गुरुवार, 26 जून 2014

थानेदार यूजीसी का बेसुरापन

        डीयू में बीए में दाखिले को लेकर यूजीसी रोज सर्कुलर इस तरह जारी कर रहा है गोया वो छात्रों का सबसे बड़ा रखवाला हो ! सच यह है यूजीसी केन्द्र सरकार का पिछलग्गू संस्थान है। दिविवि और यूजीसी की टकराहट में विवि प्रशासन के जिद्दीभाव ने काफी मुश्किलें खड़ी की हैं। मुझे एक वाकया याद आ रहा है सन् 1983 में जेएनयू में किसी समस्या पर आंदोलन हुआ जेएनयू प्रशासन और छात्रों के बीच टकराव हुआ।समूचा छात्र आंदोलन कुचल दिया गया। नरसिंहा राव शिक्षामंत्री थे। मैं उन दिनों जेएनयू में एसएफआई का अध्यक्ष था।छात्रसंघ पर समाजवादी युवजनसभा का कब्जा था। समूचा छात्र समुदाय एकजुट होकर संघर्ष कर रहा था।

छात्र आंदोलन का दमन करते हुए विश्वविद्यालय प्रशासन ने विश्वविद्यालय को अनिश्चितकाल के लिए बंद कर दिया। छात्रावास खाली करा दिए गए। यह आंदोलन मई1983 में हुआ था। विश्वविद्यालय प्रशासन ने सभी नियम कायदे तोड़कर सारी नीतियां बदल दीं। किसी से राय नहीं ली,किसी की राय नहीं सुनी। छात्र,शिक्षक,कर्मचारी संगठनों की राय नहीं मानी और नहीं विभागों में बैठक हुई,नहीं बोर्ड आफ स्टैडीज की मीटिंग हुई।

जेएनयू की सारी नीतियां शिक्षा मंत्रालय के आदेश से एक ही एसी मीटिंग में चंद मिनटों में बदल दी गयीं। जुलाई में होने वाले नए सत्र के दाखिले नहीं किए गए। पहलीबार किसी केन्द्रीय विश्वविद्यालय में नए दाखिले नहीं हुए। पुराने छात्र कोर्स खत्म करके चले गए। जेएनयू की छात्र संख्या मई 1983 में 3000के आसपास थी जो जुलाई में घटकर 1400 के आसपास हो गई। 400छात्रों पर 18 धाराओं में झूठे मुकदमे ठोक दिए गए। 170 से अधिक छात्रों को निष्कासित कर दिया गया। हमसभी छात्रों ने इस सबके खिलाफ यूजीसी को कईबार ज्ञापन दिया। नए सत्र में दाखिले की मांग की। अलोकतांत्रिक ढ़ंग से नीतियों के बदले जाने का विरोध किया।यह भी बताया कि जेएनयू की नीतियां बदलने के पहले विभिन्न स्तरों पर सहमति नहीं ली गयी। किसी भी वर्ग की राय नहीं ली गयी। यहां तक कि जेएनयू की दाखिलानीति तक बदल दी गयी जो संसद से स्वीकृत थी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने हस्तक्षेप करने से मना कर दिया।

उल्लेखनीय है जेएनयू के इस नीतिगत परिवर्तन के विरोध में हम सभी छात्रों ने हर स्तर पर गुहार लगायी। पीएम,राष्ट्रपति,यूजीसी,सभीदलों के सांसदों आदि सबसे अनुरोध किया अंत में परिणाम जीरो निकला। जेएनयू में जुलाई 1983 में दाखिले नहीं हुए। प्रशासन ने नई नीतियों के तहत एक साल बाद दाखिले लिए ,हमलोगों ने जुलाई 1983 में वि वि खुलने पर पूरे साल संघर्ष चलाया यूजीसी दसियों बार गए लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। यूजीसी का यही कहना था कि विश्वविद्यालय स्वायत्त है हम कुछ नहीं कर सकते।

कोई भी व्यक्ति जेएनयू के जुलाई1983 में दाखिले न लिए जाने की सच्चाई जेएनयू जाकर या उस समय के अखबार पढ़कर जान सकता है। कोई अखबार नहीं है जिसने जेएनयू के छात्रों की खबर को प्रथम पन्ने पर न छापा हो। लेकिन न तो केन्द्र सरकार ने सुना और नहीं यूजीसी ने। सभी ने यही कहा हम हस्तक्षेप नहीं कर सकते। लेकिन इधर दिविवि के खिलाफ शिक्षकों और छात्रों के आंदोलन के पक्ष में एक साल बाद यूजीसी की अति सक्रियता चिन्ता पैदा करती है। यूजीसी रोज दाखिले शुरु करने के लिए दबाव डाल रहा है। धमकियां दे रहा है।



जबकि यही सक्रियता जेएनयू के प्रसंग में गायब थी। जेएनयू में जो कुछ विश्वविद्यालय कर रहा था वह केन्द्र सरकार की अनुमति से कर रहा था। फलतःयूजीसी भी उस पाप में शामिल हो गया।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और डीयू के टकराव का सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि विश्वविद्यालय की नीतियां बनाने , कोर्स आदि बनाने के बारे में फैसले लेने की हक किसको है ? यूजीसी की क्या भूमिका है औरकहां तक है ? इस मसले पर कायदे से अदालत से स्पष्ट नीतिगत निर्देश लेने की जरुरत है।इसके लिए दिविवि के दाखिले यदि कुछ विलम्ब से भी हो सकते हैं। अदालत के हस्तक्षेप की जरुरत इसलिए भी है क्योंकि यूजीसी ने अपने कार्यक्षेत्र का अतिक्रमण किया है। वह थानेदार की भूमिका में उतर आया है।



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