सोमवार, 23 जून 2014

" अपनी अपनी आधुनिकता " के बहाने


हरबंस मुखिया ने तद्भव पत्रिका ( अप्रैल २०१३)में " अपनी अपनी आधुनिकता "शीर्षक से एक लेख लिखा है ।
आधुनिकता के जिन कारकों का उन्होंने ज़िक्र किया है उनमें अधिकांश कारक इतिहास विमर्श में पुंसवाद की कोटि में आते हैं फलत:इससे जो विमर्श बनता है वह पुंसवाद की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर पाता ।

इस लेख में आधुनिकता के जिन कारकों का ज़िक्र किया गया है वे सभी प्रचलन में हैं और उनके विभिन्न देशों में अनुयायी भी हैं। आधुनिकता का कोई भी विमर्श स्त्री और वर्णव्यवस्था या जातिप्रथा के प्रति परिवर्तनकामी नजरिए के बिना नहीं बनता। मुखिया ने इन दोनों ही पहलुओं की अनदेखी की है। वे अपने लेख में स्थल और समय को ही आधार बनाते हैं। दिलचस्प बात है कि वे आधुनिकता के सभी किस्म के आधारों की चर्चा करते हैं लेकिन स्त्री और वर्णव्यवस्था को उसमें शामिल नहीं करते।

सवाल यह है कि आधुनिक या आधुनिकता की कोई परिभाषा स्त्री के बिना संभव है ? आधुनिकता की कोटियाँ स्त्री को नजरअंदाज क्यों करती हैं ?


आधुनिकता के सभी विमर्श इसीलिए अधूरे साबित हुए हैं क्योंकि वे स्त्री की मुक्ति के सवालों को सम्बोधित नहीं करते ।हरिवंश मुखिया ने माना है आधुनिकता का अस्थाई चरित्र है और हम उसके इस अस्थायी चरित्र को स्वीकारें । आधुनिकता को परिवर्तनशील मानें । उसके नाम परिवर्तन की संभावनाओं को भी मानें । लिखा है, "अत: यह आवश्यक है कि हम इसके अस्थायी चरित्र को स्वीकार करें और इसकी परिवर्तनशीलता से साक्षात्कार करें । यूँ भी बाइसवीं या तेइसवीं सदी में अठारवीं ,उन्नीसवीं व बीसवीं सदी को 'आधुनिक ' माना जाना लगभग असंभव लगता है । जाहिर है कि प्राचीन , मध्यकालीन व आधुनिक की जगह विश्लेषण की कुछ नयी श्रेणियाँ ले लेंगी जिनका अनुमान हम नहीं लगा सकते । "" यह समय है कि हम उस दिशा की तरफ़ चलना शुरू करें । एक क़दम शायद यह हो कि हम घने मूल्ययुक्त प्राचीन, मध्यकाल व आधुनिक की श्रेणियों से मुक्ति पा लें और उनके स्थान पर मूल्य उदासीन श्रेणियों का प्रयोग करना शुरू करें - जैसे पूर्व, सम्प्रति, हाल ,समकालीन आदि । या इतिहासकाल के लिए सहस्राब्दी, शताब्दी, दशक आदि का प्रयोग करें जो कि केवल समय के वर्णन की इकाइयां हैं । यह प्रस्थान की दिशा में अदना सा क़दम होगा । लेकिन बहुत लम्बे सफ़र आखिर एक अदना क़दम से ही शुरू होते हैं । "( तद्भव,p.90)


मुखिया ने यहाँ कई महत्वपूर्ण पहलुओं की ओर ध्यान खींचा है । पहला, आधुनिकता परिवर्वतनशील है इसका कोई भी नाम रख सकते हैं । दूसरा , आधुनिकता की धारणाओं को अतीत में ले जाने की आवश्यकता नहीं है । रामविलास शर्मा और पुरूषोत्तम अग्रवाल यही काम करते रहे हैं । वे मध्यकाल में आधुनिकता खोज रहे हैं । तीसरा , आधुनिकता का नाम बदला जा सकता है । नाम की रुढि से बचने की ज़रूरत है । चौथा, मूल्य की बजाय मूल्यहीन केटेगरी का प्रयोग आरंभ करें।


हरबंस मुखिया ने रेखांकित किया है , " हमें यह स्वीकार कर लेना आवश्यक है कि 'आधुनिकता ' का मुद्दा जो सदियों से अब तक विवादमुक्त चला आ रहा था, अब विवादों से घिर गया है और इसके एकांगी चरित्र की जगह विविधता ने ले ली है ;यह मानना भी आवश्यक है कि हम पहले जैसे विश्वस्त एक स्वरीय सूत्रों से बहुस्तरीय व्याख्याओं की ओर अग्रसर हो चुके हैं जहां से वापसी असम्भव है ।यह प्रगति आर्थिक व्यवस्था और उससे भी अधिक महत्वपूर्ण ज्ञान के विश्वीकरण के संदर्भ में हुआ है जिसमें अनेक दबी हुई आवाजें बुलंद हुई हैं और अनेक नये प्रश्न किये जा रहे हैं जोपहले कभी नहीं किये गये थे । सामाजिक विज्ञानों और दर्शन में निश्चयवाद व मार्क्सवाद की निश्चिंतिताओं से हटकर अर्थों के विविध स्तरों कीओरप्रगति हुई है । "

मुखिया नेयहां माना है कि आधुनिकता आज विवादास्पद है , सवाल यह है कि इसे विवादास्पद किसने बनाया ? इसे विवादास्पद बनाया उत्तर आधुनिकों ने,हमें उनका आभारीहोना चाहिए कि उनके आलोचनात्मक हस्तक्षेप के बाद आधुनिकता के बनाए सारे मानक सवालों के घेरे में आ गए । उत्तर आधुनिक समीक्षा के दबावों के कारण ही आधुनिकता की एक स्वरीयता ख़त्म हुई । विविधता की धारणा को मान्यता मिली ।


इसके अलावा बायनरी अपोजीशन की अवधारणा का जमकर इस्तेमाल हुआ , इसके कारण 'दबी हुई आवाजें बुलंद हुईं । ' 'बायनरी अपोजीशन 'को उत्तर संरचनावादियों ने महत्ता और स्वीकृति दिलाई ।


मुखिया ने 'ज्ञान के विश्वीकरण ' की तरफ़ ध्यान खींचा है और उसे एक कारक के रुप में रेखांकित किया है । ज्ञान के वैश्वीकरण में संचारक्रांति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । उल्लेखनीय है कि आधुनिकता के जिन प्रधान कारकों को समय और स्थल के आधार पर मुखिया ने विश्लेषित किया है वे कारक संचारक्रांति के कम्प्यूटर पैराडाइम आने के साथ अप्रासंगिक हो गए हैं । इस प्रक्रिया में ईंधन का काम किया उपग्रह प्रणाली ने इसके कारण ज्ञान , अवधारणा आदि के समस्त विमर्श देश-काल और राष्ट्र की सीमा का अतिक्रमण कर गए हैं । यही वजह है कि हम विविधता के पक्ष में खड़े हैं और आधुनिकता के परिवर्तन की बातों पर सोच रहे हैं ।

आज आधुनिकता का विमर्श ज्ञान से बेदखल हो गया है और उसकी जगह जीवनशैली के सवाल केन्द्र में आ गए हैं ।जीवनशैली के प्रसंगों को हरिवंश मुखिया ने छूने की ज़रूरत ही महसूस नहीं की ।

आधुनिकता को जब ज्ञान की बजाय जीवनशैली के सवालों की कसौटी पर कसने के प्रयास किए जाएंगे तो समस्या के मूल सवाल ही बदल जाएंगे । कहने का आशय यह है कि टेलीकम्युनिकेशन और जीवनशैली को आधुनिकता विमर्श में शामिल किए बिना कोई नया पैराडाइम नहीं बनता । हरबंस मुखिया ने आधुनिकता विमर्श में कम्युनिकेशन ,जीवनशैली और टेलीकम्युनिकेशन को शामिल न करके जो खाका खींचा है उसमें गतिशील तत्व नदारत हैं । आधुनिकता को गतिशील ,विविधतापूर्ण और नयी संभावनाओं से भरी देखने के लिए इन तत्वों को आधुनिकता विमर्श में शामिल करना ज़रूरी है । एक अन्य तत्व है जिस पर कम ध्यान गया है वह है मध्यकाल या आधुनिककाल में स्त्रीमुक्ति या स्त्री के प्रति नज़रिया क्या है ? स्त्री को मुक्ताकाश दिए बिना आधुनिकता का विकास संभव नहीं है ।

भारत के संदर्भ में जो विचारक मध्यकाल में ही आधुनिकता की खोज करके ले आए हैं वे ज़रा नए सिरे से अपने संदर्भों को स्त्री के प्रति मध्यकालीन लेखकों के नजरिए और कम्युनिकेशन के संदर्भ में खोलकर विचार करें । स्त्री के प्रति मुक्तिकामी या प्रगतिशील नजरिए के बिना आधुनिकता का विकास संभव नहीं है ।

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