथा अत्यधिक विकसित देशों द्वारा कम विकसित देशों की सहायता का वायदा किया गया था। यह सब बहुत बड़ा झूठ था। उन्होंने हमारे ऊपर न चल सकने वाली तथा असह्य विश्व व्यवस्था लाद दी है। दुनिया को एक रास्ते वाली गली में ले जाया जा रहा है। सिर्फ 150 साल में हमने वह गैस और तेल खत्म कर दिया है जिसे इकट्ठा करने में धरती को 30 करोड़ वर्ष लगे।
      केवल 100 सालों में आबादी में 1.5 अरब की वृध्दि हुई। अब यह आबादी 6 अरब  है। उन्हें उस ऊर्जा स्रोत पर निर्भर रहना पड़ेगा जिसकी अभी खोज हो रही है और विकास किया जा रहा है। गरीबी बढ़ रही है। नई-पुरानी बीमारियों से पूरे राष्ट्रों के खत्म हो जाने का खतरा है। मिट्टी कट रही है और उसकी उर्वरता समाप्त हो रही है। जलवायु बदल रही है। हवा, पीने का पानी और समुद्र लगातार दूषित होते जा रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्य में बाधा पैदा की जाती है और उसे नष्ट किया जा रहा है; विकासशील देशों के लिए सहायता कम कर दी गई है; तीसरी दुनिया के देशों से 2.5 खरब अमरीकी डालरों का कर्ज चुकाने के लिए कहा जाता है। मौजूदा हालात में इसे चुकाना असंभव है। दूसरी ओर परिष्कृत तथा मारक हथियारों पर प्रतिवर्ष खरबों डालर खर्च किए जाते हैं। किसलिए ?
इतना ही धन करोड़ों-करोड़ लोगों में उपभोक्तावादी भूख पैदा करने के लिए विज्ञापनों में खर्च किया जा रहा है। क्यों और किसके लिए? मनुष्य की अपनी बेवकूफी के कारण हमारी पूरी जाति के तबाह हो जाने का खतरा है। हम सब उनकी 'सभ्यता' के शिकार हैं। लेकिन हम बहुसंख्यकों के लिए कोई नहीं लड़ेगा। यह कार्य हमें ही करना पड़ेगा। इसके लिए हमें विकसित देशों के लाखों श्रमिकों और बुद्धिजीवियों को साथ लेना होगा जो यह देख रहे हैं कि यह महाविपत्ति उनके अपने देशों को प्रभावित करेगी। विचार बोने होंगे, जागरूकता पैदा करनी होगी, दुनिया तथा अमरीकी लोगों में जनमत तैयार करना होगा। तभी हमारी जाति को बचाया जा सकेगा।उन्हें कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है। यह बात आप अच्छी तरह से समझते हैं। हमारा सबसे पवित्र काम संघर्ष है और हम संघर्ष करते रहेंगे!






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